कुल पेज दृश्य

रविवार, 6 फ़रवरी 2022

सॉनेट, गीत, नवगीत, कुण्डलिया, गणेश, लता

सॉनेट 
लता
*
लता ताल की मुरझ सूखती।
काल कलानिधि लूट ले गया।
साथ सुरों का छूट ही गया।।
रस धारा हो विकल कलपती।।

लय हो विलय, मलय हो चुप है।
गति-यति थमकर रुद्ध हुई है।
सुमिर सुमिर सुधि शुद्ध हुई है।।
अब गत आगत तव पग-नत है।।

शारदसुता शारदापुर जा।
शारद से आशीष रही पा।
शारद माँ को खूब रहीं भा।।

हुआ न होगा तुमसा कोई।
गीत सिसकते, ग़ज़लें रोई।
खोकर लता मौसिकी रोई।।
६-२-२०२२
***

प्रिय बहिन डॉक्टर नीलमणि 
सॉनेट
सावित्री
*
सावित्री जीती या हारी?
काल कहे क्या?, शीश झुकाए।
सत्यवान को छोड़ न पाए।।
नियति विवशता की बलिहारी।।

प्रेम लगन निस्वार्थ समर्पण।
प्रिय पर खुद को वार दिया था।
निज इच्छा को मार दिया था।।
किया कामनाओं का तर्पण।।

श्वास श्वास के संग गुँथी थी।
आस आस के साथ बँधी थी।
धड़कन जैसे साथ नथी थी।।

अब प्रिय तुममें समा गए हैं।
जग को लगता बिला गए हैं।
तुम्हें पता दो, एक हुए हैं।।
***
प्रिय बहिन डॉक्टर नीलमणि दुबे प्राण प्रण से तीन दशकीय सेवा करने के बाद भी, अपने सर्वस्व जीवनसाथी को बचा नहीं सकीं। जीवन का पल पल जीवनसाथी के प्रति समर्पित कर सावित्री को जीवन में उतारकर काल को रोके रखा। कल सायंकाल डॉक्टर दुबे नश्वर तन छोड़कर नीलमणि जी से एकाकार हो गए।
मेरा, मेरे परिवार और अभियान परिवार के शत शत प्रणाम।
ओ क्षणभंगुर भव राम राम
***
नवगीत:
*
हर चहरे पर
नकली चहरा...
*
आँखें रहते
सूर हो गए.
क्यों हम खुद से
दूर हो गए?
हटा दिए जब
सभी आवरण
तब धरती के
नूर हो गए.

रोक न पाया
कोई पहरा.
हर चहरे पर
नकली चहरा...
*
भूत-अभूत
पूर्व की वर्चा.
भूल करें हम
अब की अर्चा.
चर्चा रोकें
निराधार सब.
हो न निरुपयोगी
कुछ खर्चा.

मलिन हुआ जल
जब भी ठहरा.
हर चहरे पर
नकली चहरा...
*
कथनी-करनी में
न भेद हो.
जब गलती हो
तुरत खेद हो.
लक्ष्य देवता के
पूजन हित-
अर्पित अपना
सतत स्वेद हो.
उथलापन तज
हो मन गहरा.
हर चहरे पर
नकली चहरा...

***

नवगीत:
रूप राशि को
मौन निहारो...
*
पर्वत-शिखरों पर जब जाओ,
स्नेहपूर्वक छू सहलाओ.
हर उभार पर, हर चढाव पर-
ठिठको, गीत प्रेम के गाओ.
स्पर्शों की संवेदन-सिहरन
चुप अनुभव कर निज मन वारो.
रूप राशि को
मौन निहारो...
*
जब-जब तुम समतल पर चलना,
तनिक सम्हलना, अधिक फिसलना.
उषा सुनहली, शाम नशीली-
शशि-रजनी को देख मचलना.
मन से तन का, तन से मन का-
दरस करो, आरती उतारो.
रूप राशि को
मौन निहारो...
*
घाटी-गव्ह्रों में यदि उतरो,
कण-कण, तृण-तृण चूमो-बिखरो.
चन्द्र-ज्योत्सना, सूर्य-रश्मि को
खोजो, पाओ, खुश हो निखरो.
नेह-नर्मदा में अवगाहन-
करो 'सलिल' पी कहाँ पुकारो.
रूप राशि को
मौन निहारो...

***
कुण्डलिया

करुणा संवेदन बिना, नहीं काव्य में तंत..
करुणा रस जिस ह्रदय में वह हो जाता संत.
वह हो जाता संत, न कोई पीर परायी.
आँसू सबके पोंछ, लगे सार्थकता पाई.
कंकर में शंकर दिखते, होता मन-मंथन.
'सलिल' व्यर्थ है गीत, बिना करुणा संवेदन.
***

भजन:

सुन लो विनय गजानन
जय गणेश विघ्नेश उमासुत, ऋद्धि-सिद्धि के नाथ.
हर बाधा हर हर शुभ करें, विनत नवाऊँ माथ..

*
सुन लो विनय गजानन मोरी
सुन लो विनय गजानन.
करो कृपा हो देश हमारा
सुरभित नंदन कानन....
*
करो कृपा आया हूँ देवा, स्वीकारो शत वंदन.
भावों की अंजलि अर्पित है, श्रृद्धा-निष्ठा चंदन..
जनवाणी-हिंदी जगवाणी
हो, वर दो मनभावन.
करो कृपा हो देश हमारा
सुरभित नंदन कानन....
*
नेह नर्मदा में अवगाहन, कर हम भारतवासी.
सफल साधन कर पायें,वर दो हे घट-घटवासी.
भारत माता का हर घर हो,
शिवसुत! तीरथ पावन.
करो कृपा हो देश हमारा
सुरभित नंदन कानन....
*
प्रकृति-पुत्र बनकर हम मानव, सबकी खुशी मनायें.
पर्यावरण प्रदूषण हरकर, भू पर स्वर्ग बसायें.
रहे 'सलिल' के मन में प्रभुवर
श्री गणेश तव आसन.
करो कृपा हो देश हमारा
सुरभित नंदन कानन...

***
गीत
एक कोना कहीं घर में, और होना चाहिए...
*
याद जब आये तुम्हारी, सुरभि-गंधित सुमन-क्यारी.
बने मुझको हौसला दे, क्षुब्ध मन को घोंसला दे.
निराशा में नवाशा की, फसल बोना चाहिए.
एक कोना कहीं घर में, और होना चाहिए...
*
हार का अवसाद हरकर, दे उठा उल्लास भरकर.
बाँह थामे दे सहारा, लगे मंजिल ने पुकारा.
कहे- अवसर सुनहरा, मुझको न खोना चाहिए.
एक कोना कहीं घर में, और होना चाहिए...
*
उषा की लाली में तुमको, चाय की प्याली में तुमको.
देख पाऊँ, लेख पाऊँ, दुपहरी में रेख पाऊँ.
स्वेद की हर बूँद में, टोना सा होना चाहिए.
एक कोना कहीं घर में और होना चाहिए...
*
साँझ के चुप झुटपुटे में, निशा के तम अटपटे में.
पाऊँ यदि एकांत के पल, सुनूँ तेरा हास कलकल.
याद प्रति पल करूँ पर, किंचित न रोना चाहिए.
एक कोना कहीं घर में और होना चाहिए...
*
जहाँ तुमको सुमिर पाऊँ, मौन रह तव गीत गाऊँ.
आरती सुधि की उतारूँ, ह्रदय से तुमको गुहारूँ.
स्वप्न में देखूं तुम्हें वह नींद सोना चाहिए.
एक कोना कहीं घर में और होना चाहिए...
***

नव गीत:

अवध तन,

मन राम हो...

*

आस्था सीता का

संशय का दशानन.

हरण करता है

न तुम चुपचाप हो.

बावरी मस्जिद

सुनहरा मृग- छलावा.

मिटाना इसको कहो

क्यों पाप हो

उचित छल को जीत

छल से मौन रहना.

उचित करना काम

पर निष्काम हो.

अवध तन,

मन राम हो...

*

दगा के बदले

दगा ने दगा पाई.

बुराई से निबटती

यूँ ही बुराई.

चाहते हो तुम

मगर संभव न ऐसा-

बुराई के हाथ

पिटती हो बुराई.

जब दिखे अंधेर

तब मत देर करना

ढेर करना अनय

कुछ अंजाम हो.

अवध तन,

मन राम हो...

*

किया तुमने वह

लगा जो उचित तुमको.

ढहाया ढाँचा

मिटाया क्रूर भ्रम को.

आज फिर संकोच क्यों?

निर्द्वंद बोलो-

सफल कोशिश करी

हरने दीर्घ तम को.

सजा या ईनाम का

भय-लोभ क्यों हो?

फ़िक्र क्यों अनुकूल कुछ

या वाम हो?

अवध तन,

मन राम हो..
***
नवगीत / भजन:
*
जाग जुलाहे!
भोर हो गयी...
***
आशा-पंछी चहक रहा है.
सुमन सुरभि ले महक रहा है..
समय बीतते समय न लगता.
कदम रोक, क्यों बहक रहा है?
संयम पहरेदार सो रहा-
सुविधा चतुरा चोर हो गयी.
जाग जुलाहे!
भोर हो गयी...
***
साँसों का चरखा तक-धिन-धिन.
आसों का धागा बुन पल-छिन..
ताना-बाना, कथनी-करनी-
बना नमूना खाने गिन-गिन.
ज्यों की त्यों उजली चादर ले-
मन पतंग, तन डोर हो गयी.
जाग जुलाहे!
भोर हो गयी...
***
रीते हाथों देख रहा जग.
अदना मुझको लेख रहा जग..
मन का मालिक, रब का चाकर.
शून्य भले अव्रेख रहा जग..
उषा उमंगों की लाली संग-
संध्या कज्जल-कोर हो गयी.
जाग जुलाहे!
भोर हो गयी
***
: एक अगीत :
बिक रहा ईमान है

कौन कहता है कि...
मंहगाई अधिक है?
बहुत सस्ता
बिक रहा ईमान है.

जहाँ जाओगे
सहज ही देख लोगे.
बिक रहा
बेदाम ही इंसान है.

कहो जनमत का
यहाँ कुछ मोल है?
नहीं, देखो जहाँ
भारी पोल है.

कर रहा है न्याय
अंधा ले तराजू.
व्यवस्था में हर कहीं
बस झोल है.

आँख का आँसू,
हृदय की भावनाएँ.
हौसला अरमान सपने
समर्पण की कामनाएँ.

देश-भक्ति, त्याग को
किस मोल लोगे?
कहो इबादत को
कैसे तौल लोगे?

आँख के आँसू,
हया लज्जा शरम.
मुफ्त बिकते
कहो सच है या भरम?

क्या कभी इससे सस्ते
बिक़े होंगे मूल्य.
बिक रहे हैं
आज जो निर्मूल्य?

मौन हो अर्थात
सहमत बात से हो.
मान लेता हूँ कि
आदम जात से हो.

जात औ' औकात निज
बिकने न देना.
मुनाफाखोरों को
अब टिकने न देना.

भाव जिनके अधिक हैं
उनको घटाओ.
और जो बेभाव हैं
उनको बढाओ.


***
स्मृति दीर्घा:
*
स्मृतियों के वातायन से, झाँक रहे हैं लोग...
*
पाला-पोसा खड़ा कर दिया, बिदा हो गए मौन.
मुझमें छिपे हुए हुए है, जैसे भोजन में हो नौन..
चाहा रोक न पाया उनको, खोया है दुर्योग...
*
ठोंक-ठोंक कर खोट निकली, बना दिया इंसान.
शत वन्दन उनको, दी सीख 'न कर मूरख अभिमान'.
पत्थर परस करे पारस का, सुखमय है संयोग...
*
टाँग मार कर कभी गिराया, छुरा पीठ में भोंक.
जिनने अपना धर्म निभाया, उन्नति पथ को रोक.
उन का आभारी, बचाव के सीखे तभी प्रयोग...
*
मुझ अपूर्ण को पूर्ण बनाने, आई तज घर-द्वार.

कैसे बिसराऊँ मैं उनको, वे मेरी सरकार.

मुझसे मुझको ले मुझको दे, मिटा रहीं हर सोग...
*
बिन शर्तों के नाते जोड़े, दिया प्यार निष्काम.
मित्र-सखा मेरे जो उनको सौ-सौ बार सलाम.
दुःख ले, सुख दे, सदा मिटाए मम मानस के रोग...
*
ममता-वात्सल्य के पल, दे नव पीढी ने नित्य.
मुझे बताया नव रचना से थका न अभी अनित्य.
'सलिल' अशुभ पर जयी सदा शुभ, दे तू भी निज योग...
*
स्मृति-दीर्घा में आ-जाकर, गया पीर सब भूल.
यात्रा पूर्ण, नयी यात्रा में साथ फूल कुछ शूल.
लेकर आया नया साल, मिल इसे लगायें भोग...

***
'बड़ा दिन'

हम ऐसा कुछ काम कर सकें
हर दिन रहे बड़ा दिन अपना.
बनें सहायक नित्य किसी के-
पूरा करदें उसका सपना.....
*
केवल खुद के लिए न जीकर
कुछ पल औरों के हित जी लें.
कुछ अमृत दे बाँट, और खुद
कभी हलाहल थोडा पी लें.
बिना हलाहल पान किये, क्या
कोई शिवशंकर हो सकता?
बिना बहाए स्वेद धरा पर
क्या कोई फसलें बो सकता?
दिनकर को सब पूज रहे पर
किसने चाहा जलना-तपना?
हम ऐसा कुछ काम कर सकें
हर दिन रहे बड़ा दिन अपना.....
*
निज निष्ठा की सूली पर चढ़,
जो कुरीत से लड़े निरंतर,
तन पर कीलें ठुकवा ले पर-
न हो असत के सम्मुख नत-शिर.
करे क्षमा जो प्रतिघातों को
रख सद्भाव सदा निज मन में.
बिना स्वार्थ उपहार बाँटता-
फिरे नगर में, डगर- विजन में.
उस ईसा की, उस संता की-
'सलिल' सीख ले माला जपना.
हम ऐसा कुछ काम कर सकें
हर दिन रहे बड़ा दिन अपना.....
*
जब दाना चक्की में पिसता,
आटा बनता, क्षुधा मिटाता.
चक्की चले समय की प्रति पल
नादां पिसने से घबराता.
स्नेह-साधना कर निज प्रतिभा-
सूरज से कर जग उजियारा.
देश, धर्म, या जाति भूलकर
चमक गगन में बन ध्रुवतारा.
रख ऐसा आचरण बने जो,
सारी मानवता का नपना.
हम ऐसा कुछ काम कर सकें
हर दिन रहे बड़ा दिन अपना.....
*
(भारत में क्रिसमस को 'बड़ा दिन' कहा जाता है.)
***
नवगीत:
हवा में ठंडक
*
हवा में ठंडक बहुत है
काँपता है गात सारा
ठिठुरता सूरज बिचारा
ओस-पाला
नाचते हैं-
हौसलों को आँकते हैं
युवा में खुंदक बहुत है

गर्मजोशी चुक न पाए,
पग उठा जो रुक न पाए
शेष चिंगारी
अभी भी-
ज्वलित अग्यारी अभी भी
दुआ दुःख-भंजक बहुत है

हवा बर्फीली-विषैली,
नफरतों के साथ फैली
भेद मत के
सह सकें हँस-
एक मन हो रह सकें हँस
स्नेह सुख-वर्धक बहुत है

चिमनियों का धुँआ गंदा
सियासत है स्वार्थ-फंदा
उठो! जन-गण
को जगाएँ-
सृजन की डफली बजाएँ
चुनौती घातक बहुत है

नियामक हम आत्म के हों,
उपासक परमात्म के हों.
कोहरा
भास्कर प्रखर हों-
मौन में वाणी मुखर हों
साधना ऊष्मक बहुत है
***
नवगीत:
*
काया माटी,
माया माटी,
माटी में-
मिलना परिपाटी...
*
बजा रहे
ढोलक-शहनाई,
होरी,कजरी,
फागें, राई,
सोहर गाते
उमर बिताई.
इमली कभी
चटाई-चाटी...
*
आडम्बर करना
मन भाया.
खुद को खुद से
खुदी छिपाया.
पाया-खोया,
खोया-पाया.
जब भी दूरी
पाई-पाटी...
*
मौज मनाना,
अपना सपना.
नहीं सुहाया
कोई नपना.
निजी हितों की
माला जपना.
'सलिल' न दांतों
रोटी काटी...
*
चाह बहुत पर
राह नहीं है.
डाह बहुत पर
वाह नहीं है.
पर पीड़ा लख
आह नहीं है.
देख सचाई
छाती फाटी...
*
मैं-तुम मिटकर
हम हो पाते.
खुशियाँ मिलतीं
गम खो जाते.
बिन मतलब भी
पलते नाते.
छाया लम्बी
काया नाटी...

***
गीतिका
तितलियाँ
*
यादों की बारात तितलियाँ.
कुदरत की सौगात तितलियाँ..

बिरले जिनके कद्रदान हैं.
दर्द भरे नग्मात तितलियाँ..

नाच रहीं हैं ये बिटियों सी
शोख-जवां ज़ज्बात तितलियाँ..

बद से बदतर होते जाते.
जो, हैं वे हालात तितलियाँ..

कली-कली का रस लेती पर
करें न धोखा-घात तितलियाँ..

हिल-मिल रहतीं नहीं जानतीं
क्या हैं शाह औ' मात तितलियाँ..

'सलिल' भरोसा कर ले इन पर
हुईं न आदम-जात तितलियाँ..


***
नवगीत:
*
सागर उथला,
पर्वत गहरा...
*
डाकू तो ईमानदार
पर पाया चोर सिपाही.
सौ पाए तो हैं अयोग्य,
दस पायें वाहा-वाही.
नाली का
पानी बहता है,
नदिया का
जल ठहरा.
सागर उथला,
पर्वत गहरा...
*
अध्यापक को सबक सिखाता
कॉलर पकड़े छात्र.
सत्य-असत्य न जानें-मानें,
लक्ष्य स्वार्थ है मात्र.
बहस कर रहा
है वकील
न्यायालय
गूंगा-बहरा.
सागर उथला,
पर्वत गहरा...
*
मना-मनाकर भारत हारा,
लेकिन पाक न माने.
लातों का जो भूत
बात की भाषा कैसे जाने?
दुर्विचार ने
सद्विचार का
जाना नहीं
ककहरा.
सागर उथला,
पर्वत गहरा...

***
नवगीत
*
चले श्वास-चौसर पर
आसों का शकुनी नित दाँव.
मौन रो रही कोयल
कागा हँसकर बोले काँव...
*
सम्बंधों को अनुबंधों ने
बना दिया बाज़ार.
प्रतिबंधों के धंधों के
आगे दुनिया लाचार.
कामनाओं ने भावनाओं को
करा दिया नीलाम.
बाद को अच्छा माने दुनिया,
कहे बुरा बदनाम.
ठंडक देती धूप,
ताप रही बाहर बेहद छाँव.
मौन रो रही कोयल
कागा हँसकर बोले काँव...
*
सद्भावों की सती तजी,
वर राजनीति रथ्या.
हरिश्चंद्र ने त्याग सत्य,
चुन लिया असत मिथ्या..
सत्ता-शूर्पनखा हित लड़ते
हाय! लक्ष्मण-राम.
खुद अपने दुश्मन बन बैठे
कहें- विधाता वाम..
मोह शहर का किया
उजड़े अपने सुन्दर गाँव.
मौन रो रही कोयल
कागा हँसकर बोले काँव...
*
'सलिल' समय पर न्याय न होता,
करे देर अंधेर.
मार-मारकर बाज खा रहे
कुर्सी बैठ बटेर..
बेच रहे निष्ठाएँ अपनी,
बिना मोल बेदाम.
और कह रहे बेहयाई से
'भला करेंगे राम'.
अपने हाथों तोड़ खोजते
कहाँ खो गया ठाँव?
मौन रो रही कोयल
कागा हँसकर बोले काँव...

***
(अभिनव प्रयोग)
दोहा गीतिका

*
तुमको मालूम ही नहीं शोलों की तासीर।
तुम क्या जानो ख्वाब की कैसे हो ताबीर?

बहरे मिलकर सुन रहे गूँगों की तक़रीर।
बिलख रही जम्हूरियत, सिसक रही है पीर।

दहशतगर्दों की हुई है जबसे तक्सीर
वतनपरस्ती हो गयी खतरनाक तक्सीर।

फेंक द्रौपदी खुद रही फाड़-फाड़ निज चीर।
भीष्म द्रोण कूर कृष्ण संग, घूरें पांडव वीर।

हिम्मत मत हारें- करें, सब मिलकर तदबीर।
प्यार-मुहब्बत ही रहे मजहब की तफसीर।

सपनों को साकार कर, धरकर मन में धीर।
हर बाधा-संकट बने, पानी की प्राचीर।

हिंद और हिंदी करे दुनिया को तन्वीर।
बेहतर से बेहतर बने इन्सां की तस्वीर।

हाय! सियासत रह गयी, सिर्फ स्वार्थ-तज़्वीर।
खिदमत भूली, कर रही बातों की तब्ज़ीर।

तरस रहा मन 'सलिल' दे वक़्त एक तब्शीर।
शब्दों के आगे झुके, जालिम की शमशीर।
*********************************
तासीर = असर/ प्रभाव, ताबीर = कहना, तक़रीर = बात/भाषण, जम्हूरियत = लोकतंत्र, दहशतगर्दों = आतंकवादियों, तकसीर = बहुतायत, वतनपरस्ती = देशभक्ति, तकसीर = दोष/अपराध, तदबीर = उपाय, तफसीर = व्याख्या, तनवीर = प्रकाशित, तस्वीर = चित्र/छवि, ताज्वीर = कपट, खिदमत = सेवा, कौम = समाज, तब्जीर = अपव्यय, तब्शीर = शुभ-सन्देश, ज़ालिम = अत्याचारी, शमशीर = तलवार..
***
राज को पाती:
भारतीय सब एक हैं, राज कौन है गैर?
महाराष्ट्र क्यों राष्ट्र की, नहीं चाहता खैर?
कौन पराया तू बता?, और सगा है कौन?
राज हुआ नाराज क्यों ख़ुद से?रह अब मौन.
उत्तर-दक्षिण शीश-पग, पूरब-पश्चिम हाथ.
ह्रदय मध्य में ले बसा, सब हों तेरे साथ.
भारत माता कह रही, सबका बन तू मीत.
तज कुरीत, सबको बना अपना, दिल ले जीत.
सच्चा राजा वह करे जो हर दिल पर राज.
‘सलिल’ तभी चरणों झुकें, उसके सारे ताज.
६-२-२०१०
***

कोई टिप्पणी नहीं: