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शुक्रवार, 10 दिसंबर 2021

मुक्तक, नवगीत, मुक्तिका, दोहा, हाइकु

हाइकु सलिला
*
धरती फ़टी
सिहर गया बीज
ऊगा अंकुर।
*
सलिल मिला
पवन गले लगा
पल्लव उगे।
*
रवि रश्मियाँ
लड़ाने लगीं लाड़
फ़ैली शाखाएँ।
*
देखे अदेखे
सपने सुकुमार
कोमल कली।
*
गुनगुनाते
भ्रमर मँडराए
कुसुम खिला।
*
लगन लगी
वर लिया अद्वैत
सुफल मिला।
*
ख़ुशी अनंत
साँसों में बसंत
यात्रा अनंत
११-१२-२०२१
***
दोहा दुनिया-
उदय भानु का जब हुआ, तभी ही हुआ प्रभात.
नेह नर्मदा सलिल में, क्रीड़ित हँस नवजात.
.
बुद्धि पुनीता विनीता, शिविर की जय-जय बोल.
सत्-सुंदर की कामना, मन में रहे टटोल.
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शिव को गुप्तेश्वर कहो, या नन्दीश्वर आप.
भव-मुक्तेश्वर भी वही, क्षमा ने करते पाप.
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चित्र गुप्त शिव का रहा, कंकर-कंकर व्याप.
शिवा प्राण बन बस रहें हरने बाधा-ताप.
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शिव को पल-पल नमन कर, तभी मिटेगा गर्व.
मति हो जब मिथलेश सी, स्वजन लगेंगे सर्व.
.
शिवता जिसमें गुरु वही, शेष करें पाखंड.
शिवा नहीं करतीं क्षमा, देतीं निश्चय दंड.
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शिव भज आँखें मून्द कर, गणपति का करें ध्यान.
ममता देंगी भवानी, कार्तिकेय दें मान.
१०-१२-२०१७
***
मुक्तक
शब्दों का जादू हिंदी में अमित सृजन कर देखो ना
छन्दों की महिमा अनंत है इसको भी तुम लेखो ना
पढ़ो सीख लिख आत्मानंदित होकर सबको सुख बाँटो
मानव जीवन कि सार्थकता यही 'सलिल' अवरेखो ना
***
मुक्तिका
*
कौन अपना, कहाँ पराया है?
ठेंगा सबने हमें बताया है
*
वक्त पर याद किया शिद्दत से
बाद में झट हमें भुलाया है
*
पाक दामन रहा दिखता जो
पंक में वह मिला नहाया है
*
जोड़ लीं दौलतें ज़माने ने
संत में साथ कुछ न पाया है
*
प्राण जिसमें रहे संजीव वही
श्वास ने सच यही सिखाया है
***

१०-१२-२०१६
***
नवगीत
चालीस चोर
*
चालीस चोर - अलीबाबा
क्योें करते बंटाढार?
*
जनता माँगे
दो हिसाब
क्यों की तुमने मनमानी?
घपले पकड़े गये
आ रही याद
तुम्हें अब नानी
सजा दे रहा जनगण
नाहक क्यों करते तकरार?
चालीस चोर - अलीबाबा
क्योें करते बंटाढार?
*
जननायक से
रार कर रहे
गैरों के पड़ पैर
अपनों से
चप्पल उठवाते
कैसे होगी खैर?
असंसदीय आचरण
बनाते संसद को बाज़ार
चालीस चोर - अलीबाबा
क्योें करते बंटाढार?
*
जनता समझे
कर नौटंकी
फैलाते पाखंड
देना होगा
फिर जवाब
हो कितने भी उद्दंड
सम्हल जाओ चुक जाए न धीरज
जन गण हो बेज़ार
चालीस चोर - अलीबाबा
क्योें करते बंटाढार?
*

***
नवगीत
जनता भई परायी
*
सत्ता पा घोटाले करते
तनकऊ लाज न आयी
जाँच भयी खिसियाये लल्ला
जनता भई परायी
*
अपनी टेंट न देखे कानी
औरों को दे दोस
छिपा-छिपाकर ऐब जतन से
बरसों पाले पोस
सौ चूहे खा बिल्ली हज को
चली, न क्यों पछतायी?
जाँच भयी खिसियाये लल्ला
जनता भई परायी
*
रातों - रात करोड़पति
व्ही आई पी भये जमाई
आम आदमी जैसा जीवन
जीने -गैल भुलाई
न्यायालय की गरिमा
संसद में घुस आज भुलाई
जाँच भयी खिसियाये लल्ला
जनता भई परायी
*
सहनशीलता की दुहाई दें
जो छीनें आज़ादी
अब लौं भरा न मन
जिन्ने की मनमानी बरबादी
लगा तमाचा जनता ने
दूजी सरकार बनायी
जाँच भयी खिसियाये लल्ला
जनता भई परायी
१०-१२-२०१५

***
मुक्तक सलिला:
नारी अबला हो या सबला, बला न उसको मानो रे
दो-दो मात्रा नर से भारी, नर से बेहतर जानो रे
जड़ हो बीज धरा निज रस से, सिंचन कर जीवन देती-
प्रगटे नारी से, नारी में हो विलीन तर-तारो रे
*
उषा दुपहरी संध्या रजनी जहाँ देखिए नारी है
शारद रमा शक्ति नारी ही नर नाहर पर भारी है
श्वास-आस मति-गति कविता की नारी ही चिंगारी हैं-
नर होता होता है लेकिन नारी तो अग्यारी है
*
नेकी-बदी रूप नारी के, धूप-छाँव भी नारी है
गति-यति पगडंडी मंज़िल में नारी की छवि न्यारी है
कृपा, क्षमा, ममता, करुणा, माया, काया या चैन बिना
जननी, बहिना, सखी, भार्या, भौजी, बिटिया प्यारी है
१०-१२-१३
*

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