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शुक्रवार, 7 जनवरी 2022

नवगीत, सॉनेट, युवा दिवस, सुनीता सिंह, तुलसी, भक्तिकाल

आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'                                                                                                                                    ४०१ विजय अपार्टमेंट,
सभापति विश्ववाणी हिंदी संस्थान जबलपुर                                                                                                             नेपियर टाउन जबलपुर ४८२००१ 
चेयरमैन, इंडियन जिओटेक्नीकल सोसायटी जबलपुर चैप्टर                                                                                     salil.sanjiv@gmail.com  
अध्यक्ष इंजीनियर्स फोरम (इंडिया)                                                                                                                           ९४२५१८३२४४ 

                                                                                                                              सम्मति 

                                   सनातन भारतीय संस्कृति में 'सत्य-शिव-सुंदर' को 'सत-चित-आनंद' प्राप्ति का माध्यम बताया गया है। सर्वकल्याण की राह को जीवन का लक्ष्य बनाकर, इष्ट-भक्ति के माध्यम से लोक देवता की आराधना करनेवाले समयजयी व्यक्तित्वों में संत तुलसीदास का स्थान अग्रगण्य है। मुगल काल में जब जनगण नैराश्य से ग्रसित और अत्याचारों से संत्रस्त था तब तुलसी ने रामचरितमानस और अन्य ग्रंथों के माध्यम से लोक चेतना को न केवल जाग्रत किया अपितु उसे उज्ज्वल भविष्य के प्रति आश्वस्त भी किया। शिव, पार्वती, गणेश, राम, सीता, लक्ष्मण, भरत, हनुमान आदि के चरित्रों का सर्वांग सुंदर वर्णन कर तुलसी ने जन मन में आशा, विश्वास, आस्था, निष्ठा के अनगिन दीपक प्रज्ज्वलित किए। गीताप्रेस गोरखपुर के माध्यम से जयदयाल गोयन्दका तथा हनुमान प्रसाद पोद्दार ने लगत से भी कम नाम मात्र के मूल्य पर तुलसी साहित्य की करोड़ों प्रतियाँ देश के कोने-कोने में जन सामान्य को उपलब्ध कराकर आदर्शों तथा जीवन मूल्यों को प्रतिष्ठित किया। 

''तुलसीदास : प्रासंगिकता व नीति वचन''

                                   बाबा गोरखनाथ की साधनास्थली गोरखपुर में जन्मी और श्री राम की लीलाभूमि अवध (लखनऊ) में कार्यरत सुनीता सिंह ने ''तुलसीदास : प्रासंगिकता व नीति वचन'' की रचना कर असंख्य विद्वानों द्वारा जनहितकारी साहित्य सृजन की श्रृंखला को आगे बढ़ाया है। कलिकाल के प्रभाव वश समाज और व्यक्ति के जीवन से लुप्त होते मानव मूल्यों, दिनानुदिन बढ़ती भोग और लोभ वृत्ति ने प्रकृति और पर्यावरण को विनाश की कगार पर ला खड़ा किया है। तुलसी का जीवन और साहित्य मूल्यहीनता घटाटोप अन्धकार को चीरकर नवमूल्यों का भुवन भास्कर उगाने में समर्थ है। सुनीता सिंह ने संत तुलसी के दुर्भाग्य, जीवन संघर्ष, जीवट, गुरु और ईश कृपा, साहित्य के विविध पहलुओं, जीवनादर्श, अवदान आदि का छंद मुक्त काव्य में सहज बोधगम्य भाषा में शब्दांकन कर किशोरों और युवाओं के लिए उपलब्ध कराया है। ११२ शीर्षकों के अन्तर्गत यह १४८ पृष्ठीय पुस्तक आद्योपांत पठनीय तथा मननीय है। 

''भक्ति काल के रंग'' 

                                   भारतीय भक्ति साहित्य समूचे विश्व इतिहास में अपने ढंग का अकेला है। भक्तिकाल हिंदी साहित्य का स्वर्णकाल है। आचार्य  द्विवेदी के शब्दों में “जितनी सरलता और सहजता से इस साहित्य ने जन-जीवन का स्पर्श किया, उतनी सहजता से अन्य कोई भी साहित्य नहीं कर सका। इस साहित्य ने भ्रमित और हताशजनता को उल्लासमय जीने की प्रेरणा दी, उन्हें एक अलौकिक संतोष प्रदान किया।'' 

                                   भक्ति काल ने वीरगाथाकाल के पारस्परिक टकरावों से उपजे वैमनस्य का शमन कर विविध विचारधाराओं, जीवनमूल्यों, आदर्शों और जीवनपद्धतियों में समन्वय स्थापना का महत्वपूर्ण कार्य किया। सूर, कबीर, नानक, तुलसी, रैदास आदि संत कवियों ने कुरीति निवारण, जन जागरण, समाज सुधार की प्रेरणा देता साहित्य रचकर सामाजिक दायित्व चेतना जागरण करने के साथ कर्म और फल को जोड़कर नैतिक मूल्यों के प्रति जन मानस को आकृष्ट किया। वर्तमान पाश्चात्य शिक्षाप्रणाली जनित आर्थिक दुष्चक्र ने भारतीय युवाओं को पश्चिम की श्रेष्ठता के प्रति मोहांधित कर, परम्पराओं और विरासत के प्रति उदासीन किया है। ऐसी विषम स्थिति में भक्तिकाल के सम्यक मूल्यांकन  कर युवा लेखिका सुनीता सिंह ने सराहनीय कार्य किया है। उच्च प्रशासनिक पद के जटिल कार्य दायित्वों का सम्यक निर्वहन करते हुए भी सतत साहित्य साधना करना सुनीता को सामान्य से विशिष्ट बनाता है। 

                                   ''भक्ति काल के रंग'' ग्यारह अध्यायों में विभाजित सुगेय काव्य संग्रह है। सर्वाधिक लोकप्रिय अर्धसम मात्रिक दोहा छंद और सम मात्रिक चौपाई छंद  में रचित यह कृति लालित्यमयी है। सगुण भक्ति की रामाश्रयी व कृष्णाश्रयी शाखाओं तथा निर्गुण भक्ति की ज्ञानाश्रयी व प्रेमाश्रयी शाखाओं पर केंद्रीय अध्याय पठनीय हैं। संबंधित चित्रों का यथास्थान प्रयोग कृति का सौंदर्य बढ़ाता है। आरभ में भक्तिकाल की पृष्भूमि, शाखाओं व् विशेषताओं पर सम्यक प्रकाश डाला गया है। कृति सर्वोपयोगी है। 

''तुलसी का रचना संसार''

                                   संत तुलसीदास विश्व साहित्य की अमर विभूति हैं। रामाश्रयी शाखा के प्रमुख हस्ताक्षर होने का साथ-साथ वे भक्तिकाल के प्रतिनिधि कवि ही नहीं हिंदी, बुंदेली, बृज, भोजपुरी, बघेली आदि के भी प्रतिनिधि कवि के रूप में अग्रगण्य हैं। तुलसी के जीवन तथा रचनाओं को केंद्र में रची गयी यह कृति वस्तुत: तुलसी पर महाकाव्य / खंड काव्य के रूप में परिगणित किया जा सकता था यदि इसकी सामग्री को यथोचित अध्यायों में वर्गीकृत तथा सुव्यवस्थित किया जाता।  कवयित्री सुनीता सिंह ने इसे लंबी कविता के रूप में प्रस्तुत किया है। सामान्यत: युद्ध काव्यों को लंबी कविता के रूप में प्रस्तुत करने की परंपरा अंग्रेजी, फ़ारसी आदि में रही है। भारत में 'रासो' महाकाव्य के रूप में रचे गए।  

                                   ''तुलसी का रचना संसार'' सामान्य लीक से हटकर प्रसाद गुण संपन्न भाषा में रचित ऐसी काव्य कृति है जिसे सामान्य और विशिष्ट दोनों तरह के पाठक आत्मार्पित का सराहेंगे। प्रयुक्त भाषा सहज बोधगम्य है। 

                                                                                                                   ''भक्तिकाल का अस्तिबोध''

                                   ''भक्तिकाल का अस्तिबोध'' में सुनीता जी ने भक्तिकाल का मूल्यांकन अपनी दृष्टि से किया है।  भक्ति काल की पूर्वपीठिका तथा पश्चात्वर्ती प्रभवों के आकलन कर निकला गया उनका निष्कर्ष कि भक्तिकालीन साहित्य जाती और वर्ग (वर्ण भी) से ऊपर उठकर अस्ति बोध के यात्रा हेतु प्रेरित करता है। 'अस्त बोध; से  'अस्ति बोध' की यात्रा समरसी और अभेदवादी होती है। यह समरसता और अभेदवाद केवल पारलौकिक ईश भक्ति का साध्य नहीं है अपितु लौकिक देश भक्ति का भी साध्य है। भक्तिकालीन रचनाएँ कपोल कल्पना या अव्यावहारिक भविकता नहीं है उनका एक व्यावहारिक और जागतिक पहलू भी है। यही कारण है कि सीमांत पर खड़े सशस्त्र सैनिक, बलिपंथी क्रन्तिकारी और प्रयोगशाला में प्रयोगरत वैज्ञानिक भी ईश्वर या धर्मग्रंथों से वैसा ही प्रगाढ़ लगाव रखते हैं जैसा कोइ तपस्यारत साधु रखता है। सुनीता जी भक्तिकाल के दोनों पहलुओं को चीन्ह कर चिन्हाने में सफल रही हैं। उन्होंने  भक्तिकाल की कसौटियों का निर्धारण (स्वात्म—परमात्म, स्व—हित—जनहित, व्यष्टि—समष्टि, द्वैत—अद्वैत, प्रेम—ज्ञान, सगुण—निर्गुण) उचित ही किया है। मानवीय चेतना की गतिशीलता से अभिन्न भक्तिकाल के प्रति समालोचकीय दृष्टि संवेदनशील और सजग न हो तो मूल्यांकन 'शव-परीक्षण' की तरह होने का खतरा होता है। सुनीता का नीर-क्षीर विवेकमई चिंतन उन्हें इस खतरे से बचा सका है। भक्ति से क्रांति का निष्कर्ष भ्रांति नहीं, शांति की और यात्रा है। सुनीता को रचना चतुष्टय के लिए बधाई। उनका यह लेखन अपेक्षा जगाता है कि हिंदी साहित्य के शेष कालों पर भी उनका चिंतन ऐसी रचना मणियों से हिंदी के सारस्वत कोष को समृद्ध करेगा।   

                                   ''तुलसीदास : प्रासंगिकता व नीति वचन'', ''भक्ति काल के रंग'', ''तुलसी का रचना संसार''  तथा ''भक्तिकाल का अस्तिबोध'' चारों कृतियाँ रचनकर्त्री सुनीता सिंह के सात्विक चितन और सृजन का सुपरिणाम हैं। ये कृतियाँ केवल विसंगति, वैषम्य, टकराव, बिखराव से प्रदूषित अथवा अंधश्रद्धा, तर्कहीनता और असंस्कारी भाषा में लिखे जा रहे साहित्य के कारण जन-रूचि के ह्रास को दूर कर सद्प्रवृत्ति व सुसंस्कारी पाठकों में साहित्य-पठन के प्रति रुझान बढ़ाएँगी। सुनीता जी इस सारस्वत रचना-यज्ञ हेतु सधिवाद की पात्र हैं। मुझे विश्व है कि कृतियों का विद्वज्जन, समीक्षकों और सामान्य जन में समादर होगा। 
                                                                                                                                         *** 
                       संपर्क -विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन जबलपुर ४८२००१, salil.sanjiv@gmail.com , वॉट्सऐप ९४२५१८३२४४                                   
 

 
                                    

युवा दिवस 
भारत में स्वामी विवेकानन्द की जयंती, १२ जनवरी प्रतिवर्ष राष्ट्रीय युवा दिवस के रूप में मनाई जाती है। स्वामी विवेकानन्द आधुनिक मानव के आदर्श प्रतिनिधि हैं। भारतीय युवकों के लिए स्वामी विवेकानन्द से बढ़कर दूसरा कोई नेता नहीं हो सकता। उन्होंने हमें अपनी उत्तराधिकार के रूप में प्राप्त परम्परा पर अभिमान करना सिखाया है। स्वामी जी ने जो कुछ भी लिखा है वह हमारे लिए हितकर है, वह आने वाले लम्बे समय तक हमें प्रभावित करता रहेगा। प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप में उन्होंने वर्तमान भारत को दृढ़ रूप से प्रभावित किया है। भारत की युवा पीढ़ी स्वामी विवेकानन्द से निःसृत होने वाले ज्ञान, प्रेरणा एवं तेज के स्रोत से लाभ उठा रही है।

संयुक्त राष्ट्र संघ के निर्णयानुसार सन् 1984 ई. को 'अन्तरराष्ट्रीय युवा वर्ष' घोषित किया गया। इसके महत्त्व का विचार करते हुए भारत सरकार ने घोषणा की कि सन 1984 से 12 जनवरी यानी स्वामी विवेकानन्द जयंती (जयन्ती) का दिन राष्ट्रीय युवा दिवस के रूप में देशभर में सर्वत्र मनाया जाए।

इस संदर्भ (सन्दर्भ) में भारत सरकार के विचार थे कि -ऐसा अनुभव हुआ कि स्वामी जी का दर्शन एवं स्वामी जी के जीवन तथा कार्य के पश्चात निहित उनका आदर्श—यही भारतीय युवकों के लिए प्रेरणा का बहुत बड़ा स्रोत हो सकता है।

इस दिन देश भर के विद्यालयों एवं महाविद्यालयों में तरह-तरह के कार्यक्रम होते हैं; रैलियाँ निकाली जाती हैं; योगासन की स्पर्धा आयोजित की जाती है; पूजा-पाठ होता है; व्याख्यान होते हैं; विवेकानंद साहित्य की प्रदर्शनी लगती है।

अन्तरराष्ट्रीय युवा दिवस (International Youth Day) सन २००० से प्रति वर्ष पूरे विश्व में १२ अगस्त को मनाया जाता है।
***
सॉनेट 
साहब 
*
गाल उनके गुलाब हैं साहब। 
आब ज्यों माहताब  है साहब।
ताब तो आफताब है साहब।।
हाल हर लाजवाब है साहब।।

ज़ुल्फ़ उनकी नक़ाब है साहब।
मात उनसे उक़ाब है साहब। 
हाथ जिनके गिलास है साहब।। 
चाल सचमुच शराब है साहब।।

रंग उनका अजीब है साहब। 
जंग लगती करीब है साहब। 
ख्वाब उनका सलीब है साहब।

हाय दुनिया रकीब है साहब।। 
संग दिल हर गरीब है साहब।।
संग मिलना नसीब है साहब।।
*** 
सॉनेट
*
सॉनेट रच आनंद मिला है।
मिल्टन-शेक्सपिअर आभार।
काव्य बाग में सुमन खिला है।।
आंग्ल काव्य का यह उपहार।।

लिखे त्रिलोचन ने, नियाज ने।
हैं संजीव, रामबली लिखते।
राग बजाए कलम साज ने।।
कथ्य भाव रस इनमें सजते।।

अलंकार रस बिंब सुसज्जित।
गूँथ कहावत अरु मुहावरे।
शब्द-नर्मदा हुए निमज्जित।।
कथ्य अनगिनत बोल खरे।।

शब्द-शक्तियाँ हों अभिव्यंजित।
सॉनेट विधा हुई अभिनंदित।।
७-१-२०२२
***
नवगीत :
रार ठानते
*
कल जो कहा
न आज मानते
याद दिलाओ
रार ठानते
*
दायें बैठे तो कुछ कहते
बायें पैठे तो झुठलाते
सत्ता बिन कहते जनहित यह
सत्ता पा कुछ और बताते
तर्कों का शीर्षासन करते
बिना बात ही
भृकुटि तानते
कल जो कहा
न आज मानते
*
मत पाने के पहले थे कुछ
मत पाने के बाद हुए कुछ
पहले कभी न तनते देखा
नहीं चाहते अब मिलना झुक
इस की टोपी उस पर धरकर
रेती में से
तेल छानते
कल जो कहा
न आज मानते
*
जनसेवक मालिक बन बैठे
बाँह चढ़ाये, मूँछें ऐंठे
जितनी रोक बढ़ी सीमा पर
उतने ही ज्यादा घुसपैठे
बम भोले को भुला पटल बम
भोले बन त्रुटि
नहीं मानते
कल जो कहा
न आज मानते
७-१-२०१८
*

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