कुल पेज दृश्य

शनिवार, 1 जनवरी 2022

त्रिभवन कौल, गीत, नवगीत, दोहा,

।। ॐ ।।
गीत
चित्र गुप्त है नए काल का हे माधव!
गुप्त चित्र है कर्म जाल का हे माधव!
स्नेह साधना हम कर पाएँ श्री राधे!
जीवन की जय जय गुंजायें श्री राधे!
मानव चाहे बनना भाग्य विधाता पर
स्वार्थ साधकर कहे बना जगत्राता पर
सुख-सपनों की खेती हित दुख बोता है
लेख भाल का कब पढ़ पाया हे माधव!
नेह नर्मदा निर्मल कर दो श्री राधे!
रासलीन तन्मय हों वर दो श्री राधे!
रस-लय-भाव तार दे भव से सदय रहो
शारद-रमा-उमा सुत हम हों श्री राधे!
खुद ही वादों को जुमला बता देता
सत्ता हित जिस-तिस को अपने सँग लेता
स्वार्थ साधकर कैद करे संबंधों को
न्यायोचित ठहरा छल करता हे माधव!
बंधन में निर्बंध रहें हम श्री राधे!
स्वार्थरहित संबंध वरें हम श्री राधे!
आए हैं तो जाने की तैयारी कर
खाली हाथों तारकर तरें श्री राधे!
बिसरा देता फल बिन कर्म न होता है
व्यर्थ प्रसाद चढ़ा; संशय मन बोता है
बोये शूल न फूल कभी भी उग सकते
जीने हित पल पल मरता मनु हे माधव!
निजहित तज हम सबहित साधें श्री राधे!
पर्यावरण शुद्धि आराधें श्री राधे!
प्रकृति पुत्र हों, संचय-भोग न ध्येय बने
सौ को दें फिर लें कुछ काँधे श्री राधे!
माधव तन में राधा मन हो श्री राधे!
राधा तन में माधव मन हो हे माधव!
बिंदु सिंधु में, सिंधु बिंदु में हे माधव!
हो सहिष्णु सद्भाव पथ वरें श्री राधे!
१-१-२०२०
***
बाल गीत :
ज़िंदगी के मानी
*
खोल झरोखा, झाँक-
ज़िंदगी के मानी मिल जायेंगे.
मेघ बजेंगे, पवन बहेगा,
पत्ते नृत्य दिखायेंगे.....
*
बाल सूर्य के संग ऊषा आ,
शुभ प्रभात कह जाएगी.
चूँ-चूँ-चूँ-चूँ कर गौरैया
रोज प्रभाती गायेगी..
टिट-टिट-टिट-टिट करे टिटहरी,
करे कबूतर गुटरूं-गूं-
कूद-फाँदकर हँसे गिलहरी
तुझको निकट बुलायेगी..
आलस मत कर, आँख खोल,
हम सुबह घूमने जायेंगे.
खोल झरोखा, झाँक-
ज़िंदगी के मानी मिल जायेंगे.....
*
आई गुनगुनी धूप सुनहरी
माथे तिलक लगाएगी.
अगर उठेगा देरी से तो
आँखें लाल दिखायेगी..
मलकर बदन नहा ले जल्दी,
प्रभु को भोग लगाना है.
टन-टन घंटी मंगल ध्वनि कर-
विपदा दूर हटाएगी.
मुक्त कंठ-गा भजन-आरती,
सरगम-स्वर सध जायेंगे.
खोल झरोखा, झाँक-
ज़िंदगी के मानी मिल जायेंगे.....
*
मेरे कुँवर कलेवा कर फिर,
तुझको शाला जाना है.
पढ़ना-लिखना, खेल-कूदना,
अपना ज्ञान बढ़ाना है..
अक्षर,शब्द, वाक्य, पुस्तक पढ़,
तुझे मिलेगा ज्ञान नया.
जीवन-पथ पर आगे चलकर
तुझे सफलता पाना है..
सारी दुनिया घर जैसी है,
गैर स्वजन बन जायेंगे.
खोल झरोखा, झाँक-
ज़िंदगी के मानी मिल जायेंगे.....
***
नये साल का गीत
कुछ ऐसा हो साल नया
संजीव 'सलिल'
*
कुछ ऐसा हो साल नया,
जैसा अब तक नहीं हुआ.
अमराई में मैना संग
झूमे-गाये फाग सुआ...
*
बम्बुलिया की छेड़े तान.
रात-रातभर जाग किसान.
कोई खेत न उजड़ा हो-
सूना मिले न कोई मचान.
प्यासा खुसरो रहे नहीं
गैल-गैल में मिले कुआ...
*
पनघट पर पैंजनी बजे,
बीर दिखे, भौजाई लजे.
चौपालों पर झाँझ बजा-
दास कबीरा राम भजे.
तजें सियासत राम-रहीम
देख न देखें कोई खुआ...
स्वर्ग करे भू का गुणगान.
मनुज देव से अधिक महान.
रसनिधि पा रसलीन 'सलिल'
हो अपना यह हिंदुस्तान.
हर दिल हो रसखान रहे
हरेक हाथ में मालपुआ...
*
बाल गीत :

ज़िंदगी के मानी
- आचार्य संजीव वर्मा "सलिल"
खोल झरोखा, झाँक-
ज़िंदगी के मानी मिल जायेंगे.
मेघ बजेंगे, पवन बहेगा,
पत्ते नृत्य दिखायेंगे.....
*
बाल सूर्य के संग ऊषा आ,
शुभ प्रभात कह जाएगी.
चूँ-चूँ-चूँ-चूँ कर गौरैया
रोज प्रभाती गायेगी..
टिट-टिट-टिट-टिट करे टिटहरी,
करे कबूतर गुटरूं-गूं-
कूद-फांदकर हँसे गिलहरी
तुझको निकट बुलायेगी..
आलस मत कर, आँख खोल,
हम सुबह घूमने जायेंगे.
खोल झरोखा, झाँक-
ज़िंदगी के मानी मिल जायेंगे.....
*
आई गुनगुनी धूप सुनहरी
माथे तिलक लगाएगी.
अगर उठेगा देरी से तो
आँखें लाल दिखायेगी..
मलकर बदन नहा ले जल्दी,
प्रभु को भोग लगाना है.
टन-टन घंटी मंगल ध्वनि कर-
विपदा दूर हटाएगी.
मुक्त कंठ-गा भजन-आरती,
सरगम-स्वर सध जायेंगे.
खोल झरोखा, झाँक-
ज़िंदगी के मानी मिल जायेंगे.....
*
मेरे कुँवर कलेवा कर फिर,
तुझको शाला जाना है.
पढ़ना-लिखना, खेल-कूदना,
अपना ज्ञान बढ़ाना है..
क्षर,शब्द, वाक्य, पुस्तक पढ़,
तुझे मिलेगा ज्ञान नया.
जीवन-पथ पर आगे चलकर
तुझे सफलता पाना है..
सारी दुनिया घर जैसी है,
गैर स्वजन बन जायेंगे.
खोल झरोखा, झाँक-
ज़िंदगी के मानी मिल जायेंगे.....
***
नव वर्ष पर नवगीत:
महाकाल के महाग्रंथ का
*
महाकाल के महाग्रंथ का
नया पृष्ठ फिर आज खुल रहा....
*
वह काटोगे,
जो बोया है.
वह पाओगे,
जो खोया है.
सत्य-असत, शुभ-अशुभ तुला पर
कर्म-मर्म सब आज तुल रहा....
*
खुद अपना
मूल्यांकन कर लो.
निज मन का
छायांकन कर लो.
तम-उजास को जोड़ सके जो
कहीं बनाया कोई पुल रहा?...
*
तुमने कितने
बाग़ लगाये?
श्रम-सीकर
कब-कहाँ बहाए?
स्नेह-सलिल कब सींचा?
बगिया में आभारी कौन गुल रहा?...
*
स्नेह-साधना करी
'सलिल' कब.
दीन-हीन में
दिखे कभी रब?
चित्रगुप्त की कर्म-तुला पर
खरा कौन सा कर्म तुल रहा?...
*
खाली हाथ?
न रो-पछताओ.
कंकर से
शंकर बन जाओ.
ज़हर पियो, हँस अमृत बाँटो.
देखोगे मन मलिन धुल रहा...
***
विश्वास नहीं होता :
नहीं रहे संवेदनशीलता के धनी भाई त्रिभवन कौल
*
जन्म: १.१.१९४६ श्रीनगर, देहावसान: १.१.२०१९ नई दिल्ली।
आत्मज: स्व. लक्ष्मी कौल - श्री बद्रीनाथ कौल।
जीवन संगिनी: श्रीमती ललिता कौल।
शिक्षा: स्नातक।
संप्रति: सेवानिवृत्त राजपत्रित अधिकारी भारतीय वायु सेना।
प्रकाशित कृतियां: नन्हें-मुन्नों के रूपक, सबरंग, मन की तरंग, बस एक निर्झरिणी भावनाओं की। साझा संकलन: लम्हे, सफीना, काव्य शाला, स्पंदन, कस्तूरी, सहोदरी सोपान २, उत्कर्ष १, विहग प्रीती के, पुष्पगंधा, ढाई आखर प्रेम, अथ से इति, स्तंभ वर्ण पिरामिड, शत हाइकुकार, सुरभि कंचन, दोहा शतक मंजूषा १: दोहा दोहा नर्मदा।
उपलब्धि: विशेषांक तरु मीडिया पत्रिका नवंबर २०१७, ट्रू मीडिया सम्मान, आचार्य रामचंद्र शुक्ल सम्मान, जयशंकर प्रसाद सम्मान, सूर्यकांत त्रिपाठी निराला सम्मान, पिरामिड भूषण, साहित्य भूषण, कविता लोक रत्न, शब्द शिल्पी, मुक्तक लोक भूषण, काव्य सुरभि, दोहा-दीप्ति।
तेरा तुझको अर्पण:
भारतीय वायु सेना में रहकर सर से पाँव तक राष्ट्रीयता के रंग में रँगे, साफगोई के साथ अपनी बात कहने का साहस रखनेवाले त्रिभवन कौल जी दोहा दुनिया में प्रवेश करने के पूर्व मुक्त छंद में काव्य रचना करते रहे हैं। सैन्य अनुशासन को निजी जीवन में अपनानेवाले त्रिभवन जी ने दोहा की बगिया में कदम रखते ही दोहे का अनुशासन बिना किसी हीलाहवाली के स्वीकार किया और अल्प समय में दोहा का रचना विधान आत्मसात कर लिया। उनके अनुसार आतंकी का कोई धर्म नहीं होता, वह अपना साथ न देनेवाले को काफिर मानता है इसलिए उसे भी एनी कोइ विचार किए बिना दंडित किया जाना चाहिए-
आतंकी देखे नहीं, धर्म, पंथ या जात।
काफ़िर सबको कह रहे, भूले निज औकात।।
देश रक्ष में प्राण-प्राण से जुटे सैन्यबल पर राजनैतिक स्वार्थवश आक्षेप करनेवाले नेताओं को अपने मुँह पर ताला लगाना ही होगा, अन्यथा देश उन्हें क्षमा नहीं करेगा-
दे बयान नेता रहे, जग-निंदा के योग्य।
है कटाक्ष सेनाओं पर, नहीं क्षमा के योग्य।।
प्रकृति का के सौंदर्य सौंदर्य को देखने-सराहने की उनकी अपनी दृष्टि है। अस्ताचलगामी सूर्य के प्रस्थान को त्रिभवन जी अगली सुबह नए रंग भरने की पूर्व पीठिका मानते हैं-
सूरज होता अस्त जब, भाग लालिमा संग।
अंत न होता प्रणय का, सुबह भरे नव रंग।।
हमारी अंक सामाजिक समस्याओं की जड़ श्रम की प्रतिष्ठा न होना है। दोहाकार परिश्रम को त्रास नहीं अवसर के रूप में देखता है-
जीवन है क्रीड़ा नहीं, नहीं परिश्रम त्रास।
भटक नहीं अब पथिक तू, अवसर तेरे पास।।
त्रिभवन जी के दोहे नीति के दोहे हैं। वे अपनी बात को परोक्ष नहीं प्रत्यक्षत: कहने में विश्वास करते हैं। वे युवा शक्ति का वाहान करते हैं कि वह अंतहीन अवसरों का लाभ लेकर आकाश पर सफलता का ध्वज फहराए-
अवसर-सीमा असीमित, उठ छू लो आकाश।
अंतहीन अवसर सुलभ, चमके युवा प्रकाश।।
इन दोहों में बात कहने का सलीका सीधे मर्म को स्पर्श करता है. इनका सौदर्य किसी रूपगर्विता का नहीं, किसी लज्जालु नवोढ़ा का सा है।
*
भाई त्रिभुवन! सुना था सेना से जुड़ा व्यक्ति कौल का पक्का होता है लेकिन तुम तो फिर मिलने का वादा निभाने के पहले ही चले गए फिर कभी न मिलने की राह पर। आँखों से बहती सलिला का क्या करूँ? ऐसा नया वर्ष कभी न आये जो किसी अपने को दूर कर दे। अब कहाँ मिलेगी भावनाओं की निर्मल गहराई, हौसलों की गगन चुम्बी ऊँचाई, आँखों की तरलता, शब्दों की आकुलता? कौन किससे अधिक सफेद की होड़ करती त्वचा और केश, अधरों पर मुस्कान और बाँहों की गर्मजोशी। तुम ही नहीं गए, तुम्हारे साथ दिल्ली आने का आकर्षण भी चला गया। तुम्हें नमन शत शत नमन।
***
नये साल की दोहा सलिला:
संजीव'सलिल'
*
उगते सूरज को सभी, करते सदा प्रणाम.
जाते को सब भूलते, जैसे सच बेदाम..
*
हम न काल के दास हैं, महाकाल के भक्त.
कभी समय पर क्यों चलें?, पानी अपना रक्त..
*
बिन नागा सूरज उगे, सुबह- ढले हर शाम.
यत्न सतत करते रहें, बिना रुके निष्काम..
*
अंतिम पल तक दिये से, तिमिर न पाता जीत.
सफर साँस का इस तरह, पूर्ण करें हम मीत..
*
संयम तज हम बजायें, व्यर्थ न अपने गाल.
बन संतोषी हों सुखी, रखकर उन्नत भाल..
*
ढाई आखर पढ़ सुमिर, तज अद्वैत वर द्वैत.
मैं-तुम मिट, हम ही बचे, जब-जब खेले बैत..
*
जीते बाजी हारकर, कैसा हुआ कमाल.
'सलिल'-साधना सफल हो, सबकी अबकी साल..
*
भुला उसे जो है नहीं, जो है उसकी याद.
जीते की जय बोलकर, हो जा रे नाबाद..
*
नये साल खुशहाल रह, बिना प्याज-पेट्रोल..
मुट्ठी में समान ला, रुपये पसेरी तौल..
*
जो था भ्रष्टाचार वह, अब है शिष्टाचार.
नये साल के मूल्य नव, कर दें भव से पार..
*
भाई-भतीजावाद या, चचा-भतीजावाद.
राजनीति ने ही करी, दोनों की ईजाद..
*
प्याज कटे औ' आँख में, आँसू आयें सहर्ष.
प्रभु ऐसा भी दिन दिखा, 'सलिल' सुखद हो वर्ष..
*
जनसँख्या मंहगाई औ', भाव लगाये होड़.
कब कैसे आगे बढ़े, कौन शेष को छोड़..
*
ओलम्पिक में हो अगर, लेन-देन का खेल.
जीतें सारे पदक हम, सबको लगा नकेल..
*
पंडित-मुल्ला छोड़ते, मंदिर-मस्जिद-माँग.
कलमाडी बनवाएगा, मुर्गा देता बांग..
*
आम आदमी का कभी, हो किंचित उत्कर्ष.
तभी सार्थक हो सके, पिछला-अगला वर्ष..
*
गये साल पर साल पर, हाल रहे बेहाल.
कैसे जश्न मनायेगी. कुटिया कौन मजाल??
*
धनी अधिक धन पा रहा, निर्धन दिन-दिन दीन.
यह अपने में लीन है, वह अपने में लीन..
**************
१-१-२०११

कोई टिप्पणी नहीं: