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गुरुवार, 3 फ़रवरी 2022

सॉनेट, लघुकथा, मुक्तिका, दोहा, लेख, नर्मदा, उल्लाला,

सॉनेट
सुतवधु 
*
सुतवधु आई, पर्व मन रहा।
गूँज रही है शहनाई भी।
ऋतु बसंत मनहर आई सी।। 
खुशियों का वातास तन रहा।। 

ऊषा प्रमुदित कर अगवानी।
रश्मिरथी करता है स्वागत। 
नज़र उतारे विनत अनागत।।  
शुभद सुखद हों मातु भवानी।।

जाग्रत धूम्रित श्वास वेदिका। 
गुंजित दस दिश ऋचा गीतिका।
परचम ऊँचा रहे प्रीति का।।
 
वरद रहें नटवर अभ्यंकर।
रहे सुवासित नित मन्वन्तर।
सलिल साधना हो हरी सुखकर।।
३-२-२०२२ 
***
लघुकथा : कल से कल
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
आदि मानव ने प्रकृति (नदियों, झरनों, हवा, भूकंप आदि), जंतुओं, पंछियों, पशुओं आदि के साथ ध्वनि का उच्चार तथा प्रयोग सीखकर उसे अपनी स्मृति में रखने और उसे किसी विशिष्ट अर्थ से संयुक्त कर अपने साथियों और संतति को सिखाने में जैसे-जैसे दक्षता प्राप्त की, वैसे-वैसे वह अन्य प्राणियों की तुलना में अधिकाधिक विकसित होता गया। अपने अनुभवों को चित्रांकित कर, सुरक्षित रखने की विधि विकसित करने के बाद भी वह अपने सब अनुभव अगली पीढ़ी को नहीं दे पा रहा था। अत:, उसने ध्वनि-समुच्चय को अर्थ के साथ जोड़कर शब्द, शब्द समुच्चय से वाक्य और वाक्य को सुरक्षित रखने के लिए लिपि का आविष्कार किया और अन्य जीवों से अधिक उन्नत हो गया। अपनी शारीरिक कमजोरी को बौद्धिक शक्ति से आवृत्त कर मनुष्य ने शेष सभी जीवों पर जय प्राप्त कर ली। अपने जीवनानुभवों और अनुभूतियों को अन्य जनों से बाँटने की चाह में मनुष्य ने भाषा (वाक् + लिपि), भाषा में गद्य-पद्य की शैलियाँ विकसित कीं। गद्य में वर्णनात्मकता और पद्य में चारुत्व के समावेशन ने मनुष्य को दोनों शैलियों में विविध विधाओं के विकास की और प्रवृत्त किया। लघुकथा गद्य के अंतर्गत विकसित ऐसी ही एक विधा है। इन विधाओं का विकास विश्व के विविध भागों में रह रहे मानव-समूहों में होता रहा जिसका कोई तुलनात्मक विवरण उपलब्ध नहीं है। मानव समूहों के एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाते समय ये विधाएँ भी स्थानांतरित व विकसित होती रहीं।
आधुनिक लघुकथा की पृष्ठभूमि
आधुनिक हिंदी ने उद्भव काल में पारंपरिक संस्कृत, लोक भाषाओँ और अन्य भारतीय भाषाओँ के साहित्य की उर्वर विरासत ग्रहण कर विकास के पथ पर कदम रखा। गुजराती, बांग्ला और मराठी भाषाओँ का क्षेत्र हिंदी भाषी क्षेत्रों के समीप था। विद्वानों और जन सामान्य के सहज आवागमन ने भाषिक आदान-प्रदान को सुदृढ़ किया। मुग़ल आक्रांताओं की अरबी-फ़ारसी और भारतीय मजदूर-किसानों की भाषा के मिलन से लश्करी का जन्म सैन्य छावनियों में हुआ जो लश्करी, रेख्ता और उर्दू के रूप में विकसित हुई। राजघरानों, जमींदारों तथा समृद्ध जनों में अंग्रेजी शिक्षा तथा विदेश जाकर उपाधियाँ ग्रहण करने पर अंग्रेजी भाषा के प्रति आकर्षण बढ़ा। शासन की भाषा अंग्रेजी होने से उसे श्रेष्ठ माना जाने लगा। अंग्रेजी शिक्षा प्रणाली ने भारतीयों के मन में अपने विरासत के प्रति हीनता का भाव सुनियोजित तरीके से पैदा किया गया। स्वतंत्रता के संघर्ष काल में साम्यवाद परिवर्तन की चाहत पाले युवा वर्ग को आकर्षित कर सका। स्वतंत्रता के लिए सशस्त्र तथा अहिंसक दोनों तरीकों से प्रयास किये जाते रहे। नेताजी सुभाष चंद्र बोस के आकस्मिक रूप से लापता होने पर स्वन्त्रता प्राप्ति का पूर्ण श्रेय गाँधी जी के नेतृत्व में चले सत्याग्रह को मिला। फलत:, कोंग्रेस सत्तारूढ़ हुई। श्री नेहरू के व्यक्तित्व में अंग्रेजी राजतंत्र और साम्यवादी व्यवस्था के प्रति विकट सम्मोहन ने स्वातंत्र्योत्तर काल में इन दोनों तत्वों को सत्ता और साहित्य में सहभागी बना दिया जबकि भारतीय सनातन परंपरा में विश्वास करने वाले तत्व पारस्परिक फूट के कारण बलिपंथी होते हुए भी पिछड़ गए। आधुनिक हिंदी को उद्भव के साथ ही संस्कृतनिष्ठ तथा बोलचाल की सहज दो शैलियाँ मिलीं। लघुकथा को भी इन दोनों शैलियों के माध्यम से ही आगे बढ़ना पड़ा।
लघुकथा की चुनौतियाँ
स्वतंत्रता के पश्चात् शिक्षा संस्थानों और साहित्य में अपना प्रभुत्व स्थापित कर साम्यवादी रचनाकार सृजन और समीक्षा के मानकों को अपने विचारधारा के अनुरूप ढलने में कुछ काल के लिए सफल हो गए। उन्होंने लघु कथा, व्यंग्य लेख, नवगीत, चित्रांकन, फिल्म निर्माण आदि क्षेत्रों में सामाजिक वर्गीकरण, विभाजन, शोषण, टकराव, वैषम्य, पीड़ा, दर्द, दुःख और पतन को केंद्र में रखकर रचनाकर्म किया। संभवत: लक्ष्य सामाजिक टकराव को बढ़ाकर सत्ता पाना था किंतु उपलब्धि शिक्षा और साहित्य में विचारधारा के अनुरूप मानक निर्धारित कर, साहित्य प्रकाशित करने, पुरस्कृत होने तक सीमित रह गई। भारतीय जन मानस चिरकाल से सात्विक, आस्थावान, अहिंसक, सहिष्णु, उत्सवधर्मी तथा रचनात्मक प्रवृत्तियुक्त है। पराभव काल में अशिक्षा, छुआछूत, सती प्रथा, पर्दा प्रथा और जन्मना वर्ण विभाजन जैसी बुराइयाँ पनपीं किन्तु स्वतंत्रता की चाह ने एकता बनाए रखी। स्वाधीनता के पश्चात् सर्वोदय और नक्सलवाद जैसे समांतरी आंदोलल चले। उनके अनुरूप साहित्य की रचना हुई। लघुकथा को आरंभ में उपेक्षा और अवमानना झेलनी पड़ी। तथाकथित प्रगतिशीलों ने भारतीय वांग्मय की सनातन विरासत और परंपरा को हीन, पिछड़ा, अवैज्ञानिक और अनुपयुक्त कहकर अंग्रेजी साहित्य की दुहाई देते हुए, उसकी आड़ में टकराव और बिखराव केंद्रित जीवनमूल्यों को विविध विधाओं का मानक बता दिया। फलत:, रचनाकर्म का उद्देश्य समाज में व्याप्त शोषण, टकराव, बिखराव, संघर्ष, टूटन, फुट, विसंगति, विडंबना, असंतोष, विक्षोभ, कुंठा, विद्रोह आदि का शब्दांकन मात्र हो गया। उन्होंने देश में हर क्षेत्र में हुई उल्लेखनीय प्रगति, सद्भाव, एकता, साहचर्य, सहकारिता, निर्माण, हर्ष, उल्लास, उत्सव आदि की जान-बूझकर अनदेखी और उपेक्षा की। कोढ़ में खाज यह कि इस वैचारिक पृष्ठभूमि के अनेक जन उच्च प्रशासनिक पदों पर जा बैठे और उन्होंने 'अपने लोगों' को न केवल महिमामण्डित किया अपितु भिन्न विचारधारा के साहित्यकारों का दमन और उपेक्षा भी की।
लघुकथा और पहचान का संकट कोई उपयोगी बात बार-बार कही जाने पर, वक्ता उसे अधिकाधिक रोचक बनाने के साथ देश-काल-परिस्थिति अनुसार कुछ जोड़ता-घटाता रहा। इस तरह कहने की कला का जन्म और विकास हुआ जिसे कहानी कहा गया। कहानी को गागर में सागर की तरह कम शब्दों में अधिक सार कहने को 'लघुकथा' संज्ञा प्राप्त हुई। हिंदी की आधुनिक लघुकथा, छोटी कहानी (शार्ट स्टोरी) नहीं है। उपन्यास, उपन्यासिका (आख्यायिका), कहानी, छोटी कहानी और लघुकथा में मुख्य अंतर उनके कथ्य में समाहित घटनाओं की संख्या और उन घटनाओं में अन्तर्निहित घटनाओं का होता है। उपन्यास समूचे जीवन, अनेक घटनाओं तथा अनेक पात्रों का समुच्चय होता है। उपन्यासिका अपेक्षाकृत कम कालावधि, पात्रों व घटनाओं को समेटती है। कहानी में कुछ घटनाएँ, जीवन का कुछ भाग, पात्रों का चरित्र-चित्रण आदि होता है। छोटी कहानी अपेक्षाकृत कम समय, कम घटनाओं, कम पात्रों से बनती है। लघुकथा क्षण-विशेष में उपजे भाव, घटना या विचार के कथ्‍य-बीज की संक्षिप्त फलक पर शब्दों की प्रभावपूर्ण अभिव्यक्ति है। अंग्रेजी साहित्य में गद्य (प्रोज) के अंतर्गत उपन्यास (नावेल), निबन्ध (एस्से), कहानी (स्टोरी), व्यंग्य (सैटायर), लघुकथा (शार्ट स्टोरी), गल्प (फिक्शन), संस्मरण (मेमायर्स), आत्मकथा (ऑटोबायग्राफी) आदि प्रमुख हैं। अंग्रेजी की कहानी (स्टोरी) लघु उपन्यास की तरह तथा शार्ट स्टोरी सामान्यत:६-७ पृष्ठों तक की होती है। हिंदी लघु कथा सामान्यत: एक घटना पर केंद्रित, कुछ वाक्यों से लेकर एक-डेढ़ पृष्ठ तक होती है। स्पष्ट है कि शार्ट स्टोरी और लघुकथा सर्वथा भिन्न विधाएँ हैं। 'शॉर्ट स्टोरी' छोटी कहानी हो सकती है 'लघुकथा' नहीं। हिंदी साहित्य में विधाओं का विभाजन आकारगत नहीं अन्तर्वस्तु या कथावस्तु के आधार पर होता है। उपन्यास सकल जीवन या घटनाक्रम को समाहित करता है, जिसके तत्व कथावस्तु, पात्र, चरित्र-चित्रण, कथोपकथन, वातावरण, भाषा शैली आदि हैं। कहानी जीवन के काल विशेष या घटना विशेष से जुड़े प्रभावों पर केंद्रित होती है, जिसके तत्व कथावस्तु, पात्र, चरित्र-चित्रण, कथोपकथन, उद्देश्य तथा भाषा शैली हैं। लघुकथा किसी क्षण विशेष में घटित प्रसंग और उसके प्रभाव पर केंद्रित होती है। प्रसिद्ध समीक्षक लक्ष्मीनारायण लाल ने लघु कथा और कहानी में तात्विक दृष्टि से कोई अंतर न मानते हुए व्यावहारिक रूप से आकारगत अंतर स्वीकार किया है। उनके अनुसार 'लघुकथा' में भावनाओं का उतना महत्व नहीं है जितना किसी सत्य का, किसी विचार का विशेषकर उसके सारांश का महत्व है।'
'लघु' अर्थात आकार में छोटी, 'कथा' अर्थात जो कही जाए, जिसमें कहने योग्य बात हो, बात ऐसी जो मन से निकले और मन तक पहुँच जाए। 'कहने' का कोई उद्देश्य भी होता ही है। उद्देश्य की विविधता लघुकथा के वर्गीकरण का आधार होती है। बाल कथा, बोध कथा, उपदेश कथा, दृष्टान्त कथा, वार्ता, आख्यायिका, उपाख्यान, पशु कथा, अवतार कथा, संवाद कथा, व्यंग्य कथा, काव्य कथा, गीति कथा, लोक कथा, पर्व कथा आदि की समृद्ध विरासत संस्कृत, भारतीय व विदेशी भाषाओँ के वाचिक और लिखित साहित्य में प्राप्त है। गूढ़ से गूढ़ और जटिल से जटिल प्रसंगों को इनके माध्यम से सरल-सहज बनाकर समझाया गया। पंचतंत्र, हितोपदेश, बेताल कथाएँ, अलीबाबा, सिंदबाद आदि की कहानियाँ मन-रंजन के साथ ज्ञानवर्धन के उद्देश्य को लेकर कही-सुनी और लिखी-पढ़ी गईं। धार्मिक-आध्यात्मिक प्रवचनों में गूढ़ सत्य को कम शब्दों में सरल बनाकर प्रस्तुत करने की परिपाटी सदियों तक परिपुष्ट हुई। दुर्भाग्य से दुर्दांत विदेशी हमलावरों ने विजय पाकर भारतीय साहित्य और सांस्कृतिक संस्थाओं का विनाश लगातार लंबे समय तक किया। इस दौर में कथा साहित्य धार्मिक पूजा-पर्वों में कहा-सुना जाकर जीवित तो रहा पर उसका उद्देश्य भयभीत और संकटग्रस्त जन-मन में शुभत्व के प्रति आस्था बनाये रखकर, जिजीविषा को जिलाए रखना था। बहुधा घर के बड़े-बुजुर्ग इन कथाओं को कहते, उनमें किसी स्त्री-पुरुष के जीवन में आए संकटों-कष्टों के कारण शक्तियों की शरण में जाने, उपाय पूछने और अपने तदनुसार आचरण में सुधार करने पर दैवीय शक्तियों की कृपा से संकट पर विजयी होने का संदेश होता था। ऐसी कथाएँ शोषित-पीड़ित ही नहीं सामान्य या सम्पन्न मनुष्य में भी अपने आचरण में सुधार, सद्गुणों व पराक्रम में वृद्धि, एकता, सुमति या खेती-सड़क-वृक्ष या रास्तों की स्वच्छता, दीन-हीन की मदद, परोपकार, स्वाध्याय आदि की प्रेरणा का स्रोत बनता था। ये लघ्वाकारी कथाएँ महिलाओं या पुरुषों द्वारा अल्प समय में कह-सुन ली जाती थीं, बच्चे उन्हें सुनते और इस तरह एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक जीवन मूल्य पहुँचते रहते। देश, काल, परिस्थिति, श्रोता-वक़्ता, उद्देश्य आदि के अनुसार कथावस्तु में बदलाव होता रहता और देश के विविध भागों में एक ही कथा के विविध रूप कहे-सुने जाते किन्तु सबका उद्देश्य एक ही रहता। आहत मन को सांत्वना देना, असंतोष का शमन करना, निराश मन में आशा का संचार, भटकों को राह दिखाना, समाज सुधार या राष्ट्रीय स्वाधीनता के कार्यक्रमों हेतु जन-मन को तैयार करना कथावाचक और उपदेशक धर्म की आड़ में करते रहे। फलत:, राजनैतिक पराभव काल में भी भारतीय जन मानस अपना मनोबल, मानवीय मूल्यों में आस्था और सत्य की विजय का विश्वास बनाए रह सका।
लघुकथा क्या है?, अंधों का हाथी ?
सन १९८४ में सारिका के लघु कथा विशेषांक में राजेंद्र यादव ने 'लघुकथा और चुटकुला में साम्य' इंगित करते हुए लघुकथा लेखन को कठिन बताया। मनोहरश्याम जोशी ने' लघु कथाओं को चुटकुलों और गद्य के बीच' सर पटकता बताया। मुद्राराक्षस के अनुसार 'लघु कथा ने साहित्य में कोई बड़ा स्थान नहीं बनाया'। शानी ने भी 'लघुकथाओं को चुटकुलों की तरह' बताया। इसके विपरीत पद्म श्री लक्ष्मीनारायण लाल ने लघुकथा को लेखक का 'अच्छा अस्त्र' कहा है।
सरला अग्रवाल के शब्दों में 'लघुकथा में किसी अनुभव अथवा घटना की टीस और कचोट को बहुत ही गहनता के साथ उद्घाटित किया जाता है।' प्रश्न उठता है कि टीस के स्थान पर रचना हर्ष और ख़ुशी को उद्घाटित करे तो वह लघुकथा क्यों न होगी? गीत सभी रसों की अभिव्यक्ति कर सकता है तो लघुकथा पर बन्धन क्यों? डॉ. प्रमथनाथ मिश्र के मत में लघुकथा 'सामाजिक बुराई के काले-गहरे बादलों के बीच दबी विद्युल्लता की भाँति है जो समय-बेसमय छटककर पाठकों के मस्तिष्क पर एक तीव्र प्रभाव छोड़कर उनके सुषुप्त अंत:करण को हिला देती है।' सामाजिक अच्छाई के सफेद-उजले मेघों के मध्य दामिनी क्यों नहीं हो सकती लघुकथा? रमाकांत श्रीवास्तव लिखते हैं 'लघुकथा का नि:सरण ठीक वैसे ही हुआ है जैसे कविता का। अत:, वह यथार्थपरक कविता के अधिक निकट है, विशेषकर मुक्त छंद कविता के।' मुक्तछंद कविता से हिंदी पाठक के मोहभंग काल में उसी पथ पर ले जाकर लघुकथा का अहित करना ठीक होगा या उसे लोकमंगल भाव से संयुक्त रखकर नवगीत की तरह नवजीवन देना उपयुक्त होगा? कृष्णानन्द 'कृष्ण' लघुकथा लेखक के लिए 'वैचारिक पक्षधरता' अपरिहार्य बताते हैं। एक लघुकथा लेखक के लिए किसी विचार विशेष के प्रति प्रतिबद्ध होना जरूरी क्यों हो? कथ्य और लक्ष्य की आवश्यकतानुसार विविध लघुकथाओं में विविध विचारों की अभिव्यक्ति प्रतिबंधित करना सर्वमान्य कैसे हो सकता है? एक रचनाकार को किसी राजनैतिक विचारधारा का बन्दी क्यों होना चाहिए? रचनाकार का लक्ष्य लोक-मंगल हो या राजनैतिक स्वार्थपूर्ति?
'हिंदी लघुकथा को लेखन की पुरातन दृष्टान्त, किस्सा या गल्प शैली में अवस्थित रहना है या कथा लेखन की वर्तमान शैली को अपना लेना है- तय हो जाना चाहिए' बलराम अग्रवाल के इस मत के संदर्भ में कहना होगा कि साहित्य की अन्य विधाओं की तरह लघुकथा के स्वरूप में अंतिम निर्णय करने का अधिकार पाठक और समय के अलावा किसी का नहीं हो सकता। तय करनेवालों ने तो गीत के मरण की घोषणा कर दी थी किंतु वह पुनर्जीवित हो गया। समाज किसी एक विचार या वाद के लोगों से नहीं बनता। उसमें विविध विचारों और रुचियों के लोग होते हैं जिनकी आवश्यकता और परिस्थितियाँ बदलती रहती हैं, तदनुसार साहित्य की हर विधा में रचनाओं का कथ्य, शल्प और शैली बदलते हैं। लघुकथा इसका अपवाद कैसे हो सकती है? लघुकथा को देश, काल और परिस्थिति सापेक्ष्य होने के लिए विविधता को ग्रहण करना ही होगा। पुरातन और अद्यतन में समन्वय से ही सनातन प्रवाह और परंपरा का विकास होता है। अवध नारायण मुद्गल उपन्यास को नदी, कहानी को नहर और लघुकथा को उपनहर बताते हुए कहते हैं कि जिस बंजर जमीन को नहरों से नहीं जोड़ा जा सकता उसे उपनहरों से जोड़कर उपजाऊ बनाया जा सकता है। यदि उद्देश्य अनछुई अनुपजाऊ भूमि को उर्वर बनाना है तो यह नहीं देखा जाता कि नहर बनाने के लिए सामग्री कहाँ से लाई जा रही है और मजदूर किस गाँव, धर्म राजनैतिक विचार का है? लघुकथा लेखन का उद्देश्य उपन्यास और कहानी से दूर पाठक और प्रसंगों तक पहुँचना ही है तो इससे क्या अंतर पड़ता है कि वह पहुँच बोध, उपदेश, व्यंग्य, संवाद किस माध्यम से की गयी? उद्देश्य पड़ती जमीन जोतना है या हलधर की जाति-पाँति देखना?
लघुकथा के रूप-निर्धारण की कोशिशें
डॉ. सतीश दुबे मिथक, व्यंग्य या संवेदना के स्तरों पर लघुकथाएँ लिखी जाने का अर्थ हर शैली में अभिव्यक्त होने की छटपटाहट मानते हैं। वे लघुकथा के तयशुदा स्वरूप में ऐसी शैलियों के आने से कोई खतरा नहीं देखते। यह तयशुदा स्वरूप साध्य है या साधन? यह किसने, कब और किस अधिकार से तय किया? यह पत्थर की लकीर कैसे हो सकता जिसे बदला न जा सके? यह स्वरूप वही है जिसकी चर्चा ऊपर की गयी है। देश, काल, परिस्थिति के अनुरूप और पाठक की रुचि के अनुसार लघुकथा का जो स्वरूप उपयुक्त होगा वह जीवित रहेगा, शेष भुला दिया जाएगा। लघुकथा के विकास के लिए बेहतर होगा कि हर लघुकथाकार को अपने कथ्य के उपयुक्त शैली और शिल्प का संधान करने दिया जाए। उक्त मानक थोपने के प्रयास और मानकों को तोड़नेवाले लघुकथाकारों पर सुनियोजित आक्रमण तथा उनके साहित्य की अनदेखी करने की विफल कोशिशें यही दर्शाती हैं कि पारंपरिक शिल्प और शैली से खतरा अनुभव हो रहा है और इसलिए विधान के रक्षाकवच में अनुपयुक्त और आयातित मानक थोपे जाते रहे हैं। यह उपयुक्त समय है जब अभिव्यक्ति को कुंठित न कर लघुकथाकार को सृजन की स्वतंत्रता मिले।
सृजन की स्वतंत्रता और सार्थकता
पारंपरिक स्वरूप की लघुकथाओं को जन स्वीकृति का प्रमाण यह है कि समीक्षकों और लघुकथाकारों की समूहबद्धता, रणनीति और नकारने के बाद भी बोध कथाओं, दृष्टान्त कथाओं, उपदेश कथाओं, संवाद कथाओं आदि के पाठक श्रोता घटे नहीं हैं। सच तो यह है कि पाठक और श्रोता कथ्य को पढ़ता और सराहता या नकारता है, उसे इससे कोई अंतर नहीं पड़ता कि समीक्षक उस रचना को किस खाँचे में वर्गीकृत करता है। समय की माँग है कि लघुकथा को स्वतंत्रता से साँस लेने दी जाए। स्व. नामवर सिंह भारतीय लघुकथाओं को पाश्चात्य लघुकथाओं का पिछलग्गू नहीं मानते तथा हिंदी लघुकथाओं को निजत्व और विराट भावबोध से संपन्न मानते हैं। हिंदी भाषा जिस जमीन पर विकसित हुई उसकी लघुकथा उस जमीन में आदि काल से कही-सुनी जाती लघुकथा की अस्पर्श्य कैसे मान सकती है? सिद्धेश्वर लघुकथा को सर्वाधिक प्रेरक, संप्रेषणीय, संवेदनशील और जीवंत विधा मानते हुए उसे पाठ्यक्रम में स्थान दिए जाने की पैरवी करते हैं जिससे हर लघुकथाकार सहमत होगा किन्तु जन-जीवन में कही-सुनी जा रही देशज मूल्यों, भाषा और शिल्प की लघुकथाओं की वर्जना कर केवल विचारधारा विशेष को प्रोत्साहित करती लघुकथाओं का चयन पाठ्यक्रम में करने की परंपरा शासक दल को अपनी विचारधारा थोपने की ओर प्रवृत्त करेगा। इसलिए लघुकथा के रूढ़ और संकीर्ण मानकों को परिवर्तित कर देश की सभ्यता-संस्कृति और जन मानस के आस्था-उल्लास-नैतिक मूल्यों के अनुरूप रची तथा राष्ट्रीयता को बढ़ावा ही लघुकथा का मानक होना उचित है। तारिक असलम 'तनवीर' लिजलिजी और दोहरी मानसिकता से ग्रस्त समीक्षकों की परवाह करने के बजाय 'कलम की ताकत' पर ध्यान देने का मश्वरा देते हैं।
डॉ. कमलकिशोर गोयनका, कमलेश भट्ट 'कमल' को दिए गए साक्षात्कार में लघुकथा को लेखकविहीन विधा कहते हैं। कोई बच्चा 'माँ विहीन' कैसे हो सकता है? हर बच्चे का स्वतंत्र अस्तित्व और विकास होने पर भी उसमें जीन्स माता-पिता के ही होते हैं। इसी तरह लघुकथा भी लघुकथाकार तथा उसके परिवेश से अलग होते हुए भी उसकी शैली और विचारों का प्रतिनिधित्व करती है। लघुकथाकार रचना में सतही तौर पर न दिखते हुई भी पंक्ति-पंक्ति में उसी तरह उपस्थित होता है जैसे रोटी में नमी के रूप में पानी या दाल में नमक। अत:, स्पष्ट है कि हिंदी की आधुनिक लघुकथा को अपनी सनातन पृष्ठभूमि तथा आधुनिक हिंदी के विकास काल की प्रवृत्तियों में समन्वय और सामंजस्य स्थापित करते हुए भविष्य के लिए उपयुक्त साहित्य सृजन के लिए सजग होना होगा। लघुकथा एक स्वतंत्र विधा के रूप में अपने कथ्य और लक्ष्य पाठक वर्ग को केंद्र में रखकर लिखी जाय और व्यवस्थित अध्ययन की दृष्टि से उसे वर्गीकृत किया जाए किंतु किसी विचारधारा विशेष की लघुकथा को स्वीकारने और शेष को नकारने की दूषित प्रथा बंद करने में ही लघुकथा और हिंदी की भलाई है। लघुकथा को उद्यान के विविध पुष्पों के रंग और गन्ध की तरह विविधवर्णी होने होगा तभी वह जी सकेगी और जीवन को दिशा दे सकेगी।
लघुकथा के तत्व
कुँवर प्रेमिल कथानक, प्रगटीकरण तथा समापन को लघुकथा के ३ तत्व मानते हैं। वे लघुकथा को किसी बंधन, सीमा या दायरे में बाँधने के विरोधी हैं। जीवितराम सतपाल के अनुसार लघुकथा में अमिधा, लक्षणा व व्यंजना शब्द की तीनों शक्तियों का उपयोग किया जा सकता है। वे लघुकथा को बरसात नहीं फुहार, ठहाका नहीं मुस्कान कहते हैं। गुरुनाम सिंह रीहल कलेवर और कथनीयता को लघुकथा के २ तत्व कहते हैं। मोहम्मद मोइनुद्दीन 'अतहर' के अनुसार भाषा, कथ्य, शिल्प, संदर्भगत संवेदना से परिपूर्ण २५० से ५०० शब्दों का समुच्चय लघुकथा है। डॉ. शमीम शर्मा के अनुसार लघुकथा में 'विस्तार के लिए कोई स्थान नहीं होता। 'थोड़े में अधिक' कहने की प्रवृत्ति प्रबल है। सांकेतिकता एवं ध्वन्यात्मकता इसके प्रमुख तत्व हैं। अनेक मन: स्थितियों में से एक की ही सक्रियता सघनता से संप्रेषित करने का लक्ष्य रहता है।'
बलराम अग्रवाल के अनुसार कथानक और शैली लघुकथा के अवयव हैं, तत्व नहीं। वे वस्तु को आत्मा, कथानक को हृदय, शिल्प को शरीर और शैली को आचरण कहते हैं। योगराज प्रभाकर लघु आकार और कथा तत्व को लघुकथा के तत्व बताते हैं। उनके अनुसार किसी बड़े घटनाक्रम में से क्षण विशेष को प्रकाशित करना, लघुकथा लिखना है। कांता रॉय लघुकथा के १५ तत्व बताती है जो संभवत: योगराज प्रभाकर द्वारा सुझाई १५ बातों से नि:सृत हैं- कथानक, शिल्प, पंच, कथ्य, भूमिका न हो, चिंतन हेतु उद्वेलन, विसंगति पूर्ण क्षण विशेष, कालखण्ड दोष से मुक्त, बोध-नीति-शिक्षा न हो, इकहरापन, संदेश, चुटकुला न हो, शैली तथा सामाजिक महत्व। बलराम अग्रवाल कथानक को तत्व नहीं मानते, कांता रॉय मानती हैं। डॉ. हरिमोहन के अनुसार लघुकथा विसंगतियों से जन्मी तीखे तेवर वाली व्यंग्य परक विधा है तो डॉ. पुष्पा बंसल के अनुसार 'घटना की प्रस्तुति मात्र'। अशोक लव 'संक्षिप्तता में व्यापकता' को लघुकथा का वैशिष्ट्य कहते हैं तो विक्रम सोनी 'मूल्य स्थापन' को। कहा जाता है कि दो अर्थशास्त्रियों के तीन मत होते हैं। यही स्थिति लघुकथा और लघुकथाकारों की है 'जितने मुँह उतनी बातें'।नया लघुकथाकार और पाठक क्या करे?
लघुकथा के तत्व
मेरे अनुसार उक्त तथा अन्य सामग्री के अध्ययन-मनन से स्पष्ट है कि लघुकथा के ३ तत्व, १. क्षणिक घटना, २. संक्षिप्त कथन तथा ३. तीक्ष्ण प्रभाव हैं। इनमें से कोई एक भी न हो या कमजोर हो तो लघुकथा प्रभावहीन होगी जो न होने के समान है। घटना न हो तो लघुकथा का जन्म ही न होगा, घटना हो पर उस पर कुछ कहा न जाए तो भी लघुकथा नहीं हो सकती, घटना घटित हो, कुछ लिखा भी जाए पर उसका कोई प्रभाव न हो तो लिखना - न लिखना बराबर हो जायेगा। घटना लंबी, जटिल, बहुआयामी, अनेक पात्रों से जुडी हो तो सबके साथ न्याय करने पर लघुकथा कहानी का रूप ले लेगी। इस ३ तत्वों का प्रयोग कर एक अच्छी लघुकथा की रचना हेतु कुछ लक्षणों का होना आवश्यक है। योगराज प्रभाकर तथा कांता रॉय इन लक्षणों को तत्व कहते हैं। वस्तुत:, लक्षण उक्त ३ तत्वों के अंग रूप में उनमें समाहित होते हैं।
१. क्षणिक घटना - दैनन्दिन जीवन में सुबह से शाम तक अनेक प्रसंग व विचार उपजते हैं। सब पर लघुकथा नहीं लिखी जा सकती। घटना-क्रम, दीर्घकालिक घटनाएँ, जटिल घटनाएँ, एक-दूसरे में गुँथी घटनाएँ लघुकथा लेखन की दृष्टि से अनुपयुक्त हैं। बादल में कौंधती बिजली जिस तरह एक पल में चमत्कृत या आतंकित कर जाती है, उसी तरह लघुकथा का प्रभाव होता है। क्षणिक घटना पर बिना सोचे-विचार त्वरित प्रतिक्रिया की तरह लघुकथा को स्वाभाविक होना चाहिए। लघुकथा सद्यस्नाता की तरह ताजगी की अनुभूति कराती है, ब्यूटी पार्लर से सज्जित सौंदर्य जैसी कृत्रिमता की नहीं। सावधानी हटी, दुर्घटना घटी की तर्ज़ पर कहा जा सकता है घटना घटी, लघुकथा हुई। लघुकथा के उपयुक्त कथानक व कथ्य वही हो सकता है जो क्षणिक घटना के रूप में सामने आया हो।
२. संक्षिप्त कथन - किसी क्षण विशेष अथवा अल्प समयावधि में घटित घटना-प्रसंग के भी कई पहलू हो सकते हैं। लघुकथा घटना के सामाजिक कारणों, मानसिक उद्वेगों, राजनैतिक परिणामों या आर्थिक संभावनाओं का विश्लेषण करे तो वह उपन्यास का रूप ले लेगी। उपन्यास और कहानी से इतर लघुकथा सूक्ष्मतम और संक्षिप्तम आकार का चयन करती है। वह गुलाबजल नहीं इत्र की तरह होती है। इसीलिए लघुकथा में पात्रों के चरित्र-चित्रण नहीं होता। 'कम में अधिक' कहने के लिए संवाद, आत्मालाप, वर्णन, उद्धरण, मिथक, पूर्व कथा, चरित्र आदि जो भी सहायक हो उसका उपयोग किया जाना चाहिए। उद्देश्य कम से कम कलेवर में कथ्य को प्रभावी रूप से सामने लाना है। शिल्प, मारक वाक्य (पंच) हो-न हो अथवा कहाँ हो, संवाद हों न हों या कितने किसके द्वारा हों, भूमिका न हो, इकहरापन, सन्देश, चुटकुला न हो तथा भाषा-शैली आदि संक्षिप्त कथन के लक्षण हैं। इन सबकी सम्मिलित उपस्थिति अपरिहार्य नहीं है। कुछ हो भी सकते हैं, कुछ नहीं भी हो सकते हैं।
३.तीक्ष्ण प्रभाव- लघुकथा लेखन का उद्देश्य लक्ष्य पर प्रभाव छोड़ना है। एक लघुकथा सुख, दुःख, हर्ष, शोक, हास्य, चिंता, विरोध आदि विविध मनोभावों में से किसी एक की अभिव्यक्त कर अधिक प्रभावी हो सकती है। एकाधिक मनोभावों को सामने लाने से लघुकथा का प्रभाव कम हो सकता है। कुशल लघुकथाकार घटना के एक पक्ष पर सारगर्भित टिप्पणी की तरह एक मनोभाव को इस तरह उद्घाटित करता है कि पाठक / श्रोता आह य वाह कह उठे। चिंतन हेतु उद्वेलन, विसंगति पूर्ण क्षण विशेष, कालखण्ड दोष से मुक्ति आदि तीक्ष्ण प्रभाव हेतु सहायक लक्षण हैं। तीक्ष्ण प्रभाव सोद्देश्य हो निरुद्देश्य? यह विचारणीय है। सामान्यत: बुद्धिजीवी मनुष्य कोई काम निरुद्देश्य नहीं करता। लघुकथा लेखन का उपक्रम सोद्देश्य होता है। व्यक्त करने हेतु कुछ न हो तो कौन लिखेगा लघुकथा? व्यक्त किये गए से कोई पाठक शिक्षा / संदेश ग्रहण करेगा या नहीं? यह सोचना लघुकथाकार काम नहीं है, न इस आधार पर लघुकथा का मूल्यांकन किया जाना उपयुक्त है।
लघुकथा का उद्देश्य
लघुकथा का उद्देश्य घटित या विचारित कथ्य को प्रभावी या मारक रूप में पाठक-श्रोता तक पहुँचाना है। लघुकथाकार इस हेतु उपयुक्त शब्दावली, भाषा शैली, शिल्प (संवाद या वर्णन) का चयन करे किन्तु उसमें अपनी और से यथासंभव कुछ न कहे। लघुकथा से शिक्षा देना या न देना, बोध होना या न होना। किसी समस्या का समाधान होना या न होना जैसे बिंदुओं से लघुकथाकार को प्रेरित नहीं होना चाहिए किन्तु बचना भी नहीं चाहिए। निर्लिप्त भाव से कथ्य प्रस्तुति ही लघुकथाकार का साध्य है। एक ही लघुकथा से कोई पाठक कुछ ग्रहण कर सकता है तो दूसरा नहीं भी ग्रहण कर सकता है। लघुकथा निष्पक्षता, निस्संगता, तटस्थता तथा लेखकीय वैचारिक ईमानदारी की माँग करती है। कल से आज तक की रचना यात्रा में लघुकथा के कथ्य, शिल्प और विन्यास में जितने परिवर्तन हुए हैं उनसे अधिक परिवर्तन आज से कल की यात्रा में होना निश्चित है। परिवर्तन ही जीवन है हुए लघुकथा जीवित रहेगी यह मेरा विश्वास है।
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सन्दर्भ-
१. सारिका लघुकथा अंक १९८४
२. अविरल मंथन लघुकथा अंक सितंबर २००१, संपादक राजेन्द्र वर्मा
३. प्रतिनिधि लघुकथाएं अंक ५, २०१३, सम्पादक कुंवर प्रेमिल
४. तलाश, गुरुनाम सिंह रीहल
५. पोटकार्ड, जीवितराम सतपाल
६. लघुकथा अभिव्यक्ति अक्टूबर-दिसंबर २००७
३-२-२०२०
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मुक्तिका
*
लिखें हजल
कहें गजल
न जा शहर
उगा फसल
भुला बहर
कहें सजल
पुरा न तज
बना नवल
लिखें न खुद
करें नकल
रहे विमल
बहे सलिल
जमा कदम
नहीं फिसल
३-२-२०२०
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दोहा है रस-खान
दोहा छंद की भावाभिव्यक्ति क्षमता अनुपम है। हर रस को दोहा छंद भली-भाँति अभिव्यक्त करता है। हर दिन एक नए रस को केंद्र में दोहा रखकर दोहा रचने का आनंद अनूठा होगा। मैं आज रात्रि से १५ फरवरी तक रायपुर छतीसगढ़, दिल्ली तथा गुडगाँव यात्र्रा पर रहूँगा। यथावसर आप सबसे कुछ सीखता रहूँगा किंतु सुविधा न होने पर आप अपने दोहे प्रस्तुत करते रहें ताकि लौटकर उनका रसास्वादन कर सकूँ।
श्रृंगार रस
रसराज श्रृंगार रसराज अत्यंत व्यापक है। श्रृंगार शब्द दो शब्दों से मिलकर बना है श्रृंग + आर। 'श्रृंग' का अर्थ है "कामोद्रेक", 'आर' का अर्थ है वृद्धि प्राप्ति। श्रृंगार का अर्थ है कामोद्रेक की प्राप्ति या विधि श्रृंगार रस का स्थाई भाव प्रेम है। पति-पत्नी या प्रेमी-प्रेमिका द्वारा प्रेम की अभिव्यंजना श्रृंगार रस की विषय-वस्तु है। प्राचीन आचार्यों ने स्त्री पुरुष के शुद्ध प्रेम को ही रति कहा है। परकीया प्रिया-चित्रण को रस नहीं रसाभास कहा गया है किंतु 'लिव इन' के इस काल में यह मान्यता अनुपयुक्त प्रतीत होती है। श्रृंगार रस में अश्लीलता का समावेश न होने दें। श्रृंगार रस के २ भेद संयोग और वियोग हैं। प्रेम जीवन के संघर्षों में खेलता है, कष्टों में पलता है, प्रिय के प्रति कल्याण-भाव रखकर खुद कष्ट सहता है। ऐसा प्रेम ही उदात्त श्रृंगार रस का विषय बनता है।
३-३-२०१८ संयोग श्रृंगार:
नायक-नायिका के मिलन, मिलन की कल्पना आदि का शब्द-चित्रण संयोग श्रृंगार का मुख्य विषय है।
उदाहरण:
तुमने छेड़े प्रेम के, ऐसे राग हुजूर।
बजते रहते हैं सदा, तन-मन में संतूर। - अशोक अंजुम, नई सदी के प्रतिनिधि दोहाकार
नयन नयन से मिल झुके, उठे मिले बेचैन।
नयन नयन में बस गए, किंचित मिले न चैन।। - संजीव
४-३-२०१८ वियोग श्रृंगार:
नायक-नायिका में परस्पर प्रेम होने पर भी मिलन संभव नहीं हो तो वियोग श्रृंगार होता है। यह अलगाव स्थाई भी हो सकता है, अस्थायी भी। कभी मिले बिना भी विरह हो सकता है, मिल चुकने के बाद भी हो सकता है। विरह व्यथा दोनों और भी हो सकती है, एक तरफा भी। प्राचीन काव्य शास्त्र ने वियोग के चार भाग किए हैं :-
१. पूर्व राग पहले का आकर्षण
२. मान रूठना
३. प्रवास छोड़कर जाना
४. करुण विप्रलंभ मरने से पूर्व की करुणा।
उदाहरण:
हाथ छुटा तो अश्रु से, भीग गये थे गाल। ‌
गाड़ी चल दी देर तक, हिला एक रूमाल।। - चंद्रसेन "विराट", चुटकी चुटकी चाँदनी
मन करता चुप याद नित, नयन बहाते नीर।
पल-पल विकल गुहरातीं, सिय 'आओ रघुवीर'।। - संजीव
५-३-२०१८ हास्यः
हास्य रस का स्थाई भाव 'हास्य 'है। साहित्य में हास्य रस का निरूपण कठिन होता है,थोड़ी सी असावधानी से हास्य फूहड़ मजाक बनकर रह जाता है । हास्य रस के लिए उक्ति व्यंग्यात्मक होना चाहिए। हास्य और व्यंग्य में अंतर है। दोनों का आलंबन विकृत या अनुचित होता है। हास्य खिलखिलाता है, व्यंग्य चुभकर सोचने पर विवश करता है।
उदाहरण:
अँग्रेजी से प्यार है, हिंदी से परहेज।
ऊपर से हैं इंडियन, भीतर से अँगरेज।। - काका हाथरसी
'ममी-डैड' माँ-बाप को, कहें उठाकर शीश।
बने लँगूरा कूदते, हँसते देख कपीश।। - संजीव
व्यंग्यः
उदाहरण:
अंकित है हर पृष्ठ पर, बाँच सके तो बाँच। ‌
सोलह दूनी आठ है, अब इस युग का साँच।। - जय चक्रवर्ती, संदर्भों की आग
'फ्रीडमता' 'लेडियों' को, मिले दे रहे तर्क।
'कार्य' करें तो शर्म है, गर्व करें यदि 'वर्क'।। - संजीव
७-३-२०१८ करुणः
भवभूति: 'एकोरसः करुण' अर्थात करूण रस एक मात्र रस है। करुण रस के दो भेद स्वनिष्ठ व परनिष्ठ हैं।
उदाहरण:
हाय, भूख की बेबसी, हाय, अभागे पेट। ‌
बचपन चाकर बन गया, धोता है कप-प्लेट।। - डॉ. अनंतराम मिश्र "अनंत", उग आयी फिर दूब
चीर द्रौपदी का खिंचा, विदुर रो रहे मौन।
भीग रहा है अंगरखा, धीर धराए कौन?। - संजीव
८-३-२०१८ रौद्रः
इसका स्थाई भाव क्रोध है विभाव अनुभाव और संचारी भावों के सहयोग से वासना रूप में समाजिक के हृदय में स्थित क्रोध स्थाई भाव आस्वादित होता हुआ रोद्र रस में परिणत हो जाता है ।
उदाहरण:
आगि आँच सहना सुगम, सुगम खडग की धार।
नेह निबाहन एक रस, महा कठिन ब्यवहार।। -कबीर
शिखर कारगिल पर मचल, फड़क रहे भुजपाश। ‌
जान हथेली पर लिये, अरि को करते लाश।। - संजीव
९-३-२०१८ वीरः
स्थाई भाव उत्साह काव्य-वर्णित विभाव, अनुभाव, संचारी भाव के संयोग से रस अवस्था में आस्वाद योग्य बनकर वीर रस कहलाता है । इसकी मुख्य चार प्रवृत्तियाँ हैं।
उदाहरण:
१.दयावीर: जहाँ दुखी-पीड़ित जन की सहायता का भाव हो।
देख सुदामा दीन को, दुखी द्वारकानाथ।
गंगा-यमुना बह रहीं, सिसकें पकड़े हाथ।। -संजीव
२. दानवीर : इसके आलंबन में दान प्राप्त करने की योग्यता होना अनिवार्य है।
उदाहरण:
क्षमा बड़न को चाहिए, छोटन को उत्पात।
का रहीम हरि को घटो, जो भृगु मारी लात।।
राणा थे निरुपाय झट, उठकर भामाशाह।
चरणों में धन रख कहें, नाथ! न भरिए आह।। - संजीव
३. धर्मवीर : इसके स्थाई भाव में धर्म का ज्ञान प्राप्त करना या धर्म-पालन करना प्रमुख है।
उदाहरण:
माया दुःख का मूल है, समझे राजकुमार।
वरण किया संन्यास तज, प्रिया पुत्र घर-द्वार।। - संजीव
4 युद्धवीर : काव्य व लोक में युद्धवीर की प्रतिष्ठा होती है। इसका स्थाई भाव 'शत्रुनाशक उत्साह' है।
उदाहरण:
रणभेरी जब जब बजे, जगे युद्ध संगीत। ‌
कण कण माटी का लिखे, बलिदानों के गीत।। - डॉ. रामसनेहीलाल शर्मा "यायावर", आँसू का अनुवाद
धवल बर्फ हो गया था, वीर-रक्त से लाल।
झुका न भारत जननि का, लेकिन पल भर भाल।। -संजीव
१०-३-२०१८ भयानकः
विभाव, अनुभाव, संचारी भावों के प्रयोग से जब भय उत्पन्न या प्रकट होकर रस में परिणत हो तब भयानक रस होता है। भय केवल मनुष्य में नहीं, समस्त प्राणी जगत में व्याप्त है।
उदाहरण:
उफनाती नदियाँ चलीं, क्रुद्ध खोलकर केश। ‌
वर्षा में धारण किया, रणचंडी का वेश।। - आचार्य भगवत दुबे, शब्दों के संवाद
धांय-धांय गोले चले, टैंक हो गए ध्वस्त।
पाकिस्तानी सूर्य झट, सहम हो गया अस्त।। -संजीव
११-३-२०१८ वीभत्सः
घृणित वस्तुओं को देख, सुन जुगुप्सा नामक स्थाई भाव विभाव, अनुभाव, संचारी भावों के सहयोग से परिपक्व हो वीभत्स रस में परिणत हो जाता है। इसकी विशेषता तीव्रता से प्रभावित करना है। आचार्य विश्वनाथ के अनुसार वीभत्स रस का स्थाई भाव जुगुप्सा है। इसके आलंबन दुर्गंध, मांस-रक्त है, इनमें कीड़े पड़ना उद्दीपन, मोह आवेग व्याधि ,मरण आदि व्यभिचारी भाव है, अनुभाव की कोई सीमा नहीं है। वाचित अनुभाव के रूप में छिँछी की ध्वनि, अपशब्द, निंदा करना आदि, कायिक अनुभावों में नाक-भौं चढ़ाना , थूकना, आँखें बंद करना, कान पर हाथ रखना, ठोकर मारना आदि हैं।
उदाहरण:
हा, पशुओं की लाश को, नोचें कौए गिद्ध। ‌
हा, जनता का खून पी, नेता अफसर सिद्ध।। - संजीव
१२-३-२०१८ अद्भुतः
अद्भुत रस के स्थाई भाव विस्मय में मानव की आदिम वृत्ति खेल-तमाशे या कला-कौशल से उत्पन्न विस्मय उदात्त भाव है। ऐसी शक्तियां और व्यंजना जिसमें चमत्कार प्रधान हो वह अद्भुत रस से संबंधित है। अदभुत रस विस्मयकारी घटनाओं, वस्तुओं, व्यक्तियों तथा उनके चमत्कार कोके क्रिया-कलापों के आलंबन से प्रकट होता है। उनके अद्भुत व्यापार, घटनाएँ, परिस्थितियाँ आदि उद्दीपन बनती हैं। आँखें खुली रह जाना, एकटक देखना प्रसन्नता, रोमांच, कंपन, स्वेद आदि अनुभाव सहज ही प्रकट होते हैं। उत्सुकता, जिज्ञासा, आवेग, भ्रम, हर्ष, मति, गर्व, जड़ता, धैर्य, आशंका, चिंता आदि संचारी भाव धारणकर अद्भुत रस में परिणत हो जाता है।
उदाहरण:
पांडुपुत्र ने उसी क्षण, उस तन में शत बार ।
पृथक-पृथक संपूर्ण जग, देखे विविध प्रकार।। -डॉ. उदयभानु तिवारी "मधुकर", श्री गीता मानस
पल में प्रगटे सामने, पल में होता लुप्त।
अट्टहास करता असुर, लखन पड़े चित सुप्त।। - संजीव
१३-३-२०१८ शांतः
शांत रस की उत्पत्ति तत्वभाव व वैराग्य से होती है। विभाव, अनुभाव व संचारी भावों से संयोग से हृदय में विद्यमान निर्वेद स्थाई भाव स्पष्ट होकर शांत रस में परिणित हो जाता है। आनंदवर्धन ने तृष्णा और सुख को शांत रस का स्थाई भाव कहा है। वैराग्यजनित आध्यात्मिक भाव शांत रस का विषय है संसार की अवस्था मृत्यु-जरा आदि इसके आलंबन हैं। जीवन की अनित्यता का अनुभाव, सत्संग-धार्मिक ग्रंथ पठन-श्रवण आदि उद्दीपन विभाव, और संयम स्वार्थ त्याग सत्संग गृहत्याग स्वाध्याय आत्म चिंतन आदि अनुभाव हैं। शांत रस के संचारी में ग्लानि, घृणा ,हर्ष , स्मृति ,संयोग ,विश्वास, आशा दैन्य आदि की परिगणना की जा सकती है।
उदाहरण:
जिसको यह जग घर लगे, वह ठहरा नादान। ‌
समझे इसे सराय जो, वह है चतुर सुजान।। - स्व. डॉ. श्यामानंद सरस्वती "रौशन", होते ही अंतर्मुखी
कल तक था अनुराग पर, उपजा आज विराग।
चीवर पहने चल दिया, भिक्षुक माया त्याग।। - संजीव
१४-३-२०१८ वात्सल्यः
वात्सल्य रस के प्रतिष्ठा विश्वनाथ ने की। सूर, तुलसी आदि के काव्य में वात्सल्य भाव के सुंदर विवेचन पश्चात इसे रस स्वीकार कर लिया गया। वात्सल्य रस का स्थाई भाव वत्सलता है। बच्चों की तोतली बोली, उनकी किलकारियाँ, लीलाएँ उद्दीपन है। माता-पिता का बच्चों पर बलिहारी जाना, आनंदित होना, हँसना, उन्हें आशीष देना आदि इसके अनुभाव कहे जा सकते हैं। आवेग, तीव्रता, जड़ता, रोमांच, स्वेद आदि संचारी भाव हैं।वात्सल्य रस के दो भेद हैं।
१ संयोग वात्सल्य
उदाहरण:
छौने को दिल से लगा, हिरनी चाटे खाल। ‌
पिला रही पय मनाती, चिरजीवी हो लाल।। - संजीव
२ वियोग वात्सल्य
उदाहरण:
चपल छिपा कह खोज ले, मैया करें प्रतीति।
लाल कंस को मारकर, बना रहा नव रीति।। - संजीव
१५-३-२०१८ भक्तिः
संस्कृत साहित्य में व्यक्ति की सत्ता स्वतंत्र रूप से नहीं है। मध्यकालीन भक्त कवियों की भक्ति भावना देखते हुए इसे स्वतंत्र रस के रूप में व्यंजित किया गया। इस रस का संबंध मानव उच्च नैतिक आध्यात्मिकता से है।इसका स्थाई भाव ईश्वर के प्रति रति या प्रेम है। भगवान के प्रति समर्पण, कथा श्रवण, दया आदि उद्दीपन विभाव है। अनुभाव के रूप में सेवा अर्चना कीर्तन वंदना गुणगान प्रशंसा आदि हैं। अनेक कायिक, वाचिक, स्वेद आदि अनुभाव हैं। संचारी रूप में हर्ष, आशा, गर्व, स्तुति, धैर्य, संतोष आदि अनेक भाव संचरण करते हैं।इसमें आलंबन ईश्वर और आश्रय उस ईश्वर के प्रेम के अनुरूप मन है |
उदाहरण:
दूब दबाये शुण्ड में, लंबोदर गजमुण्ड। ‌
बुद्धि विनायक हे प्रभो!, हरो विघ्न के झुण्ड।। - भानुदत्त त्रिपाठी "मधुरेश", गोहा कुंज
चित्र गुप्त है नाथ का, सभी नाथ के चित्र।
हैं अनाथ के नाथ भी, दीन जनों के मित्र।।
३-२-२०१८
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// चिरकुंवारी नर्मदा की अधूरी प्रेम-कथा //
कहते हैं नर्मदा ने अपने प्रेमी शोणभद्र से धोखा खाने के बाद आजीवन कुंवारी रहने का फैसला किया लेकिन क्या सचमुच वह गुस्से की आग में चिरकुवांरी बनी रही या फिर प्रेमी शोणभद्र को दंडित करने का यही बेहतर उपाय लगा कि आत्मनिर्वासन की पीड़ा को पीते हुए स्वयं पर ही आघात किया जाए। नर्मदा की प्रेम-कथा लोकगीतों और लोककथाओं में अलग-अलग मिलती है लेकिन हर कथा का अंत कमोबेश वही कि शोणभद्र के नर्मदा की दासी जुहिला के साथ संबंधों के चलते नर्मदा ने अपना मुंह मोड़ लिया और उलटी दिशा में चल पड़ीं। सत्य और कथ्य का मिलन देखिए कि नर्मदा नदी विपरीत दिशा में ही बहती दिखाई देती है।
कथा 1 : नर्मदा और शोण भद्र की शादी होने वाली थी। विवाह मंडप में बैठने से ठीक एन वक्त पर नर्मदा को पता चला कि शोण भद्र की दिलचस्पी उसकी दासी जुहिला(यह आदिवासी नदी मंडला के पास बहती है) में अधिक है। प्रतिष्ठत कुल की नर्मदा यह अपमान सहन ना कर सकी और मंडप छोड़कर उलटी दिशा में चली गई। शोण भद्र को अपनी गलती का एहसास हुआ तो वह भी नर्मदा के पीछे भागा यह गुहार लगाते हुए' लौट आओ नर्मदा'... लेकिन नर्मदा को नहीं लौटना था सो वह नहीं लौटी।
अब आप कथा का भौगोलिक सत्य देखिए कि सचमुच नर्मदा भारतीय प्रायद्वीप की दो प्रमुख नदियों गंगा और गोदावरी से विपरीत दिशा में बहती है यानी पूर्व से पश्चिम की ओर। कहते हैं आज भी नर्मदा एक बिंदू विशेष से शोण भद्र से अलग होती दिखाई पड़ती है। कथा की फलश्रुति यह भी है कि नर्मदा को इसीलिए चिरकुंवारी नदी कहा गया है और ग्रहों के किसी विशेष मेल पर स्वयं गंगा नदी भी यहां स्नान करने आती है। इस नदी को गंगा से भी पवित्र माना गया है।
मत्स्यपुराण में नर्मदा की महिमा इस तरह वर्णित है -‘कनखल क्षेत्र में गंगा पवित्र है और कुरुक्षेत्र में सरस्वती। परन्तु गांव हो चाहे वन, नर्मदा सर्वत्र पवित्र है। यमुना का जल एक सप्ताह में, सरस्वती का तीन दिन में, गंगाजल उसी दिन और नर्मदा का जल उसी क्षण पवित्र कर देता है।’ एक अन्य प्राचीन ग्रन्थ में सप्त सरिताओं का गुणगान इस तरह है।
गंगे च यमुने चैव गोदावरी सरस्वती।
नर्मदा सिन्धु कावेरी जलेSस्मिन सन्निधिं कुरु।।
कथा 2 : इस कथा में नर्मदा को रेवा नदी और शोणभद्र को सोनभद्र के नाम से जाना गया है। नद यानी नदी का पुरुष रूप। (ब्रह्मपुत्र भी नदी नहीं 'नद' ही कहा जाता है।) बहरहाल यह कथा बताती है कि राजकुमारी नर्मदा राजा मेखल की पुत्री थी। राजा मेखल ने अपनी अत्यंत रूपसी पुत्री के लिए यह तय किया कि जो राजकुमार गुलबकावली के दुर्लभ पुष्प उनकी पुत्री के लिए लाएगा वे अपनी पुत्री का विवाह उसी के साथ संपन्न करेंगे। राजकुमार सोनभद्र गुलबकावली के फूल ले आए अत: उनसे राजकुमारी नर्मदा का विवाह तय हुआ।
नर्मदा अब तक सोनभद्र के दर्शन ना कर सकी थी लेकिन उसके रूप, यौवन और पराक्रम की कथाएं सुनकर मन ही मन वह भी उसे चाहने लगी। विवाह होने में कुछ दिन शेष थे लेकिन नर्मदा से रहा ना गया उसने अपनी दासी जुहिला के हाथों प्रेम संदेश भेजने की सोची। जुहिला को सुझी ठिठोली। उसने राजकुमारी से उसके वस्त्राभूषण मांगे और चल पड़ी राजकुमार से मिलने। सोनभद्र के पास पहुंची तो राजकुमार सोनभद्र उसे ही नर्मदा समझने की भूल कर बैठा। जुहिला की ‍नियत में भी खोट आ गया। राजकुमार के प्रणय-निवेदन को वह ठुकरा ना सकी। इधर नर्मदा का सब्र का बांध टूटने लगा। दासी जुहिला के आने में देरी हुई तो वह स्वयं चल पड़ी सोनभद्र से मिलने।
वहां पहुंचने पर सोनभद्र और जुहिला को साथ देखकर वह अपमान की भीषण आग में जल उठीं। तुरंत वहां से उल्टी दिशा में चल पड़ी फिर कभी ना लौटने के लिए। सोनभद्र अपनी गलती पर पछताता रहा लेकिन स्वाभिमान और विद्रोह की प्रतीक बनी नर्मदा पलट कर नहीं आई।
अब इस कथा का भौगोलिक सत्य देखिए कि जैसिंहनगर के ग्राम बरहा के निकट जुहिला (इस नदी को दुषित नदी माना जाता है, पवित्र नदियों में इसे शामिल नहीं किया जाता) का सोनभद्र नद से वाम-पार्श्व में दशरथ घाट पर संगम होता है और कथा में रूठी राजकुमारी नर्मदा कुंवारी और अकेली उल्टी दिशा में बहती दिखाई देती है। रानी और दासी के राजवस्त्र बदलने की कथा इलाहाबाद के पूर्वी भाग में आज भी प्रचलित है।
कथा 3 : कई हजारों वर्ष पहले की बात है। नर्मदा जी नदी बनकर जन्मीं। सोनभद्र नद बनकर जन्मा। दोनों के घर पास थे। दोनों अमरकंट की पहाड़ियों में घुटनों के बल चलते। चिढ़ते-चिढ़ाते। हंसते-रुठते। दोनों का बचपन खत्म हुआ। दोनों किशोर हुए। लगाव और बढ़ने लगा। गुफाओं, पहाड़‍ियों में ऋषि-मुनि व संतों ने डेरे डाले। चारों ओर यज्ञ-पूजन होने लगा। पूरे पर्वत में हवन की पवित्र समिधाओं से वातावरण सुगंधित होने लगा। इसी पावन माहौल में दोनों जवान हुए। उन दोनों ने कसमें खाई। जीवन भर एक-दूसरे का साथ नहीं छोड़ने की। एक-दूसरे को धोखा नहीं देने की।
एक दिन अचानक रास्ते में सोनभद्र ने सामने नर्मदा की सखी जुहिला नदी आ धमकी। सोलह श्रृंगार किए हुए, वन का सौन्दर्य लिए वह भी नवयुवती थी। उसने अपनी अदाओं से सोनभद्र को भी मोह लिया। सोनभद्र अपनी बाल सखी नर्मदा को भूल गया। जुहिला को भी अपनी सखी के प्यार पर डोरे डालते लाज ना आई। नर्मदा ने बहुत कोशिश की सोनभद्र को समझाने की। लेकिन सोनभद्र तो जैसे जुहिला के लिए बावरा हो गया था।
नर्मदा ने किसी ऐसे ही असहनीय क्षण में निर्णय लिया कि ऐसे धोखेबाज के साथ से अच्छा है इसे छोड़कर चल देना। कहते हैं तभी से नर्मदा ने अपनी दिशा बदल ली। सोनभद्र और जुहिला ने नर्मदा को जाते देखा। सोनभद्र को दुख हुआ। बचपन की सखी उसे छोड़कर जा रही थी। उसने पुकारा- 'न...र...म...दा...रूक जाओ, लौट आओ नर्मदा।
लेकिन नर्मदा जी ने हमेशा कुंवारी रहने का प्रण कर लिया। युवावस्था में ही सन्यासिनी बन गई। रास्ते में घनघोर पहाड़ियां आईं। हरे-भरे जंगल आए। पर वह रास्ता बनाती चली गईं। कल-कल छल-छल का शोर करती बढ़ती गईं। मंडला के आदिमजनों के इलाके में पहुंचीं। कहते हैं आज भी नर्मदा की परिक्रमा में कहीं-कहीं नर्मदा का करूण विलाप सुनाई पड़ता है।
नर्मदा ने बंगाल सागर की यात्रा छोड़ी और अरब सागर की ओर दौड़ीं। भौगोलिक तथ्य देखिए कि हमारे देश की सभी बड़ी नदियां बंगाल सागर में मिलती हैं लेकिन गुस्से के कारण नर्मदा अरब सागर में समा गई।
नर्मदा की कथा जनमानस में कई रूपों में प्रचलित है लेकिन चिरकुवांरी नर्मदा का सात्विक सौन्दर्य, चारित्रिक तेज और भावनात्मक उफान नर्मदा परिक्रमा के दौरान हर संवेदनशील मन महसूस करता है। कहने को वह नदी रूप में है लेकिन चाहे-अनचाहे भक्त-गण उनका मानवीयकरण कर ही लेते है। पौराणिक कथा और यथार्थ के भौगोलिक सत्य का सुंदर सम्मिलन उनकी इस भावना को बल प्रदान करता है और वे कह उठते हैं नमामि देवी नर्मदे.... !
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पुण्यदायिनी माँ नर्मदा का जन्मदिवस
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अलौकिक और पुण्यदायिनी माँ नर्मदा के जन्मदिवस यानी माघ शुक्ल सप्तमी को नर्मदा जयंती महोत्सव प्रति वर्ष मनाया जाता है। वैसे तो संसार में 999 नदियाँ हैं, पर नर्मदाजी के सिवा किसी भी नदी की प्रदक्षिणा करने का प्रमाण नहीं देखा। ऐसी नर्मदाजी अमरकंटक से प्रवाहित होकर रत्नासागर में समाहित हुई है और अनेक जीवों का उद्धार भी किया है।
युगों से हम सभी शक्ति की उपासना करते आए हैं। चाहे वह दैविक, दैहिक तथा भौतिक ही क्यों न हो, हम इसका सम्मान और पूजन करते हैं। ऐसे में कोई शक्ति अजर-अमर होकर लोकहित में अग्रसर रहे तो उनका जन्म कौन नहीं मनाएगा।
एक समय सभी देवताओं के साथ में ब्रह्मा-विष्णु मिलकर भगवान शिव के पास आए, जो कि (अमरकंटक) मेकल पर्वत पर समाधिस्थ थे। वे अंधकासुर राक्षस का वध कर शांत-सहज समाधि में बैठे थे। अनेक प्रकार से स्तुति-प्रार्थना करने पर शिवजी ने आँखें खोलीं और उपस्थित देवताओं का सम्मान किया।
देवताओं ने निवेदन किया- हे भगवन्‌! हम देवता भोगों में रत रहने से, बहुत-से राक्षसों का वध करने के कारण हमने अनेक पाप किए हैं, उनका निवारण कैसे होगा आप ही कुछ उपाय बताइए। तब शिवजी की भृकुटि से एक तेजोमय बिन्दु पृथ्वी पर गिरा और कुछ ही देर बाद एक कन्या के रूप में परिवर्तित हुआ। उस कन्या का नाम नर्मदा रखा गया और उसे अनेक वरदानों से सज्जित किया गया।
'माघै च सप्तमयां दास्त्रामें च रविदिने।
मध्याह्न समये राम भास्करेण कृमागते॥'
माघ शुक्ल सप्तमी को मकर राशि सूर्य मध्याह्न काल के समय नर्मदाजी को जल रूप में बहने का आदेश दिया।
तब नर्मदाजी प्रार्थना करते हुए बोली- 'भगवन्‌! संसार के पापों को मैं कैसे दूर कर सकूँगी?'
तब भगवान विष्णु ने आशीर्वाद रूप में वक्तव्य दिया- 'नर्मदे त्वें माहभागा सर्व पापहरि भव। त्वदत्सु याः शिलाः सर्वा शिव कल्पा भवन्तु ताः।'
अर्थात् तुम सभी पापों का हरण करने वाली होगी तथा तुम्हारे जल के पत्थर शिव-तुल्य पूजे जाएँगे।
तब नर्मदा ने शिवजी से वर माँगा। जैसे उत्तर में गंगा स्वर्ग से आकर प्रसिद्ध हुई है, उसी प्रकार से दक्षिण गंगा के नाम से प्रसिद्ध होऊँ।
शिवजी ने नर्मदाजी को अजर-अमर वरदान और अस्थि-पंजर राखिया शिव रूप में परिवर्तित होने का आशीर्वाद दिया। इसका प्रमाण मार्कण्डेय ऋषि ने दिया, जो कि अजर-अमर हैं। उन्होंने कई कल्प देखे हैं। इसका प्रमाण मार्कण्डेय पुराण में है।
नर्मदाजी का तट सुर्भीक्ष माना गया है। पूर्व में भी जब सूखा पड़ा था तब अनेक ऋषियों ने आकर प्रार्थनाएँ कीं कि भगवन्‌ ऐसी अवस्था में हमें क्या करना चाहिए और कहाँ जाना चाहिए? आप त्रिकालज्ञ हैं तथा दीर्घायु भी हैं। तब मार्कण्डेय ऋषि ने कहा कि कुरुक्षेत्र तथा उत्तरप्रदेश को त्याग कर दक्षिण गंगा तट पर निवास करें। नर्मदा किनारे अपनी तथा सभी के प्राणों की रक्षा करें।
—वेबदुनिया से साभार
भगवत्पादश्रीमदाद्य शंकराचार्य स्वामी विरचितं नर्मदाष्टकं
सविंदुसिंधु-सुस्खलत्तरंगभंगरंजितं, द्विषत्सुपापजात-जातकारि-वारिसंयुतं
कृतांतदूत कालभूत-भीतिहारि वर्मदे, त्वदीय पादपंकजं नमामि देवी नर्मदे .१.
त्वदंबु लीनदीन मीन दिव्य संप्रदायकं, कलौमलौघभारहारि सर्वतीर्थनायकं
सुमत्स्य, कच्छ, तक्र, चक्र, चक्रवाक् शर्मदे, त्वदीय पादपंकजं नमामि देवी नर्मदे .२.
महागभीर नीरपूर - पापधूत भूतलं, ध्वनत समस्त पातकारि दारितापदाचलं.
जगल्लये महाभये मृकंडुसूनु - हर्म्यदे, त्वदीय पादपंकजं नमामि देवी नर्मदे .३.
गतं तदैव मे भयं त्वदंबुवीक्षितं यदा, मृकंडुसूनु शौनकासुरारिसेवितं सदा.
पुनर्भवाब्धिजन्मजं भवाब्धि दु:खवर्मदे, त्वदीय पादपंकजं नमामि देवी नर्मदे .४.
अलक्ष्य-लक्ष किन्नरामरासुरादि पूजितं, सुलक्ष नीरतीर - धीरपक्षि लक्षकूजितं.
वशिष्ठ शिष्ट पिप्पलादि कर्ममादिशर्मदे, त्वदीय पादपंकजं नमामि देवी नर्मदे .५.
सनत्कुमार नाचिकेत कश्यपादि षट्पदै, घृतंस्वकीय मानसेषु नारदादि षट्पदै:,
रवींदु रन्तिदेव देवराज कर्म शर्मदे, त्वदीय पादपंकजं नमामि देवी नर्मदे .६.
अलक्ष्यलक्ष्य लक्ष पाप लक्ष सार सायुधं, ततस्तु जीव जंतु-तंतु भुक्ति मुक्तिदायकं.
विरंचि विष्णु शंकर स्वकीयधाम वर्मदे, त्वदीय पादपंकजं नमामि देवी नर्मदे .७.
अहोsमृतं स्वनं श्रुतं महेशकेशजातटे, किरात-सूत वाडवेशु पण्डिते शठे-नटे.
दुरंत पाप-तापहारि सर्वजंतु शर्मदे, त्वदीय पादपंकजं नमामि देवी नर्मदे .८.
इदन्तु नर्मदाष्टकं त्रिकालमेव ये यदा, पठंति ते निरंतरं न यांति दुर्गतिं कदा.
सुलक्ष्य देह दुर्लभं महेशधाम गौरवं, पुनर्भवा नरा न वै विलोकयंति रौरवं. ९.
इति श्रीमदशंकराचार्य स्वामी विरचितं नर्मदाष्टकं सम्पूर्णं
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श्रीमद आदि शंकराचार्य रचित नर्मदाष्टक : हिन्दी पद्यानुवाद द्वारा संजीव 'सलिल'
उठती-गिरती उदधि-लहर की, जलबूंदों सी मोहक-रंजक
निर्मल सलिल प्रवाहितकर, अरि-पापकर्म की नाशक-भंजक
अरि के कालरूप यमदूतों, को वरदायक मातु वर्मदा.
चरणकमल में नमन तुम्हारे, स्वीकारो हे देवि नर्मदा.१.
दीन-हीन थे, मीन दिव्य हैं, लीन तुम्हारे जल में होकर.
सकल तीर्थ-नायक हैं तव तट, पाप-ताप कलियुग का धोकर.
कच्छप, मक्र, चक्र, चक्री को, सुखदायक हे मातु शर्मदा.
चरणकमल में नमन तुम्हारे, स्वीकारो हे देवि नर्मदा.२.
अरिपातक को ललकार रहा, थिर-गंभीर प्रवाह नीर का.
आपद पर्वत चूर कर रहा, अन्तक भू पर पाप-पीर का.
महाप्रलय के भय से निर्भय, मारकंडे मुनि हुए हर्म्यदा.
चरणकमल में नमन तुम्हारे, स्वीकारो हे देवि नर्मदा.३.
मार्कंडे-शौनक ऋषि-मुनिगण, निशिचर-अरि, देवों से सेवित.
विमल सलिल-दर्शन से भागे, भय-डर सारे देवि सुपूजित.
बारम्बार जन्म के दु:ख से, रक्षा करतीं मातु वर्मदा.
चरणकमल में नमन तुम्हारे, स्वीकारो हे देवि नर्मदा.४.
दृश्य-अदृश्य अनगिनत किन्नर, नर-सुर तुमको पूज रहे हैं.
नीर-तीर जो बसे धीर धर, पक्षी अगणित कूज रहे हैं.
ऋषि वशिष्ठ, पिप्पल, कर्दम को, सुखदायक हे मातु शर्मदा.
चरणकमल में नमन तुम्हारे, स्वीकारो हे देवि नर्मदा.५.
सनत्कुमार अत्रि नचिकेता, कश्यप आदि संत बन मधुकर.
चरणकमल ध्याते तव निशि-दिन, मनस मंदिर में धारणकर.
शशि-रवि, रन्तिदेव इन्द्रादिक, पाते कर्म-निदेश सर्वदा.
चरणकमल में नमन तुम्हारे, स्वीकारो हे देवि नर्मदा.६.
दृष्ट-अदृष्ट लाख पापों के, लक्ष्य-भेद का अचूक आयुध.
तटवासी चर-अचर देखकर, भुक्ति-मुक्ति पाते खो सुध-बुध.
ब्रम्हा-विष्णु-सदा शिव को, निज धाम प्रदायक मातु वर्मदा.
चरणकमल में नमन तुम्हारे, स्वीकारो हे देवि नर्मदा.७.
महेश-केश से निर्गत निर्मल, 'सलिल' करे यश-गान तुम्हारा.
सूत-किरात, विप्र, शठ-नट को,भेद-भाव बिन तुमने तारा.
पाप-ताप सब दुरंत हरकर, सकल जंतु भाव-पार शर्मदा.
चरणकमल में नमन तुम्हारे, स्वीकारो हे देवि नर्मदा.८.
श्रद्धासहित निरंतर पढ़ते, तीन समय जो नर्मद-अष्टक.
कभी न होती दुर्गति उनकी, होती सुलभ देह दुर्लभ तक.
रौरव नर्क-पुनः जीवन से, बच-पाते शिव-धाम सर्वदा.
चरणकमल में नमन तुम्हारे, स्वीकारो हे देवि नर्मदा.९.
श्रीमदआदिशंकराचार्य रचित, संजीव 'सलिल' अनुवादित नर्मदाष्टक पूर्ण.

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अभिनव प्रयोग-
उल्लाला मुक्तक:
संजीव 'सलिल'
*
उल्लाला है लहर सा,
किसी उनींदे शहर सा.
खुद को खुद दोहरा रहा-
दोपहरी के प्रहर सा.
*
झरते पीपल पात सा,
श्वेत कुमुदनी गात सा.
उल्लाला मन मोहता-
शरतचंद्र मय रात सा..
*
दीप तले अँधियार है,
ज्यों असार संसार है.
कोशिश प्रबल प्रहार है-
दीपशिखा उजियार है..
*
मौसम करवट बदलता,
ज्यों गुमसुम दिल मचलता.
प्रेमी की आहट सुने -
चुप प्रेयसी की विकलता..
*
दिल ने करी गुहार है,
दिल ने सुनी पुकार है.
दिल पर दिलकश वार या-
दिलवर की मनुहार है..
*
शीत सिसकती जा रही,
ग्रीष्म ठिठकती आ रही.
मन ही मन में नवोढ़ा-
संक्रांति कुछ गा रही..
*
श्वास-आस रसधार है,
हर प्रयास गुंजार है.
भ्रमरों की गुन्जार पर-
तितली हुई निसार है..
*
रचा पाँव में आलता,
कर-मेंहदी पूछे पता.
नाम लिखा छलिया हुआ-
कहो कहाँ-क्यों लापता?
*
वह प्रभु तारणहार है,
उस पर जग बलिहार है.
वह थामे पतवार है.
करता भव से पार है..
३-२-२०१३
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