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रविवार, 12 सितंबर 2010

स्मरण : नागार्जुन" उर्फ "यात्री - विवेक रंजन श्रीवास्तव

स्मरण : 

विविधता , नूतनता व परिवर्तनशीलता के धनी रचनाकार :  
                       ठक्कन मिसर ..... वैद्यनाथ मिश्र..... "नागार्जुन" उर्फ "यात्री".

- विवेक रंजन श्रीवास्तव                                                                            

                "जब भी बीमार पडूँ तो किसी नगर के लिए टिकिट लेकर ट्रेन में बैठा देना, स्वस्थ हो जाऊँगा। "... अपने बेटे शोभाकांत से हँसते हुये ऐसा कहनेवाले विचारक, घुमंतू जन कवि, उपन्यासकार, व्यंगकार, बौद्ध दर्शन से प्रभावित रचनाकार, "यात्री" नाम से लिखे यह   स्वाभाविक ही है .यह साल बाबा का जन्म शताब्दी वर्ष है . हिंदी के यशस्वी कवि बाबा नागार्जुन का जीवन सामान्य नहीं था। उसमें आदि से अंत तक कोई स्थाई संस्कार जम ही नहीं पाया। 
                                                                                                          
                अपने बचपन में वे ठक्कन मिसर थे पर जल्दी ही अपने उस चोले को ध्वस्त कर वे वैद्यनाथ मिश्र हुए, और फिर बाबा नागार्जुन...मातृविहीन तीन वर्षीय बालक पिता के साथ नाते-रिश्तेदारों के यहाँ जगह-जगह जाता-आता था, यही प्रवृति, यही यायावरी उनका स्वभाव बन गया जो जीवन पर्यंत जारी रहा .राहुल सांस्कृत्यायन उनके आदर्श थे। उनकी दृष्टि में जैसे इंफ्रारेड...अल्ट्रा वायलेट कैमरा छिपा था , जो न केवल जो कुछ आँखों से दिखता है उसे वरन् जो कुछ अप्रगट , अप्रत्यक्ष होता , उसे भी भाँपकर मन के पटल पर अंकित कर लेता .. उनके ये ही सारे अनुभव समय-समय पर उनकी रचनाओ में नये नये शब्द चित्र बनकर प्रगट होते रहे  जो आज साहित्य जगत की अमूल्य धरोहर हैं.
                                                                       
              "हम तो आज तक इन्हें समझ नहीं पाए!" उनकी पत्नी अपराजिता देवी की यह टिप्पणी बाबा के व्यक्तित्व की विविधता, नित नूतनता व परिवर्तनशीलता को इंगित करती है. उनके समय में छायावाद, प्रगतिवाद, हालावाद, प्रयोगवाद, नयी कविता, अकविता, जनवादी कविता और नवगीत आदि जैसे कई काव्य-आंदोलन चले और उनमें से ज्यादातर कुछ काल तक सरगर्मी दिखाने के बाद समाप्त हो गये पर "नागार्जुन" की कविता इनमें से किसी फ्रेम में बंध कर नहीं रही, उनके काव्य के केन्द्र में कोई ‘वाद’ नहीं रहा, बजाय इसके वह हमेशा अपने काव्य-सरोकार ‘जनसामान्य’ से ग्रहण करते रहे , और जनभावों को ही अपनी रचनाओ में व्यक्त करते रहे. उन्होंने किसी बँधी-बँधायी लीक का निर्वाह नहीं किया बल्कि अपने काव्य के लिये स्वयं की नयी लीक का निर्माण किया. तरौनी दरभंगा-मधुबनी जिले के गनौली-पटना-कलकत्ता-इलाहाबाद-बनारस-जयपुर-विदिशा-दिल्ली-जहरीखाल, दक्षिण भारत और श्रीलंका न जाने कहाँ-कहाँ की यात्राएँ करते रहे, जनांदोलनों में भाग लेते रहे और जेल भी गए. सच्चे अर्थो में उन्होने घाट-घाट का पानी पिया था. आर्य समाज, बौद्ध दर्शन  व मार्क्सवाद से वे प्रभावित थे. मैथिली, हिन्दी और संस्कृत के अलावा पालि, प्राकृत, बांग्ला, सिंहली, तिब्बती आदि अनेकानेक भाषाओं का ज्ञान उनके अध्ययन , व अभिव्यक्ति को इंद्रधनुषी रंग देता है  किंतु उनकी रचनाधर्मिता का मूल भाव सदैव स्थिर रहा , वे जन आकांक्षा को अभिव्यक्त करने वाले रचनाकार थे .उन्होंने हिन्दी के अलावा मैथिली, बांग्ला और संस्कृत में अलग से बहुत लिखा है.

                 उनकी वर्ष १९३९ में प्रकाशित आरंभिक दिनों की एक कविता ‘उनको प्रणाम’ में जो भाव-बोध है, वह वर्ष १९९८ में प्रकाशित उनके अंतिम दिनों की कविता ‘अपने खेत में’ के भाव-बोध से बुनियादी तौर पर समान है. उनकी विचारधारा नितांत रूप से भारतीय जनाकांक्षा से जुड़ी हुई रही. आज इन दोनों कविताओं को एक साथ पढ़ने पर, यदि उनके प्रकाशन का वर्ष मालूम न हो तो यह पहचानना मुश्किल होगा कि उनके रचनाकाल के बीच तकरीबन साठ वर्षों का फासला है. दोनों कविताओं के अंश इस तरह हैं

१९३९  में प्रकाशित‘उनको प्रणाम’......

...जो नहीं हो सके पूर्ण-काम                                                                                               

मैं उनको करता हूँ प्रणाम

जिनकी सेवाएँ अतुलनीय 

पर विज्ञापन से रहे दूर,

प्रतिकूल परिस्थिति ने जिनके 

कर दिए मनोरथ चूर-चूर! 

- उनको प्रणाम...

*

१९९८  में ‘अपने खेत में’......

.....अपने खेत में हल चला रहा हूँ

इन दिनों बुआई चल रही है

इर्द-गिर्द की घटनाएँ ही 

मेरे लिए बीज जुटाती हैं

हाँ, बीज में घुन लगा हो 

तो अंकुर कैसे निकलेंगे?

जाहिर है बाजारू बीजों की 

निर्मम छँटाई करूँगा

खाद और उर्वरक और 

सिंचाई के साधनों में भी

पहले से जियादा ही 

चौकसी बरतनी है

मकबूल फिदा हुसैन की 

चौंकाऊ या बाजारू टेकनीक

हमारी खेती को 

चौपट कर देगी!

जी, आप अपने रूमाल में 

गाँठ बाँध लो, बिल्कुल!!

उनकी विख्यात कविता "प्रतिबद्ध" की पंक्तियाँ:

प्रतिबद्ध हूँ,

संबद्ध हूँ,

आबद्ध हूँ...

जी हाँ, शतधा प्रतिबद्ध हूँ.

तुमसे क्या झगड़ा है

हमने तो रगड़ा है

इनको भी, उनको भी, 

उनको भी, इनको भी!

उनकी प्रतिबद्धता केवल आम आदमी के प्रति है .

                अपनी कई प्रसिद्ध कविताओं जैसे कि 'इंदुजी, इंदुजी क्या हुआ आपको','अब तो बंद करो हे देवी!,  यह चुनाव का प्रहसन' और 'तीन दिन, तीन रात'  आदि में व्यंगात्मक शैली में तात्कालिक घटनाओं पर उन्होंने गहरे कटाक्ष के माध्यम से अपनी बात कही है .

‘आओ रानी, हम ढोएंगे पालकी‘ की ये पंक्तियाँ देखिए.............

यह तो नई-नई दिल्ली है, दिल में इसे उतार लो

एक बात कह दूँ मलका, थोड़ी-सी लाज उधार लो

बापू को मत छेड़ो, अपने पुरखों से उपहार लो

जय ब्रिटेन की जय हो इस कलिकाल की!                                                                           
आओ रानी, हम ढोएँगे पालकी!,

                व्यंग्य की इस विदग्धता ने ही नागार्जुन की अनेक तात्कालिक कविताओं को कालजयी बना दिया है, जिसके कारण वे कभी बासी नहीं हुईं और अब भी तात्कालिक बनी हुई हैं….. कबीर के बाद हिन्दी कविता में नागार्जुन से बड़ा व्यंग्यकार अभी तक कोई नहीं हुआ. नागार्जुन का काव्य व्यंग्य शब्द-चित्रों का विशाल अलबम है. देखिये झलकियाँ:

                  कभी किसी जीर्ण-शीर्ण स्कूल भवन को देखकर बाबा ने व्यंग्य किया था, "फटी भीत है छत चूती है…" उनका यह व्यंग क्या आज भी देश भर के ढेरों गाँवों का सच नहीं है ? अपने गद्य लेखन में भी उन्होंने समाज की सचाई को सरल शब्दों में सहजता से स्वीकारा, संजोया और आम आदमी के हित में समाज को आइना दिखाया है.                                  .....पारो से.

                 “क्यों अपने देश की क्वाँरी लड़कियाँ तेरहवाँ-चौदहवाँ चढ़ते-चढ़ते सूझ-बूझ में बुढ़ियों का कान काटने लगती हैं। बाप का लटका चेहरा, भाई की सुन्न आँखें उनके होश ठिकाने लगाये रखती है। अच्छा या बुरा, जिस किसी के पाले पड़ी कि निश्चिन्त हुईं। क्वारियों के लिए शादी एक तरह की वैतरणी है। डर केवल इसी किनारे है, प्राण की रक्षा उस पार जाने से ही सम्भव। वही तो, पारो अब भुतही नदी को पार चुकी है। ठीक ही तो कहा अपर्णा ने। मैं क्या औरत हूँ? समय पर शादी की चिन्ता तो औरतों के लिए न की जाए, पुरुष के लिए क्या? उसके लिए तो शादी न हुई होली और दीपावली हो गई। 
                                                                                                ..... दुख मोचन से.
                 पंचायत गाँव की गुटबंदी को तोड़ नही सकी थी,  अब तक. चौधरी टाइप के लोग स्वार्थसाधन की अपनी पुरानी लत छोड़ने को तैयार नही थे. जात-पांत, खानदानी घमंड, दौलत की धौंस, अशिक्षा का अंधकार, लाठी की अकड़, नफरत का नशा, रुढ़ि-परंपरा का बोझ, जनता की सामूहिक उन्नति के मार्ग में एक नही अनेक रुकावटें थीं. आज भी कमोबेश हमारे गाँवों की यही स्थिति नही है क्या ?

                  समग्र स्वरूप में ठक्कन मिसर ..... वैद्यनाथ मिश्र..... "नागार्जुन" उर्फ "यात्री" ....विविधता, नित नूतनता एवं परिवर्तनशीलता के धनी...पर जनभाव के सरल रचनाकार थे. उनकी जन्म शती पर उन्हें शतशः प्रणाम, श्रद्धांजली और यही कामना कि बाबा ने उनकी रचनाओ के माध्यम से हमें जो आइना दिखाया है, हमारा समाज, हमारी सरकारें उसे देखे और अपने चेहरे पर लगी कालिख को पोंछकर स्वच्छ छबि धारण करे , जिससे भले ही आनेवाले समय में नागार्जुन की रचनायें भले ही अप्रासंगिक हो जावें पर उनके लेखन का उद्देश्य तो पूरा हो सके . 
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