कुल पेज दृश्य

सोमवार, 3 जनवरी 2022

सॉनेट, दोहा, नवगीत, मुक्तक

सॉनेट    
सरगम
*
सरगम में हैं शारदा, तारें हमको मात।
सरगम से सर गम सभी, करिए रहें प्रसन्न।
ज्ञान-ध्यान में लीन हों, ईश-कृपा आसन्न।।
चित्र गुप्त दिखता नहीं, नाद सृष्टि का तात।।

कलकल-कलरव सुन मिटे, मन का सभी तनाव।
कुहुक-कुहुक कोयल करे, भ्रमर करें गुंजार।
सरगम बिन सूना लगे, सब जीवन संसार।।
सात सिंधु स्वर सात 'सा', छोड़े अमित प्रभाव।।

'रे' मत सो अब जाग जा, करनी कर हँस नेक।
'गा' वह जो मन को छुए, खुशी दे सके नेंक।
'मा' मृदु ममता-मोह मय, मायाजाल न फेक।।

'पा' पाता-खोता विहँस, जाग्रत रखे विवेक।।
धारण करता 'धा' धरा, शेष न छोड़े टेक।।
लीक नीक 'नी' बनाता, 'सा' कहता प्रभु एक।।
संवस
३-१-२०२२
९४२५१८३२४४
***
दोहा
कथनी-करनी का नहीं, मिटा सके गर भेद
निश्चय मानें अंत में, करना होगा खेद
*
रवि शशि जैसा लग रहा, उषा गुलाबी पीत
धुआँ-धुआँ चहुँ ओर है, गीत गुँजाती शीत
*
३-१-२०१८
***
कला संगम:
मुक्तक
नृत्य-गायन वन्दना है, प्रार्थना है, अर्चना है
मत इसे तुम बेचना परमात्म की यह साधना है
मर्त्य को क्यों करो अर्पित, ईश को अर्पित रहे यह
राग है, वैराग है, अनुराग कि शुभ कामना है
***
आस का विश्वास का हम मिल नया सूरज उगाएँ
दूरियों को दूर कर दें, हाथ हाथों से मिलाएँ
ताल के संग झूम लें हम, नाद प्राणों में बसाएँ-
पूर्ण हों हम द्वैत को कर दूर, हिल-मिल नाच-गाएँ
***
नाद-ताल में, ताल नाद में, रास लास में, लास रास में
भाव-भूमि पर, भूमि भाव पर, हास पीर में, पीर हास में
बिंदु सिंधु मिल रेखा वर्तुल, प्रीत-रीत मिल, मीत! गीत बन
खिल महकेंगे, महक खिलेंगे, नव प्रभात में, नव उजास में
***
चंचल कान्हा, चपल राधिका, नाद-ताल सम, नाच नचे
गंग-जमुन सम लहर-लहर रसलीन, न सुध-बुध द्वैत तजे
ब्रम्ह-जीव सम, हाँ-ना, ना हाँ, देखें सुर-नर वेणु बजे
नूपुर पग, पग-नूपुर, छूम छन, वर अद्वैत न तनिक लजे
***
३-१-२०१७
[श्री वीरेंद्र सिद्धराज के नृत्य पर प्रतिक्रिया]
नवगीत-
*
सुनों मुझे भी
कहते-कहते थका
न लेकिन सुनते हो.
सिर पर धूप
आँख में सपने
ताने-बाने बुनते हो.
*
मोह रही मन बंजारों का
खुशबू सीली गलियों की
बचे रहेंगे शब्द अगरचे
साँझी साँझ न कलियों की
झील अनबुझी
प्यास लिये तुम
तट बैठे सिर धुनते हो
*
थोड़ा लिखा समझना ज्यादा
अनुभव की सीढ़ी चढ़ना
क्यों कागज की नाव खे रहे?
चुप न रहो, सच ही कहना
खेतों ने खत लिखा
चार दिन फागुन के
क्यों तनते हो?
*
कुछ भी सहज नहीं होता है
ठहरा हुआ समय कहता
मिला चाँदनी को समेटते हुए
त्रिवर्णी शशि दहता
चंदन वन सँवरें
तम भाने लगा
विषमता सनते हो
*
खींच लिये हाशिये समय के
एक गिलास दुपहरी ले
सुना प्रखर संवाद न चेता
जन-मन सो, कनबहरी दे
निषिद्धों की गली
का नागरिक हुए
क्यों घुनते हो?
*
व्योम के उस पार जाके
छुआ मैंने आग को जब
हँस पड़े पलाश सारे
बिखर पगडंडी-सड़क पर
मूँदकर आँखें
समीक्षा-सूत्र
मिथ्या गुनते हो
***
३.१.२०१६
टीप - वर्ष २०१५ में प्रकाशित नवगीत संग्रहों के शीर्षकों को समेटती रचना।
***

कोई टिप्पणी नहीं: