कुल पेज दृश्य

शनिवार, 8 जनवरी 2022

सॉनेट, दोहा, मुहावरा, कहावत, लोकोक्ति, धन

भारत की माटी 
*
जड़ को पोषण देकर 
नित चैतन्य बनाती।
रचे बीज से सृष्टि 
नए अंकुर उपजाति। 
पाल-पोसकर, सीखा-पढ़ाती। 
पुरुषार्थी को उठा धरा से 
पीठ ठोंक, हौसला बढ़ाती। 
नील गगन तक हँस पहुँचाती। 
किन्तु स्वयं कुछ पाने-लेने 
या बटोरने की इच्छा से 
मुक्त वीतरागी-त्यागी है। 
*
सुख-दुःख, 
धूप-छाँव हँस सहती। 
पीड़ा मन की 
कभी न कहती। 
सत्कर्मों पर हर्षित होती। 
दुष्कर्मों पर धीरज खोती।  
सबकी खातिर 
अपनी ही छाती पर
हल बक्खर चलवाती,
फसलें बोती। 
*
कभी कोइ अपनी जड़ या पग 
जमा न पाए। 
आसमान से गर गिर जाए। 
तो उसको 
दामन में अपने लपक छिपाती,
पीठ ठोंक हौसला बढ़ाती। 
निज संतति की अक्षमता पर 
ग़मगीं होती, राह दिखाती। 
मरा-मरा से राम सिखाती। 
इंसानों क्या भगवानो की भी 
मैया है भारत की माटी। 
***  
गीत 
आज नया इतिहास लिखें हम। 

अब तक जो बीता सो बीता 
अब न हास-घट होगा रीता 
अब न साध्य हो स्वार्थ सुभीता 
अब न कभी लांछित हो सीता 
भोग-विलास न लक्ष्य रहे अब 
हया, लाज, परिहास लिखें हम 

रहें न हमको कलश साध्य अब 
कर न सकेगी नियति बाध्य अब 
सेह-स्वेद-श्रम हो आराध्य अब 
पूँजी होगी महज माध्य अब
श्रम पूँजी का भक्ष्य न हो अब 
शोषक हित खग्रास लिखें हम  

मिल काटेंगे तम की कारा 
उजियारे के हों पाव बारा 
गिर उठ बढ़कर मैदां मारा 
दस दिश में गूँजे जयकारा।
कठिनाई में संकल्पों का 
कोशिश कर नव हास , लिखें हम  
आज नया इतिहास लिखें हम।  
*    
सॉनेट
तिल का ताड़
*
तिल का ताड़ बना रहे, भाँति-भाँति से लोग।
अघटित की संभावना, क्षुद्र चुनावी लाभ।
बौना खुद ओढ़कर, कहा न हो अजिताभ।।
नफरत फैला समझते, साध रहे हो योग।।

लोकतंत्र में लोक से, दूरी, भय, संदेह।
जन नेता जन से रखें, दूरी मन भय पाल।
गन के साये सिसकता, है गणतंत्र न ढाल।।
प्रजातंत्र की प्रजा को, करते महध अगेह।।

निकल मनोबल अहं का, बाना लेता धार।
निज कमियों का कर रहा, ढोलक पीट प्रचार।
जन को लांछित कर रहे, है न कहीं आधार।

भय का भूत डरा रहा, दिखे सामने हार।।
सत्ता हित बनिए नहीं, आप शेर से स्यार।।
जन मत हेतु न कीजिए, नौटंकी बेकार।।
८-१-२०२२
*
मनरंजन
मुहावरों ,लोकोक्तियों, गीतों में धन
संजीव
*
०१. टके के तीन।
०२. कौड़ी के मोल।
०३. दौलत के दीवाने
०४. लछमी सी बहू।
०५. गृहलक्ष्मी।
०६. नौ नगद न तरह उधार।
०७. कौड़ी-कौड़ी को मोहताज।
०८. बाप भला न भैया, सबसे भला रुपैया।
०९. घर में नईंयाँ दाने, अम्मा चली भुनाने।
१०. पुरुष पुरातन की वधु, क्यों न चंचला होय?
११. एक चवन्नी चाँदी की, जय बोलो महात्मा गाँधी की।
१२. पीर बबर्ची भिश्ती खर।
१३. पूत सपूत तो क्यों धन संचै, पूत कपूत तो क्यों धन संचै?
१४. फरेगा तो झरेगा।
१५. आए खाली हाथ हैं, जाना खाली हाथ।
१६. अंधेर नगरी चौपट राजा, टके सेर भाजी टके सेर खाजा।
१७. मिट्टी मोल।
१७. सूम का धन शैतान खाय।
१८, सामन सौ बरस का है, पल की खबर नहीं।
१९. सौ सुनार की एक लुहार की।
२०. पइसा ना कौड़ी, बाजार जाए दौड़ी।
२१. विप्र टहलुआ अजा धन और कन्या की बाढि़।
इतने से ना धन घटे तो, करैं बड़ेन सों रारि।
२२. धन के पन्द्रा मकर पचीस। जाड़ा परै दिना चालीस। (अवधी)
२२. सूमी का धन अइसे जाय। जइसे कुंजर कैथा खाय।
२३. सोनरवा की ठुक ठुक, लोहरवा की धम्म।
२४. खेल खिलाड़ी का, पैसा मदारी का।
२५. गरीबी में गीला आटा।
२६. खेल खतम, पैसा हजम। गीत
०१. आमदनी अठन्नी और खरचा रुपैया
तो भैया ना पूछो, ना पूछो हाल, नतीजा ठनठन गोपाल
०२. पाँच रुपैया, बारा आना, मारेगा भैया ना ना ना ना -चलती का नाम गाड़ी
०३. चाँदी की दीवार न तोड़ी, प्यार भरा दिल तोड़ दिया
एक धनवान की बेटी ने निर्धन का दमन छोड़ दिया
८-१-२०२१
***
दोहा सलिला

लज्जा या निर्लज्जता, है मानव का बोध
समय तटस्थ सदा रहे, जैसे बाल अबोध
८-१-२०१८

कोई टिप्पणी नहीं: