जीवन की बारह खड़ी : सम-सामयिक लोकोपयोगी दोहे
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
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छंद का उद्भव और विकास
आध्यात्म और विज्ञान दोनों के अनुसार सृष्टि के मूल में 'ध्वनि' है। अध्यात्म 'ॐ' (अ, उ, म् का संयुक्त रूप) को सृष्टि कर्ता ब्रह्म से जोड़ता है तो विज्ञान सूर्य से निकल रहे रश्मि-नाद से। नाद निराकार है इसलिए उसका चित्र नहीं बनाया जा सकता अर्थात् वह चित्रगुप्त है। उसे जिन संकेतों से अंकित किया जाता है उसे 'लिपि कहते हैं। भारतीय मनीषा लिपि-लेखनी-अक्षर और मसि के अधिष्ठाता चित्रगुप्त ही कहती आई है और यम द्वितीया को उसका पूजन पटल पर ॐ अंकित कर ही किया जाता रहा है। लोक में आदि मानव ने प्रकृति में व्याप्त ध्वनियों और प्राकृतिक घटनाओं कलकल, मेघ गर्जन, कलरव, दहाड़, फुँफकार आदि के संबंध को जानकार उन ध्वनियों की पुनरावृत्ति कर अन्य समूहों को सूचित करना और कालांतर में शिलाओं पर डंडियों पर पत्तियों का रस लगाकर चित्र और संकर्तों से संदेश छोड़ना आरंभ किया। मानव ने ध्वनि खंडों के उच्चारों और उच्चार-काल का अध्ययन कर वाचिक छंदों का सृजन किया। तदोपरांत भाषा और लिपि का विकास होने पर वर्ण और मात्राओं की गणना कर संस्कृत छंद शास्त्र बनाया गया। पिंगल आदि आचार्यों ने मात्रा-वर्ण भेद के आधार पर छंद के दो प्रकार लौकिक और वैदिक कहे हैं-पिंगलादिभिराचायैर्यदुक्तं लोकिकं द्विध।
मात्रावर्णविभेदेनच्छंदस्तदिह कथ्यते।। - वृत्त रत्नाकर
गंगादास कृत छंदोमंजरी के अनुसार चार पादों वाला पद्य दो प्रकार का (वृत्त पद्य और जाति पद्य) होता है। अक्षर संख्या से नियमित-निबद्ध पद वृत्त पद्य होता है जबकि मात्रा संख्या से नियमित-निबद्ध पद जाति पद्य होता है।
पद्यं चतुष्पदी तच्च वृत्तं जातिरिति द्विध।
वृत्तमक्षर संख्यातं जातिर्मात्रा कृता भवेत।।
तदनुसार 'मामका पांडवाश्चैव किमकुर्वत संजय' के प्रत्येक पाद में ८ वर्ण होने के कारण यह वृत्त पद्य है जबकि 'तरुणं सर्षपशाकं नवौदनं पिच्छिलानि च दधीनि। / अल्पव्ययेन सुंदरि ग्राम्यजनो मिष्टमश्नाति।।' जाति पद्य है।
ध्वनि पूरे वातावरण में व्याप्त हो जाती है, छा जाती है। ध्वनि खंडों के संयोजन से बने छंद में भी यह गुण है इसलिए कहा गया- यदाच्छादयन् तच्छंदसां छंदस्त्वम्' तथा 'छंदमसि छादनात्'। पाणिनी के अनुसार 'छादयति आच्छादयति वा इति छंद:' ।
तैत्तरीय संहिता के अनुसार ब्रह्मा ने अग्नि का सृजन किया जिसने भयंकर रूप धारण कर लिया, भयभीत देवगण अग्नि के साथ न हो सके। तब ब्रह्म ने छंदों से देवों को आच्छादित कर दिया तब देवगण अग्नि के साथ अक्षय रह सके- 'देवा छंदोभिरात्मानं छादयित्वा उपायन् प्रजापतिर्अग्निं चिनुत:'।
ऐतरेय आरण्यक में में छंद को पापकर्म पर छा जानेवाला कहा गया है- 'मानवान् पापकर्मेभ्य: छंदयंति छंदांसि इति छंद:।'
निसर्ग से अभिन्न छंद रचने, सुनने, गाने से आह्लाद होना स्वाभाविक है। इसीलिए 'छद्' धातु से बने 'छंद' का अर्थ है 'आह्लादित / प्रसन्न करना' माना गया। छंद ही वेदों का आधार बने। बिन छंद वेदों का सृजन, अध्ययन या गायन संभव नहीं है। इसलिए छंद को वेदों का पैर कहा गया- 'छन्दः पादौ तु वेदस्य'। देव की कृपा पैर छूने से ही मिलती है। इसी प्रकार वेदों की कृपा पाने के लिए वेदों के पैर अर्थात छंद की शरण में जाना होगा।
छंदराज दोहा
उक्त आधार पर आचार्य जगन्नाथ प्रसाद 'भानु' प्रणीत छंद प्रभाकर में छंद के वार्णिक और मात्रिक दो भेद वर्णित हैं जो क्रमश: वर्ण-संख्या और मात्रा-संख्या पर आधारित हैं। मात्रिक छंद के तीन भेद सम मात्रिक, अर्ध सममात्रिक और विषम मात्रिक हैं। ४८ मात्रिक दोहा अर्द्ध सम मात्रिक छंद है। दोहे में दो पंक्तियाँ, चार चरण, विषम चरण (प्रथम तथा तृतीय) तेरह मात्रिक और सम चरण (द्वितीय तथा चतुर्थ) ग्यारह मात्रिकतथा सम चरणों के अंत में गुरु-लघु मात्रा तथा समान तुक आवश्यक है। परंपरानुसार विषम चरणों के आदि में एक शब्द में 'जगण' वर्जित कहा गया है।
दोहा का वैशिष्ट्य दोहराव है। २ पंक्ति, हर पंक्ति में २ चरण, २ विषम चरण, २ सम चरण, पंक्त्यांत में २ अक्षरी समान तुक, विषम चरण में १३ मात्रा (१३=१+३=४=२+२), सम चरण में ११ मात्रा (११=१+१=२) तथा चरणारंभ में समान कलाएँ २-२, ३-३, ४-४ आदि। संभवत: इसलिए दोहा के लिए विविध काल खंडों में प्रयुक्त नामों दूहा, दोहअ, दोपदी, द्विपथक, दोग्धक, दुषअह, दोहड़ा, दोहक आदि में दो की उपस्थिति है। विषम चरण की प्रचलित कल बाँट (३ ३ २ ३ २ या ४ ४ ३ २) तथा सम चरण की प्रचलित कल बाँट (३ ३ २ ३ या ४ ४ ३) में भी यह दोहराव दृष्टव्य है।
दोहा में कथ्यगत मौलिकता, लाक्षणिकता, शब्द-चारुता, बैम्बिक स्पष्टता, मिथकीय सटीकता, मार्मिकता, आलंकारिक लालित्य, सरसता, भाव बाहुल्य, भाषिक कसाव, आंचलिकता, युगबोध, सार्वजनीनता, कहन की पूर्णता आदि उसे लोकग्राह्य और कालजयी बनाते हैं। दोहे में संयोजक शब्द, कारक तथा अनावश्यक शब्द प्रयोग वर्ज्य है। विराम चिह्न दोहे की अर्थवत्ता बढ़ाते हैं। दोहे के चरणों में कथ्य का बीजारोपण, अंकुरण, पल्लवन तथा फलन होना चाहिए। लोक में अनेक दोहे या उनका अंश लोकोक्ति के रूप में प्रचलित होकर अमर हैं।
जीवन की बारह खड़ी
इस पृष्ठ भूमि का औचित्य यह कि दोहा लेखन को मन-प्राण से युग-धर्म की तरह जी रहे दोहकार हिमकर श्याम के प्रथम दोहा संग्रह का हर पाठक उनके दोहों की अर्थवत्ता को ग्रहण कर सके। 'हिमकर' और 'श्याम' अपने आपमें विपरीत प्रवृत्तियों श्वेत और श्याम का समन्वय दर्शाते हैं। दोहाकार का जीवन-संघर्ष और जिजीविषा अपने आपमें मिसाल है। जिन पारिस्थितिक विषमताओं में इन दोहों ने जन्म लिया, वे सामान्य जन के सामने हों तो कलम चलना संभव ही न हो। हिमकर श्याम की रचनाधर्मिता तूफान में टिमटिमाते दिए की कहानी कहती है। पत्रकार के नाते सामाजिक न्याय की पक्षधर कलम थामे हिमकर अपने आत्म से वार्तालाप करने के लिए दोहा के दरवाजे पर जा खड़े होते हैं। प्रकृति और परिवेश से मुलाकात और मुठभेड़ दोनों की अभिव्यक्ति के लिए दोहाकार को दोहा ही उपयुक्त प्रतीत होता है। नमन, जीवन, पर्व, पर्यावरण, चेतना, विरासत, युगबोध (राजनीति), व्याधि (कोरोना), संबंध, वसंत, जुहार, संवाद शीर्षक अध्यायों में रचित यह दोहा संग्रह समय के सफ़े पर संवेदना का सशक्त हस्ताक्षर है। खुद दोहाकार कहता है-
जीवन की बारहखड़ी, सुख- दुख , पीड़ा- हास।
बैठा 'हिमकर' बाँचता, तल्ख़ मधुर अहसास।।
अधुनातन चिंतन दृष्टि के साथ पारंपरिक विरासत का समन्वय स्थापित करने का स्वस्थ्य प्रयास प्रशक्ति के विविध स्वरूपों के स्मरण और नमन संबंधी दोहों में दृष्टव्य है। अक्षर-कलम-दवात और कर्म-धर्म के नियामक की वंदना पितृ -स्मरण ही है-
मुख पर दिव्य प्रकाश है, कर में कलम दवात।
चित्रगुप्त परब्रह्म को, नमन झुकाकर माथ।।
जीव के जन्म का माध्यम जननी और जनक का स्थान शेष सबसे ऊपर मानते हुए कवि उन्हें स्मरण करता है-
मन में क्या तकलीफ है, जान सका है कौन?
माँ से कुछ छुपता नहीं, पढ़ लेती वह मौन।।
पोषक अनुशासकपिता, करता है परवाह।
रखता सबका ध्यान वह, उसका स्नेह अथाह।।
धर्म के नाम पर हो रहे दिशाहीन कोलाहल के प्रति चिंतित हिमकर स्पष्टट: कहते हैं कि एकत्रित जन समुदाय धर्म का सच्चा अर्थ नहीं जानता-
राम नाम की धूम में, दिखता कहीं न धर्म।।
पता नहीं इस भीड़ को, राम नाम का मर्म।।
भारत में धर्म कर्तव्य का पर्याय है। धर्म से अपरिचित जन अपने कर्तव्य को भी नहीं जानते। इस कारण वे अपने माता-पिता से दूर हो जाते हैं और उनके जन्मदाता बच्चों के साहचर्य हेतु तरसते हैं-
अपनी-अपनी चाकरी, उलझे सब दिन-रात।
बूढ़ी आँखें खोजतीं, अब अपनों का साथ।।
समाज को मानव के जीवनोद्देश्य बताते हुए दोहाकार सुख-दुख को समभाव से स्वीकारने का संकेत करता है-
पतझड़ साथ वसंत है, जीवन का यह मंत्र।
खोना-पाना सब यहीं, जोड़ न बनिए यंत्र।।
कैंसर और कोरोना जैसी जानलेवा बीमारियों पर जय पा चुका कवि उन पलों में भी जिजीविषा के सहारे संघर्ष करता रहा।
हर पल सुइयाँ चुभ रहीं, लगे टूटती श्वास।
किस्तों पर है ज़िंदगी, पर अटूटविश्वास।।
गाँव और प्रकृति से अभिन्न कवि पर्वों में धर्म-क्रम का मेल देखता है-
जवा फूल तैयार हɇ, गड़े करम के डार।
धरम-करम का मेल है, करमा का त्योहार।
करम परब के गीत से, गँजू रहा हर गाँव।
ढोलक-मांदर बज रहे, ͬथिरक रहे हैं पाँव।।
प्रकृति-पुत्र हिमकर मानव द्वारा प्रकृति के साथ किए जा रहे अनाचार से क्षुब्ध होकर तथाकथित विकास के दुष्प्रभावोंब के प्रति सचेत करते हैं-
बहुत हुआ अब बंद हो, धरती से खिलवाड़।
नष्ट इसे सब कर रहे, ले विकास की आड़।।
विडंबन है कि संविधान निर्माता और संविधान सभा के अध्यक्ष अजातशत्रु देशरत्न डॉ. राजेन्द्र प्रसाद के अवदान को भूलकर उनके अधीनस्थ गठित अनेक समितियों में से एक के अध्यक्ष को राजनैतिक स्वरथ साधते दलों द्वारा संविधान निर्माता कहा जा रहा है। हिमकर नई पीढ़ी को सच से अवगत कराते हैं-
देशरतन राजेन्द्र का, जीवन मूल्य महान।
संविधान निर्माण में, रहा अहम अवदान।।
भारत के स्वतंत्रता-संघर्ष में देश के मूल निवासियों के बलिदान को विस्मृत करने, स्वतंत्रता के पश्चात सर्व धर्म समभाव को स्वीकारने, लोकतंत्र का लक्ष्य जन-कल्याण होने, सत्ता लोलुप राजनीति में षड्यंत्रों की वृद्धि, निहित स्वार्थ साधन हेतु बिका चुका पत्रकार जगत, अपनी मूल पहचान गँवाते जा रहे शहर, युद्ध-जनित विनाश, राष्ट्रभाषा हिंदी की अवहेलना आदि के प्रति सचेत, चिंतित और सुधार हेतु तत्पर हिमकर ने दोहा दीप प्रज्वलित कर सर्वत्र घिर रहे तिमिर को मिटाने के लिए कालजयी दोहास्त्र से सार्थक और सटीक शब्द-प्रहार किए हैं-
धरती आबा बन गया, बिरसा वीर महान।
जननायक है राष्ट्र का, उलिहातू की शान।।
सर्व धर्म समभावना, समता का अधिकार।
जनता का कल्याण ही, लोकतंत्र का सार।।
मिन्नत करता गण दिखे, हावी लगता तंत्र।
राजनीति के नाम पर, होता बस षड्यन्त्र।।
बिकी हुई है मीडिया, बिका हुआ अख़बार।
चौथा खंभा ढह रहा, दरक रहा आधार।।
वही शहर है आज भी, लगता पर अनजान।
चमक दमक रफ्तार में, गुम होती पहचान।।
घना धुआँ बारूद का, सभी मार्ग अवरुद्ध।
सहमी दुनिया कह रही, नहीं चाहिए युद्ध।।
सरकारें चलती रहीं, मैकाले की चाल।
हिंदी अपने देश में, अवहेलित बदहाल।।
विश्ववाणी हिंदी संस्थान अभियान जबलपुर के तत्वावधान में वर्ष २०१८ में प्रकाशित ३ दोहा संकलनों दोहा दोहा नर्मदा, दोहा सलिला निर्मला तथा दोहा दीप्त दिनेश के द्वितीय अंक में सहभागी रहे श्याम हिमकर के लिए दोहा लेखन सारस्वत उपासना की तरह है। वे दोहा लिखते नहीं, रचते है। उनका चिंतक, दोहाकार और पत्रकार देश-धर्म और समाज के प्रति दिन-ब-दिन अधिकाधिक सजग, सचेत और समर्पित होकर हिंदी दोहा ही नहीं सकल साहित्य को समसामयिक विषयों के प्रति जागरूक और सर्व कल्याणकारी युगबोध के प्रति उन्मुख करता रहे। मुझे भरोसा है कि जीवन की बारहखड़ी' का न केवल स्वागत होगा, इसमें कहे गए तथ्यों का संज्ञान लेकर शासन और समाज बेहतर भविष्य-निर्माण की दिशा में कदम उठाएँगे.
***
संपर्क- आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल', संयोजक विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,
चलभाष ९४२५१८३२४४, ईमेल- salil.sanjiv@gmai.lcom
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पाठ्य शुद्धि- ध्यान दीजिए, प्रकाशन हेतु नहीं
८ पद्मासिनी वागीश्वरी,
९ कंठ मुंड की माल / वाम भाग में पार्वती / शिव देवों के देव हैं, करें जगत संप्राण,
१० दूजा लिए त्रिशूल / दयारूप गौरी हरें, जन्म-जन्म के पाप / पूजें श्रद्धा-भाव से, सदा सिद्धिदात्री करें
११ दस दिश में उल्लास
१२ रीछराज ने जगाया, किया गुणों का गान
१३ विस्मित देखे देवकी, बंद न कारागार
१५ चित्रगुप्त परब्रह्म को, नमन झुकाकर माथ / पथ-दर्शक यमदेव के, पाप-पुण्य रखवाल / चित्रगुप्त कर्मेश हैं, सद्गति करें प्रदान / कुलतारक धर्मेश प्रभु, वंदन कृपा निधान
२० रहे पिता के स्कन्ध पर, घर का सारा भार / सहन शक्ति प्रभु से मिली, सच ही अपरंपार।।
२१ आषाढ़ी पूनो करें, गुरु उपासना खास / परंपरा गुरु-शिष्य की / दूर करे अवगुण सभी, करें न शंका लेश।।
२६ वायु तत्व आती सूक्ष्म है, गति-यतिमय अविराम
२८ फूले-फलती सभ्यता, तरणी के ही तीर
२९ दूषित है परिवेश
३० फिर उदास मन ढूँढता
३१ दूर हटे अब गरीबी / रखिए दृढ़ विश्वास
३२ पतझड़ साथ वसंत है, जीवन का यह मंत्र। / खोना-पाना सब यहीं, जोड़ न बनिए यंत्र।।
३३ हर पल सुइयाँ चुभ रहीं, लगे टूटती श्वास। / किस्तों पर है िज़ंदगी, पर अटूट विश्वास।। / बढ़ती रही मियाद ।।
४१ है जागरण विधान
४४ खीरामृत का पान
४५ ढोलक-मांदर बज रहे,
४८ शुभ यीशु का आगमन,
६३ वन के दावेदार सब,
८ पद्मासिनी वागीश्वरी,
९ कंठ मुंड की माल / वाम भाग में पार्वती / शिव देवों के देव हैं, करें जगत संप्राण,
१० दूजा लिए त्रिशूल / दयारूप गौरी हरें, जन्म-जन्म के पाप / पूजें श्रद्धा-भाव से, सदा सिद्धिदात्री करें
११ दस दिश में उल्लास
१२ रीछराज ने जगाया, किया गुणों का गान
१३ विस्मित देखे देवकी, बंद न कारागार
१५ चित्रगुप्त परब्रह्म को, नमन झुकाकर माथ / पथ-दर्शक यमदेव के, पाप-पुण्य रखवाल / चित्रगुप्त कर्मेश हैं, सद्गति करें प्रदान / कुलतारक धर्मेश प्रभु, वंदन कृपा निधान
२० रहे पिता के स्कन्ध पर, घर का सारा भार / सहन शक्ति प्रभु से मिली, सच ही अपरंपार।।
२१ आषाढ़ी पूनो करें, गुरु उपासना खास / परंपरा गुरु-शिष्य की / दूर करे अवगुण सभी, करें न शंका लेश।।
२६ वायु तत्व आती सूक्ष्म है, गति-यतिमय अविराम
२८ फूले-फलती सभ्यता, तरणी के ही तीर
२९ दूषित है परिवेश
३० फिर उदास मन ढूँढता
३१ दूर हटे अब गरीबी / रखिए दृढ़ विश्वास
३२ पतझड़ साथ वसंत है, जीवन का यह मंत्र। / खोना-पाना सब यहीं, जोड़ न बनिए यंत्र।।
३३ हर पल सुइयाँ चुभ रहीं, लगे टूटती श्वास। / किस्तों पर है िज़ंदगी, पर अटूट विश्वास।। / बढ़ती रही मियाद ।।
४१ है जागरण विधान
४४ खीरामृत का पान
४५ ढोलक-मांदर बज रहे,
४८ शुभ यीशु का आगमन,
६३ वन के दावेदार सब,
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