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गुरुवार, 24 मार्च 2022

चैती

'काल जयी लोकगीत 'चैती'

“चैती” उत्तर प्रदेश में चैत्र मास में गाया जानेवाला लोकगीत है। चैत या चैत्र मास हिन्दू पंचांग (कैलेंडर) से हिंदुओं का प्रथम महीना माना गया है और फाल्गुन मास को अंतिम महीना। बंगाली और नेपाली कैलेंडर में ये वर्ष का आखिरी महीना माना गया है। चैत्र की शुक्ल प्रतिपदा (प्रथम) तिथि से ही हिंदू नववर्ष की शुरुआत होती है। ईरान में भी इस तिथि को "नौरोज" या "नयावर्ष" मनाया जाता है। सिंधियों में इस दिन झूलेलाल जयंती मनाई जाती है, जिसे 'चैती चांद' या 'युगापुर अवतार' की जयंती कहते हैं। आंध्र प्रदेश में यह पर्व "उगादिनाम्" से मनाया जाता है। 'उगादि' का अर्थ होता है, युग का प्रारंभ अथवा ब्रह्माजी को सृष्टि का पहला दिन। पौराणिक मान्यता के अनुसार ब्रह्माजी ने चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से ही सृष्टि की रचना की थी और इसी दिन भगवान विष्णु ने दशावतार में से पहला अवतार मत्स्य अवतार लेकर प्रलयकाल में अथाह जल राशि में से मनु की नौका को सुरक्षित स्थान पर पहुंचाया था। प्रलय के काल की समाप्ति के बाद मनु से ही सृष्टि की शुरुआत हुई और इसी के साथ सतयुग की शुरुआत हुई। अब यह स्पष्ट हो गया कि चैत का महीना भारतवर्ष में विशेष स्थान रखता है। इस समय अच्छे भोजन अर्थात् शुद्ध भोजन और नीम तथा चिरैता के सेवन करने की सलाह दी जाती है जिससे शरीर पूरे वर्ष स्वस्थ और सक्रिय रहे।

विष्णु के सातवें अवतार श्रीराम का जन्म चैत्र नवरात्र के आखिरी दिन 'रामनवमी' के त्योहार के नाम से मनाया जाता है। उस दिन उत्तर प्रदेश के अयोध्या जिले में रामनवमी मेला लगता है, झारखंड और अन्य प्रांतों में लाल ध्वजा रोपन की प्रथा है तथा तमिलनाडु के रामेश्वरम शहर में भगवान राम की धूमधाम से पूजा होती है, जिसमें लाखों भक्त एकत्रित होते हैँ। इस दिन हिन्दुस्तान के कई प्रांतों में जन्माष्टमी पर्व की मशहूर 'दही हांडी' परंपरा की तरह मिट्टी के कलश में पैसा भरकर उसे एक ऊंचे वृक्ष की सबसे ऊंची शाखा पर लटका देते हैं। मिट्टी के कलश को हरे कपड़े से ढक दिया जाता है और पेड़ में छुपा देते हैं। फिर स्थानीय युवा वर्ग पिरामिड बनाकर वहां तक पहुंचते हैं और फिर उसे खोजकर उतारते हैं। ये खेल आसान नहीं होता है, क्योंकि चढ़ने वाले व्यक्ति पर लगातार पंप से पानी डाला जाता है और इस कठिनाई में भी उसे चढ़ना पड़ता है। बाद में ये पैसा सभी खिलाड़ियों में बांट दिया जाता है।

चैती गायन: श्रृंगार रस प्रधान विधा और उसका महत्व





  


मीनाक्षी प्रसाद

चैती गायन की शुरआत त्रेतायुग से शुरू हो गई थी... घर- घर में श्रीराम के जन्म की बधाई गाई जाती है। 

भगवान राम इक्ष्वाकुवंशी अयोध्या के राजा दशरथ और माता कौशल्या के पुत्र थे। श्रीराम ने त्रेतायुग में राक्षसों का वध करके धरा को शांति प्रदान की थी। इनका विवाह मिथिला के राजा जनक की पुत्री सीता के साथ हुआ था। हम सभी जानते हैं कि जन्म, विवाह, नामकरण, यज्ञोपवीत संस्कार या अन्य पूजा अनुष्ठान पर लोकगीत और भजन गाए जाते हैं। श्रीराम का जन्म चैत्र में हुआ तो ये कहा जा सकता है कि चैती गायन की शुरआत त्रेतायुग से शुरू हो गई थी, क्योंकि चैती में 'होरामा' की टेक लगाकर गाने का चलन है और राम जन्म, राम सीता की होली और उनके विवाह से संबंधित कई चैती गाए जातें हैं। वैसे चैती की विषय- वस्तु काफी व्यापक है। राम जन्म से संबंधित एक होली का उल्लेख है -

जग गइले कौशल्या के भाग हो रामा ।
अवध नगरिया।।
माता कौशल्या लेत बलैय्या
धन-धन होवे राजा।
दशरथ हो रामा
अवध नगरिया ।।
घर-घर बाजत लला की बधइयांं।
शोभा वरन ना जाए हो रामा
चैत राम नौमिया।।

उपरोक्त चैती में राम जन्म का सुंदर वर्णन है। घर- घर में श्रीराम के जन्म की बधाई गाई जा रही हैं। माता कौशल्या अपने पुत्र की नजर उतार रही हैं और राजा दशरथ इस अभूतपूर्व दृश्य को देखकर धन्य हो रहे हैं।

बनारस के संगीताचार्यों ने चैती को उपशास्त्रीय गायन के रूप में विकसित रूप दिया है। 


विवाह में चैती की धुन सुनाई देती है। 

एक चैती श्रीराम और माता सीता जब विवाह के पश्चात अयोध्या में आते हैं और दोनों को स्वागत संबंधित रस्मो के लिए साथ में बैठाया गया है, इस खूबसूरत दृश्य का वर्णन है-

राजत राम सिय साथे हो रामा
अवध नगरिया।
माता कौशल्या तिलक लगावे
सुमित्रा के हाथ सोहे पनमा हो रामा
अवध नगरिया ।।
दासी सखी चलो दरसन कर आवें
पाऊं आनंद अपार हो रामा
बाबा दशरथ दुअरिया।।

उपरोक्त चैती में माता कौशल्या श्रीराम और सीता जी को तिलक लगा रहीं हैं। राम-सीता साथ-साथ आसन पर विराजमान हैं और मां सुमित्रा हाथ में पान लिए हुए हैं, जो नव वर-वधु के स्वागत में उपयोगी होता है। सभी इस दृश्य का दर्शन करने आ रहे हैं और आनंदित हो रहे हैं।

बनारस के संगीताचार्यों ने चैती को उपशास्त्रीय गायन के रूप में विकसित कर एक नया रूप दिया है। उपशास्त्रीय गायन की ठुमरी और चैती में भावाभिव्यक्ति के मामले में काफी समानता पाई जाती है। शुद्ध चैती मात्र लोक धुन है परंतु स्वर संयोजन को देखते हुए ऐसा प्रतीत होता है कि चैती ज्यादातर खमाज ठाट, विलावल ठाट और काफी ठाट में गाया जाता है और इन ठाटों पर आधारित रागों में चैती सहज ग्राह्य होती है।

चैती के विभिन्न विषय-वस्तु इस प्रकार हैं-

विवाह, मुंडन, वासंतिक नवरात्र की वजह से विभिन्न देवी, मंदिरोंं और पूजा संबंधित बिषय गांव के चौपाल में चैती की धुन सुनाई देती है। चैत के महीने में आमों में बौर (मंजर) लग जाते हैं, फसल कटकर खलिहान में आ जाती है। कोयल कूकने लगती है, पपिहा गा उठता है। प्रियतम का संग मिलने पर प्रियतमा सहज चैती गा उठती हैं।

चैती कजरी की ही भाँति अत्यंत मधुर और रसीला गायन है, जहां एक ओर चैती में हमें रस भाव से युक्त ठुमरी का आस्वादन मिलता है, वहीं ध्रुपद- धमार जैसी शास्त्रीय संगीत शैली में गाई जाने वाली चैतियों में भी शास्त्रीय संगीत की पुट मिलती है।

आदिकाल से ही श्रृंगार की भावना मानव समाज के लिए महत्वपूर्ण रही है...


श्रृंगार की भावना मनुष्य में स्वाभाविक रूप से रहती है।

श्रृंगार की भावना मनुष्य में स्वाभाविक रूप से रहती है और आदिकाल से ही ये भावना मानव समाज के लिए महत्वपूर्ण रही है। इसलिए ललित कलाओं में विशेषकर संगीत में श्रृंगारात्मक गान क्रियाओं का चलन रहा है। एक श्रृंगारिक चैती का आनंद लीजिए ...

एहि ठय्यां मोतिया हेराय गइलीं रामा कहवां मैं ढूंढलूंं
अंगना में ढूंढलूंं, अटरियांं पे ढूंढलूंं
ढूंढत-ढूंढत बौराय गइली रामा कहंवा मैंं ढूंढलूंं
तिरछी नजरिया से संय्याजी से पुछलूं
सेजिया पे मोतिया मैं पाय गइली रामा, अब ना मैं ढूंढलूंं

उपरोक्त बंदिश में नायिका अपने नाक का बेसर (मोती) आँगन, दालान, ओसारे आदि सब जगह ढूंढती है पर उसे बेसर नहीं मिलता है। अंत में वो शर्माती हुई अपने पति से पूछती है और तब बेसर उसे अपने सेज पर ही मिल जाता है। बनारस की नायिका शर्मा कर अपने नाक का बेसर खोज रही है तो गया की नायिका गुस्से में अपने प्रियतम से कहती है कि जो नथ उसके पास है, अब वह उसे नहीं पहनेगी क्यूंकि उसके नथ को नजर लग गई है। यहां वह चैती प्रस्तुत है-

झुलनी में लागल नजरिया हो रामा
अब ना पहिरबई ।
झुलनी पहिर हम गइनी बज़रीआ
देवरा नजरिआ लगावे हो रामा
अब ना पहिरबई।।

चैत में वसंती ब्यार या फगुनाहट चलती है, जिससे आलस महसूस होता है। साथ-साथ बेले-चमेली के फूल भी खिल जाते हैं और महुआ के फल भी फलने लगते हैं, जिसकी खुशबू वसंती ब्यार में मिल जाने से संपूर्ण वातावरण में मादकता व्याप्त हो जाती है।

इस विषय पर एक सुंदर चैती प्रस्तुत है।

“चढ़ल चईत अलसाने हो रामा जिया गोरी के।
सेजिया बइठल गोरी सोहे पिया संग
गम गम गमके चमेलिया हो रामा
सोहे गोरी के।।“

उपरोक्त चैती में नायिका नव-विवाहिता है और उसे अभी जिम्मेदारियों का बोध नहीं हुआ है। नवयौवना की अल्हड़पन पराकाष्ठा पर है। उसे अभी नाते-रिश्तेदारों के ताने और कटु वचन की आदत नहीं हुई है। इन चीजों से बेफिक्र वह अपने पति के साथ सेज पर बैठी है और महुआ के फल व बेली-चमेली की खुशबू जो हवा में धुुल गए हैंं उसके प्रभाव से अलसाई हुई है। कवि की ऐसी कल्पनाओं से ऐसा प्रतीत होता है कि नाट्य संगीत का पोषण संगीत की प्रायः इन्हीं विधाओं से होता रहा है।

चैती के कई प्रकार होते हैं..


मां पार्वती के पिता ‘हिमवान’ उनकी विदाई नहीं करते हैं तो भगवान शिव जोगी का रूप धारण कर लेते हैं  

चैती में विरह के भाव भी बड़ी खूबसूरती से उकेरे गए हैं- एक चैती में नायिका आम के बाग में घूमकर आम के मंजर को ध्यान से देख रही और अपने प्रियतम के विदेश से लौटने के महीने की गिनती करती है। अपनी सखी से पूछती है कि कौन से महीने में आम में मंजर लगता है और कौन से महीने में आम के छोटे फल लग जाते हैं, सखी मुझे बताओ-

" सब बन अमुवा बऔर ना हो रामा
सैय्यां घर नाहीं।
कौन मासे अमवा बौरन लागे
कौन मासे लागन टीकोरवा हो रामा।
सैय्यां घर नाहीं।।

तब उसकी सखी बताती है कि माघ के महीने में आम के वृक्ष में मंजर लगते हैं और चैत के महीने में छोटे-छोटे फल लग जाते हैं। इस पर नायिका विरह की वेदना से तड़प उठती है और सोचती है कि मेरे प्रियतम तो कह गए थे कि होली अर्थात् फाल्गुन में मैं हर हाल में आ जाऊंगा पर वे नहीं आए। वह अपनी तुलना आम के उन वृक्षों से करती है जिन पर ना तो फल लगा और ना मंजर ही आया है। एक चैती में मां पार्वती के पिता ‘हिमवान’ उनकी विदाई नहीं करते हैं तो भगवान शिव जोगी का रूप धारण कर लेते हैं। वह चैती इस प्रकार है-

“बाबा हठ की ना गवनमा ना दी ना
एही कारन सैय्यां भइले जोगिया
हो रामा। एही कारनमा।।“

चैती के कई प्रकार होते हैं- चैता, चैती, घाटो, चैता गौरी आदि। चैता मुख्यतः पुरुषों द्वारा गाया जाता है। घाटो चैती में ज्यादातर निर्गुण गाए गए हैं। चैता गौरी सामान्यतः राग गौरी पर आधारित होता है। एक चैता गौरी का उदाहरण इस प्रकार है-

सेज चढ़त डर लागे हो रामा ।
रुन-झुन, रुन-झुन पायल बाजे।
सास ननद मोरा जागे हो रामा ।।

अभी तक हमने कई चैती के उदहारण देखे हैं। अब संत कबीर दास द्वारा लिखित एक घाटो का उदहारण भी प्रस्तुत है। घाटो साधारणतः निर्गुण ही होते हैं :-

"परी गईले नइहरवा में दाग
धूमिल भईली चुनरिया ।
लगी गइले रंगरेजवा से लाग
धूमिल भईली चुनरिया ।।“

उत्तर प्रदेश के अलावा चैती मिथिला क्षेत्र में भी गाई जाती है। ऐसा प्रतीत होता है कि श्रीराम से सीताजी के ब्याह के बाद सांस्कृतिक आदान-प्रदान के तहत उत्तर प्रदेश से चैती बिहार (मिथिलांचल) पहुंच गई थी, क्योंकि सीता के जन्म से संबंधित चैती कम मिलती है। मिथिला में प्रकृति से संबंधित या राम-सीता युगल से संबंधित चैती ज्यादा मिलती है।



चैती मेला में कार्यक्रम प्रस्तुत करते कलाकार। 

चैती में 'चईत' हो रामा, 'सैय्यां घर नाहीं ' कोयलिया, महुरवा, चंपा-चमेली और जूही फूल, चुनरिया , गुलबिया रंग आदि का वर्णन बहुतायत में होता है। चैती में ज्यादातर दीपचंदी, कहरवा, रूपक आदि तालों का प्रयोग होता है। अब तक हमने देखा कि प्रायः सभी चैती के अंत में 'हो रामा' का टेक प्रयुक्त हुआ है। संगीत की कई महफिलों में केवल चैती, टप्पा, होरी और दादरा ही गाए जाते हैं। चैती, कजरी, होरी, ठुमरी, दादरा आदि का गढ़ पूर्वी उत्तर प्रदेश तथा मुख्य रूप से वाराणसी है। पहले केवल इसी को समर्पित संगीत समारोह हुआ करते थे। जिसे बनारस में 'गुलाब बारी' और अन्य जगहों में 'चैता उत्सव' कहा जाता था। 'गुलाब बारी' संगीत समारोह में पुरुष सफेद वस्त्र और स्त्रियां गुलाबी वस्त्र पहनती हैं। आज भी ये उत्सव मनाया जाता है। आज यह संस्कृति लुप्त हो रही है फिर भी “चैती” संगीत प्रेमियों में आज भी बहुत लोकप्रिय है। बनारस के संगीत घराने में “चैती” को एक उपशास्त्रीय गायन शैली के रूप में प्रतिष्ठा प्राप्त है। उत्तर प्रदेश में सिद्धेश्वरी देवी, गिरिजा देवी, निर्मला देवी, सविता देवी, शुभा गुर्टू आदि चैती की जानी मानी गायिकाएं रही हैं। वहीं बिहार में विंध्यवासिनी देवी और शारदा देवी चैती गायन के लिए मशहूर हैं। बारहमासा में भी चैत का महीना संगीत के महीने के रूप में चित्रित किया गया है। शारदा सिन्हा द्वारा गाए एक मैथिली चैती का आनंद लीजिए- 

एजि अमुवा महुरवा के झूलें डरिया।
तनिक तक ना बलमुआ हमार ओरिया।।
अमुवा मोजर गईले, महुवा बिखर गईले।
रसिया से भर गईले फूल डरिया
तनि तकत ना बलमुआ हमार ओरिया।।

प्रस्तुत चैती में प्रकृति, मौसम और श्रृंगार का खूबसूरत वर्णन है, हम सभी का यह प्रयास रहना चाहिए कि ये विधा खूब फुले- फले। फिल्मों में भी चैती का प्रयोग बड़ी खूबसूरती से हुआ है। 1963 में गायक ‘मुकेश’ द्वारा गाया ‘गोदान’ फिल्म का यह चैती जिसे अभिनेता ‘राजकुमार’ पर फिल्माया गया था काफी मशहूर हुआ था।

“हिया जरत रहत दिन रैन।
हो रामा, जरत रहत दिन रैन।।
अमवा की डाली पे कोयल बोले।
तनिक न आवत चैन हो रामा।
जरत रहत दिन रैन।।“

हिन्दुस्तानी संगीत के तीन मुख्य स्वरूप है –लोक संगीत, शास्त्रीय संगीत और उपशास्त्रीय संगीत।
‘लोक’ शब्द संस्कृत के ‘लोकदर्शने’ धातु में ‘घञ् प्रत्यय लगाकर बना है, जिसका अर्थ है – देखने वाला। साधारण जनता के अर्थ में इस शब्द का प्रयोग ऋग्वेद में अनेक स्थानों पर हुआ है। डॉ० वासुदेवशरण अग्रवाल के शब्दों में, “लोक हमारे जीवन का महासमुद्र हैं, जिसमें भूत, भविष्य और वर्तमान संचित हैं। अर्वाचीन मानव के लिये लोक सर्वोच्च प्रजापति है।

डॉ० हजारीप्रसाद द्विवेदी ने ‘लोक’ शब्द का अर्थ जनपद या ग्राम से न लेकर नगरों व गाँवों में फैली उस समूची जनता से लिया है जो परिष्कृत, रुचिसंपन्न तथा सुसंस्कृत समझे जाने वाले लोगों की अपेक्षा अधिक सरल और अकृत्रिम जीवन की अभ्यस्त होती है।

डॉ० कुंजबिहारी दास ने लोकगीतों की परिभाषा देते हुए कहा है, “लोकसंगीत उन लोगों के जीवन की अनायास प्रवाहात्मक अभिव्यक्ति है, जो सुसंस्कृत तथा सुसभ्य प्रभावों से बाहर कम या अधिक आदिम अवस्था में निवास करते हैं। यह साहित्य प्रायः मौखिक होता है और परम्परागत रूप से चला आ रहा है।”
यह मान्यता है की प्रकृतिजनित, नैसर्गिक रूप से लोक कलाएँ पहले उपजीं, परम्परागत रूप में उनका क्रमिक विकास हुआ और अपनी उच्चतम गुणबत्ता के कारण शास्त्रीय रूप में ढल गईं।

लोकगीत काव्य रस से ओत-प्रोत, स्वर-सने, लय-लसे, हृदय तल से उभरे, सर्वथा मनोहारी। विविधता में एकता के साक्षात् प्रतीक। भाषाएँ भिन्न, बोलियाँ विभिन्न, किन्तु विषयवस्तु, स्वर-संयोजन तथा लय-प्रवाह में लगभग समानता। इनकी लघुकाय धुनों को सुनकर ‘बिहारी सतसई विषयक यह उक्ति सहज ही मानस में गूंज उठती है

“सतसैया के दोहरे, ज्यों नावक के तीर, देखन में छोटे लगें, घाव करें गंभीर।”

सच पूछा जाय तो ये लोकगीत हमारे साहित्य की अमूल्य निधि हैं। उनके भीतर से हमारा इतिहास झाँकता है। वे सही अर्थों में हमारे सामाजिक जीवन के दर्पण हैं। इतिहास शोधक, यदि इन लोकगीतों में निहित सामग्री की छान-बीनकर, समुचित विश्लेषण चयन कर उनका अपेक्षित उपयोग करें तो हमारा इतिहास कहीं अधिक सजीव, संतुलित और सर्वांगीण बन जाएगा।

भारतीय संस्कृति की अनूठी धरोहर-लोकगीत। काव्य रस वसंत का अवसान काल चैत की रातों के साथ होता है, इसलिए शृंगार का सम्मोहन बढ़ जाता है। यही कारण है कि चैत मास को ‘मधुमास’ की सार्थक संज्ञा दी गई है। संयोगियों के लिए चैत मास जितना सुखद है उतना ही दुखद है विरह-व्याकुल प्राणियों के लिए।

चैत की सुहानी संध्या, शुभ्र चाँदनी और कोकिला के मादक स्वर का वर्णन करते हुए महाकवि कालिदास ‘ऋतुसंहार’ में कहते हैं, ‘चैत्र मास की वासंतिक सुषमा से परिपूर्ण लुभावनी शामें, छिटकी चाँदनी, कोयल की कूक, सुगंधित पवन, मतवाले भौरों का गुंजार और रात में आसवपान- ये शृंगार भाव को जगाए रखनेवाले रसायन ही हैं।’

चैत माह का महत्व देखते हुए ही इस माह के लिए भारतीय लोक में एक विशेष संगीत रचना हुई है जिसे चैती कहते हैं। चैती में शृंगारिक रचनाओं को गाया जाता है। चैती के गीतों में संयोग एवं विप्रलंभ दोनों भावों की सुंदर योजना मिलती हैं।

यह तो स्पष्ट है कि वसंत में शृंगार भाव का प्राबल्य होने के कारण चैत का महीना विरहिणियों के लिए बड़ा कठिन होता है। ऐसे में अगर प्रिय की पाती भी आ जाए तो उसे थोड़ा चैन मिले, क्योंकि चैत ऐसा उत्पाती महीना है जो प्रिय-वियोग की पीड़ा को और भी बढ़ा देता है-” आयल चैत उतपतिया हो रामा, ना भेजे पतिया।”

कोई किशोरी वधू देखते-देखते युवावस्था में प्रवेश कर जाती है, किंतु चैत के महीने में उसका प्रिय नहीं लौटता, यह उसे बड़ा क्लेश देता है-” चइत मास जोवना फुलायल हो रामा, कि सैंयाँ नहिं आयल।” प्रेमी जनों के लिए उपद्रवी चैत के मादक महीने में प्रियतम नहीं आए तो बाद में आना किस काम का? वस्तुतः यह मधुमास ही तो मिलन का महीना है- “चैत बीति जयतइ हो रामा, तब पिया की करे अयतई।” विरहिणी अपने प्रियतम को संदेश भेजती है- चैत मास में वन में टेसू फूल गए हैं। भौंरें उसका रस ले रहे हैं। तुम मुझे यह दुःख क्यों दे रहे हो. क्योंकि तुम्हारी प्रतीक्षा करते-करते वियोगजनित दुःख से रोते हुए मैंने अपनी आँखें गँवा दी हैं।

चैती गीतों में प्रेम के विविध रूपों की व्यंजना हुई है। इनमें संयोग शृंगार की कहानी भी रागों में लिखी हुई है। कहीं सिर पर मटका रखकर दही बेचने वाली ग्वालिनों से कृष्ण के द्वारा गोरस माँगने का वर्णन है। कहीं कृष्ण-राधा के प्रेम-प्रसंग हैं तो कहीं राम-सीता का आदर्श दांपत्य प्रेम है। कहीं दशरथनंदन के जन्म का आनंदोत्सव है तो कही इन गीतों में दैनिक जीवन के शाश्वत क्रियाकलापों का चित्रण है। साथ ही इनमें चित्र-विचित्र कथा-प्रसंगों एवं भावों के अतिरिक्त सामाजिक जीवन की कुरीतियाँ भी चित्रित हुई हैं। एक चैती गीत में बाल-विवाह की विडंबना चित्रित है-

“राम छोटका बलमुआ बड़ा नीक लागे हो रामा
अँचरा ओढ़ाई सुलाइबि भरि कोरवा हो रामा
अँचरा ओढ़ाई।
रामा करवा फेरत पछुअवा गड़ि गइले हो रामा
सुसुकि-सुसुकि रोवे सिरहनवा हो रामा।”
तो कही चैत की चाँदनी का जो उल्लेख अनेक कवियों ने किया है। चैती गीत भी इसके अपवाद नहीं हैं-

“चाँदनी चितवा चुरावे हो रामा, चैत के रतिया
मधु ऋतु मधुर-मधुर रस घोलै, मधुर पवन अलसावे हो रामा, चैत के रतिया।”

एक चैती गीत में भगवान श्रीकृष्ण का स्वरूप चित्रित हुआ है- कान्हा चरावे धेनु गइया हो रामा, जमुना किनरवा।
तात्पर्य यह कि चैती गीतों में विभिन्न कथानकों का समावेश पाया जाता है। इन गीतों में वसंत की मस्ती एवं इंद्रधनुषी भावनाओं का अनोखा सौंदर्य है। इनके भावों से छलकती रसमयता लोगों को मंत्रमुग्ध कर देती है।

चैती : लोक संगीत की एक ऐसी विधा जो लोक और शास्त्रीय दोनों शैलियों में अत्यन्त लोकप्रिय है।

लोक के अपने अलग रंग हैं और इन्हें पसन्द करने वालों के भी अपने अलग वर्ग हैं लोक संगीत, वह चाहे किसी भी क्षेत्र का हो, उनमें ऋतु के अनुकूल गीतों का समृद्ध खज़ाना होता है यह बात तो आंख मूंद के मान लेने वाली है। लोक संगीत की एक ऐसी ही विधा है ये ‘चैती’ जिसे उत्तर भारत के पूरे अवधी-भोजपुरी क्षेत्र तथा बिहार के भोजपुरी-मिथिला क्षेत्र की सर्वाधिक लोकप्रियता प्राप्त है। भारतीय या हिन्दू कैलेण्डर के चैत्र मास से गाँव के चौपाल में महफिल सजती है और एक विशेष परम्परागत धुन में श्रृंगार और भक्ति रस में पगे ‘चैती’ गीतों का देर रात तक गायन जारी रहता है ।

जब महिला या पुरुष इसे एकल रूप में गाते हैं तो इसे ‘चैती‘ कहा जाता है परन्तु जब समूह या दल बना कर गाया जाता है तो इसे ‘चैता‘ कहा जाता है । इस गायकी का एक और प्रकार है जिसे ‘घाटो‘ कहते हैं । ‘घाटो’ की धुन ‘चैती’ से थोड़ी बदल जाती है । इसकी उठान बहुत ऊँची होती है और केवल पुरुष वर्ग ही समूह में गाते हैं । कभी-कभी इसे दो दलों में बँट कर सवाल-जवाब कर या प्रतियोगिता के रूप में भी प्रस्तुत किया जाता है । इसे ‘चैता दंगल‘ कहा जाता है।

ग्रीष्म ऋतु में गाये जाने वाले ‘चैती’ गीतों का विषय मुख्यतः भक्ति और श्रृंगार प्रधान होता है ।

भारतीय पञ्चांग के अनुसार चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से नया वर्ष शुरू होता है। नई फसल के घर आने का भी यही समय होता है जिसका उल्लास ‘चैती’ में प्रकट होता है। चैत्र नवरात्र प्रतिपदा के दिन से शुरू होता है और नौमी के दिन राम-जन्मोत्सव का पर्व मनाया जाता है । ‘चैती’ में राम-जन्म का प्रसंग लौकिक रूप में होता है ।

इसके आलावा जिस नायिका का पति इस मधुमास में परदेस में है, उस नायिका की विरह व्यथा का चित्रण भी इन गीतों में स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है।

कुछ चैती गीतों का साहित्य पक्ष इतना सबल होता है कि श्रोता संगीत और साहित्य के सम्मोहन में बँध कर रह जाता है ।


लोक संगीत विदुषी विंध्यवासिनी देवी की एक चैती में अलंकारों का प्रयोग देखें – ‘चाँदनी चितवा चुरावे हो रामा, चईत के रतिया ….‘ इस गीत की अगली पंक्ति का श्रृंगार पक्ष तो अनूठा है, – ‘मधु ऋतु मधुर-मधुर रस घोले, मधुर पवन अलसावे हो रामा……‘। चैती गीतों की रसमयता ने संत कवियों को भी लुभाया है। इसीलिए कबीरदास जैसे संतों ने भी चैती शैली में निर्गुण पदों की रचना की- “पिया से मिलन हम जाएब हो रामा, अतलस लहंगा कुसुम रंग सारी पहिर-पहिर गुन गाएब हो रामा।”


कबीर की एक और ऐसी ही निर्गुण चैती कुछ इस प्रकार है -‘कैसे सजन घर जैबे हो रामा….‘ (कबीर)

प्रदर्शनकारी कलाओं पर भरतमुनि का ग्रन्थ- ‘नाट्यशास्त्र’ पंचम वेद माना जाता है । नाट्यशास्त्र प्रथम भाग, पंचम अध्याय के श्लोक 57 में ग्रन्थकार ने स्वीकार किया है कि लोक जीवन में उपस्थित तत्वों को नियमों में बाँध कर ही शास्त्र प्रवर्तित होता है । श्लोक का अर्थ है- ‘इस चर-अचर और दृश्य-अदृश्य जगत की जो विधाएँ, शिल्प, गतियाँ और चेष्टाएँ हैं, वह सब शास्त्र रचना के मूल तत्त्व हैं ।’

चैती गीत के लोक स्वरुप में ताल पक्ष के चुम्बकीय गुण के कारण ही उप शास्त्रीय संगीत में यह स्थान पा सका । लोक परम्परा में चैती 14 मात्र के चाँचर ताल में गायी जाती है, जिसके बीच-बीच में कहरवा का प्रयोग होता है। पूरब अंग की बोल बनाव की ठुमरी भी 14 मात्रा के दीपचन्दी ताल में निबद्ध होती है और गीत के अन्तिम हिस्से में कहरवा की लग्गी का प्रयोग होता है । सम्भवतः चैती के इस गुण ने ही उपशास्त्रीय गायकों को आकर्षित किया होगा ।

अब रही इन लोकगीतों के संगीत पक्ष की बात। वह भी कम रोचक नहीं। लोकगीतों की धुनों की, उनकी स्वर संरचना की तथा उनके लयप्रवाह की अपनी विशिष्टताएँ हैं। प्रथम, इनकी बंदिश प्रायः मध्यसप्तक में ही सीमित होती है, वह भी पूर्वार्ध में ही, उत्तरार्ध का स्पर्श यदा-कदा ही होता है। तार एवं मन्द्रसप्तक इनकी परिधि से बाहर ही रहते हैं, कुछ अपवादों को छोड़कर। इसलिये इनका गायन श्रमसाध्य भी नहीं होता। यों तो इन बंदिशों से सभी बारह स्वरों का प्रयोग होता है, किन्तु बहुलता शुद्ध स्वरों की ही होती है।

लोक जब शास्त्रीय स्वरुप ग्रहण करता है तो उसमें गुणात्मक वृद्धि होती है | चैती गीत इसका एक ग्राह्य उदाहरण है | ऐसा अनुमान है कि राग रचना की प्रेरणा भी इन्हीं रंजक लोकगीतों के स्वरगुच्छों से मिली होगी। मतंग मुनि ने राग की जो व्याख्या की है, उससे इस अनुमान की पुष्टि होती है

“योऽयं ध्वनिविशेषस्तु स्वरवर्ण विभूषितः रंजको जनचित्तानां स रागः कथितो बुधैः“

इसका अभिप्राय है कि लोकगीतों की विशिष्ट धुनों ने कलाकार की कल्पना को कुरेदा होगा और उसने ‘स्वर’ (आरोह-अवरोह), तथा वर्ण (रोचक गायन प्रक्रिया) से विभूषित कर उन्हें जनचित्तरंजक बनाकर ‘राग’ का जामा पहना दिया होगा। कुछ रागों के नाम जैसे भूपाली, जौनपुरी, पहाड़ी आदि इस तथ्य के स्पष्ट परिचायक हैं कि ये राग उन स्थानों की लोकप्रिय लोकधुनों से ही निर्मित और विकसित हुए होंगे।


चैती की एक और विशेषता भी उल्लेखनीय है | यदि चैती गीत में प्रयोग किये गए स्वरों और राग ‘यमनी बिलावल’ के स्वरों का तुलनात्मक अध्ययन किया जाए तो आपको अद्भुत समानता मिलेगी | अनेक प्राचीन चैती में ‘बिलावल’ के स्वर मिलते हैं किन्तु आजकल अधिकतर चैती में ‘तीव्र मध्यम’ का प्रयोग होने से राग ‘यमनी बिलावल’ का अनुभव होता है | यह उदाहरण भरतमुनि के इस कथन की पुष्टि करता है कि लोक कलाओं कि बुनियाद पर शास्त्रीय कलाओं का भव्य महल खड़ा है | सुप्रसिद्ध गायिका निर्मला देवी के स्वरों में कभी आप खोते हैं तो उनकी गायकी में इस चैती ( ‘एही ठैयां मोतिया हेराय….’ : निर्मला देवी) से


परिचित होंगे यहां ठुमरी अंग में एक श्रृंगार प्रधान चैती है | इसमें चैती का लोक स्वरुप, राग ‘यमनी बिलावल’ के मादक स्वर, दीपचन्दी और कहरवा ताल का जादू तथा निर्मला देवी की भावपूर्ण आवाज़ आपको परिवेश की सार्थक अनुभूति कराने में समर्थ होंगे |


अब अन्त में चर्चा- ‘फिल्म संगीत में चैती’ की | कुछ फिल्मों में चैती का प्रयोग किया गया है | 1964 में बनी फिल्म ‘गोदान’ में पण्डित रविशंकर के संगीत निर्देशन में मुकेश ने चैती- ‘हिया जरत रहत दिन रैन हो रामा….’ गाया है | यह लोक शैली में गाया गीत है |


ठुमरी अंग में आशा भोसले ने फिल्म ‘नमकीन’ में चैती गाया है जिसके बोल हैं- ‘बड़ी देर से मेघा…’ | इस गीत में आपको राग तिलक कामोद का आनन्द भी मिलेगा |’हीया जरत रहत दिन रैन…’ फिल्म : गोदान – गायक : मुकेश ‘बड़ी देर से मेघा बरसे हो रामा…’ फिल्म : नमकीन – गायिका : आशा जी


श्री देवेन्द्र सत्यार्थी का कहना है कि लोकगीत का मूल जातीय संगीत में है। लोकगीत हमारे जीवन विकास की गाथा हैं। उनमें जीवन के सुख-दुःख मिलन-विरह, उतार-चढ़ाव की भावनाएँ व्यक्त हुई हैं। सामाजिक रीति एवं कुरीतियों के भाव इन लोकगीतों में निहित हैं। इनमें जीवन की सरल अनुभूतियों एवं भावों की गहराई है इनका विस्तार कहाँ तक है, इसे कोई नहीं बता सकता। किन्तु इनमें सदियों से चले आ रहे धार्मिक विश्वास एवं परम्पराएँ जीवित हैं। ये हृदय की गहराइयों से जन्मे हैं और श्रुति परम्परा से ये अपने विकास का मार्ग बनाते रहे हैं। अतः इनमें तर्क कम, भावना अधिक है। न इनमें छन्दशास्त्र की लौहश्रृंखला है, न अलंकारों की बोझिलता। इनमें तो लोकमानस का स्वच्छ और पावन गंगा-यमुना जैसा प्रवाह है। लोकगीतों का सबसे बड़ा गुण यह है कि इनमें सहज स्वाभाविकता एवं सरलता है।


चैती उत्तर प्रदेश का, चैत माह पर केंद्रित लोक-गीत है। इसे अर्ध-शास्त्रीय गीत विधाओं में भी सम्मिलित किया जाता है तथा उपशास्त्रीय बंदिशें गाई जाती हैं। चैत्र के महीने में गाए जाने वाले इस राग का विषय प्रेम, प्रकृति और होली रहते है। चैत श्री राम के जन्म का भी मास है इसलिए इस गीत की हर पंक्ति के बाद अक्सर रामा यह शब्द लगाते हैं। संगीत की अनेक महफिलों केवल चैती, टप्पा और दादरा ही गाए जाते है। ये अक्सर राग वसंत या मिश्र वसंत में निबद्ध होते हैं। चैती, ठुमरी, दादरा, कजरी इत्यादि का गढ़ पूर्वी उत्तर प्रदेश तथा मुख्य रूप से वाराणसी है। पहले केवल इसी को समर्पित संगीत समारोह हुआ करते थे जिसे चैता उत्सव कहा जाता था। आज यह संस्कृति लुप्त हो रही है, फिर भी चैती की लोकप्रियता संगीत प्रेमियों में बनी हुई है। बारह मासे में चैत का महीना गीत संगीत के मास के रूप में चित्रित किया गया है।

उदाहरण चैती

चढ़त चइत चित लागे ना रामा/ बाबा के भवनवा/ बीर बमनवा सगुन बिचारो/ कब होइहैं पिया से मिलनवा हो रामा/ चढ़ल चइत चित लागे ना रामा

चैत की सुहानी संध्या, शुभ्र चाँदनी और कोकिला के मादक स्वर का वर्णन करते हुए महाकवि कालिदास 'ऋतुसंहार' में कहते हैं, 'चैत्र मास की वासंतिक सुषमा से परिपूर्ण लुभावनी शामें, छिटकी चाँदनी, कोयल की कूक, सुगंधित पवन, मतवाले भौरों का गुंजार और रात में आसवपान- ये शृंगार भाव को जगाए रखनेवाले रसायन ही हैं।'

वसंत का अवसान काल चैत की रातों के साथ होता है, इसलिए शृंगार का सम्मोहन बढ़ जाता है। यही कारण है कि चैत मास को 'मधुमास' की सार्थक संज्ञा दी गई है। संयोगियों के लिए चैत मास जितना सुखद है उतना ही दुखद है विरह-व्याकुल प्राणियों के लिए।

चैत माह का महत्व देखते हुए ही इस माह के लिए भारतीय लोक में एक विशेष संगीत रचना हुई है जिसे चैती कहते हैं। चैती में शृंगारिक रचनाओं को गाया जाता है। चैती के गीतों में संयोग एवं विप्रलंभ दोनों भावों की सुंदर योजना मिलती हैं। यह महीना श्री राम के जन्म का भी है। इसलिए चैती की हर पंक्ति के अंत में रामा कहने की प्रथा है।

यह तो स्पष्ट है कि वसंत में शृंगार भाव का प्राबल्य होने के कारण चैत का महीना विरहिणियों के लिए बड़ा कठिन होता है। ऐसे में अगर प्रिय की पाती भी आ जाए तो उसे थोड़ा चैन मिले, क्योंकि चैत ऐसा उत्पाती महीना है जो प्रिय-वियोग की पीड़ा को और भी बढ़ा देता है- आयल चैत उतपतिया हो रामा, ना भेजे पतिया। कोई नायिका खेत में बैंगन तोड़ने जाती है और उसकी छाती में काँटा गड़ जाता है- बैगन तोड़े गैलों ओहो बैंगन बरिया, गड़ि गेल छतिया में काँट हो राम। इस गीत में काँटा गड़ जाने का तात्पर्य विरह व्यथा की तीव्रता ही है।

कोई किशोरी वधू देखते-देखते युवावस्था में प्रवेश कर जाती है, किंतु चैत के महीने में उसका प्रिय नहीं लौटता, यह उसे बड़ा क्लेश देता है- चइत मास जोवना फुलायल हो रामा, कि सैंयाँ नहिं आयल। प्रेमी जनों के लिए उपद्रवी चैत के मादक महीने में प्रियतम नहीं आए तो बाद में आना किस काम का? वस्तुतः यह मधुमास ही तो मिलन का महीना है-
चैत बीति जयतइ हो रामा, तब पिया की करे अयतई। विरहिणी अपने प्रियतम को संदेश भेजती है- चैत मास में वन में टेसू फूल गए हैं। भौंरें उसका रस ले रहे हैं। तुम मुझे यह दुःख क्यों दे रहे हो. क्योंकि तुम्हारी प्रतीक्षा करते-करते वियोगजनित दुःख से रोते हुए मैंने अपनी आँखें गँवा दी हैं।

चैती गीतों में प्रेम के विविध रूपों की व्यंजना हुई है। इनमें संयोग शृंगार की कहानी भी रागों में लिखी हुई है। कहीं आलसी पति को सूर्योदय के बाद सोने से जगाने का वर्णन है तो कहीं पति-पत्नी के प्रणय-कलह की झाँकी देखने को मिलती है। कहीं ननद और भावज के पनघट पर पानी भरते समय किसी दुश्चरित्र पुरुष द्वारा छेड़खानी का उल्लेख है तो कहीं सिर पर मटका रखकर दही बेचनेवाली ग्वालिनों से कृष्ण के द्वारा गोरस माँगने का वर्णन है। कहीं कृष्ण-राधा के प्रेम-प्रसंग हैं तो कहीं राम-सीता का आदर्श दांपत्य प्रेम है। कहीं दशरथनंदन के जन्म का आनंदोत्सव है तो कहीं राम और उनके भाइयों का नैसर्गिक प्रेम। कहीं स्वकीया तथा कहीं परकीया नायिका के प्रेम के विविध रूप दिखाए गए हैं। तात्पर्य यह कि चैती गीतों में विभिन्न कथानकों का समावेश पाया जाता है। इन गीतों में वसंत की मस्ती एवं इंद्रधनुषी भावनाओं का अनोखा सौंदर्य है। इनके भावों से छलकती रसमयता लोगों को मंत्रमुग्ध कर देती है।

एक मुग्धा नायिका बाग में फूल चुनने की कल्पना में विभोर है। वर एक ही फूल के रंग में अपनी चुनरी और प्रिय की पगड़ी रंगाकर दोनों के बीच एकरूपता लाना चाहती है-
कुसुमी लोढ़न हम जाएब हो रामा राजा केर बगिया,
मोर चुनरिया सैंयाँ तोर पगड़िया एकहि रंग रँगायब हो रामा।

यहाँ फूल कोमल भावों के प्रतीक हैं। इसी प्रकार प्रियतम के साथ अखंड प्रेम में डूबी एक स्त्री कोयल का स्वर सुनकर बहेलिए से प्रार्थना करती है कि मेरी सुखनिद्रा में विघ्न पहुँचानेवाली इस कोयल को मार डालो-
आहो रामा, गोड़ तोर लागेली बाबा के बहेलिया हो रामा, बिरही कोइलिया मारि ले आऊ हो रामा।

एक चैती गीत में ननद के आचरण पर आशंका व्यक्त करनेवाली भाभी की उक्ति है-
आहो रामा, हम तोसे पूछेलीं ननदी सुलोचनी हो रामा
तोहरे पिठिया धूरिया कइसे लागल हो रामा तोहरे पिठिया...
आहो रामा, बाबा के दुअरवा नाचेला नेटुअवा हो रामा
भितिया सटल धूरिया लागल हो रामा, भितिया सटल।

आलसी पति को जगाते-जगाते एक स्त्री जब हार जाती है तो वह ननद से उसे जगाने की प्रार्थना करती है। ननद के अस्वीकार करने पर वह कहती है कि तुम्हारे लिए तो भाई सो रहा है, पर मेरे लिए उसका सो जाना सूरज-चाँद के अस्त हो जाने जैसा है- रामा तोरा लेखे ननदो भइया अलसइले हो रामा, मोरा लेखे चान-सुरुज छपित भइले हो रामा, मोरा लेखे।

चैत मास की हवा शरीर को मीठे आलस्य से भर देती है। नींद और स्वप्न में डूबी हुई एक नायिका सखी के जगाने पर खीझ उठती है-
सुतला में काहेला जगैलऽ हो रामा, भोरे हो भोरे
रस के सपनमा में हलइ अँखियाँ डूबल, अंग ही अंग अलसाए हो रामा, भोरे ही भोरे।

एक चैती गीत में पति-पत्नी के कलह का चित्रण है। पति रूठकर योगी हो जाता है, तब पत्नी व्यग्र होकर आने-जानेवाले बटोहियों से प्रियतम का पता पूछती है। एक गीत में संयोग शृंगार का अप्रत्यक्ष वर्णन है-

एहि ठइयाँ झुलनी हेरानी हो रामा एहि ठइयाँ
घरवा में खोजलीं, दुअरा पे खोजली खोजि अइलीं सैंयाँ के सेजरिया हो रामा, खोजि अइलीं।

कुछ चैती गीतों में गहरी करुणा व्यंजित हुई है। राम को वन भेजे जाने के कारण सारी अयोध्या नगरी कैकेयी को उपालंभ देती है- रामजी के वनमा पेठौलऽ हो रामा, कठिन तोरा जियरा।
मरियो न गेलइ केकइया निरदइया, जारे मुख कठिन वचनमा हो रामा, कठिन तोरा जियरा।

बंगाल प्रदेश तंत्र-मंत्र के लिए प्रसिद्ध है। एक गीत के अनुसार, आलसी पति को नींद से जगाने के लिए वह बंगालिन से मंत्र देने को कहती है। बदले में वह उसे डलिया भर सोना देने को तैयार है। चैती गीतों में कहीं-कहीं भावनाओं का इतना प्रभावशाली चित्रण हुआ है जो ह्रदय को छू जाता है। नदी के उस पार कोई योनी धूनी रमाए है और इस पार कोई स्त्री सूर्य को अर्घ्य दे रही है। दोनों की एक-दूसरे पर दृष्टि पड़ती है तो जन्म-जन्म की प्रीति उमड़ आती है। वह योगी उस स्त्री का पति ही था-

रामा ओही पार जोगिया धुनिया रमावे हो रामा, एहि पारे, साँवरि सुरुज मनावे हो रामा, एहि पारे।
रामा जोगिया के टूटेला जोगवा हो रामा, साँवरो के जूटेला जनम सनेहिया हो रामा, साँवरो के।

इन गीतों में दैनिक जीवन के शाश्वत क्रियाकलापों का चित्रण है। साथ ही इनमें चित्र-विचित्र कथा-प्रसंगों एवं भावों के अतिरिक्त सामाजिक जीवन की कुरीतियाँ भी चित्रित हुई हैं। एक चैती गीत में बाल-विवाह की विडंबना चित्रित है-

राम छोटका बलमुआ बड़ा नीक लागे हो रामा
अँचरा ओढ़ाई सुलाइबि भरि कोरवा हो रामा
अँचरा ओढ़ाई।
रामा करवा फेरत पछुअवा गड़ि गइले हो रामा
सुसुकि-सुसुकि रोवे सिरहनवा हो रामा।

छोटी उम्र में कन्या का विवाह और उधर व्यापार के लिए पति का विदेश गमन। कन्या युवती हो गई, किंतु परदेशी प्रियतम नहीं लौटा। देवर अबोध है। अपने मन का दर्द वह किसे बताए? एक पत्नी के मना करने पर भी पति बंगाल चला गया। संभवतः वहाँ किसी बंगालिन के जादू में फँस गया। बारह वर्ष बीत गए। वह न लौटा, न कोई संदेश भेजा। नायिका के साथ की सारी सखियाँ पुत्रवती हो गईं, पर उसकी गोद सूनी है और इधर आ गया चंचल चैत। कैसे दिन काटेगी वह?

रामा पूरुब देसवा में बसे बंगलिनिया हो रामा
हरि लीन्हे तोर मन सुरति देखाइ हो रामा,
रामा बारहो बरिस पर चिठियो न भेजे हो रामा
कइसे काटबि चइत दिन चंचल हो रामा।

एक चैती गीत में एक कंजूस पति का उल्लेख है। नायिका नील के रंग में चुनरी रंग रही है, ऐसे में उसे पसीना छूट गया। वह धीरे-धीरे पंखा झलने लगी तो बाँह मुरक गई। वह अपने पति से प्रार्थना करती है कि मेरे लिए पटना से वैद्य बुला दो। साठ रुपए खर्च होने के डर से पति वैद्य को नहीं बुलाना चाहता और पत्नी को मुसीबत समझने लगता है। पारंपारिक चैती गीतों में शृंगार एवं देवता संबंधी पद मिलते हैं। कुछ नए गीतकारों ने चैती में इन्हीं रसों का आश्रय लिया है, किंतु उनका वर्ण्य विषय कहीं-कहीं भिन्न है। एक कवि ने एक चैती गीत में नायिका के स्वप्न का वर्णन किया है- वह सपना देखती है कि उसके पति आए हैं। उनके लिए वह जलपान लाती है, बातचीत करती है, फिर पान खिलाती है। प्रियतम उसके लिए साड़ी और कंगन लाए हैं और उसे ज्यों ही गले लगाना चाहते हैं, उसकी नींद टूट जाती है-
सपना देखीला बलखनवाँ हो रामा, कि सैंयाँ के अवनवाँ
पहिल ओहिल सैंयाँ अइले अंगनवाँ, हम ले जाई जलपनवाँ हो रामा, कि सैंयाँ के अवनवाँ।

एक अन्य गीत में सौत के कष्ट से कुढ़नेवाली नायिका का चित्र मिलता है। प्रियतम की झूठी प्रीत से निराश हो वह जोगिन बन जाना चाहती है, प्राण दे देना चाहता है। एक गीत में ऐसा वर्णन है कि कोई कन्या अपने पिता से प्रार्थना करती है कि मुझे धान उपजानेवाले मुल्क में मत ब्याहना, क्योंकि धान उबालते, सुखाते और गीला मांड-भात खाते मैं परेशान हो जाऊँगी। कुछ चैती गीतों में बड़ी कोमल कल्पनाएँ हैं। जूही का फूल हाथ पर रखते ही कुम्हला जाता है-
हथवा धरत कुम्हला गइले रामा, जूही के फुलवा
सब फूल फूलेला आधी-आधी रतिया, जुहिया फूलेला आधी रतिया हो रामा, जूही के फुलवा।

चैत की चाँदनी का उल्लेख तो अनेक कवियों ने किया है। चैती गीत भी इसके अपवाद नहीं हैं-
चाँदनी चितवा चुरावे हो रामा, चैत के रतिया
मधु ऋतु मधुर-मधुर रस घोलै, मधुर पवन अलसावे हो रामा, चैत के रतिया।

कोई नायिका फूलों के रंग में अपनी चुनरी रंगाना चाहती है, इसीलिए वह पति से फूल रोपने का अनुरोध करती है-
सैंया मोरा रे कुसुमी बोअईहऽ हो रामा, चंपा लगइह, चमेली लगइह, खेतवनि कुसुम होअइह हो रामा।

चैत का महीना बहुत से धार्मिक पर्वों एवं भावनाओं से जुड़ा है। रामनवमी के दिन चैता गाने का एक विशेष उत्साह होता है, जो रामजन्म एवं उनके जीवन की अन्य घटनाओं से संबद्ध रहता है। चैती धुन में बोल लगाकर रामायण गाने की प्रथा भी इस अवसर पर देखी जाती है-
रामा चढ़ले चइतवा राम जनमलें हो रामा, घरे-घरे बाजेला अनंद बधइया हो रामा,
रामा दसरथ लुटावे अनधन-सोनवा हो रामा, कैकयी लुटावे सोने के मुनरिया हो रामा।

कहीं-कहीं चैता गाने के पूर्व उस स्थान के देवी-देवताओं का स्मरण किया जाता है। फिर पृथ्वी को स्मरण करके कहा जाता है कि इसी स्थान पर आज हम चैती गाएँगे-

राम सुमिरीले ठुइयाँ, सुमिरि मति भुइयाँ हो रामा
एही ठैंया, आजु चइति हम गाइबि हो रामा, एहि ठैंया।

एक अन्य विनय संबंधी चैता में आदि भवानी पार्वती से कंठ में मधुर स्वर देने की प्रार्थना की गई है-

रामा पहिले मैं सुमिरों आदि भवानी हो रामा
कंठे सुरवा, होरवऽ होरवऽना सहइया हो रामा. कंठे सुरवा।

राजा जनक ने कठिन प्रण किया है कि जो शिव के धनुष को तोड़ेगा, उसी से वे अपनी बेटी जानकी का विवाह करेंगे-

रामा राजा जनकजी कठिन प्रन ठाने हो रामा,
देसे-देसे लिखि-लिखि पतिया पठावे हो रामा।

किसी चैती गीत में भगवान शंकर एवं पार्वती का सुंदर संवाद चित्रित है तो कहीं शिवजी के तांडव नृत्य का वर्णन है-

भोला बाबा हे डमरू बजावे रामा कि भोला बाबा हे,
भूत-पिशाच संग सब खेले तांडव नाच दिखावे हे रामा।

कैसी चैती गीत में भगवान श्रीकृष्ण का स्वरूप चित्रित हुआ है- कान्हा चरावे धेनु गइया हो रामा, जमुना किनरवा। चैती गीतों की रसमयता ने संत कवियों को भी लुभाया है। इसीलिए कबीरदास जैसे संतों ने भी चैती शैली में निर्गुण पदों की रचना की- पिया से मिलन हम जाएब हो रामा, अतलस लहंगा कुसुम रंग सारी पहिर-पहिर गुन गाएब हो रामा।

इस तरह इन चैती गीतों में लोक-मानस का समग्र रूप चित्रित हुआ है। जीवन के हर्ष-विषाद, शृंगार-वियोग, भक्ति-आस्था आदि से इन गीतों का सृजन हुआ है।

लखी रे लखी बारे ललनमा हो रामा
अँखिया सुफल भई, अँखिया सुफल भई
ऐसो सुंदर ललनमा के देखी
लखी रे लखी बारे ललनमा हो रामा
घुँघराली काली-काली लुटरिया
शोभित कमल नयनवा हो रामा
अँखिया सुफल भई, अँखिया सुफल भई
लखी रे लखी बारे ललनमा हो रामा
अँखिया सुफल भई, अँखिया सुफल भई
*
बाजत आँगन बधैया हो रामा
ऐलै चैत के महिनवा हो रामा
बाजत आँगन बधैया हो रामा
राजा दसरथ के चार कुंवर भए
श्याम गौर छवि छैया हो रामा
*

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