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बुधवार, 18 दिसंबर 2024

सवैया

सवैया

            वर्णिक वृत्तों में २२ से २६ अक्षर के चरण वाले जाति छन्दों को सामूहिक रूप से हिन्दी में सवैया कहने की परम्परा है। सामान्य जाति-वृत्तों से बड़ा और वर्णिक दण्डकों से छोटा छन्द सवैया है। कवित्त - घनाक्षरी के समान ही हिन्दी रीतिकाल में विभिन्न प्रकार के सवैया प्रचलित रहे हैं। सवैया  चार चरणों का समपाद वर्ण छंद है।  इन में  वर्ण की मात्रा के साथ एक निश्चित माप दण्डों का पालन भी आवश्यक होता है ,यानि लघु और गुरु भी अपने निर्धारित स्थानों पर ही होते हैं। इन में प्रायः गणों की आवृत्ति होती है। आरंभ या अंत में एक दो वर्ण बढ़ाकर नए सवैया बना लिए जाते हैं।

        संस्कृत में ये समस्त भेद वृत्तात्मक हैं किंतु हिन्दी सवैया मुक्तक वर्णक के रूप में है। अपने खोज-निबन्ध 'द कण्ट्रीब्यूशन ऑफ़ हिन्दी पोयट्स टु प्राज़ोडी' के चौथे प्रकरण में जानकीनाथ सिंह का मत है कि कवियों ने सवैया को वर्णिक सम-वृत्त रूप में लिया है। उसमें लय के साथ गुरु मात्रा का जो लघु उच्चारण किया जाता है, वह हिन्दी की सामान्य प्रवृत्ति है। हिन्दी में मात्रिक छन्दों के व्यापक प्रयोग के बीच प्रयुक्त इस वर्णिक छन्द पर उनका प्रभाव अवश्य पड़ा है।  कवित्त की तरह सवैया भी एक विशेष लय पर चलता है। भगणात्मक, जगणात्मक तथा सगणात्मक सवैये की लय क्षिप्र और यगण, तगण तथा रगणात्मक सवैये की लय मन्द गतिज होती है। सवैया में वस्तु स्थिति तथा भावस्थिति के चित्र बहुत सफलतापूर्वक अंकित होते हैं। यह छन्द मुक्तक प्रकृति के बहुत अनुकूल है। यह छन्द श्रृंगार रस तथा भक्ति भावना की अभिव्यक्ति के लिए बहुत उत्कृष्ट रूप में प्रयुक्त हुआ है। 

            भक्तिकाल में कवित्त और सवैया दोनों छन्दों की प्रतिष्ठा हो चुकी थी। तुलसी जैसे प्रमुख कवि ने अपनी 'कवितावली' में इन्हीं दो छन्दों को प्रधानता दी है। रीतिकाल की मुक्तक शैली में कवित्त और सवैया का महत्त्वपूर्ण योग है। रीतिकालीन कवियों ने श्रृंगार रस के विभिन्न अंगों, विभाव, अनुभाव, आलम्बन, उद्दीपन, संचारी, नायक-नायिका भेद आदि के लिए इनका चित्रात्मक तथा भावात्मक प्रयोग किया है। रसखान, घनानन्द, आलम जैसे प्रेमी-भक्त कवियों ने भक्ति-भावना के उद्वेग तथा आवेग की सफल अभिव्यक्ति सवैया में की है। वीर रस सवैया की प्रकृति के बहुत अनुकूल नहीं है तथापि भूषण ने वीर रस के लिए इस छन्द का प्रयोग किया है। आधुनिक कवियों में हरिश्चन्द्र, लक्ष्मण सिंह, नाथूराम शंकर, अनंत राम मिश्र 'अनंत' आदि ने इनका सुन्दर प्रयोग किया है। जगदीश गुप्त ने इस छन्द में आधुनिक लक्षणा शक्ति का समावेश किया है।

संकर (मिश्रित) सवैया-

            सर्वप्रथम तुलसी ने 'कवितावली' में संकर (मिश्रित) सवैया का प्रयोग किया है। संकर सवैया में दो भिन्न सवैया एक साथ प्रयुक्त होते हैं। केशवदास ने भी इस दिशा में प्रयोग किये हैं। मत्तगयन्द-सुन्दरी ये दोनों सवैया कई प्रकार के एक साथ प्रयुक्त हुए हैं। तुलसी ने इसका सबसे अधिक प्रयोग किया है। केशव तथा रसखान ने उनका अनुसरण किया है। 
प्रथम पद मत्तगयन्द का (७ भगण + २ गुरु) - "या लटुकी अरु कामरिया पर राज तिहूँ पुरको तजि डारौ"।
तीसरा पद सुन्दरी (८ सगण + गुरु) - "रसखानि कबों इन आँखिनते, ब्रजके बन बाग़ तड़ाग निहारौ"। 

तुलसी ने एक पद मदिरा  ७ भगण + गुरु) का रखकर शेष दुर्मिल (८ सगण) के पद रखे हैं। केशव ने भी इसका अनुसरण किया है। 
मदिरा का पद - "ठाढ़े हैं नौ द्रम डार गहे, धनु काँधे धरे कर सायक लै"।
दुर्मिल का पद - "बिकटी भृकुटी बड़री अँखियाँ, अनमोल कपोलन की छवि है"। 

इनके अतिरिक्त मत्तगयन्द-वाम और वाम-सुन्दरी के विभिन्न संकर सवैया तुलसी की 'कवितावली' में तथा केशव की 'रसिकप्रिया' में मिलते हैं। कवियों ने ऐसे प्रयोग भाव-चित्रणों में अधिक सौन्दर्य तथा चमत्कार उत्पन्न करने की दृष्टि से किया है। 
प्रकार-
मदिरा (मालिनी /उमा/ दिव्या) सवैया- २११ २११ २११ २, ११ २११ २११ २११ २, यति १०-१२। 
मत्तगयन्द सवैया- २११ २११ २११ २११, २११ २११ २११ २२, यति १२-११।
सुमुखि (मानिनी, मल्लिका) सवैया- १२१ १२१ १२१ १२, १ १२१ १२१ १२१ १२, यति ११-१२। 
दुर्मिल (चन्द्रकला) सवैया- ११२ ११२ ११२ ११२, ११२ ११२ ११२ ११२, यति १२-१२।  
किरीट सवैया- २११ २११ २११ २११, २११ २११ २११ २११, यति १२-१२। 
गंगोदक  (गंगाधर /लक्ष्मी/खंजन) सवैया- २१२ २१२ २१२ २१२, २१२ २१२ २१२ २१२, यति १२-१२।                                                  
वाम (मंजरी / मकरंद /माधवी) सवैया- १२१ १२१ १२१ १२१, १२१ १२१ १२१ १२२, यति १२-१२। 
अरसात सवैया- २११ २११ २११ २११, २११ २११ २११ २१२, यति १२-१२। 
सुन्दरी (मल्ली/ सुखदानी)सवैया- ११२ ११२ ११२ ११२,११२ ११२ ११२ ११२ २, यति १२-१३।
अरविन्द सवैया- ११२ ११२ ११२ ११२, ११२ ११२ ११२ ११२ १, यति १२-१३। 
मानिनी सवैया- १२१ १२१ १२१ १२१, १२१ १२१ १२१ १२, यति ११-१२। *
प्रफुल्लित दास बसन्त कि फ़ौज सिलीमुख भीर देखावति है- तुलसी 
महाभुजंगप्रयात सवैया-  १२२  १२२  १२२  १२२, १२२  १२२  १२२  १२२, यति  १२-१२।
सुखी (किशोर ( सुख / कुन्दलता /कुन्तलता) सवैया- ११२ ११२ ११२ ११२, ११२ ११२ ११२ ११२ ११, यति १२-१४। 
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ब्लॉग: मन की वीणा- कुसुम कोठारी 
मुक्तहरा सवैया- १२१ १२१ १२१ १२, ११२१ १२१ १२१ १२१, यति ११-१३। * 
वागीश्वरी सवैया- १२२ १२२ १२२ १२२, १२२ १२२ १२२ १२, यति १२-११।
चकोर सवैया- २११ २११ २१२ २११, २११ २११ २११ २१, यति १२-११। 
सुख (महामंजीर) सवैया- ११२ ११२ ११२ ११२, ११२ ११२ ११२ ११२ १२, यति १२-१४। 
विज्ञ सवैया- ११२ ११२ ११२ ११२, ११२ ११२ ११२ २२, यति १२-११। 
विदुषी सवैया- २१२ २१२ २१२ २, १२ २१२ २१२ २१२ २, यति १०-१२। 
साँची सवैया- २२१ २२१ २२१ ११२, २२१ २२१ २२१ १२, यति १२-११। 
कोविंद  सवैया- २११ २२२ २११ २२, २११ २२२ ११२ २२, यति ११-११। 
प्रज्ञा सवैया- २२२ २१२ २१२ २११, २१२ २१२ २११ २२, यति १२-११। 
सुधी सवैया- १२१ १२१ १२१ ११२, १२१ १२१ १२२ १२, यति १२-११। 
राधेगोपाल सवैया- २२१ १२१ १२१ १२, १ १२१ १२१ १२१ १२२, यति ११-१३। 
अर्णव (सर्वगामी, अग्र) सवैया- २२१ २१२ २१२ २१२, २१२ २१२ २२१ २२, यति १२-११। 
सपना सवैया- २२२ १२२ १२२ १२२, १२२ १२२ १२२ २२२, यति १२-१२। 
कुमकुम सवैया- ११२ ११२ ११२ ११२, ११२ ११२ ११२ १२, यति १२-११। 
तेजल सवैया- ११ ११२ ११२ ११२ १, १२ ११२ ११२ ११२ २, यति १२-१२। 
विज्ञात बेरी सवैया- २२१ १२२ २११ २११, २११ २११ २२१ २२, यति १२-११। 
शान्ता सवैया- २२ ११२ ११२ ११२ ११, २ ११२ ११२ ११२ २२, यति १३-१२। 
पूजा सवैया- २१ ११२ ११२ ११२ १, १२ ११२ ११२ ११२ १२, यति १२-१३। 
महेश सवैया- २२ ११२ ११२ ११२ ११, २ ११२ ११२ ११२ २, यति १३-११। 
एकता सवैया- २२१ ११२ ११२ ११२, ११२ ११२ ११२ ११२ २, यति १२-१३। 
जय सवैया- २ २१२ २१२ २१२ २, १२ २१२ २१२ २१२ २, यति ११-१२। 
सुवासिता सवैया- २१२ ११२ १२२ १२१ १, २१२ १२२ ११ २११, यति १३-११। 
विज्ञात सवैया- २१२ २२१ २२१ २२२, २१२ २११ २२१ २२, यति १२-११। 
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सुभाष ‌सिंघई
लवंगलता- १२१ १२१ १२१ १२१, १२१ १२१ १२१ १२१ १, यति १२-१३। 
मंदारमाला- २२१ २२१ २२१ २२१, २२१ २२१ २२, यति १२-१०। 
आभार- २२१ २२१ २२१ २२१, २२१ २२१ २२१ २२१, यति- १२-१२।      

रसखान
सेस गनेस महेस दिनेस सुरेसहु जाहि निरंतर गावै।
जाहि अनादि अनंत अखंड अछेद अभेद सुबेद बतावै॥
नारद से सुक व्यास रटै पचि हारे तऊ पुनि पार न पावै।
ताहि अहीर की छोहरिया छछिया भरि छाछ पै नाच नचावै॥
            रसखान कहते हैं कि जिस कृष्ण के गुणों का शेषनाग, गणेश, शिव, सूर्य, इंद्र निरंतर स्मरण करते हैं। वेद जिसके स्वरूप का निश्चित ज्ञान प्राप्त न करके उसे अनादि, अनंत, अखंड अछेद्य आदि विशेषणों से युक्त करते हैं। नारद, शुकदेव और व्यास जैसे प्रकांड पंडित भी अपनी पूरी कोशिश करके जिसके स्वरूप का पता न लगा सके और हार मानकर बैठ गए, उन्हीं कृष्ण को अहीर की लड़कियाँ छाछिया-भर छाछ के लिए नाच नचाती हैं।
देव 
राधिका कान्ह को ध्यान धरैं तब कान्ह ह्वै राधिका के गुन गावै।
त्यों अँसुवा बरसै बरसाने को पाती लिखै लिखि राधिकै ध्यावै।
राधे ह्वै जाइ तेही छिन देव सु प्रेम की पाती लै छाती लगावै।
आपु ते आपुही मैं उरझै सुरझै बिरझै समुझै समुझावै॥
            राधा कृष्ण के ध्यान में इतनी तल्लीन हो जाती है कि वह भूल जाती है कि वह राधा है। वह स्वयं को कृष्ण समझ बैठती है और तब वह अपने ही गुणों का बखान करने लगती है। उसकी आँखों से आँसू बहने लगते हैं। वह बरसाने को पत्र लिखती है और लिखकर राधिका के बारे में सोचने लगती है। फिर वह क्षण भर में राधा बन जाती है। उसे ध्यान आ जाता है कि मैं कृष्ण नहीं हूँ। वह प्रेम की पाती को अपने सीने से लगा लेती है। प्रेमभाव से विभोर होकर वह अपनापन भी भूल जाती है। वह कभी तो स्वयं को कृष्ण समझ लेती है और कुछ समय बाद वह फिर संभल जाती है और स्वयं को राधा ही समझती है। इस प्रकार वह अपने आप ही उलझन में पड़ जाती है। कभी वह उलझन को दूर करती है, कभी उलझती है और फिर स्वयं को समझाती है।
भोर तैं साँझ लौं कानन ओर
घनानंद
भोर तैं साँझ लौं कानन ओर निहारति बाबरी नैकु न हारति।
साँझ तैं भोर लौं तारिन ताकिबौ तारनि सों इकतार न टारति॥
जौ कहूँ भावतो दीठि परै घनआनंद आँसुनि औसर गारति।
मोहन सोंहन जोहन की लगियै रहै आँखिन कें उर आरति॥
        विरहिणी नायिका बावली होकर प्रातःकाल से सायंकाल तक जंगल की ओर ही देखती रहती है और तनिक भी नहीं थकती है। संध्या से प्रातःकाल तक वह अपनी आँखों को एकटक तारागणों को देखना नहीं छोड़ती है अर्थात् तारों को एकटक निहारती हुई ही वह संपूर्ण रात्रि को व्यतीत कर देती है। कवि कहता है कि यदि कहीं प्रिय दिखाई पड़ जाता है तो निरंतर अश्रु-प्रवाह के कारण उसके दर्शन-लाभ के सुअवसर को भी वह खो देती है। इस प्रकार उस विरहिणी नायिका की आँखों के हृदय में प्रियतम को सदैव देखने की लालसा बनी ही रहती है।
नरोत्तम दास 
सीस पगा न झँगा तन में, प्रभु! जाने को आहि बसे केहि ग्रामा।
धोती फटी-सी लटी दुपटी, अरु पाँय उपानह को नहिं सामा॥
द्वार खड़ो द्विज दुर्बल एक, रह्यो चकिसों बसुधा अभिरामा।
पूछत दीनदयाल को धाम, बतावत आपनो नाम सुदामा॥

पद्माकर
आयी हौं खेलन फाग इहाँ वृषभानपुरी तें सखी संग लीने।
त्यों ‘पद्माकर’ गावतीं गीत रिझावतीं हाव बताइ नवीने।
कंचन की पिचकी कर में लिये केसरि के रंग सों अंग भीने।
छोटी-सी छाती छुटी अलकैं अति बैस की छोटी बड़ी परबीने॥
        नायिका कहती है कि मैं अपने पिता राजा वृषभानु की नगरी अर्थात बरसाना से अपनी सखियों को साथ लेकर यहाँ गोकुल में फाग खेलने आई हूँ। कवि पद्माकर वर्णन करते हुए कहते हैं कि राधा और उसकी सखियाँ मधुर गीत गाती हैं और अनेक नई-नई चेष्टाएँ, हाव-भाव आदि करती हुई लोगों को अपनी ओर आकर्षित करती हैं, उन्हें रिझाती हैं। उनके हाथों में सोने की पिचकारी है ओर केसर के रंग के समान उसका कांतियुक्त भीगा बदन सुगंध से सुवासित है। उसका वक्ष अभी छोटा ही है अर्थात उसके स्तनों का विकास पूरी तरह नहीं हुआ है। बाल बिखरे हुए हैं, आयु में भी वह अभी छोटी है परंतु बड़ी चतुर है, अर्थात बात-व्यवहार में काफ़ी समझदार एवं चतुर है।
मुबारक
बंसी बजावत आनि कढ़ो वा गली में छली कछु जादू सो डारे।
नेकु चितै तिरछी करि भौंह चलो गयो मोहन मूठी सो मारे।
वाही घरीक डरी वह सेज पै नेकु न आवत प्रान सँभारे।
जी है तौ जीहै न जीहै सखी न तो पीहै सबै बिष नंद के द्वारे॥

तुलसीदास
दूलह श्री रघुनाथ बने, दुलही सिय सुंदर मंदिर माहीं।
गावति गीत सबै मिलि सुंदरि, वेद जुवा जुरि बिप्र पढ़ाहीं॥
राम को रूप निहारति जानकी, कंकन के नग की परछाहीं।
बातें सबैं सुधि भूलि गई, कर टेकि रही पल टारति नाहीं॥  - कवितावली 
            महल में राम दूल्हा और जानकी दुलहिन के वेष में हैं। सब स्त्रियाँ मंगल गीत गाने लगीं और युवक ब्राह्मण मिलकर वेदध्वनि करने लगे। जानकी अपने हाथ के कंकण के नग में राम की परछाहीं को देखने लगीं। इससे उन्हें सब सुध भूल गई, उन्होंने अपने हाथ को स्थिर रखा और पलकों को नहीं गिराया।
गुरु गोविंद सिंह
गइ आइ दसो दिसि ते गुपिया, सबही रस कान्ह के साथ पगी।
पिख कै मुख कान्ह को चंदकला, सु चकोरन-सी मन में उमगी॥
हरि को पुनि सुद्ध सुआनन पेखि, किधौं तिन की ठग डीठ लगी।
भगवान प्रसन्न भयो पिख कै, कवि 'स्याम' मनो मृग देख मृगी॥

रसलीन
फाग समय रसलीन बिचारि लला पिचकी तिय आवत लीनें।
आइ जबै दिढ़ ह्वै निकसी तब औचक चोट उरोजन कीनें।
लागत धाप दोऊ कुच में सतराइ चितै उन बाल नवीनें।
झटका दै तोर चटाक दै माल छटाक दै लाल के गाल में दीनें॥

गंग
हंस तौ चाहत मानसरोवर, मानसरोवर है रंग राता।
नीर की बुंद पपीहरा चाहत, चंद चकोर कै नेह का नाता।
प्रीतम प्रीति लगाइ चलै कबि गंग कहै जग जीवनदाता।
मेरे तौ चित्त में मित्त बसै, अरु मित्त के चित्त की जान बिधाता॥
संदर्भ- ↑ अप्रकाशित निबंध से, ↑ रसखान, ↑ कवितावली २, ↑ जानकीनाथ सिंह : द कण्ट्रीब्यूशन ऑफ़ हिन्दी पोयट्स टु प्राज़ोडी, अप्रकाशित
धीरेंद्र, वर्मा “भाग- १ पर आधारित”, हिंदी साहित्य कोश (हिंदी), ७४०।

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