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मंगलवार, 17 दिसंबर 2024

दिसंबर १७, नवगीत, अमलतास, सरदार पटेल, दोहे, मुक्तक

सलिल सृजन दिसंबर १७
*
दोहे
चटक धूप सह खिल रहा, अमलतास है धन्य। 
गही पलाशी विरासत, सुमन न ऐसा अन्य।। 
*
कनकाभित सौंदर्यमय, अमलतास शुभ भव्य।
कली-पुष्प पीताभ लख, करिए कविता नव्य।।
*
तन जर्जर तब तक युवा, जब तक हृदय किशोर।
अमा तिमिर से डर नहीं, निकट सुनहरी भोर।।
नर नरेंद्र पहचानिए, अगर आत्म संतुष्ट।
असंतुष्ट सुरेंद्र भी, कब हो सकता पुष्ट।।
भाव न पाए भावना, जहाँ वहीं बाजार।
घर में रक्षा भाव की, करना बढ़े प्रभाव।।
श्री धर श्रीधर मौन क्यों, बाँटें तनिक प्रसाद।
चिंतन-चिंता जरूरी, ज्यों भोजन में स्वाद।।
१६.१२.२०२४
मुक्तक
बोल जब भी जुबान से निकले।
पान ज्यों पानदान से निकले।।
बात में घोल दे गुलकंद 'सलिल'
चाँद ज्यों आसमान से निकले।।
१७.१२.२०२३
***
दोहा सलिला
शंभु नाथ सब सृष्टि के, उमानाथ जगदीश।
रहें सलिल पर सदय प्रभु, सह पार्वती गिरीश।।
*
रेखा खींचे भक्ति की, हो जिज्ञासु विवेक।
पुष्पा सरला मुकुल मन, वसुधा हर्षित नेक।।
*
दें संतोष सुरेश आ, राम नाम अविनाश।
सुख-दुःख में तजिए नहीं, धीरज रहें सुभाष।।
*
रहे सुनीता ज़िंदगी, हँस मर्यादापूर्ण।
सुधा राम का नाम ले, अहंकार हो चूर्ण।।
*
विषपायी प्रिय राम को, शंकर को प्रिय राम।
सलिल न भरमा नित्य जप, दोनों का ही नाम।।
*
रत रहते हैं राम में, जो वे भरत महान।
धर्म नहीं है भरत बिन, भरत राम का मान।।
*
पीताम्बर मर्याद है, नीलाम्बर है अंत।
रक्ताम्बर से नाश हो, श्वेताम्बर है संत।।
*
धर्म-प्रेम का पथ चुनें, प्रेम-धर्म रख साथ।
जब तब ही साकार हों, भरत और रघुनाथ।।
*
धर्म-प्रेम की राह में, हो न हार; नहिं जीत।
प्रेम-धर्म के पंथ पर, कर जो चाहे मीत।।
*
प्रेम-धर्म संयोग का, भक्ति भाव है नाम।
भक्ति और अनुरक्ति में, नहीं भेद का काम।।
***
सॉनेट
नमन
*
तूलिका को, रंग को, आकार को नमन ।
कल्पना की सृष्टि, दृष्टि ईश का वरदान।
शब्द करें कला-ओ-कलाकार को नमन।।
एक एक चित्र है रस-भावना की खान।।
रेखाओं की लय सरस सूर-पद सुगेय।
वर्तुलों में साखियाँ चित्रित कबीर की।
निराला संसार है प्रसाद शारदेय।।
भुज भेंटती नीराजना, दीपशिखा भी।।
ध्यान लगा, खोल नयन, निरख छवि बाँकी।
ऊँचाई-गहराई-विस्तार है अगम।
झरोखे से झाँक, है बाँकी नवल झाँकी।।
अधर पर मृदु हास ले, हैं कमल नयन नम।।
निशा-उषा-साँझ, घाट-बाट साथ-साथ।
सहेली शैली हरेक, सलिल नवा माथ।।
१७-१२-२०२१
***
सॉनेट
गुरुआनी
*
गुरुआनी गुरु के हृदय, अब भी रहीं विराज।
देख रहीं परलोक से, धीरज धरकर आप।
विधि-विधान से कर रहे, सारे अंतिम काज।।
गुरु जी उनको याद कर, पल-पल सुधियाँ व्याप।।
कवि-कविता-कविताइ का, कभी न छूटे साथ।
हुई नर्मदा की सुता, गंगा-तनया मीत।
सात जन्म बंधन रहे, लिए हाथ में हाथ।।
देही थी अब विदेही, हुई सनातन प्रीत।।
गुरुआनी जी थीं सरल, पति गौरव पर मुग्ध।
संस्कार संतान को, दिए सनातन शुद्ध।
व्रत-तप से हर अशुभ को, किया निरंतर दग्ध।।
संगत पाकर साँड़ भी, गुरु हो पूज्य प्रबुद्ध।।
दिव्यात्मा आशीष दे, रहे सुखी कुल वंश।
कविता पुष्पित-पल्लवित, हो बन सुधि का अंश।।
१६-१२-२०२१
***
छंद सलिला
रूपमाला
२४ मात्रिक अवतारी जातीय छंद
*
पदभार २४, यति १४-१०, पदांत गुरु लघु।
विविध गणों का प्रयोग कर कई मापनियाँ बनाई जा सकती हैं।
उदाहरण
रूपमाला फेरता ले, भूप जैसा भाग।
राग से अनुराग करता, भोग दाहक आग।।
त्यागता वैराग हँसकर, जगत पूजे किंतु-
त्याग देता त्याग को ही, जला ईर्ष्या आग।।
कलकल कलकल अमल विमल, जल प्रवह-प्रवहकर।
धरणि-तपिश हर मुकुलित मन, सुखकर दुख हरकर।।
लहर-लहर लहरित मुखरित, छवि मनहर लखकर-
कलरव कर खगगण प्रमुदित, खुश चहक-चहककर।
जो बोया सो काटेगा, काहे को रोना।
जो पाया सो खोएगा, क्यों जोड़े सोना?
आएगा सो जाएगा, छोड़ेगा यादें-
बागों के फूलों जैसे, तू खुश्बू बोना
१७-१२-२०२०
***
नवगीत
आओ! तनिक बदलें
*
प्रिय! मिलन, सहकार के
नवगीत कुछ रच लें।
*
सिर्फ स्यापा ही नहीं,
मुस्कान भी सच है।
दर्द-पीड़ा है अगर, मृदु
हास भी सच है।।
है विसंगति अगर तो
संगति छिपी उसमें-
सम्हल कर चलते चलें,
लड़कर नहीं फसलें।।
समय है बदलाव का,
आओ! तनिक बदलें।
प्रिय! मिलन, सहकार के
नवगीत कुछ रच लें।
*
बैठ ए. सी. में अगर
लू लिख रहे झूठी।
समझ लें हिम्मत किसी की
पढ़ इसे टूटी।
कौन दोषी कवि कहो
पूछे कलम तुझसे?
रोकते क्यों हौसले
नव गीत में मचलें?
पार कर सरहद न ग़ज़लें
गीत में धँस लें।।
प्रिय! मिलन, सहकार के
नवगीत कुछ रच लें।
*
व्यंग्य में, लघुकथा में,
क्यों सच न भाता है?
हो रुदाली मात्र कविता,
क्यों सुहाता है?
मनुज के उत्थान का सुख
भोगते हो तुम-
चाहते दुःख मात्र लिखकर
देश को ठग लें।
हैं न काबिल जो वही
हर बात का यश लें।
प्रिय! मिलन, सहकार के
नवगीत कुछ रच लें।
१६-१२-२०१८
***
राष्ट्र निर्माता सरदार पटेल
जन्म- ३१.१०.१८७५, नाडियाद, बंबई रेसीड़ेंसी (अब गुजरात), आत्मज- लाड बाई-झबेर भाई पटेल, पत्नी- झबेर बा, भाई- विट्ठल भाई पटेल, शिक्षा- विधि स्नातक १९१३, पुत्री- मणि बेन पटेल, पुत्र- दया भाई पटेल, निधन- १५ दिसंबर १९५०। १९१७- सेक्रेटरी गुजरात सभा, १९१८- कैरा बाढ़ के बाद 'कर नहीं' किसान आन्दोलन, असहयोग आन्दोलन हेतु ३ लाख सदस्य बनाये, १.५० लाख रूपए एकत्र किए, १९२८ कर वृद्धि विरोध बारडोली सत्याग्रह, १९३० नमक सत्याग्रह कारावास, १९३१ गाँधी-इरविन समझौता मुक्ति, कोंग्रेस अध्यक्ष कराची अधिवेशन, १९३४ विधायिका चुनाव, नहीं लदे, दल को जयी बनाया, १९४२ भारत छोडो, गिरफ्तार, १९४५ रिहा, १९४७ गृह मंत्री भारत सरकार, ५६२ रियासतों का एकीकरण, १९९१ भारत रत्न।
***
गीत-
राजनीति के
रंगमंच पर
अपनी आप मिसाल थे.
.
गोरी सत्ता
रौंद अस्मिता भारत की मदमाती थी.
लौह पुरुष की
राष्ट्र भक्ति से डर जाती, झुक जाती थी.
भारत माँ के
कंठ सुशोभित
माणिक-मुक्त माल थे.
.
पैर जमीं पर जमा
हाथ से छू पाए आकाश को.
भारत माँ की
पराधीनता के, तोड़ा हर पाश को.
तिमित गुलामी
दूर हटाया
जलती हुई मशाल थे.
.
आम आदमी की
पीड़ा को सके मिटा सरदार बन.
आततायियों से
जूझे निर्भीक सबक किरदार बन.
भारतवासी
तुम सा नेता
पाकर हुए निहाल थे.
१५-१२-२०१७
***
नवगीत:
अपनी ढपली
*
अपनी ढपली
अपना राग
*
ये दो दूनी तीन बतायें
पाँच कहें वे बाँह चढ़ायें
चार न मानें ये, वे कोई
पार किसी से कैसे पायें?
कोयल प्रबंधित हारी है
कागा गाये
बेसुर फाग
अपनी ढपली
अपना राग
*
अचल न पर्वत, सचल हुआ है
तजे न पिंजरा, अचल सुआ है
समता रही विषमता बोती
खेलें कहकर व्यर्थ जुंआ है
पाल रहे
बाँहों में नाग
अपनी ढपली
अपना राग
*
चाहें खा लें बिना उगाये
सत्य न मानें हैं बौराये
पाल रहे तम कर उजियारा
बनते दाता, कर फैलाये
खुद सो जग से
कहते जाग
अपनी ढपली
अपना राग
***
नवगीत:
परीक्षा
*
किसकी कौन
परीक्षा लेता?
*
यह सोचे मैं पढ़कर आया
वह कहता है गलत बताया
दोनों हैं पुस्तक के कैदी
क्या जानें क्या खोया-पाया?
उसका ही जीवन है सार्थक
बिन माँगे भी
जो कुछ देता
किसकी कौन
परीक्षा लेता?
*
सोच रहा यह नित कुछ देता
लेकिन क्या वह सचमुच लेता?
कौन बताएं?, किससे पूछें??
सुप्त रहा क्यों मनस न चेता?
तज पतवारें
नौका खेता
किसकी कौन
परीक्षा लेता?
*
मिलता अक्षर ज्ञान लपक लो
समझ न लेकिन उसे समझ लो
जो नासमझ रहा है अब तक
रहो न चिपके, नहीं विलग हो
सच न विजित हो
और न जेता
किसकी कौन
परीक्षा लेता?
***
नवगीत-
आँगन टेढ़ा
नाच न आये
*
अपनी-अपनी
चाल चल रहे
खुद को खुद ही
अरे! छल रहे
जो सोये ही नहीं
जान लो
उन नयनों में
स्वप्न पल रहे
सच वह ही
जो हमें सुहाये
आँगन टेढ़ा
नाच न आये
*
हिम-पर्वत ही
आज जल रहे
अग्नि-पुंज
आहत पिघल रहे
जो नितांत
अपने हैं वे ही
छाती-बैठे
दाल दल रहे
ले जाओ वह
जो थे लाये
आँगन टेढ़ा
नाच न आये
*
नित उगना था
मगर ढल रहे
हुए विकल पर
चाह कल रहे
कल होता जाता
क्यों मानव?
चाह आज की
कल भी कल रहे
अंधे दौड़े
गूँगे गाये
आँगन टेढ़ा
नाच न आये
***
एक गीत-
भूमि मन में बसी
*
भूमि मन में बसी ही हमेशा रहे
*
पाँच माताएँ हैं
एक पैदा करे
दूसरी भूमि पर
पैर मैंने धरे
दूध गौ का पिया
पुष्ट तन तब वरे
बोल भाषा बढ़े
मूल्य गहकर खरे
वंदना भारती माँ
न ओझल करे
धन्य सन्तान
शीश पर कर वरद यदि रहे
भूमि मन में बसी ही हमेशा रहे
*
माँ नदी है न भूलें
बुझा प्यास दे
माँ बने बुद्धि तो
नित नयी आस दे
माँ जो सपना बने
होंठ को हास दे
भाभी-बहिना बने
स्नेह-परिहास दे
हो सखी-संगिनी
साथ तब खास दे
मान उपकार
मन !क्यों करद तू रहे?
भूमि मन में बसी ही हमेशा रहे
*
भूमि भावों की
रस घोलती है सदा
भूमि चाहों की
बनती नयी ही अदा
धन्य वह भूमि पर
जो हुआ हो फ़िदा
भूमि कुरुक्षेत्र में
हो धनुष औ' गदा
भूमि कहती
झुके वृक्ष फल से लदा
रह सहज-स्वच्छ
सबको सहायक रहे
भूमि मन में बसी ही हमेशा रहे
१७-१२-२०१५
***

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