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रविवार, 15 नवंबर 2020

'गोत्र' तथा 'अल्ल'

विमर्श :
'गोत्र' तथा 'अल्ल'
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
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'गोत्र' तथा 'अल्ल' के अर्थ तथा महत्व संबंधी प्रश्न अखिल भारतीय कायस्थ महासभा का पूर्व राष्ट्रीय उपाध्यक्ष तथा राष्ट्रीय कायस्थ महापरिषद् का पूर्व राष्ट्रीय उपाध्यक्ष व् महामंत्री होने के नाते मुझसे पूछे जाते रहे हैं.

स्कन्दपुराण में वर्णित श्री चित्रगुप्त प्रसंग के अनुसार उनके बारह पुत्रों को बारह ऋषियों के पास विविध विषयों की शिक्षा हेतु भेजा गया था. इन से ही कायस्थों की बारह उपजातियों का श्री गणेश हुआ. ऋषियों के नाम ही उनके शिष्यों के गोत्र हुए. इसी कारण विभिन्न जातियों में एक ही गोत्र मिलता है चूंकि ऋषि के पास विविध जाति के शिष्य अध्ययन करते थे. आज कल जिस तरह मॉडल स्कूल में पढ़े विद्यार्थी 'मोडेलियन' रॉबर्टसन कोलेज में पढ़े विद्यार्थी 'रोबर्टसोनियन' आदि कहलाते हैं, वैसे ही ऋषियों के शिष्यों के गोत्र गुरु के नाम पर हुए. आश्रमों में शुचिता बनाये रखने के लिए सभी शिष्य आपस में गुरु भाई तथा गुरु बहिनें मानी जाती थीं. शिष्य गुरु के आत्मज (संततिवत) मान्य थे. अतः, उनमें आपस में विवाह वर्जित होना उचित ही था.

एक 'गोत्र' के अंतर्गत कई 'अल्ल' होती हैं. 'अल्ल' कूट शब्द (कोड) या पहचान चिन्ह है जो कुल के किसी प्रतापी पुरुष, मूल स्थान, आजीविका, विशेष योग्यता, मानद उपाधि या अन्य से संबंधित होता है. एक गोत्र तथा 'अल्ल' में विवाह सम्बन्ध सामान्यतया वर्जित होता है किन्तु आजकल अधिकांश लोग अपने 'अल्ल' की जानकारी नहीं रखते. गहोई वैश्यों में 'अल्ल' को 'आँकने' कहा जाता है तथा सामान 'आँकने' में विवाह नहीं किया जाता। एक ही गोत्र में कई पीढ़ियों से विवाह संबंध का दुष्परिणाम कायस्थों की प्रतिभा तथा बौद्धिकता में ह्रास के रूप में दृष्टव्य है. 

हमारा गोत्र 'कश्यप' है जो अधिकांश कायस्थों का है तथा उनमें आपस में विवाह सम्बन्ध होते हैं. हमारी अल्ल 'उमरे' है. मुझे इस अल्ल का अब तक केवल एक अन्य व्यक्ति मिला है. मेरे फूफा जी की अल्ल 'बैरकपुर के भले' है. उनके पूर्वज बैरकपुर से नागपुर जा बसे थे.

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