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शुक्रवार, 21 जनवरी 2022

सॉनेट, नवगीत, मुक्तक

सॉनेट
छीछालेदर 
*
है चुनाव हो छीछालेदर। 
नूराकुश्ती खेले नेता। 
सत्ता पाता वादे देकर।।
अनचाहे वोटर मत देता।।

नाग साँप बिच्छू सम्मुख हैं। 
भोले भंडारी है जनता।  
जिसे चुनो डँसता यह दुख है।। 
खुद को खुद मतदाता ठगता।।

टोपी दाढ़ी जैकेट झंडा। 
डंडा थामे है हर बंदा। 
जोश न होता ठगकर ठंडा।।
खेल सियासत बेहद गंदा।।

राम न बाकी; नहीं सिया-सत। 
लत न न्याय की; अदा अदालत।।  
***
सॉनेट
हेरा-फेरी
*
इसकी टोपी उसके सर पर। 
उसकी झोली इसके काँधे। 
डमरू बजा नजर जो बाँधे
वही बैठता है कुर्सी पर

नेता बाज; लोक है तीतर। 
पूँजीपति हँस  डाले दाना। 
चुग्गा चुगता सदा सयाना।। 
बिन बाजी जो जीते अफसर। 

है गणतंत्र; तंत्र गन-धारी। 
संसद-सांसद वाक्-बिहारी। 
न्यायपालिका है तकरारी। 

हक्का बक्का हैं त्रिपुरारी। 
पंडिताई धंधा बाजारी। 
पैसा फेंक देख छवि प्यारी।।
२१-१-२०२१ 
***
नवगीत:
संजीव
*
मिली दिहाडी
चल बाजार
चावल-दाल किलो भर ले-ले
दस रुपये की भाजी
घासलेट का तेल लिटर भर
धनिया-मिर्ची ताजी
तेल पाव भर फ़ल्ली का
सिंदूर एक पुडिया दे
दे अमरूद पांच का, बेटी की
न सहूं नाराजी
खाली जेब पसीना चूता
अब मत रुक रे!
मन बेजार
निमक-प्याज भी ले लऊँ तन्नक
पत्ती चैयावाली
खाली पाकिट हफ्ते भर को
फिर छाई कंगाली
चूड़ी-बिंदी दिल न पाया
रूठ न मो सें प्यारी
अगली बेर पहलऊँ लेऊँ
अब तो दे मुस्का री!
चमरौधे की बात भूल जा
सहले चुभते
कंकर-खार

***
अभिनव प्रयोग:
नवगीत :
संजीव
.
मिलती काय न ऊँचीवारी
कुरसी हमखों गुइयाँ
.
हमखों बिसरत नहीं बिसारे
अपनी मन्नत प्यारी
जुलुस, विशाल भीड़ जयकारा
सुविधा-संसद न्यारी
मिल जाती, मन की कै लेते
रिश्वत ले-दे भैया
.
पैलां लेऊँ कमीशन भारी
बेंच खदानें सारी
पाछूं घपले-घोटाले सौ
रकम बिदेस भिजा री
होटल फैक्ट्री टाउनशिप
कब्जा लौं कुआ तलैया
.
कौनौ सैगो हमरो नैयाँ
का काऊ सेन काने?
अपनी दस पीढ़ी खें लाने
हमें जोड़ रख जानें
बना लई सोने की लंका
ठेंगे पे राम-रमैया
.
(बुंदेली लोककवि ईसुरी की चौकड़िया फागों की लय पर आधारित, प्रति पद १६-१२ x ४ पंक्तियाँ, महाभागवत छंद )
***
मुक्तक:
*
चिंता न करें हाथ-पैर अगर सर्द हैं
कुछ फ़िक्र न हो चहरे भी अगर ज़र्द हैं
होशो-हवास शेष है, दिल में जोश है
गिर-गिरकर उठ खड़े हुए, हम ऐसे मर्द हैं.
*
जीत लेंगे लड़ के हम कैसा भी मर्ज़ हो
चैन लें उतार कर कैसा भी क़र्ज़ हो
हौसला इतना हमेशा देना ऐ खुदा!
मिटकर भी मिटा सकूँ मैं कैसा भी फ़र्ज़ हो
*
***
एक छक्का:
संजीव
.
पार एक से पा नहीं, पाते हैं हम-आप
घिरे चार के बीच में, रहे केजरी कांप
रहे केजरी कांप, आप है हक्का-बक्का
अमित जोर से लगा कमल का ऊंचा छ्क्का
कहे 'सलिल' कविराय, लडो! मत मानो हार
जनगण-मन लो जीत तभी हो नैया पार
२१-१-२९१५
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मुक्तक
रूप की आरती
संजीव 'सलिल'
*
रूप की आरती उतारा कर.
हुस्न को इश्क से पुकारा कर.
चुम्बनी तिल लगा दे गालों पर-
तब 'सलिल' मौन हो निहारा कर..
*
रूप होता अरूप मानो भी..
झील में गगन देख जानो भी.
देख पाओगे झलक ईश्वर की-
मन में संकल्प 'सलिल' ठानो भी..
*
नैन ने रूप जब निहारा है,
सारी दुनिया को तब बिसारा है.
जग कहे वन्दना तुम्हारी थी-
मैंने परमात्म को गुहारा है..
*
झील में कमल खिल रहा कैसे.
रूप को रूप मिल रहा जैसे.
ब्रम्ह की अर्चना करे अक्षर-
प्रीत से मीत मिल रहा ऐसे..
*
दीप माटी से जो बनाता है,
स्वेद-कण भी 'सलिल' मिलाता है.
श्रेय श्रम को मिले दिवाली का-
गौड़ धन जो दिया जलाता है.
*
भाव में डूब गया है अक्षर,
रूप है सामने भले नश्वर.
चाव से डूबकर समझ पाया-
रूप ही है अरूप अविनश्वर..
*
हुस्न को क्यों कहा कहो माया?
ब्रम्ह को क्या नहीं यही भाया?
इश्क है अर्चना न सच भूलो-
छिपा माशूक में वही पाया..
२१-१-२०१३

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