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सोमवार, 28 मार्च 2022

दोहा, कुण्डलिया, मुक्तक, मुक्तिका,

मुक्तिका
*
कहाँ गुमी गुड़धानी दे दो
किस्सोंवाली नानी दे दो
बासंती मस्ती थोड़ी सी
थोड़ी भंग भवानी दे दो
साथ नहीं जाएगा कुछ भी
कोई प्रेम निशानी दे दो
मोती मानुस चून आँख को
बिन माँगे ही पानी दे दो
मीरा की मुस्कान बन सके
बंसी-ध्वनि सी बानी दे दो
*
मुक्तक
शशि त्यागी है सदा से, करे चाँदनी दान
हरी हलाहल की तपिश, शिव चढ़ पाया मान
सुंदरता पर्याय बन, कवियों से पा प्रेम
सलिल धार में छवि लखे, माँगे जग की क्षेम
२७-३-२०२०
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कुण्डलिया
*
मन से राधाकिशन तब, 'सलिल' रहे थे संग.
तन से रहते संग अब, लिव इन में कर जंग..
लिव इन में कर जंग, बदलते साथी पल-पल.
कौन बताए कौन, कर रहा है किससे छल?.
नाते पलते मिलें, आजकल केवल धन से.
सलिल न हों संजीव, तभी तो रिश्ते मन से.
*
त्वरित प्रतिक्रिया
महारास और न्यायालय
*
महारास में भाव था, लीला थी जग हेतु.
रसलीला क्रीडा हुई, देह तुष्टि का हेतु..
न्यायालय अँधा हुआ, बँधे हुए हैं नैन.
क्या जाने राधा-किशन, क्यों खोते थे चैन?.
हलकी-भारी तौल को, माने जब आधार.
नाम न्याय का ले करे, न्यायालय व्यापार..
भारहीन सच को 'सलिल', कोई न सकता नाप.
नाता राधा-किशन का, सके आत्म में व्याप..
२८-३-२०१०
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