नवगीत:
घर के रहे न घाट के
संजीव 'सलिल'
*
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घर के रहे न घाट के
कमल-कमलिनी आज.
आदमखोर बुराईयाँ
लीलें कब किस व्याज...
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धरती को लीलता मनुष्य.
जीव-जन्तु हो रहे हविष्य.
अपने ही पाँव कुल्हाड़ी-
मारता, मिटा रहा भविष्य.
नियति नटी मौन क्यों रहे?
दंड निठुर मिलेगा अवश्य.
अमन चैन ही खो गया
बना सुराज कुराज.
घर के रहे न घाट के
कमल-कमलिनी आज.
*
काट दिए जंगल सब ओर.
सुना नहीं आर्तनाद घोर.
पर्वत को खोद ताल पूर-
कानफाडू करता है शोर.
पशु-पक्षी मूक पूछते
इन्सां तू क्यों हुआ है ढोर?
चरणकमल पर कर कमल
वार करें तज लाज.
घर के रहे न घाट के
कमल-कमलिनी आज.
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