सॉनेट
शारदा
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शारदा माता नमन शत, चित्र गुप्त दिखाइए।
सात स्वर सोपान पर पग सात हमको दे चला।
नाद अनहद सुनाकर, भव सिंधु पार कराइए।।
बिंदु-रेखा-रंग से खेलें हमें लगता भला।।
अजर अक्षर कलम-मसि दे, पटल पर लिखवाइए।
शब्द-सलिला में सकें अवगाह, हों मतिमान हम।
भाव-रस-लय में विलय हों, सत्सृजन करवाइए।।
प्रकृति के अनुकूल जीवन जी सकें, हर सकें तम।।
अस्मिता हो आस मैया, सुष्मिता हो श्वास हर।
हों सकें हम विश्व मानव, राह वह दिखलाइए।
जीव हर संजीव, दे सुख, हों सुखी कम कष्ट कर।।
क्रोध-माया-मोह से माँ! मुक्त कर मुस्काइए।।
साधना हो सफल, आशा पूर्ण, हो संतोष दे।
शांति पाकर शांत हों, आशीष अक्षय कोष दे।।
१९-१२-२०२१
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सॉनेट
अभियान
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सृजन सुख पा-दे सकें, सार्थक तभी अभियान है।
मैं व तुम हम हो सके, सार्थक तभी अभियान है।
हाथ खाली थे-रहेंगे, व्यर्थ ही अभिमान है।।
ज्यों की त्यों चादर रखें, सत्कर्म कर अभियान है।।
अरुण सम उजियार कर, हम तम हरें अभियान है।
सत्य-शिव-सुंदर रचें, मन-प्राण से अभियान है।
रहें हम जिज्ञासु हरदम, जग कहे मतिमान है।।
सत्-चित्-आनंद पाएँ, कर सृजन अभियान है।।
प्रीत सागर गीत गागर, तृप्ति दे अभियान है।
छंद नित नव रच सके, मन तृप्त हो अभियान है।
जगत्जननी-जगत्पितु की कृपा ही वरदान है।।
भारती की आरती ही, 'सलिल' गौरव गान है।।
रहे सरला बुद्धि, तरला मति सुखद अभियान है।
संत हो बसंत सा मन, नव सृजन अभियान है।।
१९-१२-२०२१
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सामयिक दोहे
तीर अगिन तूणीर में, चुना मरो अब झेल।
जो न साथ होगी तुरत, जेल न पाए बेल।।
तंत्र नाथ है लोक का, मालिक सत्ताधीश।
हुआ न होगा फिर कभी, कोई जुमलाधीश।।
छप्पन इंची वक्ष का, झेले वार तमाम।
जन पदच्युत कर दे बता, करना आता काम।।
रोजी छीनी भाव भी, बढ़ा रही है खूब।
देशभक्ति खेती मिटा, सेठ भक्ति में डूब।।
मूरत होगी राम की, सिया न होंगी साथ।
रेप करेंगे विधायक, भगवा थाने हाथ।।
अहंकार की होड़ है, तोड़ सके तो तोड़।
आग लगाता देश में, सत्ता का गठजोड़।।
'सलिल' सियासत है नहीं, तुझको किंचित साध्य।
जन-मन का दुख-दर्द कह, भारत माँ आराध्य।।
१९-१२-२०१९
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दोहा सलिला
चित्रगुप्त-रहस्य
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चित्रगुप्त पर ब्रम्ह हैं, ॐ अनाहद नाद
योगी पल-पल ध्यानकर, कर पाते संवाद
निराकार पर ब्रम्ह का, बिन आकार न चित्र
चित्र गुप्त कहते इन्हें, सकल जीव के मित्र
नाद तरंगें संघनित, मिलें आप से आप
सूक्ष्म कणों का रूप ले, सकें शून्य में व्याप
कण जब गहते भार तो, नाम मिले बोसॉन
प्रभु! पदार्थ निर्माण कर, डालें उसमें जान
काया रच निज अंश से, करते प्रभु संप्राण
कहलाते कायस्थ- कर, अंध तिमिर से त्राण
परम आत्म ही आत्म है, कण-कण में जो व्याप्त
परम सत्य सब जानते, वेद वचन यह आप्त
कंकर कंकर में बसे, शंकर कहता लोक
चित्रगुप्त फल कर्म के, दें बिन हर्ष, न शोक
मन मंदिर में रहें प्रभु!, सत्य देव! वे एक
सृष्टि रचें पालें मिटा, सकें अनेकानेक
अगणित हैं ब्रम्हांड, है हर का ब्रम्हा भिन्न
विष्णु पाल शिव नाश कर, होते सदा अभिन्न
चित्रगुप्त के रूप हैं, तीनों- करें न भेद
भिन्न उन्हें जो देखता, तिमिर न सकता भेद
पुत्र पिता का पिता है, सत्य लोक की बात
इसी अर्थ में देव का, रूप हुआ विख्यात
मुख से उपजे विप्र का, आशय उपजा ज्ञान
कहकर देते अन्य को, सदा मनुज विद्वान
भुजा बचाये देह को, जो क्षत्रिय का काम
क्षत्रिय उपजे भुजा से, कहते ग्रन्थ तमाम
उदर पालने के लिये, करे लोक व्यापार
वैश्य उदर से जन्मते, का यह सच्चा सार
पैर वहाँ करते रहे, सकल देह का भार
सेवक उपजे पैर से, कहे सहज संसार
दीन-हीन होता नहीं, तन का कोई भाग
हर हिस्से से कीजिये, 'सलिल' नेह-अनुराग
सकल सृष्टि कायस्थ है, परम सत्य लें जान
चित्रगुप्त का अंश तज, तत्क्षण हो बेजान
आत्म मिले परमात्म से, तभी मिल सके मुक्ति
भोग कर्म-फल मुक्त हों, कैसे खोजें युक्ति?
सत्कर्मों की संहिता, धर्म- अधर्म अकर्म
सदाचार में मुक्ति है, यही धर्म का मर्म
नारायण ही सत्य हैं, माया सृष्टि असत्य
तज असत्य भज सत्य को, धर्म कहे कर कृत्य
किसी रूप में भी भजे, हैं अरूप भगवान्
चित्र गुप्त है सभी का, भ्रमित न हों मतिमान
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षट्पदी
श्वास-आस में ग्रह-उपग्रह सा पल-पल पलता नाता हो.
समय, समय से पूर्व, समय पर सच कहकर चेताता हो.
कर्म भाग्य का भाग्य बताये, भाग्य कर्म के साथ रहे-
संगीता के संग आज, कल-कल की बात बताता हो.
जन्मदिवस पर केक न काटें, कभी बुझायें ज्योति नहीं
दीप जला दीवाली कर लें, तिमिर भाग छिप जाता हो.
१९-१२-२०१७
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नवगीत
मालिक को
रक्षक लूट रहे
*
देश एक है हम अनेक
खोया है जाग्रत विवेक
परदेशी के संग लडे
हाथ हमारे रहे जुड़े
कानून कई थे तोड़े
हौसले रहे कब थोड़े?
पाकर माने आज़ादी
भारत माँ थी मुस्कादी
चाह था
शेष न फूट रहे
मालिक को
रक्षक लूट रहे
*
जब अपना शासन आया
अनुशासन हमें न भाया
जनप्रतिनिधि चाहें सुविधा
जनहित-निजहित में दुविधा
शोषक बन बैठे अफसर
धनपति शोषक हैं अकसर
जन करता है नादानी
कानून तोड़ मनमानी
तुम मानो
हमको छूट रहे
मालिक को
रक्षक लूट रहे
*
धनतंत्र हुआ है हावी
दलतंत्र करे बरबादी
दमतोड़ रहा जनतंत्र
फल-फूल रहा मनतंत्र
सर्वार्थ रहे क्यों टाल
निज स्वार्थ रहे हैं पाल
टकराकर
खुद से टूट रहे
मालिक को
रक्षक लूट रहे
*
घात लगाये पडोसी हैं
हम खुद को कहते दोषी हैं
ठप करते संसद खुद हम
खुद को खुद ही देते गम
भूखे मजदूर-किसान
भूले हैं भजन-अजान
निज माथा
खुद ही कूट रहे
मालिक को
रक्षक लूट रहे
*
कुदरत सचमुच नाराज
ला रही प्रलय गिर गाज
तूफ़ान बवंडर नाश
बिछ रहीं सहस्त्रों लाश
कह रहा समय सम्हलो भी
मिल संग सुपंथ चलो भी
सच्चे हों
शेष न झूठ रहे
१९-१२-२०१५
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नव गीत:
नए साल को
आना है तो आएगा ही
.
करो नमस्ते
या मुँह फेरो
सुख में भूलो
दुःख में टेरो
अपने सुर में गाएगा ही
नए साल को
आना है तो आएगा ही
.
एक दूसरे
को मारो या
गले लगाओ
हँस मुस्काओ
दर्पण छवि दिखलायेगा ही
नए साल को
आना है तो आएगा ही
.
चाह न मिटना
तो खुद सुधरो
या कोसो जिस-
तिस को ससुरों
अपना राग सुनायेगा ही
नए साल को
आना है तो आएगा ही
१९-१२-२०१४
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