कुल पेज दृश्य

मंगलवार, 22 मार्च 2022

विभा रश्मि

कृति-कृतिकार
विभा रश्मि




















*
जन्म - ३१ अगस्त १९५२, बदायूँ, उत्तर प्रदेश। 
शिक्षा- एम.ए., बी.एड.। 
प्रकाशित पुस्तकें -१ अकाल ग्रस्त रिश्ते /मिश्रित कहानी व लघुकथाएँ १९७६, २. कुहू तू बोल / हाइकु संग्रह, ३. मन का छाजन (लघुकथा संग्रह), ४.साँस लेते लम्हे २०२०। 
सृजन विधा - कहानी, लघुकथा, हाइकू, कवितायेँ। 
उपलब्धि -
विश्वविद्यालयी लेखन प्रतियोगिताओं में पुरस्कृत (कलकत्ता), सर्वश्रेष्ठ शिक्षिका १९८६, ज्ञानोदय साहित्य संस्था, कर्नाटक (ज्ञानोदय साहित्य सेवा सम्मान - २०१६,  समर्थ पत्रिका से श्रेष्ठ लघुकथा पुरस्कृत २०१६ जयपुर, कथादेश से 'दूध' पुरस्कृत। 
भ्रमण - २०१८ लंका यात्रा, सहेली शकुन्तला किरण यानी प्रिय शकुन, मधुदीप, सतीश राज पुष्करणा
अभिरुचि : संकीर्णता विरोधी, बाल मनोविज्ञान पर कविताएँ व लघुकथाएँ, लघुकथाएँ, फ़ोटोग्राफी, सामाजिक कार्य बेटी बचाओ।
संपर्क- २०१ पराग एपार्टमेंट, प्रियदर्शिनी नगर, उदयपुर ३१३०११ राजस्थान। 
चलभाष - ९४१४२९६५३६।   ई मेल- vibharashmi31@gmail.com
*
लघुकथा
आज की अनारकली - 
विभा रश्मि  




मैैं एक छोटे शहर से आई हूूँ , मेरी नज़रें यहाँ अपने बिछड़े परिवेश की तलाश कर बीच से सूर्यास्त, तो कभी सूर्योदय का दृश्य देखने की नाकाम कोशिश कर रही हूँ ...।"

" सुनो न ! अच्छा किया जो सरसों के खेतों में तुमने मेरी तस्वीर खींच ली , वर्ना वो भी रह ही जाती । "
" जल्दी ही खेत कट जायेंगे । क्यों कि उन किसानों ने अपनी ज़मीनें बेच दीं हैं । "
मैंने नोटिस किया कि खेतों और हरियाली के खरीदार बिल्डर - काॅन्ट्रेक्टर लंबी - लंबी कारों से हमारे नये बसे शहर तक आने- जाने लगे हैं ।
जैसे - जैसे ईंट पर ईंट धरी जाती , मैं अपनी बाल्कोनी में घंटों खड़ी होकर , ऊपर उठती इमारतों को देखती ।
मैं एड़ियाँ उचका कर , कभी कुर्सी पर चढ़ कर , हाईवे पे गुज़रते ट्रेफ़िक को देखने का असफ़ल यत्न करती हूँ । सामने की इमारत में ईंटें , चौथी मंज़िल से ऊपर चुनी जा चुकी हैं ।
"मैं कई बातों की मौन गवाह भी हूँ । बताऊँ ? "
मुझे बरबस आज 'अनारकली' की याद आ गयी । उसे ईंटों की दीवार में ज़िंदा चिनवा दिया गया था । मैं प्यार की दीवानी अनारकली के लिये सच में दुखी हूँ ।
चारों तरफ़ की बहुमंज़िला इमारतों ने मुझसे भी तो सारे मंज़र छीन लिये हैं... सामने वाली बिल्डिंग में राजमिस्त्री और मज़दूरों ने पाँचवीं मंज़िल की चिनाई शुरु कर दी है ।
अब मेरी आँखों के सामने सिर्फ़ इमारतें हैं । गिनती हूँ । दाँयीं तरफ़ , फिर बाँयीं तरफ़ , सामने यानी हर तरफ़ इमारतों का सिलसिला ...।
मैं अपनी कल्पना में 'अनारकली' की बेचैनी देख पा रही हूँ ।
"ओफ़्फ़ ! प्यार करनेवाली उस मासूम लड़की को सियासत ने दीवार में ज़िंदा चिनवा दिया ...।"
इस साल के बाद मैं सरसों के खेत नहीं देख पाऊँगी , न खेतों के किनारे खड़े हरे दरख़्त । न हाईवे का व्यस्त ट्रैफ़िक ही कभी फिर दिखेगा ।
अनारकली की बेबसी को स्मरण करते ही मेरी आँखें उसके दर्द में डूबकर डबडबा गयी हैं ।
" सच में , "अनारकलियाँ" क्या ऐसे ही कैद में जीती होंगी ? "
इस ख्याल भर से मेरा गला भर आया ।
किसी ने मुझे पुकारा - ' ओ अनारकली ! '
पर ये मेरा नाम तो नहीं है । फिर मैंने अनजाने में उस पुकार का उत्तर क्यों दिया ?
" हाँ ! बोलो ....सुन रही हूँ ।"
(संग्रह 'साँस लेते लम्हे' से )

*

कोई टिप्पणी नहीं: