दिव्य नर्मदा : हिंदी तथा अन्य भाषाओँ के मध्य साहित्यिक-सांस्कृतिक-सामाजिक संपर्क हेतु रचना सेतु A plateform for literal, social, cultural and spiritual creative works. Bridges gap between HINDI and other languages, literature and other forms of expression.
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मंगलवार, 7 सितंबर 2010
दोहा सलिला: पावस है त्यौहार संजीव 'सलिल'
दोहा सलिला:
पावस है त्यौहार
संजीव 'सलिल'
*
नभ-सागर-मथ गरजतीं, अगणित मेघ तरंग.
पावस-पायस पी रहे, देव-मनुज इक संग..
*
रहें प्रिया-प्रिय संग तो, है पावस त्यौहार. मरणान्तक दुःख विरह का, जल लगता अंगार..
*
आवारा बादल करे, जल बूंदों से प्यार.
पवन लट्ठ फटकारता, बनकर थानेदार..
*
रूप देखकर प्रकृति का, बौराया है मेघ.
संयम तज प्रवहित हुआ, मधुर प्रणय-आवेग..
*
मेघदूत जी छानते, नित सारा आकाश.
डायवोर्स माँगे प्रिय, छिपता यक्ष हताश..
*
उफनाये नाले-नदी, कूल तोड़ती धार.
कुल-मर्यादा त्यागती, ज्यों उच्छ्रंखल नार..
*
उमड़-घुमड़ बादल घिरे, छेड़ प्रणय-संगीत.
अन-आमंत्रित अतिथि लख, छिपी चाँदनी भीत..
*
जीवन सतत प्रवाह है, कहती है जल-धार.
सिखा रही पाषाण को, पगले! कर ले प्यार..
*
नील गगन, वसुधा हरी, कृष्ण मेघ का रंग.
रंगहीन जल-पवन का, सभी चाहते संग..
*
किशन गगन, राधा धरा, अधरा बिजली वेणु.
'सलिल'-धार शत गोपियाँ, पवन बिरज की रेणु.
*
कजरी, बरखा गा रहीं, झूम-झूम जल-धार.
ढोल-मृदंग बजा रहीं, गाकर पवन मल्हार.
*
युवा पड़ोसन धरा पर, मेघ रहा है रीझ.
रुष्ट दामिनी भामिनी, गरज रही है खीझ.
*
वन प्रांतर झुलसा रहा, दिनकर होकर क्रुद्ध.
नेह-नीर सिंचन करे, सलिलद संत प्रबुद्ध..
*
निबल कामिनी दामिनी, अम्बर छेड़े झूम.
हिरनी भी हो शेरनी, उसे नहीं मालूम..
*
पानी रहा न आँख में, देखे आँख तरेर.
पानी-पानी हो गगन, पानी दे बिन देर..
*
अति हरदम होती बुरी, करती सब कुछ नष्ट.
अति कम हो या अति अधिक, पानी देता कष्ट..
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चिप्पियाँ Labels:
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आचार्य संजीव वर्मा सलिल
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12 टिप्पणियां:
आ० आचार्य जी ,
धन्य है आपकी कलम जो गागर में सागर भर गई -
" किशन गगन, राधा धरा, अधरा बिजली वेणु
सलिल धार शत गोपियाँ, पवन बिरज की रेणु "
वाह जवाब नहीं !
सादर
कमल
सलिल शब्द-संयोग से है रचना में भाव।
काश सुमन भी यूँ लिखे छोड़े नया प्रभाव।।
सादर
श्यामल सुमन
09955373288
मुश्किलों से भागने की अपनी फितरत है नहीं।
कोशिशें गर दिल से हो तो जल उठेगी खुद शमां।।
www.manoramsuman.blogspot.com
sanjiv verma
कमल-सुमन से ही 'सलिल', शोभित होता मीत.
भ्रमर अनहद नाद कर, गुंजित करते गीत..
आचार्य सलिल जी,
अति उत्कृष्ट दोहों के लिए साधुवाद. क्या विम्ब और उपमाएं हैं? अद्वितीय.
महेश चन्द्र द्विवेदी
जिनके चरण पखार कर, जग हो जाता धन्य.
वे महेश तुझ पर सदय,'सलिल'न उन सा अन्य..
दो वेदों सम पंक्ति दो, चतुश्वर्ण पग चार.
निशि-दिन सी चौबिस कला, दोहा रस की धार..
कुछ सुन्दर और कुछ बहुत ही सुन्दर! कुछ याद दिला गए "घन घमंड नभ गरजत घोरा" की.
निम्नलिखित के बारे में कुछ कहना चाहुँगी:
उफनाये नाले-नदी, कूल तोड़ती धार.
कुल-मर्यादा त्यागती, ज्यों उच्छ्रंखल नार.. -->> केवल नार क्यों, नर का क्या ...??
सादर शार्दुला
नर का क्या, जड़ मर गया, ज्यों तोडी मर्याद.
नारी बिन जीवन 'सलिल', निरुद्देश्य फ़रियाद..
आचार्य ’सलिल’ जी,
बहुत सुन्दर!
"युवा पड़ोसन धरा पर, मेघ रहा है रीझ.
रुष्ट दामिनी भामिनी, गरज रही है खीझ..
अद्भुत अभिव्यक्ति!
सस्नेह
सीताराम चंदावरकर
बधाई सलिल जी. कविता के लिए एवं बेटी के चयन पर .
महेश चन्द्र द्विवेदी
आदरणीय आचार्य जी,
सुन्दर दोहे सभी रुचिकर लगे बधाई
सादर
श्रीप्रकाश शुक्ल
भू-नभ सीता-राम हैं, दूरी जलधि अपार.
कहाँ पवनसुत जो करें, पल में अंतर पार..
चंदा वरकर चाँदनी, हुई सुहागिन नार.
भू मैके आ विरह सह, पड़ी पीत-बीमार..
दीपावली मना रहा जग, जलता है दीप.
श्री-प्रकाश आशीष पा, मन मणि मुक्ता सीप..
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