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मंगलवार, 2 मार्च 2021

व्यंग्य लेख : ब्रह्मर्षि घोंचूमल तोताराम

व्यंग्य लेख :
ब्रह्मर्षि घोंचूमल तोताराम
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
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घोर कलिकाल में पावन भारत भूमि को पाप के ताप से मुक्त करने हेतु परंपिता परमेश्वर अनेकानि देवतानि का स्वरूप धारण कर यत्र-तत्र-सर्वत्र प्रगट होते भये। कोई देश में, कोई परदेश में, कोई विदेश में, कोई दाढ़ी बढ़ाकर, कोई मूँछ मुँड़ाकर, कोइ चाँद घुटाकर, कोई भगवा वसन पहन कर, कोई अगवा नारी को ग्रहणकर, कोई आत्म कल्याण स्वहित व स्वसन्तुष्टि के माध्यम से 'आत्मा सो परमात्मा' के सिद्धांतानुसार स्व सेवा को प्रभु सेवा मानकर, द्वैत मिटाकर अद्वैत साधना के पथ पर प्रवीण होते भये। कतिपय अन्य त्यागी, वैरागी, आत्मानुरागी परदे के पीछे रहकर कठपुतली संचालन के दिव्य ईश्वरीय कृत्य को विविध कथा प्रसंगों में भिन्न-भिन्न रूप धारणकर परकीया को स्वकीया बनाकर होने की निमग्न होते भये। 'महाजनो येन गत: स पंथा: की परंपरा का निर्वहनकर दैहिक ताप को मिटाने की इंद्रदेवीय परंपरा के नव अध्याय लिखते हुए रस भोग और रास योग करने की दिव्य कला साधना में निमग्न सिद्ध पुरुषों में हमारे लेख नायक ब्रह्मर्षि श्री श्री ४२० घोंचूमल तोताराम जी महाराज अग्रगण्य हैं।
घोंचूमल तोताराम जी की दिव्य लीलावतरण कथा ब्लैक होल के घुप्प अन्धकार में प्रकाश कण के अस्तित्व की भाँति अप्राप्य है। 'मुर्गी पहले हुई या अंडा' के हल की तरह की तरह कोई नहीं जानता कि उन्होंने कहाँ-कब-किस महिमामयी के दामन को पल-पुसकर धन्य किया तथापि यह सभी जानते हैं कि अगणित लावण्यमयी ललनाओं को हास-परिहास, वाग-विलास व खिलास-पिलास के सोपानों पर सहारा देकर अँगुली पकड़ते ही पहुँचा पकड़ने में उन्होंने निमिष मात्र भी विलम्ब नहीं किया और असूर्यम्पश्याओं, लाजवंतियों तथा आधुनिकाओं में कोई भेद न कर सबको समभाव से पर्यंकशायिनी ही नहीं, दूध-पूतवती बनाकर उनके इहलोक व परलोक का बंटाढार करने की महती अनुकंपा करते समय 'बार बार देखो, हजार बार देखो' का अनुकरण कर अपरिमेय पौरुष को प्रमाणित किया है।
घोंचूमल जी का 'घों' घपलों-घोटालों संबंधी दक्षता तथा पुरा-पड़ोस में ताँक-झाँककर उनकी घरवालियों को अपनी समझने की वैश्विकता में प्रवीण होने का प्रतीक है। इस दुष्प्रवृत्ति को सुसंस्कारिता का चोला उढ़ाकर घोंचूमल ने नाम के आगे 'ब्रह्मर्षि' और पीछे 'महाराज' जोड़कर चेलों से प्रचारित कराने में फ़ौरन से पेश्तर कदम उठाया। बसे बसाये घरों में सेंध लगाने के लिए दीवारों से कान लगाकर और वातायनों से झाँककर घरवाले के बाहर होते ही द्वार खटखटाकर किसी न किसी बहाने घरवालियों से संपर्क बढ़ाकर नवग्रहों और दैवीय विपदा का भय दिखाकर संकट निवारण के बहाने सामीप्य बढ़ाने की कला में कुशल, निपुण और प्रवीण घोंचूमल का जवाब नहीं है।
अपनी सुकुमार कंचन काया को श्रम करने के कष्ट से बचाकर, संबंधों के चैक को स्वार्थ की बैंक में भुनाने तथा नाज़नीनों को अपने मोहपाश में फाँसकर नचाने का पुनीत लक्ष्य निर्धारण कर घोंचूमल जी नयन मूँदकर देहाकारों के बिंदुओं-रेखाओं, वृत्तों-वर्तुलों, ऊँचाइयों-गहराइयों का अनुमान, निरीक्षण - परीक्षण करने की कला को विज्ञान बनाकर आजमाने का कोई अवसर नहीं गँवाते। अपनी इज्जत बचाने के चक्कर में अच्छे-अच्छे 'चूं' तक नहीं कर पाते और भयादोहन के शिकार हो, मुँह छिपाते हैं। इस तरह उनहोंने अपने नाम के 'चूँ को सार्थक कर लिया है।
'मेरा नाम हाऊ, मैं ना दैहौं काऊ' की लोकोक्ति का अनुकरण कर मन भानेवाले पराये माल को अपना बनाने की कला के प्रति प्राण प्राण से समर्पण को 'मन की मौज' मानने - मनवाने में महारथ हासिल कर चुके घोंचूमल ने अपने नाम में 'म' की सार्थकता स्वघोषित 'ब्रह्मर्षि' विरुद जोड़ कर सिद्ध कर दी है। अपने नाम के साथ हर दिन एक नया विरुद जोड़कर उसकी लंबाई बढ़ाने को सफलता का सूत्र मन बैठे घोंचूमल प्राप्त सम्मानों की जानकारी 'अंकों' नहीं 'शतकों में देते हैं।
ब्रह्मर्षि के नाम के अंत में संलग्न 'ल' निरर्थक नहीं है। यह 'ल' उपेक्षित नहीं अपितु लंबे समय तक निस्संतान रही सौभाग्यवती के प्रौढ़ावस्था में उत्पन्न इकलौते लाल की तरह लाडला-लड़ैता है। यह अलग बात है कि यह 'ल' पांडवों जैसा लड़ाकू नहीं कौरवों जैसा लालची है। यह 'ल' ललनाओं के लावण्य को निरखने-पढ़ने की अहैतुकी सामर्थ्य का परिचायक है। ब्रह्मर्षि की उदात्त दृष्टि में अपने-पराये का भेद नहीं है। ब्रह्मर्षि 'शासकीय संपत्ति आपकी अपनी है' के सरकारी नारे को सम्मान देते हुए रेलगाड़ी के वातानुकूलित डब्बे में चादर-तौलिया ही नहीं और भी बहुत कुछ लाने में संकोच नहीं करते। 'जिसने की शर्म, उसके फूटे करम / जिसने की बेहयाई, उसने पाई दूध-मलाई' के सुभाषित को जीनेवाले ब्रह्मर्षि किस 'लायक ' हैं यह भले ही कोई न बता सके पर वे अपने सामने बाकी सबको नालायक मानते हैं।
अपने से कमजोर 'लड़इयों' से सामना होते ही ललकारने से न चूकनेवाले ब्रह्मर्षि खुद से शहजोर 'शेर' से सामना होते ही दम दबाकर लल्लो-चप्पो करने में नहीं चूकते। हर ईमानदार, स्वाभिमानी और परिश्रमी को हानि पहुँचाना परम धर्म मानकर, गुटबंदी के सहारे मठाधीशी को दिन-ब-दिन अधिकाधिक प्रोत्साहित करते ब्रह्मर्षि खुशामदी नौसिखियों को शिरोमणि घोषित करने का कोई गँवाते। बदले में खुशामदी उन्हें युग पुरुष घोषित कर धन्य होता है। 'अँधा बाँटे रेवड़ी, चीन्ह-चीन्ह कर देय' की कहावत को सत्य सिद्ध करते हुए ब्रह्मर्षि असहमतियों के प्रति दुर्वासा और सहमतियों के प्रति धृतराष्ट्र नहीं करते।
इकलौते वालिद तोतराम के एकमात्र ज्ञात कैलेंडर घोन्चूराम को 'तोताचश्म' तो होना ही था। सच्ची तातभक्ति प्रदर्शित घोंचूमल ने मौका पाते ही 'बाप का बाप" बनने में देर न की। उनकी टें-टें सुनकर तोते भी मौन हो गए पर वाह रे मिटटी के माधो, कागज़ के शेर टें-टें बंद नहीं की, तो नहीं की। बंद तो उन्होंने अंग्रेजी बोलना भी नहीं किया। हुआ यूँ कि 'अंधेर नगरी चौपट राजा' की तर्ज पर एक जिला हुक्काम अंग्रेजी प्रेमी आ गया। हुक्कामों को नवाबों के हुक्के की तरह खुश रखकर काम निकलवाने में माहिर घोंचूमल ने चकाचक चमकने के लिए चमचागिरी करते हुए बात-बेबात अंग्रेजी में जुमलेबाजी आरंभ कर दी। 'पेट में हैडेक' होने, 'लेडियों को फ्रीडमता' न देने और पनहा-लस्सी आदि को 'कंट्री लिकर' बताने जैसी अंग्रेजी सुनकर हँसते-हँसते हाकिन के पेट में दर्द होने लगा तो घोंचूमल का ब्रह्मर्षि जाग गया। उन्होंने तत्क्षण दादी माँ के नुस्खों का पिटारा खोलकर ज्ञान बघारना शुरू किया ही था की हाकिम के सब्र का बाँध टूट गया। फिर तो दे तेरे की होना ही थी। तब से 'ब्रह्मर्षि' पश्चिमदिशा में सूर्य नमस्कार करते हैं क्यों कि हाकिम का बंगला पूर्व दिशा में ही पड़ता है। शायद नमस्कार उन तक पहुँच जाए।
इस घटना से सबक लेकर ब्रह्मर्षि ने संस्कृत और हिंदी का दामन थाम लिया। काम पड़े पर पर गधे को बाप बताने और काम निकल जाने पर बाप को गधा बताने से परहेज न करनेवाले ब्रह्मर्षि जिस दिन अख़बार में अपना नाम न देखें उन्हें खाना हजम नहीं होता। येन केन प्रकारेण चित्र छप जाए तो उनकी क्षुधा ही नहीं, खून भी बढ़ जाता है। जिस तरह दादी अम्मा की सुनाई कहानियों में राक्षस की जान तोते में बसा करती थी वैसे ही ब्रह्मर्षि की जान अभिनंदन पत्रों और स्मृति चिह्नों में बसती है। वे मिलने जुलने वालों को हर दिन अभिनन्दन पत्रों और स्मृति चिन्हों की संख्या बढ़ा-चढ़ाकर बताते हुए परमवीर चक्र पाने जैसा गौरव अनुभव करते हैं। इन कार्यक्रमों में सहभागिता करता खींसें निपोरता, दीदे नटेरता उनका चौखटा विविध भाव मुद्राओं में कक्ष की हर दीवार पर है। कोई अन्य हो न हो वे स्वयं इन तस्वीरों और अभिनन्दन पत्रों को देख देखकर निहाल होते रहते हैं। परमज्ञानी घोंचूमल सकल संसार को माया निरूपित करते हुए हर आगंतुक से धन का मोह त्यागकर खुद का वंदन-अभिनन्दन मुक्त हस्त से करने का ज्ञान बिना फीस देने से नहीं चूकते। विराग में अनुराग की जीती जागती मिसाल घोंचूमल जैसी कालजयी प्रतिभाओं का यशगान करते हुए स्वामी दयानन्द सरस्वती ने सत्यार्थ प्रकाश में ठीक ही लिखा है -
टका धर्मष्टका कर्मष्टकाहि परमं पदं
यस्य गृहे टका नास्ति हा टका टकटकायते
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संपर्क : विश्व वाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन जबलपुर ४८२००१, चलभाष ९४२५१८३२४४।

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