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गुरुवार, 17 मार्च 2022

छंद सरसी, मुक्तिका, होली, गीत, नवगीत

गीत
हम राही बलिदानों के हैं, वे मुस्कानों के
हम चाहक हैं मतिमानों के, वे नादानों के
हम हैं पथिक एक ही पथ के
हम चाबुक, वे ध्वज हैं रथ के
सात वचन हम, वे नग नथ के
हम ध्रुव तारे के दर्शक, वे नाचों-गानों के
हम राही बलिदानों के हैं, वे मुस्कानों के
एक थैली के चट्टे-बट्टे
बोल मधुर अरु कड़वे-खट्टे
हम कृश, वे सब हट्टे-कट्टे
हम थापें टिमकी-मादल के, वे स्वर प्यानो के
हम राही बलिदानों के हैं, वे मुस्कानों के
हम हैं सत्-शिव के आराधक
वे बस सुंदरता के चाहक
हम शीतल, वे मारक-दाहक
वे महलों के मृत, जीवित हम जीव मसानों के
हम राही बलिदानों के हैं, वे मुस्कानों के
कह जुमले वे वोट बटोरें
हम धोखे खा खींस निपोरें
वे मेवे, हम बेरी झोरें
वे चुभते तानों के रसिया, हम सुर-तानों के
हम राही बलिदानों के हैं, वे मुस्कानों के।
वंचित-वंचक संबंधी हम
वे स्वतंत्र हैं, प्रतिबंधी हम
जनम-जनम को अनुबंधी हम
हम राही बलिदानों के हैं, वे मुस्कानों के।
१७-३-२०२२
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रसानंद दे छंद नर्मदा २१
छंद सरसी
दोहा, सोरठा, रोला, आल्हा, सार, ताटंक, रूपमाला (मदन), चौपाई, हरिगीतिका, उल्लाला,गीतिका,घनाक्षरी, बरवै तथात्रिभंगी छंदों से साक्षात के पश्चात् अब मिलिए सरसी से।
सरसी में है सरसता
*
सरसी में है सरसता, लिखकर देखें आप।
कवि मन की अनुभूतियाँ, 'सलिल' सकें जग-व्याप।।
*
'सरसी' छंद लगे अति सुंदर, नाम 'सुमंदर' धीर।
नाक्षत्रिक मात्रा सत्ताइस , उत्तम गेय 'कबीर'।।
विषम चरण प्रतिबन्ध न कोई, गुरु-लघु अंतहिं जान।
चार चरण यति सोलह-ग्यारह, 'अम्बर' देते मान।।
-अंबरीश श्रीवास्तव
सरसी एक सत्ताईस मात्रिक सम छंद है जिसे हरिपद, कबीर व समुन्दर भी कहा जाता है। सरसी में १६-११ पर यति तथा पंक्तयांत गुरु लघु का विधान है। सूरदास, तुलसीदास, नंददास, मीरांबाई, केशवदास आदि ने सरसी छंद का कुशलता प्रयोग किया है। विष्णुपद तथा सार छंदों के साथ सरसी की निकटता है। भानु के अनुसार होली के अवसर पर कबीर के बानी की बानी के उलटे अर्थ वाले जो कबेर कहे जाते हैं, वे प्राय: इसी शैली में होते है। सरसी में लघु-गुरु की संख्या या क्रम बदलने के साथ लय भी बदल जाती है।
उदाहरण-
०१. अजौ न कछू नसान्यो मूरख, कह्यो हमारी मानि।१
०२. सुनु कपि अपने प्रान को पहरो, कब लगि देति रहौ?३
०३. वे अति चपल चल्यो चाहत है, करत न कछू विचार।४
०४. इत राधिका सहित चन्द्रावली, ललिता घोष अपार।५
०५. विषय बारि मन मीन भिन्न नहि, होत कबहुँ पल एक।६
'छंद क्षीरधि' के अनुसार सरसी के दो प्रकार मात्रिक तथा वर्णिक हैं।
क. सरसी छंद (मात्रिक)
सोलह-ग्यारह यति रखें, गुरु-लघु से पद अंत।
घुल-मिल रहए भाव-लय, जैसे कांता- कंत।।
मात्रिक सरसी छंद के दो पदों में सोलह-ग्यारह पर यति, विषम चरणों में सोलह तथा सम चरणों में
ग्यारह मात्राएँ होती हैं। पदांत सम तुकांत तथा गुरु लघु मात्राओं से युक्त होता है।
उदाहरण:
-ॐप्रकाश बरसैंया 'ओमकार'
०६. काली है यह रात रो रही, विकल वियोगिनि आज।
मैं भी पिय से दूर रो रही, आज सुहाय न साज।।
०७.आप चले रोती मैं, ये भी, विवश रात पछतात।
लेते जाओ संग सौत है, ये पावस की रात।।
संजीव वर्मा 'सलिल'
०८. पिता गए सुरलोक विकल हम, नित्य कर रहे याद।
सकें विरासत को सम्हाल हम, तात! यही फरियाद।।
०९. नव स्वप्नों के बीज बो रही, नव पीढी रह मौन।
नेह नर्मदा का बतलाओ, रोक सका पथ कौन?
१०. छंद ललित रमणीय सरस हैं, करो न इनका त्याग।
जान सीख रच आनंदित हों, हो नित नव अनुराग।।
दोहा की तरह मात्रिक सरसी छंद के भी लघु-गुरु मात्राओं की विविधता के आधार पर विविध प्रकार हो
सकते हैं किन्तु मुझे किसी ग्रन्थ में सरसी छंद के प्रकार नहीं मिले।
ख. वर्णिक सरसी छंद:
सरसी वर्णिक छंद के दो पदों में ११ तथा १० वर्णों के विषम तथा सम चरण होते हैं। वर्णिक छंदों में हर वर्ण को एक गिना जाता है. लघु-गुरु मात्राओं की गणना वर्णिक छंद में नहीं की जाती।
उदाहरण:
-ॐप्रकाश बरसैंया 'ओमकार'
११. धनु दृग-भौंह खिंच रही, प्रिय देख बना उतावला।
अब मत रूठ के शर चला,अब होश उड़ा न ताव ला।
१२. प्रिय! मदहोश है प्रियतमा, अब और बना न बावला।
हँस प्रिय, साँवला नत हुआ, मन हो न तना, सुचाव ला।
संजीव वर्मा 'सलिल'
१३. अफसर भरते जेब निज, जनप्रतिनिधि सब चोर।
जनता बेबस सिसक रही, दस दिश तम घनघोर।।
१४. 'सलिल' न तेरा कोई सगा है, और न कोई गैर यहाँ है।
मुड़कर देख न संकट में तू, तम में साया बोल कहाँ है?
१५. चलता चल मत थकना रे, पथ हरदम पग चूमे।
गिरि से लड़ मत झुकना रे, 'सलिल' लहर संग झूमे।।
अरुण कुमार निगम
चाक निरंतर रहे घूमता , कौन बनाता देह।
क्षणभंगुर होती है रचना , इससे कैसा नेह।।
जीवित करने भरता इसमें , अपना नन्हा भाग।
परम पिता का यही अंश है , कर इससे अनुराग।।
हरपल कितने पात्र बन रहे, अजर-अमर है कौन।
कोलाहल-सा खड़ा प्रश्न है , उत्तर लेकिन मौन।।
एक बुलबुला बहते जल का , समझाता है यार ।
छल-प्रपंच से बचकर रहना, जीवन के दिन चार।।
नवीन चतुर्वेदी सरसी छंद
१७. बातों की परवा क्या करना, बातें करते लोग।
बात-कर्म-सिद्धांत-चलन का, नदी नाव संजोग।।
कर्म प्रधान सभी ने बोला, यही जगत का मर्म।
काम बड़ा ना छोटा होता, करिए कभी न शर्म।।
१८. वक़्त दिखाए राह उसी पर, चलता है इंसान।
मिले वक़्त से जो जैसा भी , प्रतिफल वही महान।।
मुँह से कुछ भी कहें, समय को - देते सब सम्मान।
बिना समय की अनुमति, मानव, कर न सके उत्थान।।
राजेश झा 'मृदु'
खुरच शीत को फागुन आया, फूले सहजन फूल।
छोड़ मसानी चादर सूरज, चहका हो अनुकूल।।
गट्ठर बांधे हरियाली ने, सेंके कितने नैन।
संतूरी संदेश समध का, सुन समधिन बेचैन।।
कुंभ-मीन में रहें सदाशय, तेज पुंज व्‍योमेश।
मस्‍त मगन हो खेलें होरी, भोला मन रामेश।।
हर डाली पर कूक रही है, रमण-चमन की बात।
पंख चुराए चुपके-चुपके, भागी सीली रात।
बौराई है अमिया फिर से, मौका पा माकूल।
खा *चासी की ठोकर पतझड़, फांक रही है धूल।।
संदीप कुमार पटेल
१६.सुन्दर से अति सुन्दर सरसी, छंद सुमंदर नाम।
मात्रा धारे ये सत्ताइस, उत्तम लय अभिराम।।
संजीव वर्मा 'सलिल'
छंद:- सरसी मिलिंदपाद छंद, विधान:-१६-११ मात्रा पर यति, चरणान्त:-गुरू लघु
*
दिग्दिगंत-अंबर पर छाया, नील तिमिर घनघोर।
निशा झील में उतर नहाये, यौवन-रूप अँजोर।।
चुपके-चुपके चाँद निहारे, बिम्ब खोलता पोल।
निशा उठा पतवार, भगाये, नौका में भूडोल।।
'सलिल' लहरियों में अवगाहे, निशा लगाये आग।
कुढ़ चंदा दिलजला जला है, साक्षी उसके दाग।।
घटती-बढ़ती मोह-वासना, जैसे शशि भी नित्य।
'सलिल' निशा सँग-साथ साधते, राग-विराग अनित्य।।
संदर्भ- १. छन्दोर्णव, पृ.३२, २. छन्द प्रभाकर, पृ. ६६, ३. हिन्दी साहित्य कोश, भाग १, प्रकाशक: ज्ञानमण्डल लिमिटेड, वाराणसी।संकलन: भारतकोश पुस्तकालय।संपादन: डॉ. धीरेंद्र वर्मा।पृष्ठ संख्या: ७३५। ४. सूरसागर, सभा संस्करण, पद ५३६, ५. सूरसागर, वैंकटेश्वर प्रेस, पृ. ४४५, ६. वि. प., पद १०२
***
***
मुक्तिका-
मापनी: 1222 - 1222 - 122
*
हजारों रंग हैं फागुन मनाओ
भुला शिकवे कबीरा आज गाओ
*
तुम्हें सत्ता सियासत हो मुबारक
हमें सीमा बुलाती, शीश लाओ
*
न खेलो खेल मजहब का घिनौना
करो पूजा-इबादत सर झुकाओ
*
जुबां से मौन ज्यादा बोलता है
न लफ्जों को बिना मकसद लुटाओ
*
नरमदा नेह की सूखे न यारों
सफाई हो,सभी को साथ पाओ
*
कहो जय हिन्द, भारत माँ की जय-जय
फखर से सिर 'सलिल' अपना उठाओ
*
दिलों में दूरियाँ होने न देना
गले मिल, बाँह में लें बांह आओ
***
[बहर:- बहरे-हज़ज मुसद्दस महज़ूफ। वज़्न:-1222 - 1222 - 122 अरकानमफ़ाईलुन मफ़ाईलुन फ़ऊलुन काफ़िया-आ रदीफ़- ओ फ़िल्मी गीत अकेले हैं चले आओ जहाँ हो। मिसरा ये गूंगा गुनगुनाना जानता है।]
***
मुक्तिका
मापनी- २१२२ २१२२ २१२२ २१२
*
आज संसद में पगड़ियाँ, फिर उछालीं आपने
शब्द-जालों में मछलियाँ, हँस फँसा लीं आपने
आप तो पढ़ने गये थे, अब सियासत कर रहे
लोभ सत्ता पद कुरसियाँ, मन बसा लीं आपने
जिसे जनता ने चुना, उसके विरोधी भी चुने
दूरियाँ अपने दरमियाँ, अब बना लीं आपने
देश की रक्षा करें जो, जान देकर रात-दिन
वक्ष पर उनके बरछियाँ, क्यों चला लीं आपने?
पूँछ कुत्ते की न सीधी, हो कभी सब जानते
व्यर्थ झोले से पुँगलियाँ, फिर निकालीं आपने
सात फेरे डाल लाये, बुढ़ापे में भूलकर
अल्पवस्त्री नव तितलियाँ मन बसा लीं आपने
१७-३-२०१६
***
गीतिका

आदमी ही भला मेरा गर करेंगे।
बदी करने से तारे भी डरेंगे।।

बिना मतलब मदद कर दे किसी की
दुआ के फूल तुझ पर तब झरेंगे।।

कलम थामे, न जो कहते हकीकत
समय से पहले ही बेबस मरेंगे।।

नरमदा नेह की जो नहाते हैं
बिना तारे किसी के खुद तरेंगे।।

न रुकते जो 'सलिल' सम सतत बहते
सुनिश्चित मानिये वे जय वरेंगे।।
१७-३-२०१०
***

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