लेख
भीनी भीनी खुशबू का सरताज रजनीगंधा (पॉलिएंथिस ट्यूबरोसा)
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
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रजनीगन्धा (वानस्पतिक नाम : Polianthes tuberosa) 'निशिगंधा' 'अनजानी', 'सुगंधराज'और 'स्वोर्ड लिल्ली' के नाम से भी जाना जाता है। रजनीगंधा के सफ़ेद कुप्पी (फनल) के आकार के फूल गुलदस्ते, माल, वेणी तथा पुष्प सज्जा के काम आते हैं। इसकी डंठल १०० से.मी. तक ऊँची तथा १०-१५ फूलों से युक्त होती है। यह पूरे भारत में पाया जाता है। फूल लगभग २.५ से.मी. लम्बा,मनमोहक भीनी-भीनी सुगन्धवाला, अधिक समय तक ताजा रहने तथा दूर तक परिवहन क्षमता के कारण बहुत ही महत्वपूर्ण स्थान रखता है। वास्तु शास्त्र के अनुसार रजनीगंधा का पौधा घर की पूर्व या उत्तर दिशा में लगाने से घर में समृद्धि आती है। बुखार, सिरदर्द, और जोड़ों के दर्द के इलाज में रजनीगंधा उपयोगी है। रजनीगंधा के तेल का इस्तेमाल त्वचा देखभाल उत्पादों में किया जाता है।
रजनीगंधा के पौधे उगाने के लिए, मिट्टी, रेत, और गोबर की खाद, धूप तथा कम पानी चाहिए। रजनीगंध बारहों महीने खिलता है। इसकी मुख्य किस्में निम्न हैं-
कलकत्ता सिंगल: यह सफेद फूल खुले-कट फ्लावर के लिए उपयुक्त है। इसकी डंडी ६० से.मी. लम्बी होती है और लगभग ४० फूल देती है।
प्रज्वल: आई आई एच आर(इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ़ हॉर्टिकल्चरल रीसर्च), बैंगलोर द्वारा तैयार यह किस्म मेक्सीकन सिगल और शृंगार के मेल से तैयार की गई है। इसकी कलियाँ हल्की गुलाबी तथा फूल सफेद होते हैं।
डबल किस्में
रजत रेखा: एन बी आर आई (नेशनल बोटैनिकल रीसर्च इंस्टिट्यूट) लखनऊ द्वारा तैयार इस किस्मके फूलों पर सिल्वर और सफेद रंग की धारियाँ होने के साथ सुरमई पत्तियाँ होती हैं।
पर्ल डबल: इसके फूल लाल रंग के मोतियों की तरह होते हैं।
वैभव: आई आई एच आर बैंगलोर द्वारा मेक्सीकन सिंगल और आई आई एच आर२ के मेल से इसे तैयार किया गया है। इसकी कलियाँ हल्के हरे रंग की और फूल सफेद रंग के होते हैं।
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प्रसिद्ध हिंदी लेखिका मन्नू भंडारी की लघु कहानी "यही सच है"(१९६६) पर बासु चटर्जी द्वारा निर्देशित फिल्म रजनीगंधा (१९७४) में अमोल पालेकर, विद्या सिन्हा और दिनेश ठाकुर मुख्य भूमिका में थे। नारी मनोविज्ञान पर आधारित इस फिल्म में घर की चारदीवारी से बाहर निकल कर मानसिक, शारीरिक और सामाजिक रुप से मुक्त दो पुरुषों (संजय और निशीथ) के प्रेम में डूबी हुई स्त्री मन की आंतरिक ऊहापोह को अभिव्यक्त किया गया है। नायिका दीपा दो मित्रों में से किसका प्रेम सच्चा है की ऊहापोह में चित्रित की गई है। आनंद लीजिए चलचित्र रजनीगंधा के लोकप्रोय शीर्षक गीत का और डूब जाइए भीनी भीनी सुगंध में
रजनीगंधा फूल तुम्हारे, महके यूँ ही जीवन में
यूँ ही महके प्रीत पिया की, मेरे अनुरागी मन में
अधिकार ये जब से साजन का हर धड़कन पर माना मैंने
मैं जबसे उनके साथ बँधी, ये भेद तभी जाना मैंने
कितना सुख है बंधन में
रजनीगंधा फूल तुम्हारे...
हर पल मेरी इन आँखों में बस रहते हैं सपने उनके
मन कहता है मैं रंगों की, एक प्यार भरी बदली बनके
बरसूँ उनके आँगन में
रजनीगंधा फूल तुम्हारे...
चलचित्र : रजनीगंधा (1974)
संगीतकार : सलिल चौधरी
गीतकार : योगेश
गायिका : लता मंगेशकर, अभिनेत्री विद्या सिन्हा
०००
विरासत
रजनीगंधा
जयशंकर प्रसाद
दिनकर अपनी किरण-स्वर्ण से रंजित करके
पहुँचे प्रमुदित हुए प्रतीची पास सँवर के
प्रिय-संगम से सुखी हुई आनंद मनाती
अरुण-राग-रंजित कपोल से शोभा पाती
दिनकर-कर से व्यथित बिताया नीरस वासर
वही हुए अति मुदित विहंगम अवसर पाकर
कोमल कल-रव किया बड़ा आनंद मनाया
किया नीड़ में वास, जिन्हें निज हाथ बनाया
देखो मंथर गति से मारुत मचल रहा है
हरी-हरी उद्यान-लता में विचल रहा है
कुसुम सभी खिल रहे भरे मकरंद-मनोहर
करता है गुंजार पान करके रस मधुकर
देखो वह है कौन कुसुम कोमल डाली में
किये सम्पुटित वदन दिवाकर-किरणाली में
गौर अंग को हरे पल्लवों बीच छिपाती
लज्जावती मनोज्ञ लता का दृश्य दिखाती
मधुकर-गण का पुंज नहीं इस ओर फिरा है
कुसुमित कोमल कुंज-बीच वह अभी घिरा है
मलयानिल मदमत्त हुआ इस ओर न आया
इसके सुंदर सौरभ का कुछ स्वाद न पाया
तिमिर-भार फैलाती-सी रजनी यह आई
सुंदर चंद्र अमंद हुआ प्रकटित सुखदाई
स्पर्श हुआ उस लता लजीली से विधु-कर का
विकसित हुई प्रकाश किया निज दल मनहर का
देखो-देखो, खिली कली अलि-कुल भी आया
उसे उड़़ाया मारुत ने पराग जो पाया
सौरभ विस्तृत हुआ मनोहर अवसर पाकर
म्लान वदन विकसाया इस रजनी ने आकर
कुल-बाला सी लजा रही थी जो वासर में
रूप अनूपम सजा रही है वह सुख-सर में
मघुमय कोमल सुरभि-पूर्ण उपवन जिससे है
तारागण की ज्योति पड़ी फीकी इससे है
रजनी में यह खिली रहेगी किस आशा पर
मधुकर का भी ध्यान नहीं है क्या पाया फिर
अपने-सदृश समूह तारका का रजनी-भर
निर्निमेष यह देख रही है कैसे सुख पर
कितना है अनुराग भरा िस छोटे मन में
निशा-सखी का प्रेम भरा है इसके तन में
‘रजनी-गंधा’ नाम हुआ है सार्थक इसका
चित्त प्रफुल्लित हुआ प्राप्त कर सौरभ जिसका
०००
गीत
पीयूष शर्मा
अपने नैनो के बादल से, जब नेह नीर बरसाती हो।
रजनीगंधा के फूलों-सी, तुम मधुर गंध बन जाती हो॥
तुम चपल चंचला चंदा की, तुम सुधियों का मीठा गुंजन
तुम पनघट की पावन गोरी, तुम प्रेम भरा हो आलिंगन
जब यौवन पर पुलकित होकर, तुम मंद-मंद मुस्काती हो।
तुम आशाओं की आशा में, तुम नदियों में तुम साहिल में
जब से तुमको देखा मैंने, तब से उत्पात मचा दिल में
जब प्रेम ग्रंथ के अमर मंत्र, मेरे सम्मुख दुहराती हो।
माथे पर इतराती बिंदिया, दृग में काजल इठलाता है
सचमुच ही मेरे नयनों को, यह रूप तुम्हारा भाता है
जब रंग-बिरंगे वस्त्रों में, मेरी कुटिया में आती हो।
***
रजनीगंधा
मनोज कृष्णन
रिमझिम की रातें होंगी, फिर चन्द मुलाकातें होंगी
जब भी खिले ये रजनीगंधा, कुछ बातें पुरानी होंगी
क्यूंकि! अब तक तुम्हें देखा था, अक्सर मैंने छुप के
हालाँकि ख़्वाबों में तुमसे मिलते तो थे हम बरसों से
अब तक जो तड़पा था, दिल, भला कैसे वो रुकेगा
जब भी खिले रजनीगंधा, तड़पता हुआ तुम्हें ढूंढेगा
ऐसे में जब भी तुम आना, उल्फ़त का तोहफा लाना
और रिमझिम जब बरसे सावन, मोहे गरवा लगाना
शर्मीली सी रातें होंगी पर फिर भी बातें हज़ारों होंगी
जब भी खिले ये रजनीगंधा, मीठी यादें हमारी होंगी
क्यूंकि तुम जो इतने करीब हो, न थे कभी ख्वाबों में
हालाँकि खुशबू तुम्हारी, छूकर गुज़री थी, हवाओं में
कब से थी बेबस, ये शमा, रौशन इश्क़ हमारा होगा
जब भी खिले रजनीगंधा, इजहारे-ए-मोहब्बत होगा
ऐसे में जब भी तुम आना, उल्फ़त का तोहफा लाना
और रिमझिम जब बरसे सावन, मोहे गरवा लगाना
दिलकश रातें होंगी पर घड़ियां जाने को बेचैन होंगी
जब भी खिले ये, रजनीगंधा, रातें तो छोटी ही होंगी
क्यूंकि! मिलन है कुछ पलों का, जुदाई लम्बी होती
वरना हमारी कहानी यूँ हीं अश्कों में न लिखी होती
फिर भी जिद है इस दिल की, वो सितम हर सहेगा
जब भी खिले ये रजनीगंधा, तुम्हारे लिए ही तड़पेगा
ऐसे में जब भी तुम आना, उल्फ़त का तोहफा लाना
और रिमझिम जब बरसे सावन, मोहे गरवा लगाना
०००
रजनीगंधा फूल तुम्हारे..
-हेमन्त परिहार
*
"ओल्ड फ़ैशन" लगता था मैं उसे
मेरे लिखे प्रेम पत्र पढ़ना पसन्द नहीं था उसे
कहती थी,
सोशल मीडिया के ज़माने में
ये लेटर्स कौन पढता है,
मुझे अच्छा लगता था झील के किनारे बैठ
उसके साथ
"रजनीगंधा फूल तुम्हारे.." सुनना
उसे बोरिंग लगते थे पुराने गाने
मैं चाहता था
देर तक सुनाऊँ उसे अपनी कविताएं
छत पर बैठे,
तकते हुए रात भर चाँद
लेकिन उसका मन.. रफ़्तार से भागती कार में
लॉन्ग ड्राइव पर होता था
एक अरसा हुआ हम अब साथ नहीं
कल उसका लिखा
एक पत्र आया है डाक से
लिखती है..
ठहरे हुए पानी के पास बैठे
देर तक सुनती है वो पुराने गाने
और अपने दोस्तों को
देर तक सुनाती है मेरी किताब से
मेरी कविताएं पढ़कर
उसने अपना नया फोन नंबर भी लिखा था
पत्र के अंत में
मैंने भी व्हाट्सअप पर भेजा है
उसे फिर से–
"रजनीगंधा फूल तुम्हारे .."
***
संजीव 'सलिल'
गीत
महकी निशिगंधा
०
तुम आईं,
महकी निशिगंधा
कोयल कूकी।
वैरागी मन हो संसारी
राग सुन रहा।
०
उषा किरण आ जाल सुनहरा फैलाती है।
सलिल तरंगों में अवगाहन कर गाती है।।
सिकता-कण कर थाम झूम उठते नर्तित हो-
पवन छेड़ता पत्ती-पत्ती शरमाती है।।
कलिका पर,
भँवरे मँडराए
कही कहानी।
अविवाहित मन था अविकारी
ख्वाब बुन रहा।
तुम आईं,
महकी निशिगंधा
कोयल कूकी।
वैरागी मन हो संसारी
राग सुन रहा।
०
रश्मिरथी ने वसुंधरा पर डोरा डाला।
सौतन आती देख धूप धधकी हो ज्वाला।।
बुला कचहरी नभ ने झटपट सजा सुनाई-
जाकर पश्चिम में डूबो, मुँह करो न काला।।
शिव माथे,
बैठे चंदा ने
जुगत लगाई।
क्षमा मिली अवढरदानी से
आब सन रहा।
तुम आईं,
महकी निशिगंधा
कोयल कूकी।
वैरागी मन हो संसारी
राग सुन रहा।
०
फटा हृदय पाषाणी नेह नर्मदा प्रवही।
भव बंधन भंजन कर जनहित राह चुप गही।।
तृषा तृप्तिदा पश्चिमवाही शिव तनया पा-
सोमनाथ पग रज पा सुधियाँ सिंधु ने तही।।
मधु रजनी,
रजनीगंधा ले
हृदय मिलाई।
गेह अगेह अदेह देह का
साक्ष्य बन रहा।
तुम आईं,
महकी निशिगंधा
कोयल कूकी।
वैरागी मन हो संसारी
राग सुन रहा।
२५.१२.२०२४
०००
रजनीगंधा
०
न हद, न सरहद है चाहतों की
न चाह चाही है राहतों की
मिले न मंजिल, हों पैर राहें
मिले हमसफ़र पसार बाँहें
घुले श्वास में तेरी खुशबू हमेशा
न चाहूँ कुछ भी कभी रजनीगंधा
२६.१२.२०२४
०००
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