सलिल सृजन दिसंबर १२
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दोहा ग़ज़ल कपास पर
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बगुला भगत न कर रहा, व्रत पूजा उपवास।
ओढ़े चादर श्वेत नित, करता मौज कपास।।
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धूप-छाँव सहकर रहे, मतदाता सम मौन।
जननायक रवि दूर रह, करता है उपहास।।
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काली माटी प्रसवती, विहँस श्वेत संतान।
गोरेपन की क्रीम क्यों, लगे पुत्र को खास?
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किए व्यर्थ क्या धूप में, इसने बाल सफेद।
ऊँघ रहा क्यों खेत में, वास न चिड़िया पास।।
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कहे न कुछ तो मत समझ, मुँह में नहीं जुबान।
अपना मालिक आप है, नहीं किसी का दास।।
१२-१२-२०२४
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श्री गंगा स्तोत्र...
रचना : आदि जगद्गुरु शंकराचार्य...
दॆवि! सुरॆश्वरि! भगवति! गङ्गॆ त्रिभुवनतारिणि तरलतरङ्गॆ ।
शङ्करमौलिविहारिणि विमलॆ मम मतिरास्तां तव पदकमलॆ ॥ 1 ॥
[हे देवी ! सुरेश्वरी ! भगवती गंगे ! आप तीनो लोको को तारने वाली हो... आप शुद्ध तरंगो से युक्त हो... महादेव शंकर के मस्तक पर विहार करने वाली हो... हे माँ ! मेरा मन सदैव आपके चरण कमलो पर आश्रित है...
O Goddess Ganga! You are the divine river from heaven, you are the saviour of all the three worlds, youare pure and restless, you adorn Lord Shiva’s head. O Mother! may my mind always rest at your lotus feet...]
भागीरथिसुखदायिनि मातस्तव जलमहिमा निगमॆ ख्यातः ।
नाहं जानॆ तव महिमानं पाहि कृपामयि मामज्ञानम् ॥ 2 ॥
[ हे माँ भागीरथी ! आप सुख प्रदान करने वाली हो... आपके दिव्य जल की महिमा वेदों ने भी गई है... मैं आपकी महिमा से अनभिज्ञ हू... हे कृपामयी माता ! आप कृपया मेरी रक्षा करें...
O Mother Bhagirathi! You give happiness to everyone. The significance of your holy waters is sung in the Vedas. I am ignorant and am not capable to comprehend your importance. O Devi! you are full of mercy. Please protect me...]
हरिपदपाद्यतरङ्गिणि गङ्गॆ हिमविधुमुक्ताधवलतरङ्गॆ ।
दूरीकुरु मम दुष्कृतिभारं कुरु कृपया भवसागरपारम् ॥ 3 ॥
[ हे देवी ! आपका जल श्री हरी के चरणामृत के समान है... आपकी तरंगे बर्फ, चन्द्रमा और मोतिओं के समान धवल हैं... कृपया मेरे सभी पापो को नष्ट कीजिये और इस संसार सागर के पार होने में मेरी सहायता कीजिये...
O Devi! Your waters are as sacred as “Charanamriti” of Sri Hari. Your waves are white like snow, moon and pearls. Please wash away all my sins and help me cross this ocean of Samsara...]
तव जलममलं यॆन निपीतं परमपदं खलु तॆन गृहीतम् ।
मातर्गङ्गॆ त्वयि यॊ भक्तः किल तं द्रष्टुं न यमः शक्तः ॥ 4 ॥
[हे माता ! आपका दिव्य जल जो भी ग्रहण करता है, वह परम पद पता है... हे माँ गंगे ! यमराज भी आपके भक्तो का कुछ नहीं बिगाड़ सकते...
O Mother! those who partake of your pure waters, definitely attain the highest state. O Mother Ganga! Yama, the Lord of death cannot harm your devotees...]
पतितॊद्धारिणि जाह्नवि गङ्गॆ खण्डित गिरिवरमण्डित भङ्गॆ ।
भीष्मजननि हॆ मुनिवरकन्यॆ पतितनिवारिणि त्रिभुवन धन्यॆ ॥ 5 ॥
[हे जाह्नवी गंगे ! गिरिवर हिमालय को खंडित कर निकलता हुआ आपका जल आपके सौंदर्य को और भी बढ़ा देता है... आप भीष्म की माता और ऋषि जह्नु की पुत्री हो... आप पतितो का उद्धार करने वाली हो... तीनो लोको में आप धन्य हो...
O Jahnavi! your waters flowing through the Himalayas make you even more beautiful. You are Bhishma’s mother and sage Jahnu’s daughter. You are saviour of the people fallen from their path, and so you are revered in all three worlds...]
कल्पलतामिव फलदां लॊकॆ प्रणमति यस्त्वां न पतति शॊकॆ ।
पारावारविहारिणिगङ्गॆ विमुखयुवति कृततरलापाङ्गॆ ॥ 6 ॥
[ हे माँ ! आप अपने भक्तो की सभी मनोकामनाएं पूर्ण करने वाली हो... आपको प्रणाम करने वालो को शोक नहीं करना पड़ता... हे गंगे ! आप सागर से मिलने के लिए उसी प्रकार उतावली हो जिस प्रकार एक युवती अपने प्रियतम से मिलने के लिए होती है...
O Mother! You fulfill all the desires of the ones devoted to you. Those who bow down to you do not have to grieve. O Ganga! You are restless to merge with the ocean, just like a young lady anxious to meet her beloved...]
तव चॆन्मातः स्रॊतः स्नातः पुनरपि जठरॆ सॊपि न जातः ।
नरकनिवारिणि जाह्नवि गङ्गॆ कलुषविनाशिनि महिमॊत्तुङ्गॆ ॥ 7 ॥
[हे माँ ! आपके जल में स्नान करने वाले का पुनर्जन्म नहीं होता... हे जाह्नवी ! आपकी महिमा अपार है... आप अपने भक्तो के समस्त कलुशो को विनष्ट कर देती हो और उनकी नरक से रक्षा करती हो...
O Mother! those who bathe in your waters do not have to take birth again. O Jahnavi! You are held in the highest esteem. You destroy your devotee’s sins and save them from hell...]
पुनरसदङ्गॆ पुण्यतरङ्गॆ जय जय जाह्नवि करुणापाङ्गॆ ।
इन्द्रमुकुटमणिराजितचरणॆ सुखदॆ शुभदॆ भृत्यशरण्यॆ ॥ 8 ॥
[हे जाह्नवी ! आप करुणा से परिपूर्ण हो... आप अपने दिव्य जल से अपने भक्तो को विशुद्ध कर देती हो... आपके चरण देवराज इन्द्र के मुकुट के मणियो से सुशोभित हैं... शरण में आने वाले को आप सुख और शुभता (प्रसन्नता) प्रदान करती हो...
O Jahnavi! You are full of compassion. You purify your devotees with your holy waters. Your feet are adorned with the gems of Indra’s crown. Those who seek refuge in you are blessed with happiness...]
रॊगं शॊकं तापं पापं हर मॆ भगवति कुमतिकलापम् ।
त्रिभुवनसारॆ वसुधाहारॆ त्वमसि गतिर्मम खलु संसारॆ ॥ 9 ॥
[ हे भगवती ! मेरे समस्त रोग, शोक, ताप, पाप और कुमति को हर लो... आप त्रिभुवन का सार हो और वसुधा (पृथ्वी) का हार हो... हे देवी ! इस समस्त संसार में मुझे केवल आपका ही आश्रय है...
O Bhagavati! Take away my diseases, sorrows, difficulties, sins and wrong attitudes. You are the essence of the three worlds and you are like a necklace around the Earth. O Devi! You alone are my refuge in this Samsara...]
अलकानन्दॆ परमानन्दॆ कुरु करुणामयि कातरवन्द्यॆ ।
तव तटनिकटॆ यस्य निवासः खलु वैकुण्ठॆ तस्य निवासः ॥ 10 ॥
[हे गंगे ! प्रसन्नता चाहने वाले आपकी वंदना करते हैं... हे अलकापुरी के लिए आनंद-स्रोत... हे परमानन्द स्वरूपिणी... आपके तट पर निवास करने वाले वैकुण्ठ में निवास करने वालो की तरह ही सम्मानित हैं...
O Ganga! those who seek happiness worship you. You are the source of happiness for Alkapuri and source of eternal bliss. Those who reside on your banks are as privileged as those living in Vaikunta...]
वरमिह नीरॆ कमठॊ मीनः किं वा तीरॆ शरटः क्षीणः ।
अथवाश्वपचॊ मलिनॊ दीनस्तव न हि दूरॆ नृपतिकुलीनः ॥ 11 ॥
[ हे देवी ! आपसे दूर होकर एक सम्राट बनकर जीने से अच्छा है आपके जल में मछली या कछुआ बनकर रहना... अथवा तो आपके तीर पर निर्धन चंडाल बनकर रहना...
O Devi ! It is better to live in your waters as turtle or fish, or live on your banks as poor “candal” rather than to live away from you as a wealthy king...]
भॊ भुवनॆश्वरि पुण्यॆ धन्यॆ दॆवि द्रवमयि मुनिवरकन्यॆ ।
गङ्गास्तवमिमममलं नित्यं पठति नरॊ यः स जयति सत्यम् ॥ 12 ॥
[हे ब्रह्माण्ड की स्वामिनी ! आप हमें विशुद्ध करें... जो भी यह गंगा स्तोत्र प्रतिदिन गाता है... वह निश्चित ही सफल होता है...
O Godess of Universe! You purify us. O daughter of muni Jahnu! one who recites this Ganga Stotram everyday, definitely achieves success...]
यॆषां हृदयॆ गङ्गा भक्तिस्तॆषां भवति सदा सुखमुक्तिः ।
मधुराकन्ता पञ्झटिकाभिः परमानन्दकलितललिताभिः ॥ 13 ॥
[ जिनके हृदय में गंगा जी की भक्ति है... उन्हें सुख और मुक्ति निश्चित ही प्राप्त होते हैं... यह मधुर लययुक्त गंगा स्तुति आनंद का स्रोत है...
Those who have devotion for Mother Ganga, always get happiness and they attain liberation. This beautiful and lyrical Gangastuti is a source of Supreme bliss...]
गङ्गास्तॊत्रमिदं भवसारं वांछितफलदं विमलं सारम् ।
शङ्करसॆवक शङ्कर रचितं पठति सुखीः तव इति च समाप्तः ॥ 14 ॥
[भगवत चरण आदि जगद्गुरु द्वारा रचित यह स्तोत्र हमें विशुद्ध कर हमें वांछित फल प्रदान करे...
This Ganga Stotram, written by Sri Adi Shankaracharya,devotee of Lord Shiva, purifies us and fulfills all our desires...]
भगवती गंगा देवये नमः ...|
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सामयिक दोहा गीत
अहंकार की हार
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समय कह रहा: 'आँक ले
तू अपनी औकात।
मत औरों की फ़िक्र कर,
भुला न बोली बात।।
जीत नम्रता की हुई,
अहंकार की हार...
*
जनता ने प्रतिनिधि चुने,
दूर करें जन-कष्ट।
मुक्त कराओ किसी से,
नहीं घोषणा शिष्ट।।
बड़बोले का सिर झुका,
सही नियति का न्याय।
रोजी छन गरीब की,
हो न सेठ-पर्याय।।
शाह समझ मत कर कभी,
जन-हित पर आघात।
समय कह रहा आँक ले
तू अपनी औकात।।
लौटी आकर लक्ष्मी
देख बंद है द्वार,
जीत नम्रता की हुई,
अहंकार की हार...
*
जोड़-तोड़कर मत बना,
जहाँ-तहाँ सरकार।
छुटभैये गुंडइ करें,
बिना बात हुंकार।।
सेठ-हितों की नीतियाँ,
अफसर हुए दबंग।
श्रमिक-कृषक क्रंदन करें,
आम आदमी तंग।
दाम बढ़ा पेट्रोल के,
खुद लिख ली निज मात।
समय कह रहा आँक ले
तू अपनी औकात।।
किया गैर पर; पलटकर
खुद ही झेला वार,
जीत नम्रता की हुई,
अहंकार की हार...
*
लघु उद्योगों का हुआ,
दिन-दिन बंटाढार।
भूमि किसानों की छिनी,
युवा फिरें बेकार।
दलित कहा हनुमंत को,
कैसे खुश हों राम?
गरज प्रवक्ता कर रहे,
खुद ही जनमत वाम।
दोष अन्य के गिनाकर,
अपने मिटें न तात।
समय कह रहा आँक ले
तू अपनी औकात।।
औरों खातिर बोए थे,
खुद को चुभते खार,
जीत नम्रता की हुई,
अहंकार की हार...
१२.१२.२०१८
(३ राज्यों में भाजपा की हार पर)
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मुक्तक:
गीत रचें नवगीत रचें अनुगीत रचें या अगीत रचें
कोशिश यह हो कि रचें जो भी न कुरीत रचें, सद्ऱीत रचें
कुछ बात कहें अपने ढंग से, रस लय नव बिम्ब प्रतीक रहे
नफरत-विद्वेष न याद रहे, बंधुत्व स्नेह संग प्रीत रचें
१२.१२.२०१४
...
गीत:
मन से मन के तार जोड़ती.....
संजीव 'सलिल'
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मन से मन के तार जोड़ती कविता की पहुनाई का.
जिसने अवसर पाया वंदन उसकी चिर तरुणाई का.....
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जहाँ न पहुँचे रवि पहुँचे वह, तम् को पिए उजास बने.
अक्षर-अक्षर, शब्द-शब्द को जोड़, सरस मधुमास बने..
बने ज्येष्ठ फागुन में देवर, अधर-कमल का हास बने.
कभी नवोढ़ा की लज्जा हो, प्रिय की कभी हुलास बने..
होरी, गारी, चैती, सोहर, आल्हा, पंथी, राई का
मन से मन के तार जोड़ती कविता की पहुनाई का.
जिसने अवसर पाया वंदन उसकी चिर तरुणाई का.....
*
सुख में दुःख की, दुःख में सुख की झलक दिखाकर कहती है.
सलिला बारिश शीत ग्रीष्म में कभी न रूकती, बहती है.
पछुआ-पुरवैया होनी-अनहोनी गुपचुप सहती है.
सिकता ठिठुरे नहीं शीत में, नहीं धूप में दहती है.
हेर रहा है क्यों पथ मानव, हर घटना मन भाई का?
मन से मन के तार जोड़ती कविता की पहुनाई का.
जिसने अवसर पाया वंदन उसकी चिर तरुणाई का.....
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हर शंका को हरकर शंकर, पियें हलाहल अमर हुए.
विष-अणु पचा विष्णु जीते, जब-जब असुरों से समर हुए.
विधि की निधि है प्रविधि, नाश से निर्माणों की डगर छुए.
चाह रहे क्यों अमृत पाना, कभी न मरना मनुज मुए?
करें मौत का अब अभिनन्दन, सँग जन्म के आई का.
मन से मन के तार जोड़ती कविता की पहुनाई का.
जिसने अवसर पाया वंदन उसकी चिर तरुणाई का.....
१२.१२.२०१३
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