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शुक्रवार, 11 फ़रवरी 2022

सॉनेट, नवगीत, समीक्षा, अमरनाथ, रस, सर्वोदय, विराट

सॉनेट
रस
*
रस गागर रीते फिर फिर भर।
तरस न बरस सरस होकर मन।
नीरस मत हो, हरष हुलस कर।।
कलकल कर निर्झर सम हर जन।।


दरस परस कर, उमग-उमगकर।
रूपराशि लख, मादक चितवन।
रसनिधि अक्षर नटवर-पथ पर।।
हो रस लीन श्वास कर मधुबन।।


जग रसखान मान, अँजुरी भर।
नेह नर्मदा जल पी आत्मन!
कर रस पान, पुलक जय-जयकर।।
सुबह शाम हर फागुन-सावन।।


लगे हाथ रस गर न बना रस।
लूट लुटा रे धँस-हँस बतरस ।।
११-२-२०२२
•••
रस विमर्श :
रस का शाब्दिक अर्थ है आनंद। काव्य के पठन-पाठन अथवा श्रवण से मिलने वाला आनंद ही 'रस' है। भारतीय साहित्य में ही नहीं, जीवन में भी 'रस' का बहुत महत्व है। पश्मी काव्य शास्त्र में रस के स्थान पर सौंदर्य शास्त्र की चर्चा है। सौंदर्य की अनुभूति रूपाकार से होती है, रस की प्रतीति मनोभाव से होती है। रस न हो तो काव्य नीरस या रसहीन हो जाएगा जिसे कोई भी पढ़ना-सुनना नहीं चाहेगा क्योंकि उसे आनंदानुभूति ही न होगी। रस को प्रथमत: परिभाषित करने के श्रेय भरत मुनि (ईसापूर्व ४००-ईसापूर्व १०० के मध्य) को है। भारत मुनि ने अपने ग्रंथ 'नाट्यशास्त्र' में रस सिद्धांत की चर्चा करते हुए प्रसिद्ध सूत्र 'विभावानुभाव संचारीभाव संयोगद्रस निष्पति:" अर्थात विभाव; अनुभाव तथा संचारी भाव के संयोग से रस की निष्पत्ति होती है, प्रस्तुत किया। रस का संबंध 'सृ' धातु से है जिसका अर्थ प्रवाहित होना, बहना है तदनुसार जो रचना से प्रवाहित होकर पाठक या श्रोता के मन में पहुँच जाए, वह रस है। अन्य मान्यता के अनुसार रह की निष्पत्ति 'रस्' धातु और 'अच्' प्रत्यय के संयोग से हुई है जिसका आशय है जो बहे या जो आस्वादित किया जा सके।


अनेकार्थी 'रस'
रस के विविध प्रसंगों में विविध अर्थ हैं। एक प्रसिद्ध सूक्ति है 'रसो वै सः' अर्थात वह (परमात्मा) रस ही है। 'कुमारसंभव' में प्रेमानुभूति, पानी, तरल, और द्रव के अर्थ में रस शब्द का प्रयोग किया गया है। 'मनुस्मृति' में रस शब्द का प्रयोग 'मदिरा' या 'सुरा' के अर्थ में हुआ है। 'वैशेषिक दर्शन' में चैबीस गुणों में एक गुण का नाम 'रस' है। तदनुसार षड् रस कटु, अम्ल, मधुर, लवण, तिक्त व कषाय हैं। महाकवि कालिदास स्वाद, इच्छा तथा रुचि के अर्थ में 'रस' शब्द का प्रयोग करते हैं। भर्तृहरि सार, तत्व और सर्वोत्तम भाग के अर्थ में 'रस' का प्रयोग करते हैं। 'रघुवंश' में आनंद व प्रसन्नता के अर्थ में 'रस' शब्द का प्रयोग है। काव्य शास्त्र में किसी काव्य रचना की भावभूमि को 'रस' कहते हैं। काव्य की परिभाषा करते हुए कहा गया है 'रसात्मकं वाक्यं' अर्थात रसपूर्ण वाक्य ही काव्य है। आयुर्वेद में शरीर के श्घटक तत्वों के लिए 'रस' शब्द का प्रयोग किया गया है। प्राचीन साहित्य में 'सप्त धातुओं' को भी 'रस' कहा गया है। पारा (मरकरी) रसराज या रसेश्वर कहा गया है। लौह को स्वर्ण बनानेवाली 'पारस मणि' को 'रसरत्न' भी कहा गया है। रस के ज्ञाता को 'रसग्रह' तथा रसानंदित होनेवाले को 'रसिक' कहा जाता है। 'उत्तररामचरित' में रसज्ञाता को 'रसज्ञ' कहा गया है। भर्तृहरि काव्य मर्मज्ञ को 'रससिद्ध' कहते हैं। 'साहित्यदर्पण' प्रत्यक्षीकरण और गुणागुण विवेचन के लिए 'रस-परीक्षा' शब्द का प्रयोग करता है। नाटक के अर्थ में 'रस-प्रबंध' शब्द का प्रयोग किया गया है। आध्यात्म तथा धर्म में 'रस' का प्रयोग 'ब्रह्मानंद' के अर्थ में किया गया है। 'काव्यानन्द' को 'ब्रह्मानंद सहोदर' कहा गया है। श्रव्य काव्य पढ़ने-सुनने-सुनाने तथा दृश्य काव्य देखने पर पाठक-श्रोता या दर्शक ऐसी भावभूमि में पहुँच जाते हैं जहाँ केवल 'आनंद' की प्रतीति होती है, इस भावभूमि को ही 'रसलीन' होना कहा जाता है। सरस काव्य ही 'रसनिधि' है। काव्य को 'रसखान' कहना पूरी तरह सही है।


रस : मुंडे मुंडे मतिर्भिन्ना


रस वह अलौकिक मानसिक अवस्था है जब पाठक, श्रोता या दर्शक काव्य में पूरी तरह डूबकर अपनी सुध-बुध विस्मृत कर देता है। भरत मुनि ने 'रस' को 'आस्वात्यत्वात्' (आस्वाद प्रदान करनेवाला) कहा है। तदनुसार जैसे भोज्य व्यंजनों, औषधियों और पेयों से जैसे 'भोज्य रस' की निष्पत्ति होती है, वैसे ही विविध भावों के संयोग से स्थायी भाव की निष्पत्ति होती है।
भरत मुनि के अनुसार
अ. रस 'आस्वाद' नहीं, 'आस्वाद्य है'।
आ. रस 'अनुभूति' नहीं, 'अनुभूति का विषय' है।
इ. रस 'विषयीगत' नहीं, 'विषयगत' होता है।
ई. स्थाई भाव (अनुभाव, विभाव तथा संचारी भाव का संयोग) रस रूप में परिणित होता है।
उ. नायक (अभिनेता) का स्थायी भाव ही रस का रूप ग्रहण करता है।
दण्डी के अनुसार - 'वाक्यस्य, ग्राम्यता योनिमाधुर्ये दर्शतो रस:'।
धनञ्जय के मत में - 'विभावैरनुभावैश्च सात्विकैर्ध्य भिचारिभिः। आनीयमान: स्वाद्यत्व स्थायी भावो रस: स्मृत:'।
अभिनवगुप्त के शब्दों में -'सर्वथा रसनात्मक वीतविघ्न प्रतीतग्राह्यो भाव एवं रस:'।
मम्मट कहते हैं - 'व्यक्त: स: तैर्विभावाद्यौ: स्थायी भावो रस: स्मृत:'।
जगन्नाथ के शब्दों में - 'अस्त्यत्रापि रस वै स: रस होवायं लब्ध्वानंदी भवति'।
विश्वनाथ की परिभाषानुसार - 'वाक्यं रसात्मकं काव्यं' तथा 'विभावेनानुभावेन व्यक्त: संचारिणी तथा। रसतामेति रत्यादि: स्थायी भाव: सचेतसाम्'।
वामन - 'दीप्त रस्त्वं कांति:'।
भोजराज - 'रसा हि सुखदु:ख रूपा'।
क्षेमेंद्र - 'औचित्यं रससिद्धस्य स्थिरं काव्यस्य जीवितं'।
रामचंद्र-गुणचंद्र -'सुखदु:खात्मको रस:'।
***
कृति चर्चा :
दोहा गाथा : छंदराज पर शोधपरक कृति
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
[कृति विवरण : दोहा गाथा, शोध कृति, अमरनाथ, प्रथम संस्करण २०२०, २१ से.मी. x १४ से.मी., आवरण पेपरबैक बहुरंगी, पृष्ठ ९६, मूल्य १५०/-, समन्वय प्रकाशन अभियान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१]
विश्ववाणी हिंदी के छंद कोष का कालजयी रत्न छंदराज दोहा, कवियों हो सर्वाधिक प्रिय रहा है और रहेगा भी। छन्दाचार्य अभियंता अमरनाथ जी द्वारा रचित 'दोहागाथा' गागर में सागर की तरह लघ्वाकारी किन्तु गहन शोध परक कृति है। खंड काव्य जटायु व कालजयी, कहानी संग्रह जीवन के रंग तथा आस पास बिखरी हुई जिंदगी, नव विधा क्षणिका संग्रह चुटकी, भजन संग्रह चरणों में, व्यंग्य संग्रह खरी-खोटी तथा सूक्ष्म समीक्षा कृति काव्य रत्न के सृजन के पश्चात् दोहागाथा अमरनाथ साहित्य का नौवा रत्न है। कहावत है 'लीक तोड़ तीनों चलें शायर सिंह सपूत' अमर नाथ जी इन तीनों गुणों से संपन्न हैं। शायर अर्थात कवि तो वे हैं ही, अभियंता संघों में आंदोलन-काल में सिंह की तरह दहाड़ते अमरनाथ को जिन्होंने सुना है, वे भूल नहीं सकते। अमरनाथ जी जैसा सपूत हर माता-पिता चाहता है। अमरनाथ जी के व्यक्तित्व के अन्य अनेक पक्ष पर्यावरण कार्यकर्ता, समाज सुधारक, बाल शिक्षाविद, समीक्षक तथा संपादक भी हैं।
दोहा गाथा में दोहे का इतिहास, उत्पत्ति, परिभाषा एवं विकास क्रम, दोने का विधान एवं संरचना तथा दोहे के भेद, दोहे के उर्दू औजान शीर्षकों के अन्तर्गत नव दोहाकारों ही नहीं वरिष्ठ दोहाकारों के लिए भी बहुमूल्य सामग्री संकलित की गई है। विषय सामग्री का तर्कसम्मत प्रस्तुतीकरण करते समय सम्यक उदाहरण 'सोने में सुहागा' की तरह हैं। दोय, होय जैसे क्रिया रूप शोध कृति में उचित नहीं प्रतीत होते। लेखन का नाम मुखपृष्ठ पर 'अमरनाथ', पृष्ठ ८-९ पर 'अमर नाथ' होना खीर में कंकर की तरह खटकता है। दोहा-विधान पर प्रकाश डालते समय कुछ नए-पुराने दोहाकारों के दोहे प्रस्तुत किये जाने से कृति की उपयोगिता में वृद्धि हुई है। हिंदी छंद संबंधी शोध में फ़ारसी बह्रों और छंद दोषों का उल्लेख क्यों आवश्यक क्यों समझा गया? क्या उर्दू छंद शास्त्र की शोध कृति में हिंदी या अन्य भाषा के छंदों का विवेचन किया जाता है? विविध भाषाओँ के छंदों का तुलनात्मक अध्ययन उद्देश्य हो तो भारत की अन्य भाषाओँ-बोलिओं से भी सामग्री ली जानी चाहिए। हिंदी छंद की चर्चा में उर्दू की घुसपैठ खीर और रायते के मिश्रण की तरह असंगत प्रतीत होता है।
दोहा रचना संबंधी विधान विविध पिङगल ग्रंथों से संकलित किये जाना स्वाभाविक है, वैशिष्ट्य यह है कि विषम-चरणों की कल-बाँट सोदाहरण समझाई गई है। विविध भाषाओँ/बोलिओं तथा रसों के दोहे कृति को समृद्ध करते हैं किंतु इसे और अधिक समृद्ध किया जा सकता है। दोहे के विविध रूप संबंधी सामग्री रोचक तथा ज्ञानवर्धक है।
दोहा के चरणों की अन्य छंदों के चरणों से तुलना श्रमसाध्य है। यह कार्य अपूर्ण रहना ही है, यह छंद प्रभाकर में जगन्नाथ प्रसाद 'भानु' द्वारा दी गई छंद संख्या (मात्रिक छंद ९२,२७,७६३, वर्णिक छंद १३, ४२,१७, ६२६, उदाहरण ७०० से कुछ अधिक) से ही समझा जा सकता है। दोहा रचना में इस तुलनात्मक अध्ययन की आवश्यकता नहीं है तथापि शोध की दृष्टी से इसकी उपादेयता असंदिग्ध है।
दोहे के विषम या सैम चरणों में संशोधन से निर्मित छंद संबंधी सामग्री के संबंध में यह कैसे निर्धारित किया जाए की उन छड़ों में परिवर्तन से दोहा बना या दोहे में परिवर्तन से वे छंद बने। विविध छंदों के निर्माण की तिथि ज्ञात न होने से यह निर्धारित नहीं किया जा सकता की किस छंद में परिवर्तन से कौन सा छंद बना या वे स्वतंत्र रूप से बने। दोहे के उलटे रूप शीर्षक से प्रस्तुत सामग्री रोचक है। चौबीस मात्रिक अन्य ७५,०२५ छंदों में से केवल २० छंदों का उल्लेख ऊँट के मुंह में जीरे की तरह है।
दोहे का अन्य छंदों के साथ प्रयोग शीर्षक अध्याय प्रबंध काव्य रचना की दृष्टि से बहुत उपयोगी है।
दोहे में परिवर्तन कर बनाये गए नए छंदों का औचित्य भविषा निर्धारित करेगा की इन्हें अपनाया जाता है या नहीं?
संख्यावाचक शब्दावली का उल्लेख अपर्याप्त है।
कृति के अंत में आभार प्रदर्शन लेखक की ईमानदारी की मिसाल है।
मुखपृष्ठ पर कबीर, रहीम, तुलसी तथा बिहारी के चित्रों से कृति की शोभा वृद्धि हुई है किंतु प्रकाशन की चूक से बिहारी के नाम के साथ विद्यापति का चित्र लग गया है। इस गंभीर त्रुटि का निवारण बिहारी के वास्तविक चित्र के स्टिकर यथस्थान चिपकाकर किया जा सकता है।
यह निर्विवाद है कि इस कृति की अधिकांश सामग्री पूर्व प्राप्य नहीं है। अमरनाथ जी ने वर्षों तक सैंकड़ों पुस्तकों और पत्रिकाओं का अध्ययन कर उदाहरण संकलित किये हैं। किसी भी नई सामग्री के विवेचन और विश्लेषण में मतभेद स्वाभाविक है किंतु विषय के विकास की दृष्टि से ऐसे गूढ़ अध्ययन की प्रासंगिकता, उपादेयता और मौलिकता प्रशंसनीय ही नहीं पठनीय एवं मननीय भी है। इस सारस्वत शोधपरक प्रस्तुति हेतु अमरनाथ जी साधुवाद के पात्र हैं। दोहाकारों ही नहीं अन्य छंदों के अध्येताओं और रचनाकारों को भी इस कृति का अध्ययन करना चाहिए।
***
सर्वोदय गीत
सर्वोदय भारत का सपना।
हो साकार स्वप्न हर अपना।।
*
हम सब करें प्रयास निरंतर।
रखें न मनुज मनुज में अंतर।।
एक साथ हम कदम बढ़ाएँ।
हाथ मिला श्रम की जय गाएँ।।
युग अनुकूल गढ़ों नव नपना।
सर्वोदय भारत का सपना।।
*
हर जन हरिजन हुआ जन्म से।
ले-देकर है वणिक कर्म से।।
रक्षा कर क्षत्रिय हैं हम सब।
हो मतिमान ब्राह्मण हैं सब।।
कर्म साध्य नहिं माला जपना।
सर्वोदय भारत का सपना।।
*
श्रम सीकर में विहँस नहाएँ।
भूमिहीन को भू दे गाएँ।।
ऊँच-नीच दुर्भाव मिटाएँ।
स्नेह सलिल में सतत नहाएँ।।
अंधभक्ति तज, सच है वरना।
सर्वोदय भारत का सपना।।
११-२-२०२१
***
दिल्ली बोली
*
बड़बोलों ने खाई पटकनी
दिल्ली बोली
पैदल ने वजीर को मारा
औंधे मुँह वह जो हुंकारा
जो गरजे वे मेघ न बरसे
जनहितकारी की पौबारा
अब जुबान पर लगा चटकनी
बड़बोलों ने खाई पटकनी
दिल्ली बोली
कथनी करनी का जो अंतर
लोग समझते; चला न मंतर
भानुमती का कुनबा आया
रोगी भोगी सब छूमंतर
शुरू हो गई पैर तले से दरी सरकनी
बड़बोलों ने खाई पटकनी
दिल्ली बोली
बंदर बाँट कर रहे लड़वा
सेठों के हित विधि से सधवा
पूज गोडसे; गाँधी ठुकरा
बेकारी मँहगाई बढ़वा
कड़वी गोली पड़ी गटकनी
बड़बोलों ने खाई पटकनी
दिल्ली बोली
११-२-२०२०
***

***
नवगीत:
.
आम आदमी
हर्ष हुलास
हक्का-बक्का
खासमखास
रपटे
धारों-धार गये
.
चित-पट, पट चित, ठेलमठेल
जोड़-घटाकर हार गये
लेना- देना, खेलमखेल
खुद को खुद ही मार गये
आश्वासन या
जुमला खास
हाय! कर गया
आज उदास
नगदी?
नहीं, उधार गये
.
छोडो-पकड़ो, देकर-माँग
इक-दूजे की खींचो टाँग
छत पानी शौचालय भूल
फाग सुनाओ पीकर भाँग
जितना देना
पाना त्रास
बिखर गया क्यों
मोद उजास?
लोटा ले
हरि द्वार गये
***
नवगीत :
संजीव
.
दुनिया
बहुत सयानी लिख दे
.
कोई किसी की पीर न जाने
केवल अपना सच, सच माने
घिरा तिमिर में
जैसे ही तू
छाया भी
बेगानी लिख दे
.
अरसा तरसा जमकर बरसा
जनमत इन्द्रप्रस्थ में सरसा
शाही सूट
गया ठुकराया
आयी नयी
रवानी लिख दे
.
अनुरूपा फागुन ऋतु हर्षित
कुसुम कली नित प्रति संघर्षित
प्रणव-नाद कर
जनगण जागा
याद आ गयी
नानी लिख दे
.
भूख गरीबी चूल्हा चक्की
इनकी यारी सचमुच पक्की
सूखा बाढ़
ठंड या गर्मी
ड्योढ़ी बाखर
छानी लिख दे
.
सिहरन खलिश ख़ुशी गम जीवन
उजली चादर, उधड़ी सीवन
गौरा वर
धर कंठ हलाहल
नेह नरमदा
पानी लिख दे
११-२-२०१५
***
कृति चर्चा:
बोल मेरी ज़िंदगी: हिंदी ग़ज़ल का उजला रूप
चर्चाकार: संजीव वर्मा 'सलिल'
*
(कृति विवरण: बोल मेरी ज़िंदगी, हिंदी गज़ल संग्रह, चंद्रसेन 'विराट', आकर डिमाई, आवरण सजिल्द बहुरंगी, पृष्ठ १८४, मूल्य ३००ऋ, समान्तर पब्लिकेशन तराना, उज्जैन)
*
हिंदी गीतिकाव्य की मुक्तिका परंपरा के शिखर हस्ताक्षरों में प्रमुख, हिंदी की भाषिक शुद्धता के सजग पहरुए, छांदस काव्य के ध्वजवाहक चंद्रसेन विराट का नया हिंदी गज़ल संग्रह 'बोल मेरो ज़िंदगी' हिंदी ग़ज़ल के उज्जवल रूप को प्रस्तुत करता है. संग्रह का शीर्षक ही ग़ज़लकार के सृजन-प्रवाह की लहरियों के नर्तन में परिवन का संकेत करता है. पूर्व के ११ हिंदी गज़ल संग्रहों से भिन्न इस संग्रह में भाषिक शुद्धता के प्रति आग्रह में किंचित कमी और भाषिक औदार्य के साथ उर्दू के शब्दों के प्रति पूर्वपेक्षा अधिक सहृदयता परिलक्षित होती है. सम्भवतः सतत परिवर्तित होते परिवेश, नयी पीढ़ी की भाषिक संवेदनाएं और आवश्यकताएं तथा समीक्षकीय मतों ने विराट जी को अधिक औदार्यता की और उन्मुख किया है.
गीतिका, उदयिका, प्रारम्भिक, अंतिका, पदांत, तुकांत जैसी सारगर्भित शब्दावली के प्रति आग्रही रही कलम का यह परिवर्तन नए पाठक को भले ही अनुभव न हो किन्तु विराट जी के सम्पूर्ण साहित्य से लगातार परिचित होते रहे पाठक की दृष्टि से नहीं चूकता। पूर्व संग्रहों निर्वासन चाँदनी में रूप-सौंदर्य, आस्था के अमलतास में विषयगत व्यापकता, कचनार कि टहनी में अलंकारिक प्रणयाभिव्यक्ति, धर के विपरीत में वैषम्य विरोध, परिवर्तन की आहट में सामयिक चेतनता, लड़ाई लम्बी में मानसिक परिष्कार का आव्हान, मयय कर मेरे समय में व्यंग्यात्मकता, इस सदी का आदमी में आधुनिकताजन्य विसंगतियों पर चिंता, हमने कठिन समय देखा है में विद्रूपताओं की श्लेषात्मक अभिव्यञ्जना, खुले तीसरी आँख में उज्जवल भविष्य के प्रति आस्था के स्वरों के बाद बोल मेरी ज़िंदगी में आम आदमी की सामर्थ्य पर विश्वास की अभिव्यक्ति का स्वर मुखर हुआ है. विराट जी का प्रबुद्ध और परिपक्व गज़लकार सांस्कारिक प्रतिबद्धता, वैश्विक चेतना, मानवीय गरिमा, राष्ट्रीय सामाजिकता और स्थानीय आक्रोश को तटस्थ दृष्टि से देख-परख कर सत्य की प्रतीति करता-कराता है.
विश्व भाषा हिंदी के समृद्धतम छंद भंडार की सुरभि, संस्कार, परंपरा, लोक ग्राह्यता और शालीनता के मानकों के अनुरूप रचित श्रेष्ठ रचनाओं को प्रयासपूर्वक खारिज़ करने की पूर्वाग्रहग्रसित आलोचकीय मनोवृत्ति की अनदेखी कर बह्र-पिंगल के छन्दानुशासन को समान महत्त्व देते हुए अंगीकार कर कथ्य को लोकग्राह्य और प्रभावी बनाकर प्रस्तुत कर विराट जी ने अपनी बात अपने ही अंदाज़ में कही है;
'कैसी हो ये सवाल ज़रा बाद में हल हो
पहली यह शर्त है कि गज़ल है तो गज़ल हो
भाषा में लक्षणा हो कि संकेत भरे हों
हो गूढ़ अर्थवान मगर फिर भी सरल हो'
अरबी-फ़ारसी के अप्रचलित और अनावश्यक शब्दों का प्रयोग किये बिना और मात्राएँ गिराए बिना छोटी, मझोली और बड़ी बहरों की ग़ज़लों में शिद्दत और संजीदगी के साथ समर्पण का अद्भुत मिश्रण है. विराट जी आलोचकीय दृष्टि की परवाह न कर अपने मानक आप बनाते हैं-
तृप्त हो जाए सुधीजन यह बहुत / फिर समीक्षक से विवेचन हो न हो
जी सकूं मैं गीत को कृतकृत्य हो / अब निरंतर गीत लेखन हो न हो
*
ग़ालिब ने अपने अंदाज़े बयां को 'और' अर्थात अनूठा बताया था, विराट जी की कहाँ अपनी मिसाल आप है :
देह की दूज तो मन गयी / प्रेम की पंचमी रह गयी
*
मूढ़ है मौज में आज भी / और ज्ञानी परेशान है
*
मादा सिर्फ न माँ भी तू / नत होकर औरत से कह
*
लूं न जमीं के बदले में / यह जुमला जन्नत से कह
*
आते कल के महामहिम बच्चे / उनको उठकर गुलाब दो पहले
*
गुम्बद का जो मखौल उड़ाती रही सदा / मीनार जलजले में वो अबके ढही तो है
*
विराट मूलतः गीतकार हैं. उनका गीतकार मुक्तिकाकर का विरोधी नहीं पूरक है. वे गज़ल में भी गीत की दुहाई न सिर्फ देते है बल्कि पूरी दमदारी से देते हैं:
गीत की सर्जना / ज्यों प्रसव-वेदना
*
जी सकूँ मैं गीत को कृतकृत्य हो / अब निरंतर गीत लेखन हो न हो
*
क्षमा हरगिज़ न माँगूँगा / ये गर्दन गंग कवि की है
*
मैं कवि ब्रम्ह रचना में रत हूँ हे देवों!
*
उनका दवा था रचना मौलिक है / वह मेरे गीत की नकल निकली
*
तू रख मेरे गीत नकद / यश की आय मुझे दे दे
*
मुक्त कविता के घर में गीतों का / छोड़कर क्यों शिविर गया कोई?
*
हम भावों को गीत बनाने / शब्दों छंदों लय तक पहुँचे
*
ह्रदय तो गीत से भरता / उदर भरता न पर जिससे
*
मेरे गीत! कुशलता से / मर्मव्यथा मार्दव से कह
*
गीत! इस मरुस्थल में तू कहाँ चला आया
*
बेच हमने भी दिए गीत नहीं रोयेंगे / पेट भर खायेंगे हम आज बहुत सोयेंगे
*
विराट जी हिंदी के वार्णिक-मात्रिक छंदों की नींव पर हिंदी ग़ज़ल के कथ्य की इमारत खड़ी कर उर्दू के बहरो-अमल से उसकी साज-सज्जा करते हैं. हिंदी ग़ज़लों की इस केसरिया स्वादिष्ट खीर में बराए नाम कुछ कंकर भी हैं जो चाँद में दाग की तरह हैं:
ये मीठी हँसी की अधर की मिठाई / हमें कुछ चखाओ गज़ल कह रहा हूँ
यहाँ प्रेमी अपनी प्रेमिका से अधरों की मधुरता चखने का निवेदन कर रहा है. कोई प्रेमी अपनी प्रेमिका से अनेकों को अधर-रस-पान करने का अनुरोध नहीं कर सकता। अतः, कर्ता एकवचन 'हैम' के स्थान पर 'मैं' होगा। यहाँ वचन दोष है.
दिल को चट्टान मान बैठे थे / किस कदर अश्रु से सजल निकली
यहाँ 'चट्टान' पुल्लिंग तथा 'निकली' स्त्रीलिंग होने से लिंग दोष है.
पत्नी को क्यों लगाया युधिष्ठिर बताइये / क्यों दांव पर स्वयं को लगाया नहीं गया?
महाभारत में वर्णित अनुसार युधिष्ठिर पहले राज्य फिर भाइयों को, फिर स्वयं को तथा अंत में द्रौपदी को हारे थे. अतः, यहाँ तथ्य दोष है.
'मौन क्यों रहती है तू' शीर्षक ग़ज़ल में 'रहती है तू, कहती है तू, महती है तू, दहति है तू, ढहती है तू, बहती है तू तथा सहती है तू' के साथ 'वरती है तू' का प्रयोग खटकता है.
'वचनों से फिर गया कोइ' शीर्षक गज़ल की अंतिम द्विपदी 'यह तो मौसन था उसके खिलने का / हाय, इसमें ही खिर गया कोई' में प्रयुक्त 'खिर' शब्द हिंदी-उर्दू शब्द कोष में नहीं मिला। यहाँ 'ही' को 'हि' की तरह पढ़ना पड़ रहा है जो हिंदी ग़ज़ल में दोष कहा जायेगा। यदि 'हाय, इसमें बिखर गया कोई' कर दिया जाए तो लय और अर्थ दोनों सध जाते हैं.
विराट जी की रचनाओं में पौराणिक मिथकों और दृष्टान्तों का पिरोया जाना स्वाभाविक और सहज है. इस संग्रह का वैशिष्ट्य गीता-महाभारत-कृष्ण सम्बन्धी प्रसंगों का अनेक स्थलों पर विविध सन्दर्भों में मुखर होना है. यथा: हो चूका अन्याय तब भी जातियों के नाम पर / मान्य अर्जुन को किया पर कर्ण ठुकराया गया, बढ़ोगे तुम भी लक्ष्य वो चिड़िया की आँख का / अर्जुन की भाँति खुद को निष्णात तो करो, उठा दे दखल ज़िंदगी / यक्ष के ताल से चुन कमल ज़िंदगी, प्राप्त माखन नहीं / छाछ को क्यों मथा, सब कोष तो खुले हैं कुबेरों के वास्ते / लेकिन किसी सुदामा को अवसर तो नहीं है, फेन काढ़ता है दंश को उसका अहम् सदा / तक्षक का खानदान है / है तो हुआ करे, समर में कृष्ण ने जो भी युधिष्ठिर से कहलवाया / 'नरो वा कुंजरो वा' में सचाई है- नहीं भी है, हम अपनी डाल पर हैं सुरक्षित तो न चिंता / उन पर बहेलिये का है संधान हमें क्या? मोर का पंख / यश है मुकुट का बना, तुम बिना कृष्ण के अर्जुन हो उठो भीलों से / गोपियाँ उनकी बचा लो कि यही अवसर है, भीष्म से पार्थ बचे और न टूटे प्रण भी / कृष्ण! रथ-चाक उठा लो कि यही अवसर है, भोले से एकलव्य से अंगुष्ठ माँगकर / अर्जुन था द्रोण-शिष्य विरल कर दिया गया, एक सपना तो अर्जुन बने / द्रोण सी शिक्षा-दीक्षा करें आदि. उल्लेखनीय है कि एक ही प्रसंग को दो स्थानों पर दो भिन्नार्थों में प्रयोग किया गया है. यह गज़लकार की असाधारण क्षमता का परिचायक है.
सारतः, अनुप्रास, उपमा और दृष्टान्त विराट जी को सर्वाधिक प्रिय अलंकार हैं जिनका प्रयोग प्रचुरता से हुआ है. विराट जी की शब्द सामर्थ्य स्पृहणीय है. हिंदी शब्दों के साथ संस्कृत, उर्दू तथा देशज शब्दों का स्वाभाविक प्रयोग हुआ है जबकि अंगरेजी शब्द (सेंसेक्स, डॉक्टर आदि) अपरिहार्य होने पर अपवाद रूप ही हैं. संग्रह में प्रयुक्त भाषा प्रसाद गुण संपन्न है. व्यंग्यात्मक, अलंकारिक तथा उद्बोधनात्मक शैली में विराट जी पाठक के मन को बाँध पाये हैं. सामाजिक-सांस्कृतिक सन्दर्भों की कसौटी पर चतुर्दिक घट रही राजनैतिक घटनाओं और सामाजिक परिवर्त्तनों पर सजग कवि की सतर्क प्रतिक्रिया गज़लों को पठनीय ही नहीं ग्रहणीय भी बनाती हैं. सामयिक संकलनों की भीड़ में विराट जी का यह संग्रह अपनी परिपक्व चिनतंपूर्ण ग़ज़लों के कारण पाठकों को न केवल भायेगा अपितु बार-बार उद्धृत भी किया जायेगा।
११-२-२०१४
***

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