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रविवार, 27 फ़रवरी 2022

श्रीमद्भागवत रसामृतम्, विनोद शास्त्री

पुस्तक परिचय
श्रीमद्भागवत रसामृतम् - सनातन मूल्यों एवं मान्यताओं का कोष
- आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
[कृति विवरण - श्रीमद्भागवत रसामृतम्, विधा आध्यात्मिक समालोचना, लेखक - व्याकरणाचार्य डॉ. विनोद शास्त्री, आवरण सजिल्द क्लॉथ बाइंडिंग, आकार २५ से.मी. x २१ से.मी., द्वितीय संस्करण बसंत पंचमी २०२१, पृष्ठ संख्या ८००, मूल्य रु. ७४०/-, प्रकाशक- भागवत पीयूषधाम समिति, दिल्ली।]
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पुस्तकें मनुष्य की श्रेष्ठ मित्र और मार्गदर्शक हैं। मानव जीवन के हर मोड़ पर पुस्तकों की उपादेयता होती है। अधिकांश पुस्तकें जीवन के एक सोपान पर उपयोगी होने के पश्चात् अपनी उपयोगिता खो बैठती हैं किन्तु कुछ पुस्तकें ऐसी भी होती है जो सतत सनातन ज्ञान सलिला प्रवाहित करती हैं। ऐसी पुस्तकें मित्र मात्र नहीं; पथ प्रदर्शक और व्यक्तित्व विकासक भी होती हैं। ऐसी ही एक पुस्तक है 'श्रीमद्भागवत रसामृतम्'। वास्तव में यह ग्रंथ नहीं; ग्रंथराज है। महर्षि वेदव्यास द्वारा प्रणीत श्रीमद्भागवत महापुराण की कथा को सात भागों में विभाजित कर साप्ताहिक कथा वाचन की उद्देश्य पूर्ति इस ग्रंथ ने की है। ग्रंथकार डॉ. विनोद शास्त्री जी ने श्रीमद्भागवत पर ही शोधोपाधि प्राप्त की है। यह ग्रंथ प्रामाणिक और सरस बन पड़ा है। 

ग्रंथारंभ में श्रीगोवर्धन मठ पुरी पीठाधीश्वर श्रीमज्जगद्गुरु स्वामी निश्चलानंद जी सरस्वती आशीष देते हुए लिखते हैं- 'डॉ. विनोद शास्त्री महाभाग के द्वारा विरचित श्रीमद्भागवत रसामृतम् (साप्ताहिक कथा) आस्थापूर्वक अध्ययन, अनुशीलन और श्रवण करने योग्य है। श्री शास्त्री जी ने अत्यंत गहन विषय को सरलतम शब्दों में व्यक्त किया है। इस ग्रंथ में शब्द विमर्श सहित तात्विक विवेचन के माध्यम से दार्शनिक भाव व्यक्त किए गए हैं।' रमणरेती गोकुल से जगद्गुरु कार्ष्णि श्री गुरु शरणानंद जी महामंडलेश्वर के शब्दों में - 'ग्रंथ में दुरूह स्थलों एवं प्रसंगों को अत्यंत सरल शब्दों एवं भावों में व्यक्त किया गया है। बीच-बीच में संस्कृत श्लोकों की व्याख्या एवं वैयाकरण सौरभ दृष्टिगोचर होता है। रामचरित मानस एवं भगवद्गीता के उद्धरण देने से ग्रंथ की उपादेयता और भी बढ़ गई है। जगद्गुरु द्वारकाचार्य मलूक पीठाधीश्वर श्री राजेंद्रदास जी के अनुसार 'श्री वंशीधरी आदि टीकाओं का भाव, सभी प्रसंगों का सरल तात्विक विवेचन, प्रत्येक स्कंध, अध्याय, प्रमुख श्लोकों का व्याख्यान इस ग्रंथ का अनुपम वैशिष्ट्य है। इस अनुपम ग्रंथ की श्री गोदा हरिदेव पीठाधीश्वर जगद्गुरु देवनारायणाचार्य, स्वामी श्री किशोरीरमणाचार्य जी, मारुतिनन्दन वागीश जी, कृष्णचन्द्र शास्त्री जी जैसे विद्वानों ने भी भूरि-भूरि प्रशंसा की है। 

ग्रंथ में श्रीमद्भागवद माहात्म्य के पश्चात् बारह स्कन्धों में कथा का वर्णन है।  माहात्म्य के अंतर्गत नारद-भक्ति संवाद, भक्ति का कष्ट विमोचन, गोकर्ण की कथा, धुंधकारी की मुक्ति तथा सप्ताह यज्ञ की विधि वर्णित है। प्रथम स्कंध में भगवद्भक्ति का माहात्म्य, अवतारों का वर्णन, व्यास-नारद संवाद, भागवत रचना, द्रौपदी-सुतों का वध, अश्वत्थामा का मान मर्दन, परीक्षित की रक्षा, भीष्म का देह त्याग, कृष्ण का द्वारका में स्वागत, परीक्षित जन्म, धृतराष्ट्र-गांधारी का हिमालय गमन, परीक्षित राज्याभिषेक, पांडवों का स्वर्ग प्रस्थान, परीक्षित की दिग्विजय, कलियुग का दमन, शृंगी द्वारा शाप तथा शुकदेव द्वारा उपदेश वर्णित हैं। दूसरे स्कंध में ध्यान विधि, विराट स्वरूप, भक्ति माहात्म्य, शुकदेव द्वारा सृष्टि वर्णन, विराट रूप की विभूति का वर्णन, अवतार कथा, ब्रह्मा द्वारा चतुश्लोकी भागवत तथा भागवत के दस लक्षण समाहित हैं। तृतीय स्कंध में उद्धव-विदुर भेंट, कृष्ण की बाल लीला, विदुर-मैत्रेय संवाद, ब्रह्मा की उत्पत्ति, सृष्टि व काल का वर्णन,  वाराह अवतार, जय-विजय कथा, हिरण्याक्ष- हिरण्यकशिपु प्रसंग, देवहूति-कर्दम प्रसंग, कपिल जन्म, सांख्ययोग, अष्टांगयोग, भक्तियोग आदि प्रसंग हैं। चतुर्थ स्कंध में स्वायंभुव मनु प्रसंग, शंकर-दक्ष प्रसंग, ध्रुव की कथा, वेन, पृथु तथा पुरंजन की कथाओं का विवेचन किया गया है। पंचम स्कंध में प्रियव्रत, आग्नीध्र, नाभि, ऋषभदेव, भारत, गंगावतरण, भारतवर्ष, षडद्वीप, लोकालोक, सूर्य, राहु तथा नरकादि का वर्णन किया गया है। छठवें स्कंध में अजामिल आख्यान, नारद-दक्ष प्रसंग, विश्वरूप प्रसंग, दधीचि प्रसंग, वृत्तासुर वध, चित्रकेतु प्रसंग तथा अदिति व दिति प्रसंगों  की व्याख्या की गई है।

नारद-युधिष्ठिर संवाद, जय-विजय कथा, हिरण्यकशिपु-प्रह्लाद-नृसिंह प्रसंग, मानव-धर्म, वर्ण-धर्म, स्त्री-धर्म, सन्यास धर्म तथा गृहस्थाश्रम महत्व का वर्णन सप्तम स्कंध में है। आठवें स्तंभ में मन्वन्तरों का वर्णन, गजेंद्र प्रसंग, समुद्र मंथन, शिव द्वारा विष-पान, देवासुर प्रसंग, वामन-बलि प्रसंग तथा मत्स्यावतार की कथा कही गई है। नौवें स्कंध में वैवस्वत मनु, महर्षि च्यवन, शर्याति, अम्बरीष, दुर्वासा, इक्ष्वाकु वंश, मान्धाता, त्रिशंकु, हरिश्चंद्र, सगर, भगीरथ, श्री राम, निमि, चन्द्रवंश, परशुराम, ययाति, पुरु वंश, दुष्यंत, भरत आदि प्रसंगों पर प्रकाश डाला गया है। दसवें स्कंध के पूर्वार्ध में वासुदेव-देवकी विवाह, श्री कृष्ण जन्म, पूतनादि उद्धार, ब्रह्मा को मोह, कालिय नाग, चीरहरण, गोवर्धन-धारण, रासलीला, अरिष्टासुर वध, कुब्जा पर कृपा, भ्रमर गीत आदि प्रसंग हैं। दसवें स्कंध के उत्तरार्ध में जरासंध वध, द्वारका निर्माण, कालयवन-मुचुकुंद प्रसंग, रुक्मिणी से विवाह, प्रद्युम्न जन्म, शंबरासुर वध, जांबवती व सत्यभाभा के साथ विवाह, सीमन्तक हरण, भौमासुर उद्धार, रुक्मि वध, उषा-अनिरुद्ध प्रसंग, श्रीकृष्ण-बाणासुर युद्ध, राजसूय यज्ञ, शिशुपाल उद्धार, शाल्व उद्धार, सुदामा प्रसंग, वसुदेव यज्ञोत्सव, त्रिदेव परीक्षा, लीलाविहार आदि प्रसंगों का वर्णन है। ग्यारहवें स्कंध में यदुवंश को ऋषि-शाप, कर्म योग निरूपण, अवतार कथा, अवधूत प्रसंग, भक्ति योग की महिमा, भगवान की विभूतियों का वर्णन, वर्ण धर्म, ज्ञान योग, सांख्य योग, क्रिया योग, परमार्थ निरूपण आदि प्रसंगों का विश्लेषण है। अंतिम बारहवें स्कंध में कलियुग के राजाओं का वर्णन, प्रलय, परीक्षित प्रसंग, अथर्ववेद की शाखाएँ, मार्कण्डेय प्रसंग, श्रीमद्भागवत महिमा आदि का समावेश है। 

डॉ. विनोद शास्त्री जी ने श्रीमद्भागवत के विविध प्रसंगों का वर्णन मात्र नहीं किया अपितु उनमें अन्तर्निहित गूढ़ सिद्धांतों, सनातन मूल्यों आदि का सहल-सरल भाषा में सम्यक् विश्लेषण भी किया है। श्रीमद्भागवत के हर प्रसंग का समावेश इस ग्रंथ में है। अध्यायों में प्रयुक्त श्लोकों का शब्द विमर्श, पाठक को श्लोक के हर शब्द को समझकर अर्थ ग्रहण करने में सहायक है। शब्द विमर्श में श्लोक का अर्थ, समास, व्युत्पत्ति आदि का अध्ययन कर पाठक अपने ज्ञान, भाषा और अभिव्यक्ति सामर्थ्य की गुणवत्ता वृद्धि कर सकता है। विविध प्रसंगों पर प्रकाश डालते समय श्रीमद्भगवतगीता, श्री रामचरित मानस आदि ग्रंथों से संबंधित उद्धरणों का समावेश कथ्य के मूलार्थ के साथ-साथ भावार्थ, निहितार्थ को भी समझने में सहायक है। दर्शन के गूढ़ सिद्धांतों को जन सामान्य के लिए सुग्राह्य तथा सहज बोधगम्य बनाने के लिए विनोद जी ने मुख्य आख्यान के साथ-साथ सहायक उपाख्यानों का यथास्थान सटीक प्रयोग किया है। किसी मांगलिक कार्य का श्री गणेश करने के पूर्व ईश वंदना की सनातन परंपरा का पालन करते हुए कृत्यारंभ में मंगलाचरण के अंतर्गत बारह श्लोकों में देव वंदना की गई है। ग्रंथ की श्रेष्ठता का पूर्वानुमान विद्वान् जगद्गुरुओं द्वारा दिए गए शुभाशीष संदेशों से किया जा सकता है। 

विनोद जी द्वारा प्रयुक्त शैली के परिचयार्थ स्कंध १, अध्याय ४ से 'विरक्त' का तात्पर्य प्रसंग प्रस्तुत है-
'विष्णो: रक्त: विरक्त:' अर्थात भगवन की भक्ति में अनुरक्त होकर जीवन यापन करो। 'जीवस्यतत्वजिज्ञासा' (भाग. १/२/१०) - जीवन का लक्ष्य है परमात्मा के स्वरूप (तत्व) का ज्ञान करना। 
विवेकेन भवत्किं में पुत्रं देहि बलादपि। 
नोचेत्तयजाम्यहं प्राणांस्त्वदग्रे शोकमूर्छित:। ३७ 

आत्मदेव ने कहा- मुझे विवेक से क्या मतलब है? मुझे तो संतान दें। यदि मेरे भाग्य में संतान नहीं है तो अपने भाग्य से दें, नहीं तो मैं शोक मूर्छित हो प्राण त्याग करता हूँ। आत्मदेव-  'मरने के बाद मेरा पिंडदान कौन करेगा?' सन्यासी ने कहा- 'केवल इतनी सी बात के लिए प्राण त्याग करना चाहते हो? संतान बुढ़ापे में सेवा करेगी, इसकी क्या गारंटी है? आशा ही दुख का कारण है। दशरथ जी के चार पुत्र थे लेकिन अंतिम समय में कोई पास में नहीं था। २० दिन तक तेल की कढ़ाई में शव रखा रहा। इसलिए इस शरीर रूपी पिंड को भगवद्कार्य (सेवा) में समर्पित करो। 
उद्धरेदात्म नात्मानं नात्मानमवसादयेत्। (गीता) ६/५ 
आत्मा से ही आत्मा का उद्धार होगा। याद रखो संतान से तुम्हें सुख मिलनेवाला नहीं है। सन्यासी ने कहा पुत्र ही पिंडदान करेगा, ऐसी आशा छोड़ दो। परमात्मा के अपरोक्ष साक्षात्कार के बिना मुक्ति नहीं मिलती। तमेव विदित्वा अति मृत्युं एति नान्य: पंथा: विद्यते अन्याय। शास्त्रों में कहा है- 'ऋते ज्ञानान्नमुक्ति:';  बिना ज्ञान के मुक्ति नहीं मिलती। अपना पिंडदान अपने हाथ से करो। सन्यासी के उपदेश का आत्मदेव के मन पर कोई प्रभाव नहीं हुआ। तब सन्यासी को ब्राह्मण पर दया आ गई और उन्होंने आम का एक फल आत्मदेव के हाथ में दिया और कहा- जाओ अपनी पत्नी को यह फल खिला दो। 
इदं भक्षय पत्न्या त्वं तट: पुत्रो भविष्यति। ४१ 
सत्यं शौचं दयादानमेकभक्तं तु भोजनम्।। ४२ 
इस फल के खाने से तुम्हारी स्त्री के गर्भ से एक सुंदर सात्विक स्वभाववाला पुत्र होगा। 
वर्षावधि स्त्रिया कार्य तेन पुत्रोsतिनिर्मल:।  ४२ 
तुम्हारी स्त्री को सत्य, शौच, दया, एक समय  नियम लेना होगा। यह कहकर सन्यासी (योगिराज) चले गए। ब्राम्हण ने घर आकर वह फल अपनी पत्नी (धुंधली) के हाथ में दिया और स्वयं किसी कार्यवश बाहर चला गया। कुटिल पत्नी अपनी सखी से रो-रोकर अपनी व्यथा कहने लगी, बोली- फल खाकर गर्भ रहने पर मेरा पेट बढ़ेगा। मैं अस्वस्थ्य हो जाऊँगी। मेरी जैसी कोमल सुकुमार स्त्री से एक वर्ष तक नियम पालन नहीं होगा। उसने उस फल को नहीं खाया, अपने पति से असत्य कह दिया कि मैंने फल खा लिया है। 
पत्या पृष्टं फलं भुक्तं चेति तयेरितं। ५० 

धुंधली को पुत्र (फल) प्राप्त करने की इच्छा तो है किंतु बिना दुःख झेले। मनुष्य पुण्य करना नहीं, फल भोगना चाहता है। शास्त्र न जानने के कारण धुंधली ने अनर्थ किया।  आत्मा पर बुद्धि का वर्चस्व आ जाता है तो सर्वनाश हो जाता है। पत्नी यदि परमात्मा की ओर चले तो कल्याण होता है। 
पत्नीं मनोरमां देहि मनोवृत्तानुसारिणीमं। (दुर्गा सप्तशती)

सरस्वती की कृपा होने पर गृहस्थ को अच्छी पत्नी मिलती है। संतों पर सरस्वती की कृपा होने पर विद्वान बनते हैं। भारतीय पत्नी को पति में ही नारायण के दर्शन होते हैं।  पति की सेवा नारायण सेवा ही है। प्रसंग में आगे धुंधकारी कौन है (दार्शनिक भाव), आत्मदेव का चरित्र (दार्शनिक भाव) जोड़ते हुए अंत में धुंधकारी के चरित्र  से शिक्षा वर्णित है। 

विनोद जी ने पौराणिक प्रसंगों को समसामयिक परिस्थितियों और परिवेश से जोड़ते हुए व्यावहारिक उपयोगिता बनाये रखने में सफलता पाई है। विनोद जी की भाषा शैली प्रसंगों के कथ्य के अनुरूप है। वे न तो विद्वता प्रदर्शन के लिए क्लिष्ट शब्दों का अनावश्यक प्रयोग करते हैं, न ही सरलता-सहजता के नाम पर देशज शब्दों का उपयोग करते हैं। खड़ी हिंदी में अनेक भाषाओँ-बोलिओं के शब्द सम्मिलित हैं। विनोद जी का भाषा पर पूर्ण अधिकार है। ग्रंथ की विशेषता प्रसंगों को अनावश्यक विस्तार से बचते हुए, सार-सार को इस तरह प्रस्तुत  पाठक के मन में कुछ और जानने की प्यास बानी रहे। ग्रंथ का मूल्य अंतर्वस्तु की प्रामाणिकता, कागज की गुणवत्ता, रेशमी वस्त्र की बंधाई तथा पृष्ठ संख्या को देखते हुए पूरी तरह न्यायोचित है। यह नयनाभिराम जन्मोत्सवों, विवाहोत्सवों आदि प्रसंगों पर उपहार के रूप में देने के लिए सर्वथा उपयुक्त है। हर सनातनधर्मी के गृह मंदिर में इस ग्रंथ को होना ही चाहिए। डॉ. विनोद शास्त्री जी इस महनीय कृति के प्रणयन हेतु साधुवाद के पात्र हैं।
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