दोहा सलिला:
संजीव 'सलिल'
*
*
कौन कहानीकार है?, किसके हैं संवाद?
बोल रहे सब यंत्रवत, कौन सुने फरियाद??
*
आर्थिक मंदी छा गयी, मचा हुआ कुहराम.
अच्छे- अच्छे फिसलते, कोई न पाता थाम..
*
किसका कितना दोष है?, कहो कौन निर्दोष?
विधना जाने कब करे, सर्व नाश का घोष??
*
हवामहल पल में उड़ा, वासी हुए निराश.
बिन नींव की व्यवस्था, हाय हो गयी ताश..
*
कठपुतलीवत नचाता, थाम श्वास की डोर.
देख न पाते हम झलक, चाहें करुणा-कोर..
*
भ्रम होता हम कर रहे, करा रहा वह काज.
लेते उसका श्रेय खुद, किन्तु न आती लाज..
*
सुविधा पाने जो गए, तजकर अपना देश.
फिर-फिर आते पलटकर, मन में व्यथा अशेष..
*
नगदी के नौ लीजिये, तेरह नहीं उधार.
अब तो छलिये! बंद कर, सपनों का व्यापार..
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चमक-दमक औ' सादगी, वह सोना यह धूल.
वह पावन शतदल कमल, यह बबूल का शूल..
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पेड़ टूटते, दूब झुक, सह लेती तूफ़ान.
जो माटी से जुड़ रहे, 'सलिल' वही मतिमान..
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पल में पैरों-तले से, सरकी 'सलिल' ज़मीन.
तीसमारखाँ काल के, हाथ हो गए दीन..
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थाम-थमाये विपद में, बिना स्वार्थ निज हाथ.
'सलिल' हृदय में लो बसा, नमन करो नत माथ..
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दानव वे जो जोड़ते, औरों का हक छीन.
ऐश्वर्य जितना बढ़ा, वे उतने ही दीन..
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भूमि, भवन, धन जोड़कर, हैं दरिद्र वे लोग.
'सलिल' न जो कर पा रहे, जी भरकर उपयोग..
*
जो पाया उससे नहीं, 'सलिल' जिन्हें संतोष.
वे सचमुच कंगाल हैं, गर्दभ ढोते कोष.
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बात-बात में कर रहे, नाहक वाद-विवाद.
'सलिल' सहज हो कर करें, कुछ सार्थक संवाद..
*
दिव्य नर्मदा : हिंदी तथा अन्य भाषाओँ के मध्य साहित्यिक-सांस्कृतिक-सामाजिक संपर्क हेतु रचना सेतु A plateform for literal, social, cultural and spiritual creative works. Bridges gap between HINDI and other languages, literature and other forms of expression.
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रविवार, 8 अगस्त 2010
दोहा सलिला: संजीव 'सलिल'
चिप्पियाँ Labels:
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आचार्य संजीव वर्मा सलिल
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8 टिप्पणियां:
गुड्डोदादी:
संजीव नन्हे बिटवा
चिरंजीव भवः
दोहा++++++
सुविधा पाने जो गए तज कर अपना देश |
फिर फिर आते पलटकर ,मन में व्यथा अशेष
बहुत ही गहरे भाव हम भारत भू के जनगण कहीं भी जाएँ मिटटी की सुगंध , हरे भरे खेत लहलहाते हुए, , अन्न और अपनी संस्कृति नहीं भूले भूलती , ,पोते ,नाती ,नातिन और नातिन के बच्चओं को भी हिंदी थोड़ी थोड़ी सिखा रही हूँ उनको पता चले हमारी मात भूमी भारत है
और नहीं लिखा जाता
अति उत्तम .........शब्दों का चयन अति सुन्दर ...क्या कहने
आ० आचार्य जी ,
सभी दोहे अति सुन्दर और प्रभावपूर्ण | विशेष -
" कठपुतलीवत नाचता थाम श्वांस की डोर
देख न पाते हम झलक चाहें करुना कोर "
सादर
कमल
kamlesh kumar diwan :
अच्छा लिखा है ,बधाई
किसका कितना दोष है?, कहो कौन निर्दोष?
विधना जाने कब करे, सर्व नाश का घोष??
*
हवामहल पल में उड़ा, वासी हुए निराश.
बिन नींव की व्यवस्था, हाय हो गयी ताश..
पेड़ टूटते, दूब झुक, सह लेती तूफ़ान.
जो माटी से जुड़ रहे,'सलिल'वही मतिमान.
..सभी दोहे एक से बढ़कर एक हैं. एक दोहे की एक पोस्ट बनती और एक-एक दोहे पर पाठकों की व्याख्या पढ़ने को मिलती तो कितना अच्छा होता..!
आपका सुझाव स्वीकार्य अब बज, फेसबुक और ऑरकुट पर एक-एक दोहा लगा देता हूँ.
किसका कितना दोष है?, कहो कौन निर्दोष?
विधना जाने कब करे, सर्व नाश का घोष??
यथार्थ.
वेदना.
और
दो टूक
रंजना said...
भ्रम होता हम कर रहे, करा रहा वह काज.
लेते उसका श्रेय खुद, किन्तु न आती लाज..
पेड़ टूटते, दूब झुक, सह लेती तूफ़ान.
जो माटी से जुड़ रहे, 'सलिल' वही मतिमान......
एक से एक अनमोल मोती मूंगे बिखेर दिए हैं आपने...किसे चुनूं और किसे छोड़ दूं...
प्रेरणादायक,अतिसुन्दर रचना...
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