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बुधवार, 6 मार्च 2019

लघुकथा कल से कल

प्रतिनिधि भारतीय लघुकथाएँ हेतु अब तक चयनित सहयोगी
१० पृष्ठ, १० लघुकथाएँ, चित्र-परिचय

१, संजीव वर्मा 'सलिल', जबलपुर
२. कांता राय, भोपाल
३. मिथलेश बड़गैया, जबलपुर
४. वंदना सहाय, मुंबई
५. प्रेरणा गुप्त, कानपूर
६..अरुण शर्मा, भिवंडी
७. सुनीता यादव
८. बसंत शर्मा
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सार्थक भारतीय लघुकथाएँ हेतु अब तक चयनित सहयोगी
२ पृष्ठ, २ लघुकथाएं, चित्र-पता

१, संजीव वर्मा 'सलिल', जबलपुर
२. कांता राय, भोपाल
३. मिथलेश बड़गैया, जबलपुर
४. वंदना सहाय, मुंबई
५. प्रेरणा गुप्त, कानपूर
६.अरुण शर्मा, भिवंडी
७. सुनीता यादव
८. चन्द्रेश छ्तलानी
९. सरस्वती माथुर

१०. प्रभात दुबे
११. राजलक्ष्मी शिवहरे
१२. छाया त्रिवेदी 
१३. मिथलेश बड़गैया 
१४. बसंत शर्मा 
१५. 

पुरोवाक 
लघुकथा : कल से कल  
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
आदि मानव ने प्रकृति (नदियों, झरनों, हवा, भूकंप आदि), जंतुओं, पंछियों, पशुओं आदि के साथ ध्वनि का उच्चार तथा प्रयोग सीखकर उसे अपनी स्मृति में रखने और उसे किसी विशिष्ट अर्थ से संयुक्त कर अपने साथियों और संतति को सिखाने में जैसे-जैसे दक्षता प्राप्त की, वैसे-वैसे वह अन्य प्राणियों की तुलना में अधिकाधिक विकसित होता गया। अपने अनुभवों को चित्रांकित कर, सुरक्षित रखने की विधि विकसित करने के बाद भी वह अपने सब अनुभव अगली पीढ़ी को नहीं दे पा रहा था। अत:, उसने ध्वनि-समुच्चय को अर्थ के साथ जोड़कर शब्द, शब्द समुच्चय से वाक्य और वाक्य को सुरक्षित रखने के लिए लिपि का आविष्कार किया और अन्य जीवों से अधिक उन्नत हो गया। अपनी शारीरिक कमजोरी को बौद्धिक शक्ति से आवृत्त कर मनुष्य ने शेष सभी जीवों पर जय प्राप्त कर ली। अपने जीवनानुभवों और अनुभूतियों को अन्य जनों से बाँटने की चाह में मनुष्य ने भाषा (वाक् + लिपि), भाषा में  गद्य-पद्य की शैलियाँ विकसित कीं। गद्य में वर्णनात्मकता और पद्य में चारुत्व के समावेशन ने मनुष्य को दोनों शैलियों में विविध विधाओं के विकास की और प्रवृत्त किया। लघुकथा गद्य के अंतर्गत विकसित ऐसी ही एक विधा है। इन विधाओं का विकास विश्व के विविध भागों में रह रहे मानव-समूहों में होता रहा जिसका कोई तुलनात्मक विवरण उपलब्ध नहीं है। मानव समूहों के एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाते समय ये विधाएँ भी स्थानांतरित व विकसित होती रहीं। 

आधुनिक लघुकथा की पृष्ठभूमि  
आधुनिक हिंदी ने उद्भव काल में पारंपरिक संस्कृत, लोक भाषाओँ और अन्य भारतीय भाषाओँ के साहित्य की उर्वर विरासत ग्रहण कर विकास के पथ पर कदम रखा। गुजराती, बांग्ला और मराठी भाषाओँ का क्षेत्र हिंदी भाषी क्षेत्रों के समीप था। विद्वानों और जन सामान्य के सहज आवागमन ने भाषिक आदान-प्रदान को सुदृढ़ किया। मुग़ल आक्रांताओं की अरबी-फ़ारसी और भारतीय मजदूर-किसानों की भाषा के मिलन से लश्करी का जन्म सैन्य छावनियों में हुआ जो लश्करी, रेख्ता और उर्दू के रूप में विकसित हुई। राजघरानों, जमींदारों तथा समृद्ध जनों में अंग्रेजी शिक्षा तथा विदेश जाकर उपाधियाँ ग्रहण करने पर अंग्रेजी भाषा के प्रति आकर्षण बढ़ा। शासन की भाषा अंग्रेजी होने से उसे श्रेष्ठ माना जाने लगा। अंग्रेजी शिक्षा प्रणाली ने भारतीयों के मन में अपने विरासत के प्रति हीनता का भाव सुनियोजित तरीके से पैदा किया गया। स्वतंत्रता के संघर्ष काल में साम्यवाद परिवर्तन की चाहत पाले युवा वर्ग को आकर्षित कर सका। स्वतंत्रता के लिए सशस्त्र तथा अहिंसक दोनों तरीकों से प्रयास किये जाते रहे। नेताजी सुभाष चंद्र बोस के आकस्मिक रूप से लापता होने पर स्वन्त्रता प्राप्ति का पूर्ण श्रेय गाँधी जी के नेतृत्व में चले सत्याग्रह को मिला। फलत:, कोंग्रेस सत्तारूढ़ हुई। श्री नेहरू के व्यक्तित्व में अंग्रेजी राजतंत्र और साम्यवादी व्यवस्था के प्रति विकट सम्मोहन ने स्वातंत्र्योत्तर काल में इन दोनों तत्वों को सत्ता और साहित्य में सहभागी बना दिया जबकि भारतीय सनातन परंपरा में विश्वास करने वाले तत्व पारस्परिक फूट के कारण बलिपंथी होते हुए भी पिछड़ गए। आधुनिक हिंदी को उद्भव के साथ ही संस्कृतनिष्ठ तथा बोलचाल की सहज दो शैलियाँ मिलीं। लघुकथा को भी इन दोनों शैलियों के माध्यम से ही आगे बढ़ना पड़ा।  

लघुकथा की चुनौतियाँ   
स्वतंत्रता के पश्चात् शिक्षा संस्थानों और साहित्य में अपना प्रभुत्व स्थापित कर साम्यवादी रचनाकार सृजन और समीक्षा के मानकों को अपने विचारधारा के अनुरूप ढलने में कुछ काल के लिए सफल हो गए। उन्होंने लघु कथा, व्यंग्य लेख, नवगीत, चित्रांकन, फिल्म निर्माण आदि क्षेत्रों में सामाजिक वर्गीकरण, विभाजन, शोषण, टकराव, वैषम्य, पीड़ा, दर्द, दुःख और पतन को केंद्र में रखकर रचनाकर्म किया। संभवत: लक्ष्य सामाजिक टकराव को बढ़ाकर सत्ता पाना था किंतु उपलब्धि शिक्षा और साहित्य में विचारधारा के अनुरूप मानक निर्धारित कर, साहित्य प्रकाशित करने, पुरस्कृत होने तक सीमित रह गई। भारतीय जन मानस चिरकाल से सात्विक, आस्थावान, अहिंसक, सहिष्णु, उत्सवधर्मी तथा रचनात्मक प्रवृत्तियुक्त है। पराभव काल में अशिक्षा, छुआछूत, सती प्रथा, पर्दा प्रथा और जन्मना वर्ण विभाजन जैसी बुराइयाँ पनपीं किन्तु स्वतंत्रता की चाह ने एकता बनाए रखी। स्वाधीनता के पश्चात् सर्वोदय और नक्सलवाद जैसे समांतरी आंदोलल चले। उनके अनुरूप साहित्य की रचना हुई। लघुकथा को आरंभ में उपेक्षा और अवमानना झेलनी पड़ी। तथाकथित प्रगतिशीलों ने भारतीय वांग्मय की सनातन विरासत और परंपरा को हीन, पिछड़ा, अवैज्ञानिक और अनुपयुक्त कहकर अंग्रेजी साहित्य की दुहाई देते हुए, उसकी आड़ में टकराव और बिखराव केंद्रित जीवनमूल्यों को विविध विधाओं का मानक बता दिया। फलत:, रचनाकर्म का उद्देश्य समाज में व्याप्त शोषण, टकराव, बिखराव, संघर्ष, टूटन, फुट, विसंगति, विडंबना, असंतोष, विक्षोभ, कुंठा, विद्रोह आदि का शब्दांकन मात्र हो गया। उन्होंने देश में हर क्षेत्र में हुई उल्लेखनीय प्रगति, सद्भाव, एकता, साहचर्य, सहकारिता, निर्माण, हर्ष, उल्लास, उत्सव आदि की जान-बूझकर अनदेखी और उपेक्षा की। कोढ़ में खाज यह कि इस वैचारिक पृष्ठभूमि के अनेक जन उच्च प्रशासनिक पदों पर जा बैठे और उन्होंने 'अपने लोगों' को न केवल महिमामण्डित किया अपितु भिन्न विचारधारा के साहित्यकारों का दमन और उपेक्षा भी की।

लघुकथा और पहचान का संकट कोई उपयोगी बात बार-बार कही जाने पर, वक्ता उसे अधिकाधिक रोचक बनाने के साथ देश-काल-परिस्थिति अनुसार कुछ जोड़ता-घटाता रहा। इस तरह कहने की कला का जन्म और विकास हुआ जिसे कहानी कहा गया। कहानी को गागर में सागर की तरह कम शब्दों में अधिक सार कहने को 'लघुकथा' संज्ञा प्राप्त हुई। हिंदी की आधुनिक लघुकथा, छोटी कहानी (शार्ट स्टोरी) नहीं है। उपन्यास, उपन्यासिका (आख्यायिका), कहानी, छोटी कहानी और लघुकथा में मुख्य अंतर उनके कथ्य में समाहित घटनाओं की संख्या और उन घटनाओं में अन्तर्निहित घटनाओं का होता है। उपन्यास समूचे जीवन, अनेक घटनाओं तथा अनेक पात्रों का समुच्चय होता है। उपन्यासिका अपेक्षाकृत कम कालावधि, पात्रों व घटनाओं को समेटती है। कहानी में कुछ घटनाएँ, जीवन का कुछ भाग, पात्रों का चरित्र-चित्रण आदि होता है। छोटी कहानी अपेक्षाकृत कम समय, कम घटनाओं, कम पात्रों से बनती है। लघुकथा क्षण-विशेष में उपजे भाव, घटना या विचार के कथ्‍य-बीज की संक्षिप्त फलक पर शब्दों की प्रभावपूर्ण अभिव्यक्ति है।  अंग्रेजी साहित्य में गद्य (प्रोज) के अंतर्गत उपन्यास (नावेल), निबन्ध (एस्से), कहानी (स्टोरी), व्यंग्य (सैटायर), लघुकथा (शार्ट स्टोरी), गल्प (फिक्शन), संस्मरण (मेमायर्स), आत्मकथा (ऑटोबायग्राफी) आदि प्रमुख हैं। अंग्रेजी की कहानी (स्टोरी) लघु उपन्यास की तरह तथा शार्ट स्टोरी सामान्यत:६-७ पृष्ठों तक की होती है। हिंदी लघु कथा सामान्यत: एक घटना पर केंद्रित, कुछ वाक्यों से लेकर एक-डेढ़ पृष्ठ तक होती है। स्पष्ट है कि शार्ट स्टोरी और लघुकथा सर्वथा भिन्न विधाएँ हैं। 'शॉर्ट स्टोरी' छोटी कहानी हो सकती है 'लघुकथा' नहीं। हिंदी साहित्य में विधाओं का विभाजन आकारगत नहीं अन्तर्वस्तु या कथावस्तु के आधार पर होता है। उपन्यास सकल जीवन या घटनाक्रम को समाहित करता है, जिसके तत्व कथावस्तु, पात्र, चरित्र-चित्रण, कथोपकथन, वातावरण, भाषा शैली आदि हैं। कहानी जीवन के काल विशेष या घटना विशेष से जुड़े प्रभावों पर केंद्रित होती है, जिसके तत्व कथावस्तु, पात्र, चरित्र-चित्रण, कथोपकथन, उद्देश्य तथा भाषा शैली हैं। लघुकथा किसी क्षण विशेष में घटित प्रसंग और उसके प्रभाव पर केंद्रित होती है। प्रसिद्ध समीक्षक लक्ष्मीनारायण लाल ने लघु कथा और कहानी में तात्विक दृष्टि से कोई अंतर न मानते हुए व्यावहारिक रूप से आकारगत अंतर स्वीकार किया है। उनके अनुसार 'लघुकथा' में भावनाओं का उतना महत्व नहीं है जितना किसी सत्य का, किसी विचार का विशेषकर उसके सारांश का महत्व है।'

'लघु' अर्थात आकार में छोटी, 'कथा' अर्थात जो कही जाए, जिसमें कहने योग्य बात हो, बात ऐसी जो मन से निकले और मन तक पहुँच जाए। 'कहने' का कोई उद्देश्य भी होता ही है। उद्देश्य की विविधता लघुकथा के वर्गीकरण का आधार होती है। बाल कथा, बोध कथा, उपदेश कथा, दृष्टान्त कथा, वार्ता, आख्यायिका, उपाख्यान, पशु कथा, अवतार कथा, संवाद कथा, व्यंग्य कथा, काव्य कथा, गीति कथा, लोक कथा, पर्व कथा आदि की समृद्ध विरासत संस्कृत, भारतीय व विदेशी भाषाओँ के वाचिक और लिखित साहित्य में प्राप्त है। गूढ़ से गूढ़ और जटिल से जटिल प्रसंगों को इनके माध्यम से सरल-सहज बनाकर समझाया गया। पंचतंत्र, हितोपदेश, बेताल कथाएँ, अलीबाबा, सिंदबाद आदि की कहानियाँ मन-रंजन के साथ ज्ञानवर्धन के उद्देश्य को लेकर कही-सुनी और लिखी-पढ़ी गईं। धार्मिक-आध्यात्मिक प्रवचनों में गूढ़ सत्य को कम शब्दों में सरल बनाकर प्रस्तुत करने की परिपाटी सदियों तक परिपुष्ट हुई।  दुर्भाग्य से दुर्दांत विदेशी हमलावरों ने विजय पाकर भारतीय साहित्य और सांस्कृतिक संस्थाओं का विनाश लगातार लंबे समय तक किया। इस दौर में कथा साहित्य धार्मिक पूजा-पर्वों में कहा-सुना जाकर जीवित तो रहा पर उसका उद्देश्य भयभीत और संकटग्रस्त जन-मन में शुभत्व के प्रति आस्था बनाये रखकर, जिजीविषा को जिलाए रखना था। बहुधा घर के बड़े-बुजुर्ग इन कथाओं को कहते, उनमें किसी स्त्री-पुरुष के जीवन में आए संकटों-कष्टों के कारण शक्तियों की शरण में जाने, उपाय पूछने और अपने तदनुसार आचरण में सुधार करने पर दैवीय शक्तियों की कृपा से संकट पर विजयी होने का संदेश होता था। ऐसी कथाएँ शोषित-पीड़ित ही नहीं सामान्य या सम्पन्न मनुष्य में भी अपने आचरण में सुधार, सद्गुणों व पराक्रम में वृद्धि, एकता, सुमति या खेती-सड़क-वृक्ष या रास्तों की स्वच्छता, दीन-हीन की मदद, परोपकार, स्वाध्याय आदि की प्रेरणा का स्रोत बनता था। ये लघ्वाकारी कथाएँ महिलाओं या पुरुषों द्वारा अल्प समय में कह-सुन ली जाती थीं, बच्चे उन्हें सुनते और इस तरह एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक जीवन मूल्य पहुँचते रहते। देश, काल, परिस्थिति, श्रोता-वक़्ता, उद्देश्य आदि के अनुसार कथावस्तु में बदलाव होता रहता और देश के विविध भागों में एक ही कथा के विविध रूप कहे-सुने जाते किन्तु सबका उद्देश्य एक ही रहता। आहत मन को सांत्वना देना, असंतोष का शमन करना, निराश मन में आशा का संचार, भटकों को राह दिखाना, समाज सुधार या राष्ट्रीय स्वाधीनता के कार्यक्रमों हेतु जन-मन को तैयार करना कथावाचक और उपदेशक धर्म की आड़ में करते रहे। फलत:, राजनैतिक पराभव काल में भी भारतीय जन मानस अपना मनोबल, मानवीय मूल्यों में आस्था और सत्य की विजय का विश्वास बनाए रह सका।

लघुकथा क्या है?, अंधों का हाथी ?
सन १९८४ में सारिका के लघु कथा विशेषांक में राजेंद्र यादव ने 'लघुकथा और चुटकुला में साम्य' इंगित करते हुए लघुकथा लेखन को कठिन बताया। मनोहरश्याम जोशी ने' लघु कथाओं को चुटकुलों और गद्य के बीच' सर पटकता बताया। मुद्राराक्षस के अनुसार 'लघु कथा ने साहित्य में कोई बड़ा स्थान नहीं बनाया'। शानी ने भी 'लघुकथाओं को चुटकुलों की तरह' बताया। इसके विपरीत पद्म श्री लक्ष्मीनारायण लाल ने लघुकथा को लेखक का 'अच्छा अस्त्र' कहा है।  
सरला अग्रवाल के शब्दों में 'लघुकथा में किसी अनुभव अथवा घटना की टीस और कचोट को बहुत ही गहनता के साथ उद्घाटित किया जाता है।' प्रश्न उठता है कि टीस के स्थान पर रचना हर्ष और ख़ुशी को उद्घाटित करे तो वह लघुकथा क्यों न होगी? गीत सभी रसों की अभिव्यक्ति कर सकता है तो लघुकथा पर बन्धन क्यों? डॉ. प्रमथनाथ मिश्र के मत में लघुकथा 'सामाजिक बुराई के काले-गहरे बादलों के बीच दबी विद्युल्लता की भाँति है जो समय-बेसमय छटककर पाठकों के मस्तिष्क पर एक तीव्र प्रभाव छोड़कर उनके सुषुप्त अंत:करण को हिला देती है।' सामाजिक अच्छाई के सफेद-उजले मेघों के मध्य दामिनी क्यों नहीं हो सकती लघुकथा? रमाकांत श्रीवास्तव लिखते हैं 'लघुकथा का नि:सरण ठीक वैसे ही हुआ है जैसे कविता का। अत:, वह यथार्थपरक कविता के अधिक निकट है, विशेषकर मुक्त छंद कविता के।' मुक्तछंद कविता से हिंदी पाठक के मोहभंग काल में उसी पथ पर ले जाकर लघुकथा का अहित करना ठीक होगा या उसे लोकमंगल भाव से संयुक्त रखकर नवगीत की तरह नवजीवन देना उपयुक्त होगा? कृष्णानन्द 'कृष्ण' लघुकथा लेखक के लिए 'वैचारिक पक्षधरता' अपरिहार्य बताते हैं। एक लघुकथा लेखक के लिए किसी विचार विशेष के प्रति प्रतिबद्ध होना जरूरी क्यों हो? कथ्य और लक्ष्य की आवश्यकतानुसार विविध लघुकथाओं में विविध विचारों की अभिव्यक्ति प्रतिबंधित करना सर्वमान्य कैसे हो सकता है? एक रचनाकार को किसी राजनैतिक विचारधारा का बन्दी क्यों होना चाहिए? रचनाकार का लक्ष्य लोक-मंगल हो या राजनैतिक स्वार्थपूर्ति? 

'हिंदी लघुकथा को लेखन की पुरातन दृष्टान्त, किस्सा या गल्प शैली में अवस्थित रहना है या कथा लेखन की वर्तमान शैली को अपना लेना है- तय हो जाना चाहिए' बलराम अग्रवाल के इस मत के संदर्भ में कहना होगा कि साहित्य की अन्य विधाओं की तरह लघुकथा के स्वरूप में अंतिम निर्णय करने का अधिकार पाठक और समय के अलावा किसी का नहीं हो सकता। तय करनेवालों ने तो गीत के मरण की घोषणा कर दी थी किंतु वह पुनर्जीवित हो गया। समाज किसी एक विचार या वाद के लोगों से नहीं बनता। उसमें विविध विचारों और रुचियों के लोग होते हैं जिनकी आवश्यकता और परिस्थितियाँ बदलती रहती हैं, तदनुसार साहित्य की हर विधा में रचनाओं का कथ्य, शल्प और शैली बदलते हैं। लघुकथा इसका अपवाद कैसे हो सकती है? लघुकथा को देश, काल और परिस्थिति सापेक्ष्य होने के लिए विविधता को ग्रहण करना ही होगा। पुरातन और अद्यतन में समन्वय से ही सनातन प्रवाह और परंपरा का विकास होता है। अवध नारायण मुद्गल उपन्यास को नदी, कहानी को नहर और लघुकथा को उपनहर बताते हुए कहते हैं कि जिस बंजर जमीन को नहरों से नहीं जोड़ा जा सकता उसे उपनहरों से जोड़कर उपजाऊ बनाया जा सकता है। यदि उद्देश्य अनछुई अनुपजाऊ भूमि को उर्वर बनाना है तो यह नहीं देखा जाता कि नहर बनाने के लिए सामग्री कहाँ से लाई जा रही है और मजदूर किस गाँव, धर्म राजनैतिक विचार का है? लघुकथा लेखन का उद्देश्य उपन्यास और कहानी से दूर पाठक और प्रसंगों तक पहुँचना ही है तो इससे क्या अंतर पड़ता है कि वह पहुँच बोध, उपदेश, व्यंग्य, संवाद किस माध्यम से की गयी? उद्देश्य पड़ती जमीन जोतना है या हलधर की जाति-पाँति देखना?

लघुकथा के रूप-निर्धारण की कोशिशें
डॉ. सतीश दुबे मिथक, व्यंग्य या संवेदना के स्तरों पर लघुकथाएँ लिखी जाने का अर्थ हर शैली में अभिव्यक्त होने की छटपटाहट मानते हैं। वे लघुकथा के तयशुदा स्वरूप में ऐसी शैलियों के आने से कोई खतरा नहीं देखते। यह तयशुदा स्वरूप साध्य है या साधन? यह किसने, कब और किस अधिकार से तय किया? यह पत्थर की लकीर कैसे हो सकता जिसे बदला न जा सके? यह स्वरूप वही है जिसकी चर्चा ऊपर की गयी है। देश, काल, परिस्थिति के अनुरूप और पाठक की रुचि के अनुसार लघुकथा का जो स्वरूप उपयुक्त होगा वह जीवित रहेगा, शेष भुला दिया जाएगा। लघुकथा के विकास के लिए बेहतर होगा कि हर लघुकथाकार को अपने कथ्य के उपयुक्त शैली और शिल्प का संधान करने दिया जाए। उक्त मानक थोपने के प्रयास और मानकों को तोड़नेवाले लघुकथाकारों पर सुनियोजित आक्रमण तथा उनके साहित्य की अनदेखी करने की विफल कोशिशें यही दर्शाती हैं कि पारंपरिक शिल्प और शैली से खतरा अनुभव हो रहा है और इसलिए विधान के रक्षाकवच में अनुपयुक्त और आयातित मानक थोपे जाते रहे हैं। यह उपयुक्त समय है जब अभिव्यक्ति को कुंठित न कर लघुकथाकार को सृजन की स्वतंत्रता मिले।

सृजन की स्वतंत्रता और सार्थकता
पारंपरिक स्वरूप की लघुकथाओं को जन स्वीकृति का प्रमाण यह है कि समीक्षकों और लघुकथाकारों की समूहबद्धता, रणनीति और नकारने के बाद भी बोध कथाओं, दृष्टान्त कथाओं, उपदेश कथाओं, संवाद कथाओं आदि के पाठक श्रोता घटे नहीं हैं। सच तो यह है कि पाठक और श्रोता कथ्य को पढ़ता और सराहता या नकारता है, उसे इससे कोई अंतर नहीं पड़ता कि समीक्षक उस रचना को किस खाँचे में वर्गीकृत करता है। समय की माँग है कि लघुकथा को स्वतंत्रता से साँस लेने दी जाए। स्व. नामवर सिंह भारतीय लघुकथाओं को पाश्चात्य लघुकथाओं का पिछलग्गू नहीं मानते तथा हिंदी लघुकथाओं को निजत्व और विराट भावबोध से संपन्न मानते हैं। हिंदी भाषा जिस जमीन पर विकसित हुई उसकी लघुकथा उस जमीन में आदि काल से कही-सुनी जाती लघुकथा की अस्पर्श्य कैसे मान सकती है? सिद्धेश्वर लघुकथा को सर्वाधिक प्रेरक, संप्रेषणीय, संवेदनशील और जीवंत विधा मानते हुए उसे पाठ्यक्रम में स्थान दिए जाने की पैरवी करते हैं जिससे हर लघुकथाकार सहमत होगा किन्तु जन-जीवन में कही-सुनी जा रही देशज मूल्यों, भाषा और शिल्प की लघुकथाओं की वर्जना कर केवल विचारधारा विशेष को प्रोत्साहित करती लघुकथाओं का चयन पाठ्यक्रम में करने की परंपरा शासक दल को अपनी विचारधारा थोपने की ओर प्रवृत्त करेगा। इसलिए लघुकथा के रूढ़ और संकीर्ण मानकों को परिवर्तित कर देश की सभ्यता-संस्कृति और जन मानस के आस्था-उल्लास-नैतिक मूल्यों के अनुरूप रची तथा राष्ट्रीयता को बढ़ावा ही लघुकथा का मानक होना उचित है। तारिक असलम 'तनवीर' लिजलिजी और दोहरी मानसिकता से ग्रस्त समीक्षकों की परवाह करने के बजाय 'कलम की ताकत' पर ध्यान देने का मश्वरा देते हैं।
डॉ. कमलकिशोर गोयनका, कमलेश भट्ट 'कमल' को दिए गए साक्षात्कार में लघुकथा को लेखकविहीन विधा कहते हैं। कोई बच्चा 'माँ विहीन' कैसे हो सकता है? हर बच्चे का स्वतंत्र अस्तित्व और विकास होने पर भी उसमें जीन्स माता-पिता के ही होते हैं। इसी तरह लघुकथा भी लघुकथाकार तथा उसके परिवेश से अलग होते हुए भी उसकी शैली और विचारों का प्रतिनिधित्व करती है। लघुकथाकार रचना में सतही तौर पर न दिखते हुई भी पंक्ति-पंक्ति में उसी तरह उपस्थित होता है जैसे रोटी में नमी के रूप में पानी या दाल में नमक। अत:, स्पष्ट है कि हिंदी की आधुनिक लघुकथा को अपनी सनातन पृष्ठभूमि तथा आधुनिक हिंदी के विकास काल की प्रवृत्तियों में समन्वय और सामंजस्य स्थापित करते हुए भविष्य के लिए उपयुक्त साहित्य सृजन के लिए सजग होना होगा। लघुकथा एक स्वतंत्र विधा के रूप में अपने कथ्य और लक्ष्य पाठक वर्ग को केंद्र में रखकर लिखी जाय और व्यवस्थित अध्ययन की दृष्टि से उसे वर्गीकृत किया जाए किंतु किसी विचारधारा विशेष की लघुकथा को स्वीकारने और शेष को नकारने की दूषित प्रथा बंद करने में ही लघुकथा और हिंदी की भलाई है। लघुकथा को उद्यान के विविध पुष्पों के रंग और गन्ध की तरह विविधवर्णी होने होगा तभी वह जी सकेगी और जीवन को दिशा दे सकेगी।

लघुकथा के तत्व
कुँवर प्रेमिल कथानक, प्रगटीकरण तथा समापन को लघुकथा के ३ तत्व मानते हैं। वे लघुकथा को किसी बंधन, सीमा या दायरे में बाँधने के विरोधी हैं। जीवितराम सतपाल के अनुसार लघुकथा में अमिधा, लक्षणा व व्यंजना शब्द की तीनों शक्तियों का उपयोग किया जा सकता है। वे लघुकथा को बरसात नहीं फुहार, ठहाका नहीं मुस्कान कहते हैं। गुरुनाम सिंह रीहल कलेवर और कथनीयता को लघुकथा के २ तत्व कहते हैं। मोहम्मद मोइनुद्दीन 'अतहर' के अनुसार भाषा, कथ्य, शिल्प, संदर्भगत संवेदना से परिपूर्ण २५० से ५०० शब्दों का समुच्चय लघुकथा है। डॉ. शमीम शर्मा के अनुसार लघुकथा में 'विस्तार के लिए कोई स्थान नहीं होता। 'थोड़े में अधिक' कहने की प्रवृत्ति प्रबल है। सांकेतिकता एवं ध्वन्यात्मकता इसके प्रमुख तत्व हैं। अनेक मन: स्थितियों में से एक की ही सक्रियता सघनता से संप्रेषित करने का लक्ष्य रहता है।'

बलराम अग्रवाल के अनुसार कथानक और शैली लघुकथा के अवयव हैं, तत्व नहीं। वे वस्तु को आत्मा, कथानक को हृदय, शिल्प को शरीर और शैली को आचरण कहते हैं। योगराज प्रभाकर लघु आकार और कथा तत्व को लघुकथा के तत्व बताते हैं। उनके अनुसार किसी बड़े घटनाक्रम में से क्षण विशेष को प्रकाशित करना, लघुकथा लिखना है। कांता रॉय लघुकथा के १५ तत्व बताती है जो संभवत: योगराज प्रभाकर द्वारा सुझाई १५ बातों से नि:सृत हैं- कथानक, शिल्प, पंच, कथ्य, भूमिका न हो, चिंतन हेतु उद्वेलन, विसंगति पूर्ण क्षण विशेष, कालखण्ड दोष से मुक्त, बोध-नीति-शिक्षा न हो, इकहरापन, संदेश, चुटकुला न हो, शैली तथा सामाजिक महत्व। बलराम अग्रवाल कथानक को तत्व नहीं मानते, कांता रॉय मानती हैं। डॉ. हरिमोहन के अनुसार लघुकथा विसंगतियों से जन्मी तीखे तेवर वाली व्यंग्य परक विधा है तो डॉ. पुष्पा बंसल के अनुसार 'घटना की प्रस्तुति मात्र'। अशोक लव 'संक्षिप्तता में व्यापकता' को लघुकथा का वैशिष्ट्य कहते हैं तो विक्रम सोनी 'मूल्य स्थापन' को। कहा जाता है कि दो अर्थशास्त्रियों के तीन मत होते हैं। यही स्थिति लघुकथा और लघुकथाकारों की है 'जितने मुँह उतनी बातें'।नया लघुकथाकार और पाठक क्या करे?  

लघुकथा के तत्व 
मेरे अनुसार उक्त तथा अन्य सामग्री के अध्ययन-मनन से स्पष्ट है कि लघुकथा के ३ तत्व, १. क्षणिक घटना, २. संक्षिप्त कथन तथा ३. तीक्ष्ण प्रभाव हैं। इनमें से कोई एक भी न हो या कमजोर हो तो लघुकथा प्रभावहीन होगी जो न होने के समान है। घटना न हो तो लघुकथा का जन्म ही न होगा, घटना हो पर उस पर कुछ कहा न जाए तो भी लघुकथा नहीं हो सकती, घटना घटित हो, कुछ लिखा भी जाए पर उसका कोई प्रभाव न हो तो लिखना - न लिखना बराबर हो जायेगा। घटना लंबी, जटिल, बहुआयामी, अनेक पात्रों से जुडी हो तो सबके साथ न्याय करने पर लघुकथा कहानी का रूप ले लेगी। इस ३ तत्वों का प्रयोग कर एक अच्छी लघुकथा की रचना हेतु कुछ लक्षणों का होना आवश्यक है। योगराज प्रभाकर तथा कांता रॉय इन लक्षणों को तत्व कहते हैं। वस्तुत:, लक्षण उक्त ३ तत्वों के अंग रूप में उनमें समाहित होते हैं। 
१. क्षणिक घटना - दैनन्दिन जीवन में सुबह से शाम तक अनेक प्रसंग व विचार उपजते हैं। सब पर लघुकथा नहीं लिखी जा सकती। घटना-क्रम, दीर्घकालिक घटनाएँ, जटिल घटनाएँ, एक-दूसरे में गुँथी घटनाएँ लघुकथा लेखन की दृष्टि से अनुपयुक्त हैं। बादल में कौंधती बिजली जिस तरह एक पल में चमत्कृत या आतंकित कर जाती है, उसी तरह लघुकथा का प्रभाव होता है। क्षणिक घटना पर बिना सोचे-विचार त्वरित प्रतिक्रिया की तरह लघुकथा को स्वाभाविक होना चाहिए। लघुकथा सद्यस्नाता की तरह ताजगी की अनुभूति कराती है, ब्यूटी पार्लर से सज्जित सौंदर्य जैसी कृत्रिमता की नहीं। सावधानी हटी, दुर्घटना घटी की तर्ज़ पर कहा जा सकता है घटना घटी, लघुकथा हुई। लघुकथा के उपयुक्त कथानक व कथ्य वही हो सकता है जो क्षणिक घटना के रूप में सामने आया हो। 

२. संक्षिप्त कथन - किसी क्षण विशेष अथवा अल्प समयावधि में घटित घटना-प्रसंग के भी कई पहलू हो सकते हैं। लघुकथा घटना के सामाजिक कारणों, मानसिक उद्वेगों, राजनैतिक परिणामों या आर्थिक संभावनाओं का विश्लेषण करे तो वह उपन्यास का रूप ले लेगी। उपन्यास और कहानी से इतर लघुकथा सूक्ष्मतम और संक्षिप्तम आकार का चयन करती है। वह गुलाबजल नहीं इत्र की तरह होती है। इसीलिए लघुकथा में पात्रों के चरित्र-चित्रण नहीं होता। 'कम में अधिक' कहने के लिए संवाद, आत्मालाप, वर्णन, उद्धरण, मिथक, पूर्व कथा, चरित्र आदि जो भी सहायक हो उसका उपयोग किया जाना चाहिए। उद्देश्य कम से कम कलेवर में कथ्य को प्रभावी रूप से सामने लाना है। शिल्प, मारक वाक्य (पंच) हो-न हो अथवा कहाँ हो, संवाद हों न हों या कितने किसके द्वारा हों, भूमिका न हो, इकहरापन, सन्देश, चुटकुला न हो तथा भाषा-शैली आदि संक्षिप्त कथन के लक्षण हैं। इन सबकी सम्मिलित उपस्थिति अपरिहार्य नहीं है। कुछ हो भी सकते हैं, कुछ नहीं भी हो सकते हैं। 

३.तीक्ष्ण प्रभाव- लघुकथा लेखन का उद्देश्य लक्ष्य पर प्रभाव छोड़ना है। एक लघुकथा सुख, दुःख, हर्ष, शोक, हास्य, चिंता, विरोध आदि विविध मनोभावों में से किसी एक की अभिव्यक्त कर अधिक प्रभावी हो सकती है। एकाधिक मनोभावों को सामने लाने से लघुकथा का प्रभाव कम हो सकता है। कुशल लघुकथाकार घटना के एक पक्ष पर सारगर्भित टिप्पणी की तरह एक मनोभाव को इस तरह उद्घाटित करता है कि पाठक / श्रोता आह य वाह कह उठे। चिंतन हेतु उद्वेलन, विसंगति पूर्ण क्षण विशेष, कालखण्ड दोष से मुक्ति आदि तीक्ष्ण प्रभाव हेतु सहायक लक्षण हैं। तीक्ष्ण प्रभाव सोद्देश्य हो निरुद्देश्य? यह विचारणीय है। सामान्यत: बुद्धिजीवी मनुष्य कोई काम निरुद्देश्य नहीं करता। लघुकथा लेखन का उपक्रम सोद्देश्य होता है। व्यक्त करने हेतु कुछ न हो तो कौन लिखेगा लघुकथा? व्यक्त किये गए से कोई पाठक शिक्षा / संदेश ग्रहण करेगा या नहीं? यह सोचना लघुकथाकार काम नहीं है, न इस आधार पर लघुकथा का मूल्यांकन किया जाना उपयुक्त है। 

लघुकथा का उद्देश्य 
लघुकथा का उद्देश्य घटित या विचारित कथ्य को प्रभावी या मारक रूप में पाठक-श्रोता तक पहुँचाना है। लघुकथाकार इस हेतु उपयुक्त शब्दावली, भाषा शैली, शिल्प (संवाद या वर्णन) का चयन करे किन्तु उसमें अपनी और से यथासंभव कुछ न कहे। लघुकथा से शिक्षा देना या न देना, बोध होना या न होना। किसी समस्या का समाधान होना या न होना जैसे बिंदुओं से लघुकथाकार को प्रेरित नहीं होना चाहिए किन्तु बचना भी नहीं चाहिए। निर्लिप्त भाव से कथ्य प्रस्तुति ही लघुकथाकार का साध्य है। एक ही लघुकथा से कोई पाठक कुछ ग्रहण कर सकता है तो दूसरा नहीं भी ग्रहण कर सकता है। लघुकथा निष्पक्षता, निस्संगता, तटस्थता तथा लेखकीय वैचारिक ईमानदारी की माँग करती है। कल से आज तक की रचना यात्रा में लघुकथा के कथ्य, शिल्प और विन्यास में जितने परिवर्तन हुए हैं उनसे अधिक परिवर्तन आज से कल की यात्रा में होना निश्चित है। परिवर्तन ही जीवन है हुए लघुकथा जीवित रहेगी यह मेरा विश्वास है। 

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सन्दर्भ-
१. सारिका लघुकथा अंक १९८४
२. अविरल मंथन लघुकथा अंक सितंबर २००१, संपादक राजेन्द्र वर्मा
३. प्रतिनिधि लघुकथाएं अंक ५, २०१३, सम्पादक कुंवर प्रेमिल
४. तलाश, गुरुनाम सिंह रीहल
५. पोटकार्ड, जीवितराम सतपाल
६. लघुकथा अभिव्यक्ति अक्टूबर-दिसंबर २००७




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