कुल पेज दृश्य

गुरुवार, 6 जनवरी 2022

सॉनेट

सॉनेट
चक्की
*
चक्की चलती समय की, पीस रही बारीक।
अलग सभी से दीख, बच जा कीली से चिपक।
दूर ईश से आत्म, काल करे स्वागत लपक।।
पक्षपात करती नहीं, सत्य सनातन लीक।।

चक्की पीसा ग्रहणकर, चले सृष्टि व्यापार।
अन्य पिसे तो हँसा, आप पिसा सब हँस रहे।
मोह जाल मजबूत, माया मृग जा फँस रहे।।
परम शक्ति गृहणी कुशल, पाले कह आभार।।

निशि-दिन चक्की पाट हैं, कीली है भगवान।
नादां प्रभु को भज बचे, जाने जीव सुजान।
हथदंडा है पुरोहित, दाना तू यजमान।
परम ब्रह्म है कील, सज समझ मौन मतिमान।।

शेष कर रहे भूल, भज सक न, भूल भगवान।।
कर्म-दंड चुप झेल, संबल प्रभु का गुणगान।।
संवस
६-१-२०२२
***
एक रचना
काव्य और जन-वेदना
*
काव्य क्या?
कुछ कल्पना
कुछ सत्य है.
यह नहीं जड़,
चिरंतन चैतन्य है।
देख पाते वह अदेखा जो रहा,
कवि मनीषी को न कुछ अव्यक्त है।
रश्मि है
अनुभूतिमय संवेदना।
चतुर की जाग्रत सतत हो चेतना
शब्द-वेदी पर हवन मन-प्राण का।
कथ्य भाषा भाव रस संप्राणता
पंच तत्त्वों से मिले संजीवनी
साधना से सिद्धि पाते हैं गुनी।
कहा पढ़ सुन-गुन मनन करते रहे
जो नहीं वे देखकर बाधा ढहे
चतुर्दिक क्या घट रहा,
क्या जुड़ रहा?
कलम ने जो किया अनुभव
वह कहा।
पाठकों!
अब मौन व्रत को तोड़ दो।
‘तंत्र जन’ का है
सदा सच-शुभ ही कहो।
अशुभ से जब जूझ जाता ‘लोक’ तो
‘तन्त्र’ में तब व्याप जाता शोक क्यों?
‘प्रतिनिधि’ जिसका
न क्यों उस सा रहे?
करे सेवक मौज, मालिक चुप दहे?
शब्द-शर-संधान कर कवि-चेतना
चाहती जन की हरे कुछ वेदना।
२३-२-२०१७
***
नवगीत
१. अभी नहीं
*
अभी नहीं सच हारा
प्यारे!
कभी नहीं सच हारा
*
कृष्ण मृगों को
मारा तुमने
जान बचाकर भागे.
सोतों को कुचला
चालक को
किया आप छिप आगे.
कर्म आसुरी करते हैं जो
सहज न दंडित होते.
बहुत समय तक कंस-दशानन
महिमामंडित होते.
लेकिन
अंत बुरा होता है
समय करे निबटारा.
अभी नहीं सच हारा
प्यारे!
कभी नहीं सच हारा
*
तुमने निर्दोषों को लूटा
फैलाया आतंक.
लाज लूट नारी की
निज चेहरे पर मलते पंक.
काले कोट
बचाते तुमको
अंधा करता न्याय.
मिटा साक्ष्य-साक्षी
जीते तुम-
बन राक्षस-पर्याय.
बोलो क्या आत्मा ने तुमको
कभी नहीं फटकारा?
अभी नहीं सच हारा
प्यारे!
कभी नहीं सच हारा
*
जन प्रतिनिधि बन
जनगण-मन से
कपट किया है खूब.
जन-जन को
होती है तुमसे
बेहद नफरत-ऊब.
दाँव-पेंच, छल,
उठा-पटक हर
दिखा सुनहरे ख्वाब
करे अंत में निपट अकेला
माँगे समय जवाब.
क्या जाएगा साथ
कहो,
फैलाया खूब पसारा.
***
नवगीत
२. दूर कर दे भ्रांति
*
दूर कर दे भ्रांति
आ संक्राति!
हम आव्हान करते।
तले दीपक के
अँधेरा हो भले
हम किरण वरते।
*
रात में तम
हो नहीं तो
किस तरह आये सवेरा?
आस पंछी ने
उषा का
थाम कर कर नित्य टेरा।
प्रयासों की
हुलासों से
कर रहां कुड़माई मौसम-
नाचता दिनकर
दुपहरी संग
थककर छिपा कोहरा।
संक्रमण से जूझ
लायें शांति
जन अनुमान करते।
*
घाट-तट पर
नाव हो या नहीं
लेकिन धार तो हो।
शीश पर हो छाँव
कंधों पर
टिका कुछ भार तो हो।
इशारों से
पुकारों से
टेर सँकुचे ऋतु विकल हो-
उमंगों की
पतंगें उड़
कर सकें आनंद दोहरा।
लोहड़ी, पोंगल, बिहू
जन-क्रांति का
जय-गान करते।
*
ओट से ही वोट
मारें चोट
बाहर खोट कर दें।
देश का खाता
न रीते
तिजोरी में नोट भर दें।
पसीने के
नगीने से
हिंद-हिंदी जगजयी हो-
विधाता भी
जन्म ले
खुशियाँ लगाती रहें फेरा।
आम जन के
काम आकर
सेठ-नेता काश तरते।
१२-१-२०१७
***
३. बाल नवगीत:
संजीव
*
सूरज बबुआ!
चल स्कूल
*
धरती माँ की मीठी लोरी
सुनकर मस्ती खूब करी
बहिन उषा को गिरा दिया
तो पिता गगन से डाँट पड़ी
धूप बुआ ने लपक चुपाया
पछुआ लाई
बस्ता-फूल
सूरज बबुआ!
चल स्कूल
*
जय गणेश कह पाटी पूजन
पकड़ कलम लिख ओम
पैर पटक रो मत, मुस्काकर
देख रहे भू-व्योम
कन्नागोटी, पिट्टू, कैरम
मैडम पूर्णिमा के सँग-सँग
हँसकर
झूला झूल
सूरज बबुआ!
चल स्कूल
*
चिड़िया साथ फुदकती जाती
कोयल से शिशु गीत सुनो
'इकनी एक' सिखाता तोता
'अ' अनार का याद रखो
संध्या पतंग उड़ा, तिल-लड़ुआ
खा पर सबक
न भूल
सूरज बबुआ!
चल स्कूल
***
मंगलवार, 6 जनवरी 2015
४. नवगीत:
*.
काल है संक्रांति का
तुम मत थको सूरज!
.
दक्षिणायन की हवाएँ
कँपाती हैं हाड़
जड़ गँवा, जड़ युवा पीढ़ी
काटती है झाड़
प्रथा की चूनर न भाती
फेंकती है फाड़
स्वभाषा को भूल, इंग्लिश
से लड़ाती लाड़
टाल दो दिग्भ्रान्ति को
तुम मत रुको सूरज!
*
उत्तरायण की फिज़ाएँ
बनें शुभ की बाड़
दिन-ब-दिन बढ़ता रहे सुख
सत्य की हो आड़
जनविरोधी सियासत को
कब्र में दो गाड़
झाँक दो आतंक-दहशत
तुम जलाकर भाड़
ढाल हो चिर शांति का
तुम मत झुको सूरज!
***
५. नवगीत:
आओ भी सूरज
*
आओ भी सूरज!
छट गये हैं फूट के बादल
पतंगें एकता की मिल उड़ाओ
गाओ भी सूरज!
*
करधन दिप-दिप दमक रही है
पायल छन-छन छनक रही है
नच रहे हैं झूमकर मादल
बुराई हर अलावों में जलाओ
आओ भी सूरज!
*
खिचड़ी तिल-गुड़वाले लडुआ
पिज्जा तजकर खाओ बबुआ
छोड़ बोतल उठा लो छागल
पड़ोसी को खुशी में साथ पाओ
आओ भी सूरज!
*
रविवार, 4 जनवरी 2015
****
६. नवगीत:
उगना नित
*
उगना नित
हँस सूरज

धरती पर रखना पग
जलना नित, बुझना मत
तजना मत, अपना मग
छिपना मत, छलना मत
चलना नित
उठ सूरज

लिखना मत खत सूरज
दिखना मत बुत सूरज
हरना सब तम सूरज
करना कम गम सूरज
मलना मत
कर सूरज

कलियों पर तुहिना सम
कुसुमों पर गहना बन
सजना तुम सजना सम
फिरना तुम भँवरा बन
खिलना फिर
ढल सूरज
***
(छंदविधान: मात्रिक करुणाकर छंद, वर्णिक सुप्रतिष्ठा जातीय नायक छंद)
२.१.२०१५
७. नवगीत:
संक्रांति काल है
.
संक्रांति काल है
जगो, उठो
.
प्रतिनिधि होकर जन से दूर
आँखें रहते भी हो सूर
संसद हो चौपालों पर
राजनीति तज दे तंदूर
संभ्रांति टाल दो
जगो, उठो
.
खरपतवार न शेष रहे
कचरा कहीं न लेश रहे
तज सिद्धांत, बना सरकार
कुर्सी पा लो, ऐश रहे
झुका भाल हो
जगो, उठो
.
दोनों हाथ लिये लड्डू
रेवड़ी छिपा रहे नेता
मुँह में लैया-गज़क भरे
जन-गण को ठेंगा देता
डूबा ताल दो
जगो, उठो
.
सूरज को ढाँके बादल
सीमा पर सैनिक घायल
नाग-सांप फिर साथ हुए
गुँजा रहे बंसी-मादल
छिपा माल दो
जगो, उठो
.
नवता भरकर गीतों में
जन-आक्रोश पलीतों में
हाथ सेंक ले कवि तू भी
जाए आज अतीतों में
खींच खाल दो
जगो, उठो
*****
८. नवगीतकौन नहीं?
*
कौन नहीं
दिव्यांग यहाँ है?
कौन नहीं विकलांग??
*
इसके पग में
जात-पाँत की
बेड़ी पड़ी हुई।
कर को कसकर
ऊँच-नीच जकड़े
हथकड़ी मुई।
छूत-अछूत
न मन से बिसरा
रहा अड़ाता टाँग
कौन नहीं
दिव्यांग यहाँ है?
कौन नहीं विकलांग??
*
तिलक-तराजू
की माया ने
बाँध दई ठठरी।
लोकतंत्र के
काँध लदी
परिवारवाद गठरी।
मित्रो! कह छलते
जनगण को जब-तब
रचकर स्वांग
कौन नहीं
दिव्यांग यहाँ है?
कौन नहीं विकलांग??
*
वैताली ममता
काँधे पर लदा
स्वार्थ वैताल।
चचा-भतीजा
आप ठोंकते
खोद अखाड़ा ताल।
सैनिक भूखा
करे सियासत
आरक्षण की माँग
कौन नहीं
दिव्यांग यहाँ है?
कौन नहीं विकलांग??
*
९. उस पर कर है.
*
जो न करे उत्पादन कुछ भी
उस अफसर को
सौ सुविधाएँ और हजारों
भत्ते मिलते.
पदोन्नति पर उसका हक है
कभी न कोई
अवसर छिनते
पाँच अँगुलियाँ
उसकी घी में और
कढ़ैया में सिर तर है.
*
प्रतिनिधि भूखे-नंगे जन का
हर दिन पाता इतना
जिसमें बरस बिताता आम आदमी.
मुफ्त यात्रा,
गाडी, बंगला,
रियायती खाना, भत्ते भी
उस पर रिश्वत और कमीशन
गिना न जाए.
माँग- और दो
शेष कसर है.
*
पूँजीपति का हाल न पूछो
धरती, खनिज, ऊर्जा, पानी
कर्जा जितना चाहे, पाए.
दरें न्यूनतम
नहीं चुकाए.
खून-पसीना चूस श्रमिक का
खूब मुटाये.
पोल खुले हल्ला हो ज्यादा
झट विदेश
हो जाता फुर्र है.
*
अभिनेता, डॉक्टर, वकील,
जज,सेठ-खिलाड़ी
कितना पाएँ?, कौन बताए?
जनप्रियता-ईनाम आदि भी
गिने न जाएँ.
जिसको चाहें मारे-कुचलें
सजा न पाएँ.
भूल गए जड़
आसमान पर
जमी नजर है .
*
गिनी कमाईवाले कर दें
बेशुमार जो कमा रहे हैं
बचे रहें वे,
हर सत्ता की यही चाह है.
किसको परवा
करदाता भर रहा आह है
चूसो, चूसो खून मगर
मरने मत देना.
बाँट-बाँट खैरात भिखारी
बना रहे कह-
'नहीं मरेगा लोक अमर है'.
*
मेहनतकश को मिले
मजूरी में गिनती के रुपये भाई
उस पर कर है.
*****
७-१-२०१६
​१०. नवगीत:*
सत्याग्रह के नाम पर.
तोडा था कानून
लगा शेर की दाढ़ में
मनमानी का खून
*
बीज बोकर हो गये हैं दूर
टीसता है रोज ही नासूर
तोड़ते नेता सतत कानून
सियासत है स्वार्थ से भरपूर
.
भगतसिंह से किया था अन्याय
कौन जाने क्या रहा अभिप्राय?
गौर तन में श्याम मन का वास
देश भक्तों को मिला संत्रास
.
कब कहाँ थे खो गये सुभाष?
बुने किसने धूर्तता के पाश??
समय कैसे कर सकेगा माफ़?
वंश का ही हो न जाए नाश.
.
तीन-पाँच पढ़ते रहे
अब तक जो दो दून
समय न छोड़े सत्य की
भट्टी में दे भून
*
नहीं सुधरे पटकनी खाई
दाँत पीसो व्यर्थ मत भाई
शास्त्री जी की हुई क्यों मौत?
अभी तक अज्ञात सच्चाई
.
क्यों दिये कश्मीरियत को घाव?
दहशतों का बढ़ गया प्रभाव
हिन्दुओं से गैरियत पाली
डूबा ही दी एकता की नाव
.
जान की बाजी लगाते वीर
जीतते हैं युद्ध सहकर पीर
वार्ता की मेज जाते हार
जमीं लौटा भोंकते हो तीर
.
क्यों बिसराते सत्य यह
बिन पानी सब सून?
अब तो बख्शो देश को
'सलिल' अदा कर नून
*
हिंदी वंदना
हिंद और हिंदी की जय-जयकार करें हम
भारत की माटी, हिंदी से प्यार करें हम
*
भाषा सहोदरी होती है, हर प्राणी की
अक्षर-शब्द बसी छवि, शारद कल्याणी की
नाद-ताल, रस-छंद, व्याकरण शुद्ध सरलतम
जो बोले वह लिखें-पढ़ें, विधि जगवाणी की
संस्कृत सुरवाणी अपना, गलहार करें हम
हिंद और हिंदी की, जय-जयकार करें हम
भारत की माटी, हिंदी से प्यार करें हम
*
असमी, उड़िया, कश्मीरी, डोगरी, कोंकणी,
कन्नड़, तमिल, तेलुगु, गुजराती, नेपाली,
मलयालम, मणिपुरी, मैथिली, बोडो, उर्दू
पंजाबी, बांगला, मराठी सह संथाली
सिंधी सीखें बोल, लिखें व्यवहार करें हम
हिंद और हिंदी की, जय-जयकार करें हम
भारत की माटी, हिंदी से प्यार करें हम
*
ब्राम्ही, प्राकृत, पाली, बृज, अपभ्रंश, बघेली,
अवधी, कैथी, गढ़वाली, गोंडी, बुन्देली,
राजस्थानी, हल्बी, छत्तीसगढ़ी, मालवी,
भोजपुरी, मारिया, कोरकू, मुड़िया, नहली,
परजा, गड़वा, कोलमी से सत्कार करें हम
हिंद और हिंदी की, जय-जयकार करें हम
भारत की माटी, हिंदी से प्यार करें हम
*
शेखावाटी, डिंगल, हाड़ौती, मेवाड़ी
कन्नौजी, मागधी, खोंड, सादरी, निमाड़ी,
सरायकी, डिंगल, खासी, अंगिका, बज्जिका,
जटकी, हरयाणवी, बैंसवाड़ी, मारवाड़ी,
मीज़ो, मुंडारी, गारो मनुहार करें हम
हिन्द और हिंदी की जय-जयकार करें हम
भारत की माटी, हिंदी से प्यार करें हम
*
देवनागरी लिपि, स्वर-व्यंजन, अलंकार पढ़
शब्द-शक्तियाँ, तत्सम-तद्भव, संधि, बिंब गढ़
गीत, कहानी, लेख, समीक्षा, नाटक रचकर
समय, समाज, मूल्य मानव के नए सकें मढ़
'सलिल' विश्व, मानव, प्रकृति-उद्धार करें हम
हिन्द और हिंदी की जय-जयकार करें हम
भारत की माटी, हिंदी से प्यार करें हम
***
दोहा दुनिया
*
राजनीति है बेरहम, सगा न कोई गैर
कुर्सी जिसके हाथ में, मात्र उसी की खैर
*
कुर्सी पर काबिज़ हुए, चेन्नम्मा के खास
चारों खाने चित हुए, अम्मा जी के दास
*
दोहा देहरादून में, मिला मचाता धूम
जितने मतदाता बने, सब है अफलातून
*
वाह वाह क्या बात है?, केर-बेर का संग
खाट नहीं बाकी बची, हुई साइकिल तंग
*
आया भाषणवीर है, छाया भाषणवीर
किसी काम का है नहीं, छोड़े भाषण-तीर
*
मत मत का सौदा करो, मत हो मत नीलाम
कीमत मत की समझ लो, तभी बनेगा काम
*
एक मरा दूजा बना, तीजा था तैयार
जेल हुई चौथा बढ़ा, दो कुर्सी-गल हार
*
१८-२- २०१७
प्रेम परक नवगीत
१. तुम सोईं
*

तुम सोईं तो
मुँदे नयन-कोटर में सपने
लगे खेलने।
*
अधरों पर छा
मंद-मंद मुस्कान कह रही
भोर हो गयी,
सूरज ऊगा।
पुरवैया के झोंके के संग
श्याम लटा झुक
लगी झूलने।
*
थिर पलकों के
पीछे, चंचल चितवन सोई
गिरी यवनिका,
छिपी नायिका।
भाव, छंद, रस, कथ्य समेटे
मुग्ध शायिका
लगी झूमने।
*
करवट बदली,
काल-पृष्ठ ही बदल गया ज्यों।
मिटा इबारत,
सबक आज का
नव लिखने, ले कोरा पन्ना
तजकर आलस
लगीं पलटने।
*
ले अँगड़ाई
उठ-बैठी हो, जमुहाई को
परे ठेलकर,
दृष्टि मिली, हो
सदा सुहागन, कली मोगरा
मगरमस्त लख
लगी महकने।
*
बिखरे गेसू
कर एकत्र, गोल जूड़ा धर
सर पर, आँचल
लिया ढाँक तो
गृहस्वामिन वन में महुआ सी
खिल-फूली फिर
लगी गमकने।
*
मृगनयनी को
गजगामिनी होते देखा तो
मकां बन गया
पल भर में घर।
सारे सपने, बनकर अपने
किलकारी कर
लगे खेलने।
*****
२. अकथ प्यार
*
तुम लाये अकथ प्यार
महक उठे हरसिंगार।।
*
कुछ हाँ-हाँ, कुछ ना-ना
कुछ देना, कुछ पाना।
पलक झुका, चुप रहना
पलक उठा, इठलाना।
जीभ चिढ़ा, छिप जाना
मंद अगन सुलगाना
पल-पल युग सा लगना
घंटे पल हो जाना।
बासंती बह बयार
पल-पल दे नव निखार।।
तुम लाये अकथ प्यार
महक उठे हरसिंगार।।
*
तुम-मैं हों दिक्-अम्बर
स्नेह-सूत्र श्वेताम्बर।
बाती मिल बाती से
हो उजास पीताम्बर।
पहन वसन रीत-नीत
तज सारे आडम्बर।
धरती को कर बिछात
आ! ओढ़ें नीलाम्बर।
प्राणों से, प्राणों को
पूजें फिर-फिर पुकार।
तुम लाये अकथ प्यार
महक उठे हरसिंगार।।
*
श्वासों की ध्रुपद-चाल
आसें नर्तित धमाल।
गालों पर इंद्रधनुष
बालों के अगिन व्याल।
मदिर मोगरा सुजान
बाँहों में बँध निढाल
कंगन-पायल मिलकर
गायें ठुमरी - ख़याल।
उमग-सँकुच बहे धार
नेह - नर्मदा अपार ।।
तुम लाये अकथ प्यार
महक उठे हरसिंगार।।
*
तन तरु पर झूल-झूल
मन-महुआ फूल-फूल।
रूप-गंध-मद से मिल
शूलों को करे धूल।
जग की मत सुनना, दे
बातों को व्यर्थ तूल
अनहद का सुनें नाद
हो विदेह, द्वैत भूल।
गव्हर-शिखर, शिखर-गव्हर
मिल पूजें बार-बार।
तुम लाये अकथ प्यार
महक उठे हरसिंगार।।
*
प्राणों की अगरु-धूप
मनसिज का प्रगट रूप।
मदमाती रति-दासी
नदी हुए काय - कूप।
उन्मन मन, मन से मिल
कथा अकथ कह अनूप
लूट-लुटा क्या पाया?
सब खोया, हुआ भूप।
सँवर-निखर, सिहर-बिखर
ले - दे, मत रख उधार ।।
तुम लाये अकथ प्यार
महक उठे हरसिंगार।।
*
[ आदित्य जातीय, तोमर छन्द]
२९-५-२०१६
***
३. तुमको देखा
*
तुमको देखा
तो मरुथल मन
हरा हो गया।
*
रूप अरूप स्वरूप लुभाये
जल में बिम्ब हाथ कब आये?
जो ललचाये, वह पछताये
जिसे न दीखा, वह भरमाये
किससे पूछें
कब अपरा,
कब परा हो गया?
तुमको देखा
तो मरुथल मन
हरा हो गया।
*
तुममें खुद को देख रहा मन
खुदमें तुमको लेख रहा मन
चमन-अमन की चाह सुमन सम
निज में ही अवरेख रहा मन
फूला-फला
बिखर-निखरा
.निर्भरा हो गया।
तुमको देखा
तो मरुथल मन
हरा हो गया।
*
कहे अजर यद्यपि है जर्जर
मान अमर पल-पल जाता मर।
करे तारने का दावा पर
खुद ही अब तक नहीं सका तर।
माया-मोह
तजा ज्यों हो
अक्षरा हो गया।
तुमको देखा
तो मरुथल मन
हरा हो गया।
***
पुस्तक चर्चा -
नियति निसर्ग : दोहा दुनिया का नया रत्न
चर्चाकार- आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
[पुस्तक परिचय- नियति निसर्ग, दोहा संग्रह, प्रो. श्यामलाल उपाध्याय, प्रथम संस्करण, २०१५, आकार २२.५ से.मी. x १४.५ से.मी., आवरण सजिल्द, जैकेट सहित, पृष्ठ १२६, मूल्य १३०/-, प्रकाशक भारतीय वांग्मय पीठ, लोकनाथ कुञ्ज, १२७/ए/८ ज्योतिष राय मार्ग, नया अलीपुर कोलकाता ७०००५३]
*
विश्व वाणी हिंदी के छंद कोष के सर्वाधिक प्रखर और मूल्यवान दोहा कक्ष को अलंकृत करते हुए श्रेष्ठ-ज्येष्ठ शारदा-सुत प्रो. श्यामलाल उपाध्याय ने अपने दोहा संकलन रूपी रत्न 'नियति निसर्ग' प्रदान किया है. नियति निसर्ग एक सामान्य दोहा संग्रह नहीं है, यह सोद्देश्य, सारगर्भित,सरस, लाक्षणिक अभिव्यन्जनात्मकता से सम्पन्न दोहों की ऐसी रसधार प्रवाहित का रहा है जिसका अपनी सामर्थ्य के अनुसार पान करने पर प्रगाढ़ रसानंद की अनुभूति होती है.
प्रो. उपाध्याय विश्ववाणी हिंदी के साहित्योद्यान में ऐसे वट-वृक्ष हैं जिनकी छाँव में गणित जिज्ञासु रचनाशील अपनी शंकाओं का संधान और सृजन हेतु मार्गदर्शन पाते हैं. वे ऐसी संजीवनी हैं जिनके दर्शन मात्र से माँ भारती के प्रति प्रगाढ़ अनुराग और समर्पण का भाव उत्पन्न होता है. वे ऐसे साहित्य-ऋषि हैं जिनके दर्शन मात्र से श्नाकों का संधान होने लगता है. उनकी ओजस्वी वाणी अज्ञान-तिमिर का भेदन कर ज्ञान सूर्य की रश्मियों से साक्षात् कराती है.
नियति निसर्ग का श्री गणेश माँ शारदा की सारस्वत वन्दना से होना स्वाभाविक है. इस वन्दना में सरस्वती जी के जिस उदात्त रूप की अवधारणा ही, वह अन्यत्र दुर्लभ है. यहाँ सरस्वती मानवीय ज्ञान की अधिष्ठात्री या कला-संगीत की आदि शक्ति इला ही नहीं हैं अपितु वे सकल विश्व, अंतरिक्ष, स्वर्ग और ब्रम्ह-लोक में भी व्याप्त ब्रम्हाणी हैं. कवि उन्हें अभिव्यक्ति की देवी कहकर नमन करता है.

'विश्वपटल पर है इला, अन्तरिक्ष में वाणि
कहीं भारती स्वर्ग में, ब्रम्ह-लोक ब्रम्हाणि'

'घर की शोभा' धन से नहीं कर्म से होती है. 'कर्मण्ये वाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन' की विरासत नयी पीढ़ी के लिए श्लाघ्य है-

'लक्ष्मी बसती कर्म में, कर्म बनता भाग्य
भाग्य-कर्म संयोग से, बन जाता सौभाग्य'

माता-पिता के प्रति, शिशु के प्रति, बाल विकास, अवसर की खोज, पाठ के गुण विशेष, शिक्षक के गुण, नेता के गुण, व्यक्तित्व की परख जैसे शीर्षकों के अंतर्गत वर्णित दोहे आम आदमी विशेषकर युवा, तरुण, किशोर तथा बाल पाठकों को उनकी विशिष्टता और महत्त्व का भान कराने के साथ-साथ कर्तव्य और अधिकारों की प्रतीति भी कराते हैं. दोहाकार केवल मनोरंजन को साहित्य सृजन का लक्ष्य नहीं मानता अपितु कर्तव्य बोध और कर्म प्रेरणा देते साहित्य को सार्थक मानता है.

राष्ट्रीयता को साम्प्रदायिकता मानने के वर्तमान दौर में कवि-ऋषि राष्ट्र-चिंतन, राष्ट्र-धर्म, राष्ट्र की नियति, राष्ट्र देवो भव, राष्ट्रयता अखंडता, राष्ट्रभाषा हिंदी का वर्चस्व, देवनागरी लिपि आदि शीर्षकों से राष्ट्रीय की ओजस्वी भावधारा प्रवाहित कर पाठकों को अवगाहन करने का सुअवसर उपलब्ध कराते हैं. वे सकल संतापों का निवारण का एकमात्र मार्ग राष्ट्र की सुरक्षा में देखते हैं.

आदि-व्याधि विपदा बचें, रखें सुरक्षित आप
सदा सुरक्षा देश की, हरे सकल संताप

हिंदी की विशेषता को लक्षित करते हुए कवि-ऋषि कहते हैं-

हिंदी जैसे बोलते, वैसे लिखते आप
सहज रूप में जानते, मिटते मन के ताप

हिंदी के जो शब्द हैं, रखते अपने अर्थ
सहज अर्थ वे दे चलें, जिनसे हो न अनर्थ

बस हिंदी माध्यम बने, हिंदी का हो राज
हिंदी पथ-दर्शन करे, हिंदी हो अधिराज

हिंदी वैज्ञानिक सहज, लिपि वैज्ञानिक रूप
इसको सदा सहेजिए, सुंदर स्निग्ध स्वरूप

तकनीकी सम्पन्न हों, माध्यम हिंदी रंग
हिंदी पाठी कुशल हों, रंग न होए भंग

देवनागरी लिपि शीर्षक से दिए दोहे भारत के इतिहास में हिंदी के विकास को शब्दित करते हैं. इस अध्याय में हिंसी सेवियों के अवदान का स्मरण करते हुए ऐसे दोहे रचे गए हैं जो नयी पीढ़ी का विगत से साक्षात् कराते हैं. संत कबीर, महाबली कर्ण, कविवर रहीम, आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी, मौनी बाबा तथा श्रीकृष्ण पर केन्द्रित दोहे इन महान विभूतियों को स्मरण मात्र नहीं करते अपितु उनके अवदान का उल्लेख कर प्रेरणा जगाने का काम भी करते हैं.

कबीर का गुरु एक है, राम नाम से ख्यात
निराकार निर्गुण रहा, साई से प्रख्यात

जब तक स्थापित रश्मि है, गंगा जल है शांत
रश्मिरथी का यश रहे, जग में सदा प्रशांत

ऐसा कवि पायें विभो, हो रहीम सा धीर
ज्ञानी दानी वुगी हो, युद्ध क्षेत्र का वीर

महावीर आचार्य हैं, क्या द्विवेद प्रसाद
शेर जागरण काल के, विषय रहा आल्हाद

मौनी बाबा धन्य हैं, धन्य आप वरदान
जनमानस सुख से रहे, यही बड़ा अवदान
भारत कर्म प्रधान देश है. यहाँ शक्ति की भक्ति का विधान सनातन काल से है. गीता का कर्मयोग भारत ही नहीं, सकल विश्व में हर काल में चर्चित और अर्चित रहा है. सकल कर्म प्रभु को अर्पित कर निष्काम भाव से संपादित करना ही श्लाघ्य है-
सौंपे सरे काज प्रभु, सहज हुए बस जान
सारे संकट हर लिए, रख मान तो मान

कर्म कराता धर्म है, धर्म दिलाता अर्थ
अर्थ चले बहु काम ले, यह जीवन का मर्म
जातीय छुआछूत ने देश की बहुत हानि की है. कविगुरु कर्माधारित वर्ण व्यवस्था के समर्थक हैं जिसका उद्घोष गीत में श्रीकृष्ण 'चातुर्वर्ण्य माया सृष्टं गुण-कर्म विभागश:' कहकर करते हैं.
वर्ण व्यवस्था थी बनी, गुणवत्ता के काज
कुलीनता के अहं ने, अपना किया अकाज

घृणा जन्म देती घृणा, प्रेम बढ़ाता प्रेम
इसीलिए तुम प्रेम से, करो प्रेम का नेम

सर्वधर्म समभाव के विचार की विवेचना करते हुए काव्य-ऋषि धर्म और संप्रदाय को सटीकता से परिभाषित करते हैं-

होता धर्म उदार है, संप्रदाय संकीर्ण
धर्म सदा अमृत सदृश, संप्रदाय विष-जीर्ण

कृषि प्रधान देश भारत में उद्योग्व्र्धक और कृषि विरोधी प्रशासनिक नीतियों का दुष्परिणाम किसानों को फसल का समुचित मूल्य न मिलने और किसानों द्वारा आत्म हत्या के रूप में सामने आ रहा है. कवी गुरु ने कृषकों की समस्या का जिम्मेदार शासन-प्रशासन को ही माना है-
नेता खेलें भूमि से, भूमिग्रहण व्यापार
रोके इसको संहिता, चाँद लगाये चार
रोटी के लाले पड़े, कृषक भूमि से हीन
तडपे रक्षा प्राण को, जल अभाव में मीन
दोहे गोशाला के भी ग्रामीण अर्थव्यवस्था और किसान की दुर्दशा को बताते हैं. कवी गौ और गोशाला की महत्ता प्रतिपादित करते हैं-
गो में बसते प्राण हैं, आशा औ' विश्वास
जहाँ कृष्ण गोपाल हैं, करनी किसकी आस
गोवध अनुचित सर्वथा, औ संस्कृति से दूर
कर्म त्याज्य अग्राह्य है, दुर्मत कुत्सित क्रूर
राष्ट्र के प्रति कर्तव्य, स्वाधीनता की नियति, मादक द्रव्यों के दुष्प्रभाव, चिंता, दुःख की निरंतरता, आत्मबोध तत्व, परमतत्व बोध, आशीर्वचन, संस्कार, रक्षाबंधन, शिवरात्रि, श्रीकृष्ण जन्माष्टमी आदि शीर्षकों के अंतर्गत दिए गए दोहे पाठकों का पाठ प्रदर्शन करने क साथ शासन-प्रशासन को भी दिशा दिखाते हैं. पुस्तकांत में 'प्रबुद्ध भारत का प्रारूप' शीर्षक से कविगुरु ने अपने चिंतन का सार तत्व तथा भविष्य के प्रति चिंतन-मंथन क नवनीत प्रस्तुत किया है-
सत्य सदा विजयी रहा, सदा सत्य की जीत
नहीं सत्य सम कुछ जगत, सत्य देश का गीत
सभी पन्थ हैं एक सम, आत्म सन्निकट जान
आत्म सुगंध पसरते, ईश्वर अंश समान
बड़ी सोच औ काम से, बनता व्यक्ति महान
चिंतन औ आचार हैं, बस उनके मन जान

किसी कृति का मूल्याङ्कन विविध आधारों पर किया जाता है. काव्यकृति का सर्वाधिक महत्वपूर्ण पक्ष उसका कथ्य होता है. विवेच्य ८६ वर्षीय कवि-चिन्तक के जीवनानुभवों का निचोड़ है. रचनाकार आरंभ में कटी के शिल्प के प्रति अत्यधिक सजग होता है क्योंकि शिल्पगत त्रुटियाँ उसे कमजोर रचनाकार सिद्ध करती हैं. जैसे-जैसे परिपक्वता आती है, भाषिक अलंकरण के प्रति मोह क्रमश: कम होता जाता है. अंतत: 'सहज पके सो मीठा होय' की उक्ति के अनुसार कवि कथ्य को सरलतम रूप में प्रस्तुत करने लगता है. शिल्प के प्रति असावधानता यत्र-तत्र दिखने पर भी कथ्य का महत्व, विचारों की मौलिकता और भाषिक प्रवाह की सरलता कविगुरु के संदेश को सीधे पाठक के मन-मस्तिष्क तक पहुँचाती है. यह कृति सामान्य पाठक, विद्वज्जनों, प्रशासकों, शासकों, नीति निर्धारकों तथा बच्चों के लिए समान रूप से उपयोगी है. यही इसका वैशिष्ट्य है.
==================

कोई टिप्पणी नहीं: