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बुधवार, 15 दिसंबर 2021

सॉनेट, परिचय २०२१, नवगीत, मुक्तक

परिचय : संजीव वर्मा 'सलिल'।
जन्म : २०-८-१९५२, मंडला, मध्य प्रदेश।
आत्मज : स्व. शांति देवी - स्व. राज बहादुर वर्मा।
प्रेरणास्रोत : बुआश्री महीयसी महादेवी वर्मा।
शिक्षा : त्रिवर्षीय डिप्लोमा सिविल अभियांत्रिकी, बी.ई., एम. आई. ई., एम्वि. आई.जी.एस., विशारद, एम. ए. (अर्थशास्त्र, दर्शनशास्त्र), एलएल. बी., डिप्लोमा पत्रकारिता, डी. सी. ए.।
संप्रति : पूर्व कार्यपालन यंत्री लोक निर्माण विभाग म. प्र., अधिवक्ता म. प्र. उच्च न्यायालय, सभापति विश्ववाणी हिंदी संस्थान जबलपुर, संस्थापक सूत्रधार विश्ववाणी हिंदी संस्थान जबलपुर, सभापति अभियान जबलपुर, अध्यक्ष इंजीनियर्स फोरम (इंडिया), चेयरमैन इंडियन जिओटेक्नीकल सोसायटी जबलपुर चैप्टर, पूर्व वरिष्ठ राष्ट्रीय उपाध्यक्ष / महामंत्री राष्ट्रीय कायस्थ महापरिषद, पूर्व राष्ट्रीय उपाध्यक्ष अखिल भारतीय कायस्थ महासभा, संरक्षक राजकुमारी बाई बाल निकेतन जबलपुर।
प्रकाशित कृतियाँ :
०१. कलम के देव (भक्ति गीत संग्रह १९९७)।
०२. भूकंप के साथ जीना सीखें, जनोपयोगी तकनीकी १९९७।
०३. लोकतंत्र का मक़बरा (कविताएँ २००१)।
०४. सौरभ: (संस्कृत श्लोक - हिंदी दोहानुवाद) २००२।
०५. मीत मेरे (कविताएँ २००२) ।
०६. काल है संक्रांति का, गीत-नवगीत संग्रह, २०१६, हरिशंकर श्रीवास्तव सम्मान भोपाल २०१८ - ११०० रु.।
०७. कुरुक्षेत्र गाथा, प्रबंध काव्य, (सहलेखन) २०१६।
०८. सड़क पर, गीत-नवगीत संग्रह, २०१८, अभिव्यक्ति विश्वम पुरस्कार, ११,००० रु.।
९. मीत मेरे, गीत नवगीत संग्रह, २०२१।
संपादन : पुस्तकें १५, स्मारिकाएँ १७, पत्रिकाएँ : ७, साझा संकलन १२।
- भूमिका लेखन: ७० पुस्तकें।
समीक्षा लेखन : २५० पुस्तकें।
- स्तंभ लेखन ८ समाचार पत्र।
- तकनीकी शोध लेख: १५, साहित्यिक /सामाजिक शोध लेख: शताधिक,
- जीवन परिचय प्रकाशित : २५ ग्रंथ।
- पंजाबी, सिंधी, बांगला, अंग्रेजी में रचनाएँ अनुवादित।
- मेकलसुता पत्रिका में २ वर्ष तक लेखमाला 'दोहा गाथा सनातन' प्रकाशित।
- मासिक पत्रिका शिखर वार्ता भोपाल में 'जबलपुर में भूकंप' पर आमुख कथा।
- अंतरजाल पर- १९९८ से सक्रिय, - हिन्द युग्म.कॉम पर छंद-शिक्षण २ वर्ष तक, - साहित्य शिल्पी.कॉम पर 'काव्य का रचनाशास्त्र' ८० अलंकारों तथा 'रसानंद दे छंद नर्मदा' लेखमाला में छंदों का शिक्षण।
- सम्मान १२ राज्यों (मध्यप्रदेश, राजस्थान, महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश, हरयाणा, दिल्ली, गुजरात, छत्तीसगढ़, असम, बंगाल, झारखंड, बिहार) की संस्थाओं द्वारा ३०० से अधिक सम्मान।
- ५०० से अधिक नए छंदों का अन्वेषण।
- तकनीकी लेख 'वैश्विकता ने निकष पर भारतीय यांत्रिकी संरचनाएँ' पर इंस्टीट्शयून ऑफ़ इंजीनियर्स (इंडिया) का 'राष्ट्रीय द्वितीय श्रेष्ठ लेख पुरस्कार' महामहिम राष्ट्रपति जी द्वारा।
- २०० से अधिक कलमकारों को साहित्य की विविध विधाओं में रचनाकरण हेतु मार्गदर्शन।
*


सॉनेट
*
सौ-सौ सवाल पूछिए, कोई नहीं जवाब।
है हुक्मरां की चुप्पियों से चुप्प भी हैरान।
कल तक थे आदमी मगर इस वक्त हैं जनाब।।
जो हर हुकुम बजाए वही हो सके दीवान।।

खुद को कहें फकीर, शान बादशाह सी।
जो हाँ में हाँ मिलाए नहीं, मिटा दें उसे।
जरा भी परवाह नहीं, हाय-आह की।।
हकीकत सिसक रही है एड़ियाँ घिसे।।

दर्द आम का न खास अहमियत रखे।
मौज खास कर सके, अवाम चुप रहे।
जंगल, पहाड़, खेत का नामो-निशां मिटे।।
मसान बने मुल्क भले दिल दहल दहे।।

सिक्के हों चाम के, कहे भिश्ती की सल्तनत।
इक्के हुए गुलाम, जोकरों की हुकूमत। ।
१५-१२-२०२१
***
नवगीत
तुम्हें प्रणाम
*
मेरे पुरखों!
तुम्हें प्रणाम।
*
सूक्ष्म काय थे,
भार गहा फिर,
अणु-परमाणु , विष्णु-विषाणु धारे तुमने।
कोष-वृद्धि कर
'श्री' पाई है।
जल-थल--नभ पर
कीर्ति-पताका
फहराई है।
पंचतत्व तुम
नाम अनाम।
मेरे पुरखों!
तुम्हें प्रणाम।
*
भू-नभ
दिग्दिगंत यश गाते।
भूत-अभूत तुम्हीं ने नाते, बना निभाए।
द्वैत दिखा,
अद्वैत-पथ वरा।
कहा प्रकृति ने
मनुज है खरा।
लड़, मर-मिटे
सुरासुर लेकिन
मिलकर जिए
रहे तुम आम।
मेरे पुरखों!
तुम्हें प्रणाम।
*
धरा-पुत्र हे!
प्रकृति-मित्र हे!
गही विरासत हाय! न हमने, चूक यही।
रौंद प्रकृति को
'ख़ास' हो रहे।
नाश बीज का
आप बो रहे।
खाली हाथों
जाना फिर भी
जोड़ मर रहे
विधि है वाम।
२५.९.२०१८
***
मुक्तक
हर दिन होली, रात दिवाली हो प्यारे
सुबह - साँझ पल हँसी-ख़ुशी के हों न्यारे
सलिल न खोने - पाने में है तंत अधिक
हो अशोक सद्भाव सकल जग पर वारे
***
नवगीत
अंधे पीसें
*
अंधे पीसें
कुत्ते खांय
*
शीर्षासन कर सच को परखें
आँख मूँद दुनिया को निरखें
मनमानी व्याख्या-टीकाएँ
सोते - सोते
ज्यों बर्राएँ
अंधे पीसें
कुत्ते खांय
*
आँखों पर बाँधे हैं पट्टी
न्याय तौलते पीकर घुट्टी
तिल को ताड़, ताड़ को तिल कर
सारे जग को
मूर्ख बनायें
अंधे पीसें
कुत्ते खांय
*
तुम जिंदा हो?, कुछ प्रमाण दो
देख न मानें] भले प्राण दो
आँखन आँधर नाम नैनसुख
सच खों झूठ
बता हरषाएं
अंधे पीसें
कुत्ते खांय
***
१२ - १२- १५
***
माँ को अर्पित चौपदे
बारिश में आँचल को छतरी, बना बचाती थी मुझको माँ
जाड़े में दुबका गोदी में, मुझे सुलाती थी गाकर माँ
गर्मी में आँचल का पंखा, झलती कहती नयी कहानी-
मेरी गलती छिपा पिता से, बिसराती थी मुस्काकर माँ
मंजन स्नान आरती थी माँ, ब्यारी दूध कलेवा थी माँ
खेल-कूद शाला नटखटपन, पर्व मिठाई मेवा थी माँ
व्रत-उपवास दिवाली-होली, चौक अल्पना राँगोली भी-
संकट में घर भर की हिम्मत, दीन-दुखी की सेवा थी माँ
खाने की थाली में पानी, जैसे सबमें रहती थी माँ
कभी न बारिश की नदिया सी कूल तोड़कर बहती थी माँ
आने-जाने को हरि इच्छा मान, सहज अपना लेती थी-
सुख-दुःख धूप-छाँव दे-लेकर, हर दिन हँसती रहती थी माँ
गृह मंदिर की अगरु-धूप थी, भजन प्रार्थना कीर्तन थी माँ
वही द्वार थी, वातायन थी, कमरा परछी आँगन थी माँ
चौका बासन झाड़ू पोंछा, कैसे बतलाऊँ क्या-क्या थी?-
शारद-रमा-शक्ति थी भू पर, हम सबका जीवन धन थी माँ
कविता दोहा गीत गजल थी, रात्रि-जागरण चैया थी माँ
हाथों की राखी बहिना थी, सुलह-लड़ाई भैया थी माँ
रूठे मन की मान-मनौअल, कभी पिता का अनुशासन थी-
'सलिल'-लहर थी, कमल-भँवर थी, चप्पू छैंया नैया थी माँ
***
नवगीत:
पत्थरों की फाड़कर छाती
उगे अंकुर
.
चीथड़े तन पर लपेटे
खोजते बाँहें
कोई आकर समेटे।
खड़े हो गिर-उठ सम्हलते
सिसकते चुप हो विहँसते।
अंधड़ों की चुनौती स्वीकार
पल्लव लिये अनगिन
जकड़कर जड़ में तनिक माटी
बढ़े अंकुर।
.
आँख से आँखें मिलाते
बनाते राहें
नये सपने सजाते।
जवाबों से प्रश्न करते
व्यवस्था से नहीं डरते।
बादलों की गर्जना-ललकार
बूँदें पियें गिन-गिन
तने से ले अकड़ खांटी
उड़े अंकुर।
.
घोंसले तज हौसले ले
चल पड़े आगे
प्रथा तज फैसले ले।
द्रोण को ठेंगा दिखाते
भीष्म को प्रण भी भुलाते।
मेघदूतों का करें सत्कार
ढाई आखर पढ़ हुए लाचार
फूलकर खिल फूल होते
हँसे अंकुर।
.
***
नवगीत :
*
कैंसर!
मत प्रीत पालो
.
अभी तो हमने बिताया
साल भर था साथ
सच कहूँ पूरी तरह
छूटा ही नहीं है हाथ
कर रहा सत्कार
अब भी यथोचित मैं
और तुम बैताल से फिर
आ लदे हो काँध
अरे भाई! पिंड तो छोड़ो
चदरिया निज सम्हालो
.
मत बनो आतंक के
पर्याय प्यारे!
बनो तो
आतंकियों के जाओ द्वारे
कांत श्री की
छीन पाओगे नहीं तुम
जयी औषधि-हौसला
ले पुनः हों हम
रखे धन काला जो
जा उनको सम्हालो
.
शारदासुत
पराजित होता नहीं है
कलमधारी
धैर्य निज खोता नहीं है
करो दो-दो हाथ तो यह
जान लो तुम
पराजय निश्चित तुम्हारी
मान लो तुम
भाग जाओ लाज अब भी
निज बचालो
१५-१२-२०१४
.

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