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रविवार, 26 सितंबर 2010

मुक्तिका: फिर ज़मीं पर..... संजीव 'सलिल'

मुक्तिका:

फिर ज़मीं पर.....

संजीव 'सलिल'
*
फिर ज़मीं पर कहीं काफ़िर कहीं क़ादिर क्यों है?
फिर ज़मीं पर कहीं नाफ़िर कहीं नादिर क्यों है?
*
फिर ज़मीं पर कहीं बे-घर कहीं बा-घर क्यों है?
फिर ज़मीं पर कहीं नासिख कहीं नाशिर क्यों है?
*
चाहते हम भी तुम्हें चाहते हो तुम भी हमें.
फिर ज़मीं पर कहीं नाज़िल कहीं नाज़िर क्यों है?
*
कौन किसका है सगा और किसे गैर कहें?
फिर ज़मीं पर कहीं ताइर कहीं ताहिर क्यों है?
*
धूप है, छाँव है, सुख-दुःख है सभी का यक सा.
फिर ज़मीं पर कहीं तालिब कहीं ताजिर क्यों है?
*
ज़र्रे -ज़र्रे में बसा वो न 'सलिल' दिखता है.
फिर ज़मीं पर कहीं मस्जिद कहीं  मंदिर क्यों है?
*
पानी जन आँख में बाकी न 'सलिल' सूख गया.
फिर ज़मीं पर कहीं सलिला कहीं सागर क्यों है?
*
-- दिव्यनर्मदा.ब्लागस्पाट.कॉम

कुछ शब्दों के अर्थ : काफ़िर = नास्तिक, धर्मद्वेषी, क़ादिर = समर्थ, ईश्वर, नाफ़िर = घृणा करनेवाला, नादिर = श्रेष्ठ, अद्भुत, बे-घर = आवासहीन, बा-घर = घर वाला, जिसके पास घर हो, नासिख = लिखनेवाला,  नाशिर = प्रकाशित करनेवाला, नाज़िल = मुसीबत, नाज़िर = देखनेवाला, ताइर = उड़नेवाला, पक्षी, ताहिर = पवित्र, यक सा = एक जैसा, तालिब =  इच्छुक, ताजिर = व्यापारी, ज़र्रे - तिनके, सलिला = नदी, बहता पानी,  सागर = समुद्र, ठहरा पानी.

6 टिप्‍पणियां:

Yograj prabhakar. ने कहा…

आचार्य सलिल जी,
बहुत ही प्रभावशाली ग़ज़ल कही है आपने !
हर शेअर में एक नए विरोधाभास को लेकर कही गई इस मुसलसल ग़ज़ल के लिए बहुत बहुत बधाई आपको !

//नीर जब आँख में बाकी न 'सलिल' सूख गया.
फिर ज़मीं पर कहीं सलिला कहीं सागर क्यों है? //

अपनी शब्दों की कारीगरी की वजह से ग़ज़ल का मक्ता सब से ज्यादा पसंद आया !

Naveen C Chaturvedi ने कहा…

आदरणीय सलिल जी
'तजुर्बे का पर्याय नहीं' कहावत को चरितार्थ करती आपकी लिखनी को शत शत नमन|
मंदिर के काफ़िए से मिलते कई अल्फ़ाज़ पिरोए हैं आपने|
सवालों की झड़ी सी है जैसे|
अपने अनुज की बधाई स्वीकार करें|

Asheesh Yadav ने कहा…

salil ji
khubsurat shabdo ko kis tarah se prayog karte hai aap ne bakhubi bataya hai.
Achchhi bat to ye ki aapne shabdo ke arth bhi likh diye hai.
bahut achchha laga.

subodh kumar ने कहा…

ghajal to aapne bahut khub kahi hai..per thore shabdo mein badlaab aa jaaye to is mushaayare ki behtrin ghajal mani jaayegi...
jaise
कौन किसका है सगा और किसे गैर कहें?
फिर ज़मीं पर कहीं ताइर कहीं ताहिर क्यों है?
" सगा से ज्यादा बेहतर होता अपना...आदि ""

Rana Pratap Singh ने कहा…

आदरणीय आचार्य जी
अभिनव प्रयागों से सजी यह ग़ज़ल बहुत सुन्दर है| अगर हम गौर से देखे तो इस ग़ज़ल की खासियत यह है की काफिये दुगुन में चल रहे है जैसे कि

कहीं काफ़िर कहीं कादिर
कहीं नाफिर कहीं नादिर
कहीं नासिख कहीं नाशिर

और यही ग़ज़ल की खूबसूरती और बढ़ा देते है|
बहुत बहुत बधाई|
मुशायरे में शिरकत करने के लिए बहुत बहुत धन्यवाद|

Ganesh Jee 'Bagi' ने कहा…

आदरणीय आचार्य जी, मुशायरे मे आपकी ग़ज़ल पढ़े जाने का इन्तजार हम सबको रहता है, सभी के सभी शे'र बेहतरीन लगे,
नीर जब आँख में बाकी न 'सलिल' सूख गया.
फिर ज़मीं पर कहीं सलिला कहीं सागर क्यों है?
उम्द्दा शे'र