मुण्डकोपनिषद १
परा सत्य अव्यक्त जो, अपरा वह जो व्यक्त।
ग्राह्य परा-अपरा, नहीं कहें किसी को त्यक्त।।
परा पुरुष अपरा प्रकृति, दोनों भिन्न-अभिन्न।
जो जाने वह लीन हो, अनजाना है खिन्न।।
जो विदेह है देह में, उसे सकें हम जान।
भव सागर अज्ञान है, अक्षर जो वह ज्ञान।।
मन इंद्रिय अरु विषय को, मान रहा मनु सत्य।
ईश कृपा तप त्याग ही, बल दे तजो असत्य।।
भोले को भोले मिलें, असंतोष दुःख-कोष।
शिशु सम निश्छल मन रखें, करें सदा संतोष।।
पाना सुखकारक नहीं, खोना दुखद न मान।
पाकर खो, खोकर मिले, इस सच को पहचान।।
'कुछ होने' का छोड़ पथ, 'कुछ मत हो' कर चाह।
जो रीता वह भर सके, भरा रीत भर आह।।
तन को पहले जान ले, तब मन का हो ज्ञान।
अपरा बिना; न परा का, हो सकता अनुमान।।
सांसारिक विज्ञान है, अपरा माध्यम मान।
गुरु अपरा से परा की, करा सके पहचान।।
अक्षर अविनाशी परा, अपरा क्षर ले जान।
अपरा प्रगटे परा से, त्याग परा पहचान।।
मन्त्र हवन अपरा समझ, परा सत्य का भान।
इससे उसको पा सके, कर अभ्यास सुजान।।
अपरा पर्दा कर रही, दुनियावी आचार।
परा न पर्दा जानती, करे नहीं व्यापार।।
दृष्टा दृष्ट न दो रहें, अपरा-परा न भिन्न।
क्षर-अक्षर हों एक तो, सत्यासत्य अभिन्न।।
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मुण्डक उपनिषद
मुण्डक उपनिषद प्रथम मुण्डक, प्रथम खंड
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ॐ वचन शुभ सुनें कर्ण प्रभु!, शुभ देखें दृग यजन करें जब।
दृढ़ अंगों से प्रभु वंदन कर, भोगें आयु देव हित में हम।।
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ॐ वचन शुभ सुनें कर्ण प्रभु!, शुभ देखें दृग यजन करें जब।
दृढ़ अंगों से प्रभु वंदन कर, भोगें आयु देव हित में हम।।
कीर्ति सुयश युत इंद्र करें शुभ, विश्व वेद पति पूषा शुभ कर।
अरिष्टनाशी गरुड़ करें शुभ, सुरगुरु बृहस्पति शुभ करिए।।
।।ॐ शांति: शांति: शांति:।।
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ॐ प्रथम ब्रम्हा-सुर प्रगटे, जग निर्माता त्रिभुवन रक्षक।
उसने प्रथम ब्रम्ह विद्या यह, सिखलाई अथर्व निज सुत को।१।
अंगिर् ने अथर्व से पाकर, भारद्वाज सत्यवह को दी।
पुनः सत्यवह ने यह विद्या, सिखलाई अंगिरा सुऋषि को।२।
सद्गृहस्थ शौनक ऋषि-सुत ने, पूछा सविधि अंगिरा ऋषि से।
किसे जान लेने पर हम को, प्रभु! सर्वस्व ज्ञात हो जाता?३।
कहा अंगिरा से शौनक ने, दो विद्याएँ कहें ब्रह्मविद।
परा और अपरा दोनों ही, विद्याएँ जानने योग्य हैं। ४।
ऋग्-यजु-साम-अथर्व-कल्प अरु, छंद-निरुक्त-व्याकरण-ज्योतिष।
अपरा विद्या और परा वह, जिससे अक्षर जाना जाता।५।
वह अदृश्य है, गोत्र-वर्ण अरु, आँख कान पग हाथ रहित है।
नित्य सूक्ष्म विभु व्याप्त भूत वह, धीर परा से उसे देखते।६।
बना-लीलती जाला मकड़ी, ज्यों तरु भू से पैदा होते।
लेश-लोम उत्पन्न पुरुष से, ज्यों त्यों अक्षर से जग होता। ७।
तप से ब्रह्मा समृद्ध हो ज्यों, बीज अन्न पितु सुत उपजाता।
उपज अन्न से प्राण मनस सत लोक कर्म फल, मिटें भोग कर।८।
वह सर्वज्ञ सर्व विद्याएँ, जाने- ज्ञान तपस्या उसकी।
उस अक्षर से नाम रूप अरु, अन्न उपजता रहता हरदम।९।
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मुण्डक उपनिषद प्रथम मुण्डक, द्वितीय खंड
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इन सब सत्कर्मों को देखा, त्रेता में ऋषियों ने बहुधा।
उन कर्मों का करो आचरण, यही उपाय सुकृत-फल का है।१।
हव्य सुरों तक ले जाती जब, जलने पर लपटें पावक की।
उत्तर-दक्षिण अर्ध बीच में, अग्नि-सोम को आहुति दें तब।२।
दर्श पौर्णमी चातुर्मासी, अतिथि वर्जना; असमय आहुति।
वैश्वदेव-विधि रहित 'होत्र जो, नष्ट करे फल सत लोकों में।३।
श्याम भयंकर वेगमयी जो, लाल धूम्रमय चिंगारीयुत।
जगत प्रकाशक सप्त जिहवामय, पावक में ही अग्निहोत्र कर।४।
चमक-दमकती ज्वालाओं में, विधिवत जो आहुतियाँ देता।
सूर्य-रश्मियाँ पहुंचा देतीं, उसे वहाँ जहँ, इंद्र निवासी।५।
'आओ! आओ!' कह आहुतियाँ, सूर्य-रश्मि बन ले जाती हैं।
प्रिय वाणी-अभिवादन कर कह, सुकृत-पुण्य यह ब्रह्मलोक है।६।
नाशवान अस्थिर याज्ञिक जो, करते कर्म अठारह ऋत्विज।
इन्हें समझ शुभ; करते वंदन, मूर्ख वरें फिर जरा-मृत्यु को।७।
घिर अज्ञान मानते मूरख, खुद को धैर्यवान पंडित भी।
रोग-बुढ़ापे से घिर भटकें, सूर सूर को ले जाए ज्यों।८।
लीन अविद्या में रहते हम, पाया लक्ष्य; समझ हों गर्वित।
कर्मलीन सच नहीं जानते, भोग कर्म-फक दुखी-पतित हों।९।
इष्ट मिला; मानें वरिष्ठ जन, अन्य न शुभ; वे मूर्ख समझते।
भोग स्वर्ग में पुण्य कर्म फिर, हीन योनि में प्रवेश करते।१०।
वन में तपरत श्रद्धा से जो, ज्ञानी शांत जिएँ भिक्षा पर।
सूर्य-द्वार से वे जाते हैं, वहाँ जहाँ अविनाशी रहता।११।
लोक-कर्म को परख विप्र हो विरक्त; कुछ भी न नित्य जग में।
उसे जानने समिधा लेकर, ब्रह्मनिष्ठ गुरु से पूछे सब।१२।
दर्पमुक्त गुरु विषयमुक्त हो, दे उपदेश प्रश्नकर्ता को।
ब्रह्मज्ञान पा जान सके वह, तनवासी अक्षर व तत्व को। १३।
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मुण्डक उपनिषद
द्वितीय मुण्डक, प्रथम खंड
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सत्य ज्वलित पावक से जैसे, चिनगारियाँ सहस्त्रों निकलें।
उस अक्षर से विविध भाव त्यों, हों उत्पन्न-विलीन उसी में।१।
दिव्य अमूर्त पुरुष व्यापा है, बाहर-भीतर; सभी जगह अज।
बिना प्राण-मन शुद्ध-शुभ्र वह, उत्तम अक्षर से निरुपाधिक।२।
हों प्रतीत अक्षर से उपजे, प्राण मनस व सकल इन्द्रियाँ।
गगन अनिल व ज्योति सलिल सह, भू जो सब जग धारण करती।३।
सिर में अग्नि ; नयन में शशि-रवि, दिशा कान में; वेद वाक् में।
वायु प्राण में; विश्व हृदय में, पग में धरती की प्रतीति हो।४।
उससे सूर्य प्रदीपित पावक, सोम; मेघ; भू पर औषधि हों।
वीर्य पुरुष में हो; सिंचन कर, स्त्री से उत्पन्न प्रजा हो।५।
उससे ऋचा साम मंत्रों सह, दीक्षा यज्ञ दक्षिणा उपजे।
संवत्सर यजमान लोक भी, शशि पवित्र; रवि तप्त आदि भी।६।
उससे वसु ; सुर; साध्य आदि हों, हों मनुष्य पशु और पखेरू।
प्राण; अपान, ब्रीहि, यव; तप हो, श्रद्धा सत्य व ब्रह्मचर्य भी।७।
उससे ही हों सात प्राण अरु, सात दीप्तियाँ-समिध-होम भी।
सात लोक जहँ प्राण विचरते, हृद-गुह में हैं सात-सात सब।८।
इससे उपजें सागर-पर्वत, बहें नदी; औषधि-रस उपजे।
पंच भूत द्वारा परिवेष्टित, देह-आत्मा बीच सूक्ष्म तन।९।
वह पुरुष ही सकल जग है, कर्म और तप ब्रम्ह परामृत।
इसे जानता जो; जीते जी, नष्ट अविद्या-ग्रंथि कर सके।१०।
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मुण्डक उपनिषद द्वितीय मुण्डक, द्वितीय खंड
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निकट उजाला नाम गुहाचर, उसे महत् प्राप्तव्य समर्पित।
पक्षी-पशु, मनु सकल अचर-चर, यह समझो सद-असद श्रेष्ठ भी।१।
जो प्रकाशवत अणु से भी लघु, लोक-लोकवासी जहँ चेतन।
अक्षर ब्रह्म प्राण वाणी मन, मनन योग्य सत् वहीं लगा मन।२।
अस्त्र उपनिषद धनु ले साधे, उपासना से पैना कर शर।
खींच विषय से, लगा चेतना, लक्ष्य ब्रह्म में मैं-वह जानो।३।
प्रणव-धनुष; शर कर आत्मा को, लक्ष्य ब्रह्म अक्षर को बेधो।
ध्यान हटाकर अन्य सभी से, लक्ष्य-बाण सम वह-तुम होओ।४।
अंतरिक्ष धरती द्युलोक हों, सहित प्राण मन अभिन्न उससे।
सूत-वस्त्र सम आत्मा अक्षर, अन्य तजो; यह सेतु अमिय हित।५।
रथ-पहिए में अरा मिलें जो, मिले ह्रदय में सकल नाड़ियाँ।
वह अक्षर हो प्रगट ह्रदय में, कर चिंतन हो दूर तिमिर से।६।
जो सर्वज्ञ सर्ववित रहता, दिव्य ब्रह्मपुर में व्योमन्यात्मा।
मनमय प्राण देह का नायक, ह्रदय-कमल में रहे प्रतिष्ठित।७।
मिटे अविद्या छिन्न-भिन्न हो, सब संदेह नष्ट हो जाते।
कर्म क्षीण हो जाते उसके, मैं वह अक्षर अगर समझ ले।८।
परा ज्योतिमय रहे कोष में, रज से रहित अखंड ब्रह्म वह।
शुभ्र प्रकाशक सकल ज्योति का, आत्म जानते सभी आत्मविद्।९।
रवि शशि तारे विद्युत् से वह, हो न प्रकाशित; अग्नि कर सके?
प्रथम वही; तब उससे बाकी, यह सब कुछ है, सत्य यही है।१०।
ब्रह्म अमृत यह सम्मुख-पीछे, उत्तर में भी, दक्षिण में भी।
ऊपर-नीचे भी प्रसरित है, श्रेष्ठ ब्रह्म हो सकल जगत में। ११।
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तृतीय मुण्डक, प्रथम खंड
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दो सुपर्ण सम जाति सखा सम, ज्यों तन तरु से आलिंगित हैं।
एक खिन्न खा मधुर फलों को, अन्य न खा दमका करता है।१।
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दो सुपर्ण सम जाति सखा सम, ज्यों तन तरु से आलिंगित हैं।
एक खिन्न खा मधुर फलों को, अन्य न खा दमका करता है।१।
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सम तरु, प्रभु न समझता खुद को, पुरुष शोक करता रहता है।
जाने अन्य न भिन्न ईश जब, तब हो जाता शोकमुक्त वह।२।
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दृष्टा देखे स्वर्णकांतिमय, कर्ता ईश अभिन्न ब्रह्म को।
पाप-पुण्य से परे सुज्ञानी, साम्य निरंजन से तब पाता।३।
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प्राण प्राण का ईश प्रकाशित, सब भूतों में जान न करता।
खंडन जो वह आत्म तुष्ट हो, श्रेष्ठ क्रियाओं में रत रहता।४।
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सत्य प्राप्त कर सके आत्मा, सम्यक ज्ञान व ब्रह्मचर्य से।
तन के अंदर ज्योति रूप जो, शुभ्र देख हों दोष क्षीण सब।५।
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सत की जय हो असत की नहीं, राजमार्ग देवत्व ओर जा।
जिससे जाते तृष्णा तज ऋषि, सतभाषी की परम प्राप्ति वह।६।
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सर्वव्याप्त वह आत्मप्रकाशी, सूक्ष्म सूक्ष्म से रहे प्रकाशित।
दूर दूर से; आत्म निकट वह, बुद्धि गुहा में रहता देखें।७।
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नयन न देखें, वाक् न सुनता, तप कर्मों से भी न प्राप्त वह।
ज्ञान प्रसाद विशुद्ध सत्व वह, निष्कल ध्यान करें तब दिखता।८।
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पचविध प्राण प्रविष्ट चेत से, अणु से सूक्ष्म आत्म को जाने।
प्राण-चित्त है सकल प्रजा में, तन में आत्मा शुद्ध प्रकाशित।९।
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जिन लोकों को मन से चाहे, अथवा चाहे किसी भोग को।
लोक-भोग वे प्राप्त कर सके, जो पूजते आत्मज्ञानी को।१०।
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मुण्डक उपनिषद
तृतीय मुण्डक, द्वितीय खंड
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वह जाने है आत्म प्रकाशित, ब्रह्म शुभ्र जग निहित उसी में।
जो पूजें निष्काम भाव से, शुक्र मुक्त हो, फिर न जनमते।१।
हितकर समझ भोग जो चाहे, सकाम हो जन्मे वह जहँ-तहँ।
आप्तकाम की सब इच्छाएँ, यह शरीर रहते विनष्ट हों।२।
नहीं आsत्मा प्रवचन मेधा, या सुनने से ज्ञात हो सके।
आत्म जिसे स्वीकारे वह ही, आत्म-ज्ञान को पा सकता है।३।
आत्मज्ञान बलहीन न पाता, नहीं प्रमादी या अविरागी।
अप्रमाद सन्यास ज्ञान से, आत्मा ब्रह्मधाम जा पाती।४।
आत्म-ज्ञान से तृप्त कृतात्मा, वीतराग प्रशांत हो जाते।
धीर विवेकी वे प्रभु को पा, आत्मयुक्त हो ब्रह्मलीन हों।५।
पढ़ वेदांत ब्रह्म निष्ठा दृढ़, रखें; कर्म तज; आत्म शुद्ध हो।
मृत्यु-बाद हों बंध-मुक्त वे, पा पममृत ब्रह्मलीन हों।६।
पंद्रह कलाएँ होतीं प्रतिष्ठित, देवों-प्रतिदेवों में तब ही।
कर्म और आत्मा अविनाशी, मिलें ब्रह्म से हो अभिन्न तब।७।
ज्यों प्रवहित होती सब नदियाँ, मिलें सिंधु में नाम-रूप तज।
त्यों तज नाम-रूप निज विद्वन, मिलें दिव्य उस परम पुरुष में।८।
जो जाने उस परमब्रह्म को, मैं हूँ वह; वह आप ब्रह्म हो।
मुक्त शोक से हो वह तरता, हृद-गुह-ग्रंथि छूट हो अमृत।९।
अधिकारी ब्रह्मविद्या के, क्रियावन्त श्रोत्रिय श्रद्धालु।
हवन करें एकर्षि अग्नि में, करें शिरोवृत विधिवत भी जो।१०।
परम सत्य यह पुराकाल में, कहा अंगिरा ने शौनक से।
बिना शिरोवृत पढ़ें न विद्या, है प्रणाम हर ऋषि महान को।११।
७-३-२०२२
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