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मंगलवार, 17 अगस्त 2010

मुक्तिका: कब किसको फांसे ---संजीव 'सलिल'

मुक्तिका:

कब किसको फांसे

संजीव 'सलिल'
*











*
सदा आ रही प्यार की है जहाँ से.
हैं वासी वहीं के, न पूछो कहाँ से?

लगी आग दिल में, कहें हम तो कैसे?
न तुम जान पाये हवा से, धुआँ से..

सियासत के महलों में जाकर न आयी
सचाई की बेटी, तभी हो रुआँसे..

बसे गाँव में जब से मुल्ला औ' पंडित.
हैं चेलों के हाथों में फरसे-गंडांसे..

अदालत का क्या है, करे न्याय अंधा.
चलें सिक्कों जैसे वकीलों के झाँसे..

बहू आई घर में, चाचा की फजीहत.
घुसें बाद में, पहले देहरी से खाँसे..

नहीं दोस्ती, ना करो दुश्मनी ही.
भरोसा न नेता का कब किसको फांसे..

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दिव्यनर्मदा.ब्लागस्पाट.कॉम

2 टिप्‍पणियां:

Ganesh Jee 'Bagi' ने कहा…

बसे गाँव में जब से मुल्ला औ' पंडित.
हैं चेलों के हाथों में फरसे-गंडांसे..

बहू आई घर में, चाचा की फजीहत.
घुसें बाद में, पहले देहरी से खाँसे..
वाह आचार्य जी वाह, समझ नहीं आ रहा दाद किसकी दूँ , आप की रचना को दूँ या आपकी दूर की नजर को, छोटी छोटी सामाजिक बातों को भी इस तरह से उठा कर अपनी रचना मे पिरोये है कि मैं वाह वाह कर बैठा ,
बहुत बढ़िया , बधाई आपको इस रचना पर,

Rana Pratap Singh ने कहा…

बेहतरीन....काफिया और रद्दीफ़ की चमत्कारिक जुगलबंदी| वाह के अतिरिक्त और क्या निकल सकता है?