कुल पेज दृश्य

बुधवार, 16 फ़रवरी 2022

पुरोवाक १, गाँधी और उनके बाद, चुप्पियों के गाँव में,जब से मन की नाव चली,हरि - दोहावली, बुधिया लेता टोह

'गाँधी और उनके बाद'
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
[कृति विवरण: गाँधी और उनके बाद, काव्य संग्रह, ISBN No.: 13-978-93-83198-07-8, ओमप्रकाश शुक्ल, २०१८, आकार डिमाई, आवरण बहुरंगी, पृष्ठ ६०, १५०/-, पाल प्रकाशन, १८२ चंद्रलोक, मंडोली मार्ग, दिल्ली ११००९३, कवि संपर्क: ९७१७६३४६३१ / ९६५४४ ७७११२]
*
सनातन मूल्यों के वर्तमान संक्रमण काल में सत्य और अहिंसा की आधार शिला पर अपने व्यक्तिगत, पारिवारिक, राजनैतिक और सामाजिक जीवन इमारत खड़ी करनेवाले, साधारण रूप-रंग, कद-काठी किंतु असाधारण ही नहीं अनुपमेय चिंतन शक्ति और कर्म निष्ठा के जीवंत उदाहरण गाँधी जी से आत्मिक जुड़ाव की अनुभूति कर, उनके व्यक्तित्व-कृतित्व से अभिभूत होकर, एकांतिक निष्ठा और समर्पण के दिव्य भाव से समर्पित होकर एक युवा द्वारा ६५ काव्य रचनाएँ की जाना विस्मित करता है। म. गाँधी की नौका पर चढ़कर चुनावी वैतरणी पार करनेवाले उनके नाम का सदुपयोग (?) उनके जीवन काल से अब तक असंख्य बार करते रहे हैं और न जाने कब तक करते रहेंगे। गाँधी जी के विचारों की हत्या कर उनके अनुयायी होने का दावा करनेवालों की संख्या भी अगणित है किंतु बिना किसी स्वार्थ के गाँधी जी के व्यक्तित्व-कृतित्व से अपनत्व और अभिन्नता की प्रतीति कर काव्य कर्म को मूर्त करने की साधना न तो सहज है, न ही सुलभ। प्रतिदिन प्रकाशित हो रही अगणित हिंदी काव्य रचनाओं के बीच शुचि-सात्विक चिंतनपरक सृजन का वैचारिक अश्वमेध बिना दृढ़ संकल्प पूर्ण नहीं होता।

काव्य रचना वैचारिक प्रतिबद्धता के साथ प्रचुर शब्द-भण्डार, प्रासंगिक कथ्य, सम्यक भावाभिव्यक्ति, छांदस लयात्मक अभिव्यक्ति, यथोचित आलंकारिक सज्जा, बिंब-प्रतीक के सप्तपदीय अनुशासन के साथ शब्द-शक्तियों और रस के समन्वययुक्त नवधा अनुष्ठान को पूर्ण करने की संश्लिष्ट प्रक्रिया है। युवा कवि ओमप्रकाश शुक्ल ने नितांत समर्पण भाव से इस रचना यज्ञ में भावाहुतियाँ दी हैं। इस कृति के पठन के समान्तर पाठक के मन में चिंतन प्रक्रिया आरम्भ हो जाती है। दर्शन शास्त्र में स्नातकोत्तर अध्ययन करते समय गाँधी दर्शन से दो-चार होने के अवसर मिला है। समय-समय पर अपने आचरण में यदा-कदा वह प्रभाव पाता रहा हूँ। 'गाँधी और उनके बाद' की रचनाएँ मुझे मेरे कवि के उस मनोभाव से साक्षात का सुअवसर देता रहा जिसे मैं अभिव्यक्त नहीं कर सका। बहुधा ऐसा लगता रहा जैसे अपनी ही विचार सलिला में अवगाहन कर रहा हूँ।

प्रथम रचना में बापू के चरणों में प्रणति-पुष्प अर्पित कर कवि कामना करता है 'देना नित मुझे मार्गदर्शन / कर सकूँ सत्य का अवलोकन'। सत्य - अवलोकन की प्रक्रिया में छद्म गाँधीवादियों की विचार यात्रा को 'दे दी हमें आजादी बिना खड्ग, बिना ढाल / साबरमती के संत तूने कर दिया कमाल' से आरम्भ होकर 'मजबूरी का नाम महात्मा गाँधी' तक पहुँचते देख सत्यान्वेषी कवि बरबस ही पूछ बैठता है-

क्या हम हर क्षण, हर पल
सिर्फ गाँधी की दुहाई देंगे?
मृत्यु के पश्चात् भी
क्या हर अच्छे और बुरे कार्य के लिए
उन्हें जिम्मेवार ठहराते रहेंगे?
वर्षों से ध्यान मग्न
उनकी तन्द्रा को भंग करेंगे?
क्या बापू ही
आज तक हर बुराई के लिए
जिम्मेवार हैं?
तो भाई! क्यों नहीं आज तक
आप सभी ने मिलकर
मिटा दिया उन बुराइयों को?

कवि ही नहीं, मैं और आप भी जानते हैं कि येन-केन-प्रकारेण सिर्फ और सिर्फ सत्ता को साध्य माननेवाले और गाँधी जी के प्रति लोक-आस्था को भुनानेवाले राजनैतिक लोग अपने मन-दर्पण में कभी नहीं झाँकेंगे। इसलिए वह अपने आप से गाँधी के नाम नहीं विचार के अनुकरण की परंपरा का श्री गणेश करना चाहता है-

मैं बापू के चरित्र से
प्रभावित तो हूँ
और उनके ही समान
बनना चाहता हूँ,
बापू के रंग में रंगकर
एक आदर्श
प्रस्तुत करना चाहता हूँ।

इस राह में सबसे बड़ी बाधा है बापू का न होना। कवि का यह सोचना स्वाभाविक है कि आज बापू होते तो उनके चरणों में बैठकर उन जैसा बनने की यात्रा सहजता से हो पाती-

हे बापू!
आपके न रहने से
प्रभावित हुआ हूँ मैं।
मेरे अंतर्मन की आशा
जिसमें कुछ कर दिखाने की
थी अभिलाषा
जाने कहाँ विलुप्त हो गयी?

इन पंक्तियों को पढ़कर बरबस याद हो आती है वह कविता जिसे हमने अपने बचपन में पाठ्य पुस्तक में पढ़कर गाँधी को जाना और एक अनकहा नाता जोड़ा था-

माँ! खादी की चादर दे-दे, मैं गाँधी बन जाऊँगा
सब मित्रों के बीच बैठकर रघुपति राघव गाऊँगा...
... एक मुझे तू तकली ला दे, चरखा खूब चलाऊँगा

तब हम सप्ताह में एक दिन तकली भी चलाते थे, और चरखा चलाना भी सीख लिया था। आज तो बच्चों को विद्यालय जाने और पढ़ना-लिखना सीखने के पहले अभिभावक के पहले चलभाष देने में गर्व अनुभव कर रहे हैं।

यह सनातन सत्य है कि कोई हमेशा सदेह नहीं रहता। गाँधी जी की हत्या न होती तो भी उनका जीवन कभी न कभी तो समाप्त होना ही था। इसलिए अपने मन को समझाकर कवि गाँधी - मार्ग पर चलने का संकल्प करता है-

देख मत दूसरे के दोषों को
तू अपने दोषों का सुधार कर
अहंवाद समाप्त कर
जग में समन्वय पर्याप्त कर
अपनी हर भूल से शिक्षा ले
निज पापों का परिहार कर

गाँधी-दर्शन 'स्व' नहीं' 'सर्व' के हित साधन का पथ है। कवि गाँधी जी के आदर्श को अपनाने की राह पर अकेला नहीं सबको साथ लेकर बढ़ने का इच्छुक है-

हे बंधु! सुनो
छोड़ो भी ये नारेबाजी
अब मिल तो गयी है आज़ादी
कुछ स्वयं करो
कुछ स्वयं भरो

निज दोषों और कमियों का ठीकरा गाँधी जी पर फोड़कर खुद कुछ न करनेवाले अन्धालोचकों को कटघरे में खड़ा करते हुए कवि निर्भीकता किंतु विनम्रता से पूछता है-

बकौल तुम्हारे
उनको किसी अच्छाई का श्रेय
नहीं दिया जा सकता
तो अकेले हर बुराई के लिए
वो जिम्मेवार कैसे
फिर गाँधी जैसे व्यक्तित्व को
तुम जैसे तुच्छ सोच
और निरर्थक कृत्य वाले के
प्रमाण पत्र की
किंचित आवश्यकता नहीं
वह स्वयं में प्रामाणिक हैं.

अपने आदर्श को विविध दृष्टिकोणों से देखने की चाह और विविधताओं में समझने की चाह अनुकरणकर्ता को अपने आदर्श के व्यक्तित्व-कृतित्व के निरीक्षण-परीक्षण तथा उसके संबंध में अपनी अनुभूतियों को अभिव्यक्त करने के लिए प्रेरित ही नहीं विवश भी करती है। कुछ रचनाओं में भावुकता की अतिशयता होने पर भी कवि ने गाँधी जी के जीवन काल में और गाँधी जी की शहादत के बाद हुए सामाजिक, राजनैतिक और मानसिक परिवर्तनों का तुलनात्मक अध्ययन कर सटीक निष्कर्ष निकाले हैं।

यूँ लगा कि
गाँधी और उनके बाद
'भारत का भाग्य' चला गया।
अब वह मर्मस्पर्शी अपनत्व कहाँ?
अब वह सतयुग सा आभास कहाँ?
'गाँधी और उनके बाद'
वस्तुत:
सत्य यही है कि
युग बदला
समय का मूल्य सब भूल गए
नैतिकता का पतन हुआ
दुखद परिस्थितियों को
आत्मसात करना पडा
सत्य कहा मन ने कि
एक युग का अंत हुआ है
'गाँधी और उनके बाद'

प्रथमार्ध में छंद मुक्त रचनाओं के साथ द्वितीयार्ध में रचनाकार ने हिंदी ग़ज़ल (जिसे आजकल गीतिका, मुक्तिका, अनुगीत, तेवरी आदि विविध नामों से विभूषित किया जा रहा है) के शिल्प विधान में चाँद रचनान्जलियाँ समर्पित की हैं। गुरु वंदना के पश्चात प्रस्तुत इन रचनाओं का स्वर गाँधी चिन्तनपरक ही है-
क्यों लिखते हो खार सुनों तुम
लिख दो थोड़ा प्यार लिखो तुम

प्यार की वकालत करते गाँधी जी और गाँधीवाद का प्रभाव 'मुहब्बत का असर है, आज कविता खूब लिखता हूँ', 'ज़िन्दगी सत्य की डगर पर है', 'प्रेम का ही आवरण दिग छा गया है', 'भारती हो भारती की जय करो', 'राम सदा ही / हैं दुःख भंजन' आदि पंक्तियाँ येन-केन संग्रह के केंद्र बिंदु को साथ रख पाती हैं।

चतुष्पदिक मुक्तकों में 'हम दिखाते रह गए बस सादगी', 'सतयुग सरीखी रीत निभाया न कीजिए', 'आश औरि विश्वास लै, बाँधि नेह कय डोर', 'भू मंडल के जीव-जंतु सब, पुत्र भांति हैं धरती के', 'ममता, समता दिव्यता नारी के प्रतिरूप', 'ऊबड़-खाबड़ बना बिछौना' जैसी पंक्तियाँ विविध विषयांतर के बाद भी मूल को नहीं छोड़तीं। गाँधी दर्शन के दो बिंदु 'हिंदी-प्रेम' और निष्काम कर्म योग' पर केन्द्रित दो मुक्तक देखें-

हिंदी में रचना करें, हिंदी में व्याख्यान
हिन्दीमय हो हिन्द तब, हो हिंदी उत्थान
राजनीति का अंत ही उन्नति का आधार
भारत तब विकसित बने, हो भाषा का मान

कर्म करो मनु प्रभु बसें, हो हर अड़चन दूर
कृपा-दृष्टि की छाँव भी, मिले सदा भरपूर
मालिक नहिं कोई हुआ, धन-वैभव की खान
'शुक्ल' रहे इस जगत में, हर कोई मजदूर

उक्त दोनों दोहा-मुक्तकों में क्रमश: 'स्वभाषा' और न्यासी (ट्रस्टीशिप) सिद्धांत को कवि ने कुशलता से संकेतित किया है। यह कवि सामर्थ्य का परिचायक है। कवि ने मानक आधुनिक हिंदी के साथ लोक भाषा का प्रयोग कर गाँधी जी की भाषा नीति को व्यावहारिक रूप दिया है।

'प्रेम डोर से बाँध ह्रदय को', 'द्वेष, कपट, छल, बैर मिटे कुछ / मिलकर ऐसी नीत लिखो तुम', 'द्वेष भाव से विलग रहा हूँ', 'राम-भारत सम भ्रातृ-प्रेम हो', 'भले व्यक्ति को नेता चुन ले', 'लेप नेह का हिय पर मलता', 'मन को दुखी करो मत साथी, होगा जो प्रभु ने ठाना' आदि गीताशों में गाँधी-चिन्तन इस तरह पिरोया गया है कि कथ्य की विविधता के बावजूद गाँधी-सूत्र उस गीत का अभिन्न भाग हो गया है।

कृति के अंत में सवैये, घनाक्षरी, आल्हा, पद कुण्डलिया तथा चौपाई की प्रस्तुति छांदस कविता के प्रति रचनाकार की रूचि और कुशलता दोनों को बिम्बित करती है। कवि ने अपना गाँधीचिन्तक परक दृष्टि कोण इन लघु रचनाओं में भी पूर्ववत रखा है।

राम प्रभो मनवा अति मोहत - राम प्रेम, सवैया

'भारती के भाल पर, प्रकृति के गाल पर
सुर और टाल पर, हिंदी हिंदी छाई है ' - स्वभाषा प्रेम, घनाक्षरी

वंदे मातरम बोल सभी के मन में ऐसी अलख जगाय -राष्ट्र-प्रेम, आल्हा

माँ से बड़ा न कोई जग में.... - मातृ-प्रेम, पद

सारा दिन मेहनत करे ह्रदय चीर मजदूर -श्रमिक शोषण, कुण्डलिया

अंतर्मन सत-रूप बसाओ - सत्य-प्रेम, चौपाई

हित छोड़ो, मत देश -राष्ट्र-प्रेम, सोरठा

सत्य पर हम बलि जाएँ - सत्य-प्रेम, रोला

हिन्द देश, हिंदी जुबां, हिन्दू हैं सब लोग -सर्व धर्म समभाव, दोहा

काव्य को दृश्य काव्य, श्रव्य काव्य और चम्पू काव्य में वर्गीकृत किया गया है। दृश्य काव्य के अंतर्गत दृश्य अलंकार हैं। संस्कृत काव्य में इसे हेय या निम्न माना गया है। इस कारण न तो संस्कृत काव्य में न हिंदी काव्य में चित्र अलंकारों को अधिक प्रश्रय मिला। मैंने चित्र अलंकार का सर्वाधिक उपयुक्त और सटीक प्रयोग डॉ. किशोर काबरा रचित महाकाव्य उत्तर भागवत में श्री कृष्ण द्वारा महाकाल की पूजन प्रसंग में देखा है। प्रबंध काव्य कुरुक्षेत्र गाथा में में स्तूप अलंकार और ध्वजा अलंकार के रूप में मैंने भी चित्र अलंकार का प्रयोग किया है। ओमप्रकाश ने वर्ण पिरामिड तथा डमरू चित्रालंकार प्रस्तुत किये हैं। युवा रचनाकार में निरंतर नए प्रयोग करने की रचनात्मक प्रवृत्ति सराहनीय है।

कहने की आवश्यकता नहीं कि कोई भी छंद हो, कोई भी विषय हो कवि को हर जगह गाँधी ही दृष्टिगत होते हैं। गाँधी दर्शन के प्रति यह प्रबद्धता ही इस कृति को पठनीय, मननीय और संग्रहणीय बनाती है। मुझे विशवास है कि पाठक वर्ग में इस कृति का स्वागत होगा।
***
'चुप्पियों के गाँव में' सरस नवगीतों की छाँव
*
नवगीत हिंदी गीतिकाव्य ही नहीं सकल हिंदी साहित्य की वह विधा है जो जन-मन से और जिससे जन-मन अभिन्न है। नवगीती कचनार की गझिन शाखाओं में दिन-ब-दिन गहरे सुर्ख फूलों को खिलते देखना सगोत्री विस्तार से मिलनेवाले सुख या 'गूँगे के गुड़' की तरह है। नर्मदांचल के बुंदेलखंड क्षेत्र में नवगीत की क्यारी में सृजन के पौधे रोपने निरंतर रोपने में सर्व श्री विनोद निगम, राम सेंगर, भोलानाथ, आचार्य भगवत दुबे, गिरि मोहन गुरु, जंग बहादुर श्रीवास्तव, जयप्रकाश श्रीवास्तव, राजा अवस्थी, आनंद तिवारी, रामकिशोर दाहिया उल्लेखनीय हैं। यत्किंचित योगदान मुझ अकिंचन का भी रहा है। इस क्रम में अनुजवत विजय बागरी का जुड़ाव स्वागतेय है। शीघ्र ही श्री बसंत शर्मा, श्री अरुण अर्णव खरे, श्री सुरेश तन्मय, श्रीमती मिथलेश बड़गैया, श्रीमती विनीता श्रीवास्तव, राजकुमार महोबिया तथा श्रीमती सुनीता सिंह की उपस्थिति दर्ज होनी है। नवगीत उद्यान में निरंतर नए पुष्प खिलते रहें और अपनी सुवास बिखेरते रहें इस हेतु विश्ववाणी हिंदी संस्थान जबलपुर सतत प्रयास रत है।

यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि स्व. जवाहर लाल चौरसिया 'तरुण', स्व. श्याम श्रीवास्तव, श्री यतीन्द्र नाथ 'राही', श्री कृष्णकुमार 'पथिक', श्री शिव कुमार 'अर्चन' तथा कुछ अन्य गीतकारों के रचना संसार में कई रचनाएँ नवगीत और गीत की परिधि पर हैं किंतु नवगीतों में विशिष्ट विचारधारा और शब्दावली के प्रति आग्रह से असहमति ने इन्हें नवगीत से दूर ही रखा। इस कारण इन श्रेष्ठ रचनाकारों को नवगीत के आँगन में अपनी वाणी सुनाने का अवसर न मिला तो नवगीत भी इनकी उपस्थिति से गौरवान्वित होने के क्षण न पा सका। गीत और नवगीत को पिता-पुत्र की तरह परिभाषित किये जाने और पिता का प्रवेश पुत्र के आँगन में वर्जित बतानेवालों ने अपनी अहं तुष्टि भले ही कर ली हो, नवगीत की हानि होने को नहीं रोक सके। गीत के मरने का मिथ्यानुमान कर गर्व के हिमालय पर जा खड़ी हुई प्रगतिवादी कविता को फिसलने में देर न लगी। 'नानक नन्हें यों रही जैसी नन्हीं दूब' और 'प्रभुता से लघुता भली, प्रभुता से प्रभु दूर' को जी रहा गीत नव वस्त्र धारण कर 'नव' विशेषण से अभिषिक्त होकर पुन: लहलहा रहा है। अब नवगीत के वैचारिक पक्ष को प्रगतिवादी कविता से व्युत्पन्न, छान्दसिकता को उर्दू ग़ज़ल से आयातित, गेयता को पारंपरिक गीत की देन और लोकगीतों को प्रतिरोधी बताने की दुरभिसंधि नवगीत को उसकी अपनी जमीन से दूर कर उसके प्रासाद में सेंध लगाने का तथाकथित प्रगतिवादी विचारधारा प्रणीत कुत्सित प्रयास है। वरिष्ठ नवगीतकार हर खेमे में अपनी पूछ-परख का ध्यान रखते हुए भले ही मौन रहें किंतु विजय बागरी जैसे कलमकार जो नवगीत को गीत का वारिस मानते हुए दोनों को अभिन्न देखते, मानते और साँस-साँस में जीते हैं, अपनी रचनाओं से प्रमाणित करते हैं कि नवगीत वैचारिकता अपने समय को जीते हुए गीत से, गेयता पग-पग, डग-डग हर दिन गुनगुन करते लोकगीत से ग्रहण करता है। नवगीत छंद को कथ्य, लय और शैली के समायोजन से आवश्यकतानुसार बनाता-अपनाता है। इसीलिये नवगीत पारंपरिक छंदों के समान्तर विविध छंदों का सम्मिश्रण भी मुखड़े और अंतरे में स्वाभाविकता, सहजता और अधिकारपूर्वक कर पाता है।

विजय बागरी का वैशिष्ट्य अपने परिवेश, प्रकृति और पर्यावरण के प्रति सजग और संवेदनशील होना है। उनकी गीति रचनाएँ कपोल कल्पना से दूर स्वभोगे अथवा अन्यों द्वारा भोगे हुए को साक्षी भाव से ग्रहण किये गए अनुभवों से नि:सृत हैं। विजय ग्राम्य और नागर दोनों अंचलों से जुड़े हैं इसलिए उनकी दृष्टि के सामने सृष्टि का व्यापक रूप अपनी छटा बिखेरता है। वे पूंजी द्वारा श्रम का शोषण होते देखकर चुप न रहकर अपनी कलम से शब्द-वार करते हैं-

आँखों में घड़ियाली आँसू
बगुले करते जाप।
रंग बदलते-
गिरगिट देखे ,
आसमान में साँप।
चमक-दमक,
कीकर की लगती,
जैसे हो सागौन।
 
मौसम गुंडा-
गर्दी करता
आदमखोर हवाएँ।
संवेदन की लाशें ढोतीं
कपटी शोकसभाएँ।
श्रम सीकर के
हरे घाव पर
लेपन करते लौन।

विजय का युवा मन समस्याओं को सुलझाने की प्रयास करता है और समाधान के रास्तों पर अवरोधों को देखकर कुंठित नहीं होता, वह व्यवस्था परिवर्तन का उद्देश्य लेकर कमियों को निडरता से इंगित करता है-
समाधान के दरवाज़े पर
लटक रहे हैं ताले।
.
जिरह पेशियाँ, कूट दलीलें
ढोती रोज कचहरी।
कैद फाइलों की कारा में,
अर्जी गूँगी-बहरी।
छद्म गवाही देनेवाले
गुंडे डेरा डाले।
.
सजी वकीलों की दूकानें
प्रतिष्ठान पंडों के।
बड़े-बड़े दफ्तर फरेब के
लहराते झंडों के।
मुंशी चपरासी लगते हैं
जैसे जीजा-साले।

जीवन के दरवाजे पर ताले लटकने के साथ-साथ दफ्तर की खिड़की भी बंद हो तो स्थिति बद से बदतर और गंभीर हो जाती है-
जीवन के
दफ़्तर की खिड़की
कब से नहीं खुली।

हठधर्मी के
ताले लटके,
सदियाँ बीत गईं।
मनुहारें करतीं
आँखों की
झीलें रीत गईं।
खुसुर-फुसुर
कर रहीं कुर्सियाँ,
मेजें मिलीं-जुलीं।
.
दीवारों पर
शीश पटकती,
मन की उथल-पुथल।
संदूकों में
बंद अपीलें,
कुंठित अगल-बगल।
टूट रही
बूढ़ी साँसों की,
हिम्मत नपी-तुली।

तमाम विसंगतियों और विडंबनाओं के बावजूद ज़िंदगी दर्द का दस्तावेज मात्र नहीं है, उसमें अन्तर्निहित आनंद की अनुभूतियाँ उसे जीने योग्य बनाये रखती हैं। विजय इस जीवनानंद को नवगीत का अलंकार बनाते हैं-
एक बदरिया
अँगना उतरी
छानी मार रही किलकारी।
.
कोयल मंगल-
गान सुनाती,
अमराई में रास रचाती।
चौमासे की-
शगुन पत्रिका
बाँच रही पुरवा लहराती।
बट-पीपर
आलिंगन करते,
पाँव-पखार रही फुलवारी।
.
भींज रही
पनघट पे गोरी,
उर अनुरागी चाँद-चकोरी।
ताँक-झाँक
कर रही बिजुरिया,
नैन मटक्का चोरा-चोरी।
बहुत दिनों के-
बाद दिखी हैं,
धरती की आँखें कजरारी।

रस को नवगीत का प्राणतत्व माननेवाले विजय नीरसता को किनारे कर सरसता की गगरी नवगीतों की पंक्ति-पंक्ति में उड़ेलने की सामर्थ्य रखते हैं-

मेरे गीत,
तुम्हारे मन की-
गलियों से जब गुजर रहे थे।
कर सोलह-
श्रृंगार सुहाने,
सपन सलोने सँवर रहे थे।
अधर-अधर-
दोहा चौपाई,
नज़र-नज़र कुण्डलिया रागी।
धड़कन-धड़कन
राग बसंती,
कल्याणी कविता अनुरागी।
.
कंठ-कंठ से
कलकंठी के,
सरगम के स्वर उतर रहे थे।
.
विजय के नवगीतों में मौलिक बिंबों की छटा देखते ही बनती है-
सूरज की
बूढ़ी आँखों में,
गहन मोतियाबिंद हुआ.
खेल रही है
धवल चाँदनी,
अँधियारे के साथ जुआ।
.
भिनसारे का
कुटिल कुहासा,
धुआँधार तेजाबी है।
मलय पवन
के, नैंन नशीले,
अटपट चाल शराबी है।
मौसम की
मादक नीयत से,
टपक रहा जैसे महुआ।
.
आधुनिक समाज में छद्म मुखौटा लगाने का प्रचलन इतना बढ़ गया है कि खाने से अधिक फेंकनेवाले भुखमरी पर पोथियाँ भरे जा रहे हैं जबकि भुखमरी की कगार पर खड़ा कर दिया गया आम जन तमाम अभावों से घिरा हुआ होकर भी पर्व-त्यौहार का आनंद ले-दे पाता है। विजय 'आजकल / कितनी विकल है / सभ्यता की नव सदी' 'लिख रहा / इतिहास गोया / रुग्णता की नव सदी' और 'हो रही / पत्थर ह्रदय / स्वच्छंदता की नव सदी' लिखकर विसंगतियाँ मात्र उद्घाटित नहीं करते अपितु 'कब पुजेगी / उल्लसित / उत्कृष्टता की नव सदी' लिखकर मुखौटों को उतारकर अकृत्रिमता की प्रतिष्ठा किये जाने का आव्हान भी करते हैं

नवगीत में मैंने अपने नाम या उपनाम का प्रयोग उनके शब्दकोशीय अर्थ में किया है। 'चुप्पियों के गाँव में' शीर्षक नवगीत में विसंगतियों को उद्घाटित करने के साथ विजय ने भी अपने नाम / उपनाम का प्रयोग अंतिम पंक्ति में किया है। कवि के नाम या उपनाम को रचना में प्रयोग करने की यह परंपरा लोकगीतों तथा भक्ति काव्य से होते हुए उर्दू ग़ज़ल में 'तखल्लुस' के रूप में अपनी गयी।

थरथराते
मौसमी मनुहार के,
गीत घायल
चुप्पियों के गाँव में।
चूम रहे काँटे,
अंधेरों के कुटिल,
दिन दहाड़े, रौशनी के पाँव में।
ऋतुमती पछुआ
हवा-आसक्त उर,
सिद्धपीठों के पुजारी हो गए....
.... सभ्यता के
आचरण बगुलामुखी,
संस्कारों के शिकारी हो गए।
राजमहलों के
उजाले भी 'विजय'
आजकल षड्यंत्रकारी हो गए।

विजय के इन नवगीतों की भाषा बुंदेलखंड के कस्बों में प्रयुक्त हो रही आम बोलचाल की भाषा है। आधुनिक हिंदी का शुद्ध स्वरूप इनमें दृष्टव्य है। यह भाषा खड़ी हिंदी, बुंदेली, संस्कृत, देशज, उर्दू तथा अंगरेजी शब्दों के यथावश्यक शब्दों के मेल-जोल से बनाती है जिसमें व्याकरणिक नियम हिंदी के प्रयोग किये जाते हैं। विजय ने अंगरेजी शब्दों का प्रयोग (अपवाद नैट-चैट, टी. वी., मोबाइल) नहीं किया है। यह उनका वैशिष्ट्य है। संस्कृत निष्ठ शब्दों में स्वच्छंद, उद्घोष, निर्वासन, उल्लसित, कुम्भज, उदधि, गन्तव्य, मर्माहत, अहर्निश, विहंगम, अगोचर, अविरल, अभ्युत्थान, प्रहर्षित, हेमवर्णी, अंतर्व्यथा, निदाघ, नयनोदक, स्वस्तिवाचन, अंतर्तिमिर, शब्दातीत, तमासावृत्त, संसृति, प्रभंजन, संकल्पनाएं, प्रक्षालित, प्रनिपतों, पुलकावली, वल्लरियाँ आदि से देशज बुन्देली शब्द अवां, होरा, चौमासा, खुसुर-फुसुर, भिनसारा, बतकहाव, बदरिया, भींज, बिजुरिया, बखर, माटी, नेंगचार, बूंदाबारी, चिरैया, बिलोना, कुठारी, भिनसारे, पहरुए, बिछुआ, दुपहरिया, टकोरे, छतनारी, परपंच, लगैया, को है, समुहानी, सपन, बौराने, ठकुरसुहाती, कमरिया, ओसारे, गठरिया, धुंधुवाती, नदिया, राम रसोई, चौंतरा, रामजुहारें आदि गले मिलते हुए कथ्य को सरस और ह्रदयग्राही बनाते हैं। उर्दू शब्द इम्तिहान, दफ्तर, नजरें, ज़हर, दुआ-सलाम, वक्त, सैलाब, परवाज़, रौशनी, ज़िंदगी, गर्द-गुबार, तेजाबी, नुक्ताचीनी, सरेआम, मशहूर, पनाह, नागवार, दस्तूर, सबक, मगरूर, गुस्ताखी, बगावत, अदावत, मासूम, निशाना, दिल, अरमानों, नासूर, जिगर, गाफिल, सिरफिरे, मातमपुरसी, नफरत, फ़कीर, तस्वीर, दागी, महबूब, बड़ा, मुनादी, अहसासों, हुकूमत, पर्दाफाश, फरेबी, हलाकान, मगरूर, तहकीकातों, तबाही, सवालों, बाज़ार, आबरू, तनहाइयों, शोखियाँ वगैरह हमारी गंगो-जमुनी विरासत को आगे बढ़ाते हैं।

इस कृति के गीतों-नवगीतों में हिंदी के व्याकरण नियमों का पालन उचित ही किया गया है। उर्दू शब्दों के बहुवचन हिंदी व्याकरण के अनुसार हैं। जैसे- नजरें, अरमानों, अहसासों, तहकीकातों, सवालों, शोखियाँ आदि। कथ्य की सरसता में जन की जुबान पर चढ़े मुहावरों यथा- छाती पर होरा भूंजना, नैन मटक्का, घर का भेदी लंका ढाए, ठिकाने लगाना, जंगल में मंगल आदि वृद्धि की है।

इस दशक के नवगीतकारों की भाषा शैली में में पूर्ववर्तियों की तुलना में दो नए रुझान बहुलता से शब्द-युग्मों का प्रयोग तथा शब्दावृत्तियों का प्रयोग देखने में आ रहे हैं। अपने नवगीत संग्रह 'काल है संक्रांति का' में मैंने शब्द-युग्मों तथा शब्दवृत्ति के प्रयोग किए हैं। इससे कथ्य के भाषिक-प्रवाह, लयात्मकता, सरसता तथा लोकरंजकता में वृद्धि होती है। विजय के नवगीत भी इन रुझानों से युक्त हैं। इस कृति में प्रयोग किये गए शब्द युग्मों में कुछ पारंपरिक किंतु अनेक सर्वथा नवीन हैं। मन-मतंग, हरा-भरा, धूल-धूसरित, सावन-भादों, दीन-हीन, खेतों-खलिहानों, राग-द्वेष, मान-मनौती, बाहर-भीतर, उथल-पुथल, सज-धज, पल-छिन, साँझ-सकारे, मेल-मुलाकातें, व्यथा-कथा, खेत-खलिहान, घाट-प्रतिघात, नेट-चैट, राम-रसोई, सुचिता-सच्चाई, रात-दिन, देह-पिंजरे, प्राण-पंछी, सुर-टाल, उमड़-घुमड़, दादुर-चातक, लपक-झपक, शब्द-अर्थ, लोक-लाज, हेल-मेल, रंग-बिरंगी, माया-मृग, मन-गन, तर्क-वितर्क, खंडन-मंडन, खेल-खिलौने, धरती-अम्बर, चाँद-सितारों, नदिया, पनघट, भूख-प्यास, चाँद-चकोरी, ताक-झाँक, चोरा-चोरी, मेघ-मल्हार, काल-कवलित, संगी-साथी, कुटुम-कबीले, पल-छिन, हरी-भारी, कोर-किनारे, हँसी-ठहाके, ठौर-ठिकाने, मन-मधुबन, सोलह-श्रृंगार, सपन-सलोने, दोहा-चौपाई, दुखी-निराश, सरित-सरोवर, उमड़-घुमड़, दर्द-पीर, वयः-कथा, गुना-भाग, रिश्ते-नातों, हर्ष-उल्लास, गर्द-गुबार, पुष्कर-पुण्डरीक, तुलसी-चौरे, विषय-वासना, नून-तेल, माखन-मिसरी, धक्का-मुक्की, भीड़-भाद, हाथा-पाई, ताना-बना, लुटे-पिटे, सृष्टि-दृष्टि, संत-कंत, गीत-प्रीत, नेह-गह, हेल-मेल, भूखी-प्यासी, हेरा-फेरी, जोड़-घटना, ज्ञान-ध्यान, पूजा निष्ठा, मन-मंदिर, रंग-भंग, छल-छंद, कुआँ-बावली, लू-लपट, भूखी-प्यासी, तट-तरुवर, मथुरा-काशी, माघ-पूस, जोगन-बैरागन, नाप-तौल, हँसी-खुशी, चाल-चलन, सुख-शांति, चाँद-तारे, घात-प्रतिघात, महकी-चहकी, कपट-कौशल, माघ-पूस, खात-बिछौना, छल-बल, संझा-बाती, गाँव-शहर, दावानल-पतझर, हानि-लाभ, सुख-दुःख, चहल-पहल, भूल-भूलैंया, नोंक-झोंक, रुदन-मुस्कान, छल-छंद-चतुरी, वर्ष-मास-दिन, सत्यं-शिवं-सुन्दरं आदि-आदि शब्द युग्म कथ्य की अर्थवत्ता तथा वाचिक सौन्दर्य की वृद्धि कर रहे हैं।

यह कृति शब्दावृत्तियों के प्रयोग की दृष्टि से भी समृद्ध है। शब्दावृत्ति से आशय किसी शब्द के दो बार प्रयोग करने से है। ऐसा कथ्य पर अतिरिक्त जोर देने के लिए किया जाता है। इससे उत्पन्न पुनरावृत्ति अलंकार भाषिक तथा वाचिक सौन्दर्य वर्धक होता है। विजय ने अधर-अधर, नज़र-नज़र, धड़कन-धड़कन, कंठ-कंठ, लहर-लहर, अंग-अंग, छंद-छंद, रोम-रोम, किरण-किरण, अंग-अंग, गात-गात, कण-कण, पात-पात, पोर-पोर, पनघट-पनघट, धड़कन-धड़कन, पोर-पोर, फूंक-फूंक, लहर-लहर, घाट-घाट, कली-कली, दर-दर, धार-धार, लौट-लौट, पल-पल, चुपके-चुपके, रात-रात, करवट-करवट, शब्द-शब्द, उलट-उलट, अभी-अभी, जनम-जनम, सहते-सहते, कदम-कदम, कहीं-कहीं, किराचा-किराचा, सर-सर, पोर-पोर, जन-जन, चेहरे-चेहरे, तौबा-तौबा, प्रश्न-प्रशन, अक्षर-अक्षर, क्रंदन-क्रंदन, सींच-सींच, कुहू-कुहू, चुपके-चुपके, बूँद-बूँद, घाट-घाट, तिनका-तिनका, गली-गली, घर-घर, ऊँचे-ऊँचे, रिमझिम-रिमझिम, पोर-पोर, मंद-मंद, पट्टा-पट्टा, क्या-क्या, कभी-कभी, चूर-चूर, कण-कण, सांय-सांय, माखन-मिसरी, चाल-चरित्र आदि शब्दावृत्तियों का सार्थक-सटीक प्रयोग कर गीति रचनाओं को अर्थवत्ता प्रदान की है।

युवा नवगीतकार अपने परिवेश और पर्यावरण के प्रति सचेत है। नवगीतों में वट, पीपल, अमराई, कचनार, केतकी, सरसों, हरसिंगार, पलाश, मोगरा, मंजरियाँ, फुलवारी आदि अपनी सुषमा यथास्थान बिखेर रहे हैं। कोयल, चिरैया, मैना, दादुर, चातक, बैल आदि पात्र ग्राम्यांचली परिवेश को जीवंत कर रहे हैं। यह नवगीतकार अपनी अभिव्यक्ति सामर्थ्य के बाल पर कम से कम शब्दों में अधिक से अधिक कहने की पारंपरिक विरासत को सम्हाल सका है। पंख थकावट ओढ़े / बैठे, परवाजें संकट में पारिस्थिक विवशता, धूप पसीना पोंछ रही में विरोधाभास, चटनी-रोटी / खाते-खाते गयी ज़िंदगी ऊब में निराशा, बीजों से / जब अंकुर फूटे /खेतों ने श्रृंगार किया तथा उम्मीदों की / खोल खिड़कियाँ / मुखरित हुईं मचाने में आशावाद, उठ भिनसारे / विहग-स्वरों ने / गीतों का गुंजार किया तथा छलक उठे प्यासे अधरों से / प्रीति पेय, नवगीत तुम्हारे में श्रृंगार, रौशनी के तामसी / बरताव पर, मैं चुप रहूँ में दुविधा, नेताओं के / बतकहाव से / झरने लगे बताशे में राजनैतिक हलचल, हेरा-फेरी / के चक्कर में / चोरों के सरदार में सामाजिक वातावरण, खोटे सिक्के / चाल-चलन से / हुए बहुत मगरूर में सटीक बिम्बात्मकता, बेशर्मी की / मोटी खालें / सत्ता का दस्तूर में शासन के प्रति घटती जनास्था, वक्त छोड़कर / चला गया कुछ / तहकीकातें नयी-नयी में राजनैतिक भ्रष्टाचार, रात काटती / जलती बीडी / टूटा छप्पर, टाट-बिछौना में ग्रामीण विपन्नता, रोज दिहाड़ी / मारी जाती / सरे-आम छल-बल से में श्रमिक शोषण, चले शहर की / ओर गाँव की / पगडंडी के पाँव में ग्रामीण पलायन, कहीं-कहीं / छल-छंद-चातुरी / भला करे भगवान् में पारंपरिक भाग्यवादिता, दहक रही है / अंगारों में / मधुमासी तरुणाई में युवाओं के समक्ष उपस्थित विषम परिस्थितियाँ, बदल रही / चिन्तन की भाषा / मूल्यों का अनुवाद में सतत बदलते मूल्य, कितनी बरसातों / ने आकर / पूछा कभी हिसाब में प्रकृति की उदारता, नैट-चैट / टी. वी., मोबाइल / का जूनून, लादे सर पर / राम-रसोई / अंतर्पुर तक / विज्ञापन की गिद्ध नज़र में हावी होता बाजारवाद, उमड़-घुमड़ / कर बदरा छाए / नाचन लागे मोर में ऋतु-परिवर्तन, बंदनवार / सजें गीतों के / आभूषित अनुप्रास से में लोक की उत्सवधर्मिता, ज़िंदगी ही/ जिंदगी का / आखिरी पैगाम में जिजीविषा शब्दित होकर पाठक को रचनाओं से एकात्मकता स्थापित करने में सहायक है।

'चुप्पियों के गाँव में' समय-साक्षी गीति-रचनाओं (गीत-नवगीत) का गुलदस्ता है जिसमें नाना प्रकार के पुष्प अपने रूप, रंग, सुरभि की नैसर्गिक छटा से पाठक को मंत्र-मुग्ध कर जीवन की विषमताओं के चक्रव्यूह से उपजी पीड़ा और दर्द के संत्रास को सहने, उससे बाहर निकलने के आस्था-दीप को जलाये रखने तथा अभिमन्यु की तरह जूझने की प्रेरणा देता है। नर्मदांचली लोक जीवन की सहज-सरस बानगी समेटे गीत-पंक्तियों से स्वस्थ्य जन-मन-रंजन करने की दिशा में कलम चलाता युवा रचनाकार अपनी भाषिक सामर्थ्य, शैल्पिक कौशल, छान्दस नैपुण्य तथा अभिव्यक्ति क्षमता से अपने उज्जवल भविष्य के प्रति आश्वस्त करता है। मुझे भरोसा है कि यह कृति वरिष्ठों से शुभाशीष, हमउम्रों से समर्थन और कनिष्ठों से सम्मान पाकर विजय की कलम से नयी नवगीत संकलनों के प्रागट्य की आधार शिला बनेगी।
***
"जब से मन की नाव चली" नवगीत लहरियाँ लगें भली
*
[पुस्तक विवरण- जब से मन की नाव चली, नवगीत संग्रह, डॉ. गोपाल कृष्ण भट्ट 'आकुल', वर्ष २०१६, पृषठ १०८, मूल्य १००/-, आकार डिमाई, आवरण सजिल्द बहुरंगी, अनुष्टुप प्रकाशन, १३ गायत्री नगर, सोडाला, जयपुर ३२४००६, दूरभाष ०१४१ २४५०९७१, नवगीतकार संपर्क ०७४४ २४२४८१८, ९४६२१८२८१७]

गीतिकाव्य की अन्विति जीवन के सहज-सरस् रागात्मक उच्छवास से संपृक्त होती है। "लय" गीति का उत्स है। खेत में धान की बुवाई करती महिलायें हों या किसी भारी पाषाण को ढकेलता श्रमिक दल, देवी पूजती वनिताएँ हों या चौपाल पर ढोलक थपकाते सावन की अगवानी करते लोक गायक बिना किसी विशिष्ट अध्ययन या प्रशिक्षण के "लय" में गाते-झूमते आनंदित होते हैं। बंबुलिया हो या कजरी, फाग हो या राई, रास हो या सोहर, जस हों या काँवर गीत जान-मन हर अवसर पर नाद, ताल और सुर साधकर "लय" की आराधना में लीन हो आत्मानंदित हो जाता है।

यह "लय" ही वेदों का ''पाद'' कहे गए "छंद" का प्राण है। किसी ज्येष्ठ-श्रेष्ठ का आशीष पड़-स्पर्श से ही प्राप्त होता है। ज्ञान मस्तिष्क में, ज्योति नेत्र में, प्राण ह्रदय मे, बल हाथ में होने पर भी "पाद" बिना संचरण नहीं हो सकता। संचरण बिना संपर्क नहीं, संपर्क बिना आदान-प्रदान नहीं, इसलिए "पिंगल"-प्रणीत छंदशास्त्र वेदों का पाद है। आशय यह की छन्द अर्थात "लय" साढ़े बिना वेदों की ऋचाओं के अर्थ नहीं समझे जा सकते। जनगण ने आदि काल से "लय" को साधा जिसे समझकर नियमबद्ध करते हुए "पिंगलशास्त्र" की रचना हुई। लोकगीति नियमबद्ध होकर छन्द और गीत हो गयी। समयानुसार बदलते कथ्य-तथ्य को अगीकार करती गीत की विशिष्ट भावभंगिमा "नवगीत" कही गयी।

स्वतन्त्रता पश्चात सत्तासीन दल ने एक विशेष विचारधारा के प्रति आकर्षण वश उसके समर्थकों को शिक्षा संस्थानों में वरीयता दी। फलत: योजनाबद्ध तरीके से विकसित होती हिंदी साहित्य विधाओं में लेखन और मानक निर्धारण करते समय उस विचारधारा को थोपने का प्रयास कर समाज में व्याप्त विसंगति, विडंबना अतिरेकी दर्द, पीड़ा, वैमनस्य, टकराव, ध्वंस आदि को नवगीत, लघुकथा, व्यंग्य तथा दृश्य माध्यमों नाटक, फिल्म आदि में न केवल वरीयता दी गयी अपितु समाज में व्याप्त सौहार्द्र, सद्भाव, राष्ट्रीयता, प्रकृति-प्रेम, सहिष्णुता, रचनात्मकता को उपेक्षित किया गया। इस विचारधारा से बोझिल होकर तथाकथित प्रगतिशील कविता ने दम तोड़ दिया जबकि गीत के मरण की छद्म घोषणा करनेवाले भले ही मर गए हों, गीत नव चेतना से संप्राणित होकर पुनर्प्रतिष्ठित हो गया। अब प्रगतिवादी गीत की नवगीतीय भाव-भंगिमा में घुसपैठ करने के प्रयास में हैं। वैदिक ऋचाओं से लेकर संस्कृत काव्य तक और आदिकाल से लेकर छायावाद तक लोकमंगल की कामना को सर्वोपरि मानकर रचनाकर्म करते गीतकारों ने ''सत-शिव-सुन्दर'' और ''सत-चित-आनंद'' की प्राप्ति का माध्यम ''गीत'' और ''नवगीत'' को बनाये रखा।

यह सत्य है कि जब-जब दीप प्रज्वलित किया जाता है, 'तमस' उसके तल में आ ही जाता है किन्तु आराधना 'उजास' की ही की जाती है। इस मर्म को जान और समझकर रचनाकर्म में प्रवृत्त रहनेवाले साहित्य साधकों में वीर भूमि राजस्थान की शिक्षा नगरी कोटा के डॉ. गोपालकृष्ण भट्ट "आकुल" की कृति "जब मन की नाव चली" की रचनाएँ आश्वस्त करती हैं कि तमाम युगीन विसंगतियों पर उनके निराकरण के प्रयास और नव सृजन की जीजीविषा भारी है।

कल था मौसम बौछारों का / आज तीज औ' त्योहारों का
रंग-रोगन बन्दनवारों का / घर-घर जा बंजारन नित
इक नवगीत सुनाती जाए।

यह बनजारन क्या गायेगी?, टकराव, बिखराव, द्वेष, दर्द या हर्ष, ख़ुशी, उल्लास, आशा, बधाई? इस प्रश्न के उठते में ही नवगीत का कथ्य इंगित होगा। आकुल जी युग की पीड़ा से अपरिचित नहीं हैं।

कलरव करते खग संकुल खुश / अभिनय करते मौसम भी खुश
समय-चक्र का रुके न पहिया / प्रेम-शुक्र का वही अढैया
छोटी करने सौर मनुज की / फिर फुसलायेगा इस बार

'ढाई आखर' पढ़ने वाले को पण्डित मानाने की कबीरी परंपरा की जय बोलता कवि विसंगति को "स्वर्णिक मृग, मृग मरीचिका में / फिर दौड़ाएगा इस बार" से इंगित कर सचेत भी करता है।

महाभारत के महानायक करना पर आधारित नाटक प्रतिज्ञा, गीत-ग़ज़ल संग्रह पत्थरों का शहर, काव्य संग्रह जीवन की गूँज, लघुकथा संग्रह अब रामराज्य आएगा, गीत संग्रह नव भारत का स्वप्न सजाएँ रच चुके आकुल जी के ४५ नवगीतों से समृद्ध यह संकलन नवगीत को साम्यवादी चश्मे से देखनेवालों को कम रुचने पर भी आम पाठकों और साहित्यप्रेमियों से अपनी 'कहन' और 'कथ्य' के लिए सराहना पायेगा।

आकुल जी विपुल शब्द भण्डार के धनी हैं। तत्सम-तद्भव शब्दों का यथेचित प्रयोग उनके नवगीतों को अर्थवत्ता देता है। संस्कृत निष्ठ शब्द (देवोत्थान, मधुयामिनी, संकुल, हश्र, मृताशौच, शावक, वाद्यवृंद, बालवृन्द, विषधर, अभ्यंग, भानु, वही, कृशानु, कुसुमाकाशी, उदधि, भंग, धरणीधर, दिव्यसन, जाज्वल्यमान, विलोड़न, द्रुमदल, झंकृत, प्रत्यंचा, जिगीषा, अतिक्रम संजाल, उच्छवासा, दावानल, जठरानल, हुतात्मा, संवत्सर, वृक्षावलि, इंदीवर आदि), उर्दू से गृहीत शब्द (रिश्ते, कदम, मलाल, शिकवा, तहजीब, शाबाशी, अहसानों, तल्ख, बरतर, मरहम, बरकत, तबके, इंसां, सहर, ज़मीर, सगीर, मन्ज़िल, पेशानी, मनसूबे, जिरह, ख्वाहिश, उम्मीद, वक़्त, साजिश, तमाम, तरफ, पयाम, तारिख, असर, ख़ामोशी, गुज़र आदि ), अंग्रेजी शब्द (स्वेटर, कोट, मैराथन, रिकॉल आदि), देशज शब्द (अँगना, बिजुरिया। कौंधनि, सौर, हरसे, घरौंदे, बिझौना, अलाई, सैं, निठुरिया, चुनरिया, बिजुरिया, उमरिया, छैयाँ आदि) रचनाओं में विविध रंग-वर्ण की सुमनों की तरह सुरुचिपूर्वक गूँथे गये हैं। कुछ कम प्रचलित शब्द-प्रयोग के माध्यम से आकुल जी पाठक के शब्द-भण्डार को को समृद्ध करते हैं।

मुहावरे भाषा की संप्रेषण शक्ति के परिचायक होते हैं। आकुल जी ने 'घर का भेदी / कहीं न लंका ढाए', 'मिट्टी के माधो', 'अधजल गगरी छलकत जाए', 'मत दुखती रग कोई आकुल' जैसे प्रयोगों से अपने नवगीतों को अलंकृत किया है। इन नवगीतों में शब्द-युग्मों का प्रयोग सरसता में वृद्धि करता है। कस-बल, रंग-रोगन, नार-नवेली, विष-अमरित, चारु-चन्द्र, घटा-घनेरी, जन-निनाद, बेहतर-कमतर, क्षुण्ण-क्षुब्ध, भक्ति-भाव, तकते-थकते, सुख-समृद्धि, लुटा-पिटा,बाग़-बगीचे, हरे-भरे, ताल-तलैया, शाम-सहर, शिकवे-जिले, हार-जीत, खाते-पीते, गिरती-पड़ती, छल-कपट, आब-हवा, रीति-रिवाज़, गर्म-नाज़ुक, लोक-लाज, ऋषि-मुनि-सन्त, गंगा-यमुनी, द्वेष-कटुता आदि ऐसे शब्द युग्म हैं जिन्हें अलग करने पर दोनों भाग सार्थक रहते हैं जबकि कनबतियाँ, छुटपुट, गुमसुम आदि को विभक्त करने पर एक या दोनों भाग अर्थ खो बैठते हैं। ऐसे प्रयोग रचनाकार की भाषिक प्रवीणता के परिचायक हैं।

इन नवगीतों में अन्त्यानुप्रास अलंकारों का प्रयोग निर्दोष है। 'मनमथ पिघला करते', नील कंठ' आदि में श्लेष अलंकार का प्रयोग है। पहिया-अढ़ईया, बहाए-लगाये-जाए, जतायें-सजाएँ, भ्रकुटी-पलटी-कटी जैसे अंत्यानुप्रासिक प्रयोग नवता की अनुभूति कराते हैं। लाय, कलिंदी, रुत, क्यूँ, सुबूह, पैंजनि, इक, हरसायेगी, सरदी, सकरंत, ढाँढस आदि प्रयोग प्रचलित से हटकर किये गए हैं। दूल्हा राग बसन्त, आल्हा राग बसन्त, मेघ बजे नाचे बिजुरी, जिगिषा का दंगल, पीठ अलाई गीले बिस्तर, हाथ बिझौना रात न छूटे जैसे प्रयोग आनंदित करते हैं।

आकुल जी की अनूठी कहन 'कम शब्दों में अधिक कहने' की सामर्थ्य रखती है। नवगीतों की आधी पंक्ति में ही वे किसी गंभीर विषय को संकेतित कर मर्म की बात कह जाते हैं। 'हुई विदेशी अब तो धरती', 'नेता तल्ख सवालों पर बस हँसते-बँचते', 'कितनी मानें मन्नत घूमें काबा-काशी', 'कोई तो जागृति का शंख बजाने आये',वेद पुराण गीता कुरआन / सब धरे रेहल पर धूल चढ़ी', 'मँहगाई ने सौर समेटी', 'क्यूँ नारी का मान न करती', 'आये-गये त्यौहार नहीं सद्भाव बढ़े', 'किसे राष्ट्र की पड़ी बने सब अवसरवादी', 'शहरों की दीवाली बारूदों बीच मनाते', 'वैलेंटाइन डे में लोग वसंतोत्सव भूले', अक्सर लोग कहा करते हैं / लोक-लुभावन मिसरे', समय भरेगा घाव सभी' आदि अभिव्यक्तियाँ लोकोक्तियों की तरह जिव्हाग्र पर आसीन होने की ताब रखती हैं।

उलटबाँसी कहने की कबीरी विरासत 'चलती रहती हैं बस सड़कें, हम सब तो बस ठहरे-ठहरे' जैसी पंक्तियों में दृष्टव्य है। समय के सत्य को समझ-परखकर समर्थों को चेतावनी देने के कर्तव्य निभाने से कवि चूका नहीं है- 'सरहदें ही नहीं सुलग रहीं / लगी है आग अंदर भी' क्या इस तरह की चेतावनियों को वे समझ सकेंगे, जिनके लिए इन्हें अभिव्यक्त किया गया है ? नहीं समझेंगे तो धृतराष्ट्री विनाश को आमन्त्रित करेंगे।आकुल जी ने 'अंगद पाँव अनिष्ट ने जमाया है', कर्मण्य बना है वो, पढ़ता रहा जो गीता' की तरह मिथकों का प्रयोग यथावसर किया है। वे वरिष्ठ रचनाकार हैं।

हिंदी छंद के प्रति उनका आग्रह इन नवगीतों को सरस बनाता है। अवतारी जातीय दिगपाल छंद में पदांत के लघु गुरु गुरु में अंतिम गुरु के स्थान पर कुछ पंक्तियों में दो लघु लेने की छूट उन्होंने 'किससे क्या है शिकवा' शीर्षक रचना में ली है। 'दूल्हा राग बसन्त' शीर्षक नवगीत का प्रथम अंतरा नाक्षत्रिक जातीय सरसी छंद में है किन्तु शेष २ अंतरों में पदांत में गुरु-लघु के स्थान पर गुरु-गुरु कर दिया गया है। 'खुद से ही' का पहले - तीसरा अंतरा महातैथिक जातीय रुचिर छन्द में है किन्तु दुआरे अंतरे में पदांत के गुरु के स्थान पर लघु आसीन है। संभवत: कवि ने छन्द-विधान में परिवर्तन के प्रयोग करने चाहे, या ग़ज़ल-लेखन के प्रभाव से ऐसा हुआ। किसी रचना में छंद का शुद्ध रूप हो तो वह सीखने वालों के लिये पाठ हो पाती है।

आकुल जी की वरिष्ठता उन्हें अपनी राह आप बनाने की ओर प्रेरित करती है। नवगीत की प्रचलित मान्यतानुसार 'हर नवगीत गीत होता है किन्तु हर गीत नवगीत नहीं होता' जबकि आकुल जी का मत है ''सभी गीत नवगीत हो सकते हैं किन्तु सभी नवगीत गीत नहीं कहे जा सकते" (नवभारत का स्वप्न सजाएँ, पृष्ठ ८)। यहाँ विस्तृत चर्चा अभीष्ट नहीं है पर यह स्पष्ट है कि आकुल जी की नवगीत विषयक धारणा सामान्येतर है। उनके अनुसार "कविता छान्दसिक स्वरूप है जिसमें मात्राओं का संतुलन उसे श्रेष्ठ बनाता है, जबकि गीत लय प्रधान होता है जिसमें मात्राओं का सन्तुलन छान्दसिक नहीं अपितु लयात्मक होता है। गीत में मात्राओं को ले में घटा-बढ़ाकर सन्तुलित किया जाता है जबकि कविता मात्राओं मन ही सन्तुलित किये जाने से लय में पीढ़ी जा सकती है। इसीलिये कविता के लिए छन्दानुशासन आवश्यक है जबकि 'गीत' लय होने के कारण इस अनुशाशन से मुक्त है क्योंकि वह लय अथवा ताल में गाया जाकर इस कमी को पूर्ण कर देता है। गीत में भले ही छन्दानुशासन की कमी रह सकती है किन्तु शब्दों का प्रयोग लय के अनुसार गुरु व् लघु वर्ण के स्थान को अवश्य निश्चित करता है जो छन्दानुशासन का ही एक भाग है, जिसकी कमी से गीत को लयबद्ध करने में मुश्किलें आती हैं।" (सन्दर्भ उक्त)

''जब से मन की नाव चली'' के नवगीत आकुल जी के उक्त मंतव्य के अनुसार ही रचे गए हैं। उनके अभिमत से असहमति रखनेवाले रचनाकार और समीक्षक छन्दानुशासन की कसौटी पर इनमें कुछ त्रुटि इंगित करें तो भी इनका कथ्य इन्हें ग्रहणीय बनाने के लिए पर्याप्त है। किसी रचना या रचना-संग्रह का मूल्यांकन समग्र प्रभाव की दृष्टि से करने पर ये रचनाएँ सारगर्भित, सन्देशवाही, गेयात्मक, सरस तथा सहज बोधगम्य हैं। इनका सामान्य पाठक जगत में स्वागत होगा। समीक्षकगण चर्चा के लिए पर्याप्त बिंदु पा सकेंगे तथा नवगीतकार इन नवगीतों के प्रचलित मानकों के धरातल पर अपने नवगीतों के साथ परखने का सुख का सकेंगे। सारत: यह कृति विद्यार्थी, रचनाकार और समीक्षक तीनों वर्गों के लिए उपयोगी होगी।

आकुल जी की वरिष्ठ कलम से शीघ्र ही अन्य रचनारत्नों की प्राप्ति की आशा यह कृति जगाती है। आकुल जी के प्रति अनंत-अशेष शुभकामनायें।
***
जीवनमूल्यों से समृद्ध 'हरि - दोहावली '
*
संस्कृत साहित्य में बिना पूर्ववर्ती या परवर्ती प्रसंग के एक ही छंद में पूर्ण अर्थ व चमत्कार प्रगट करनेवाले अनिबद्ध काव्य को मुक्तक कहा गया है- ' मुक्तक श्लोक एवैकश्चमत्कारः क्षमः सतां'. अभिनव गुप्त के शब्दों में 'मुक्ता मन्यते नालिंकित तस्य संज्ञायां कन. तेन स्वतंत्रया परिसमाप्त निराकांक्षार्थमपि, प्रबंधमध्यवर्ती मुक्तक मिनमुच्यते'। हिन्दी गीति काव्य के अनुसार मुक्तक पूर्ववर्ती या परवर्ती छंद या प्रसंग के बिना चमत्कार या अर्थ की पूर्ण अभिव्यक्ति करनेवाला छंद है। सार यह कि दोहा मुक्तक छंद है।

घटकों की दृष्टि से छंदों के २ प्रकार वर्णिक (वर्ण वृत्त की आवृत्तियुक्त) तथा मात्रिक (मात्रा वृत्त की आवृत्तियुक्त) हैं। मात्रिक छन्दों में मात्राओं की गिनती की जाती है । वर्णिक छन्दों में वर्णों की संख्या और लघु - दीर्घ का निश्चित क्रम होता है, जो मात्रिक छन्दों में अनिवार्य नहीं है ।

पंक्तियों की संख्या के आधार पर छंदों को दो पंक्तीय या द्विपदिक (दोहा, सोरठा, आल्हा, शे'र आदि), तीन पंक्तीय या त्रिपदिक(गायत्री, ककुप्, माहिया, हाइकु आदि), चार पंक्तीय या चतुष्पदिक (मुक्तक, घनाक्षरी, हरिगीतिका, सवैया आदि), छ: पंक्तीय या षटपदिक (कुण्डलिनी) आदि में वर्गीकृत किया गया है।

छंद की सभी पंक्तियों में एक सी योजना हो तो उन्हें 'सम', सभी विषम पंक्तियों में एक जैसी तथा सभी सम पंक्तियों में अन्य एक जैसी योजना हो तो अर्ध सम तथा हर पंक्ति में भिन्न योजना हो विषम छंद कहा जाता है। जिस मात्रिक छन्द की द्विपदी में विषम चरणों की मात्राएँ समान तथा सम चरणों की मात्राएँ विषम चरणों से भिन्न एक समान होती हैं उसे अर्ध सम मात्रिक छंद कहा जाता है। दोहा (विषम चरण १३ मात्रा, सम चरण ११ मात्रा) प्रमुख अर्ध सम मात्रिक छंद है। लघु-गुरु मात्राओं की संख्या के आधार पर दोहा के २३ प्रकार हैं ।

दोहा छंदों का राजा है। मानव जीवन को जितना प्रभावित दोहा ने किया उतना किसी भाषा के किसी छंद ने कहीं-कभी नहीं किया। दोहा छंद लिखना बहुत सरल और बहुत कठिन है। केवल दो पंक्तियाँ लिखना दूर से आसान प्रतीत होता है किन्तु जैसे-जैसे निकटता बढ़ती है दोहे की बारीकियाँ समझ में आती हैं, मन दोहे में रमता जाता है। धीरे-धीरे दोहा आपका मित्र बन जाता है और तब दोहा लिखना नहीं पड़ता वह आपके जिव्हाग्र पर या मस्तिष्क में आपके साथ आँख मिचौली खेलता प्रतीत होता है। दोहा आपको आजमाता भी है. 'सजगता हटी, दुर्घटना घटी' यह उक्ति दोहा-सृजन के सन्दर्भ में सौ टंच खरी है।

दोहा का कथ्य सामान्यता में विशेषता लिये होता है। दोहे की एक अर्धाली (चरण) पर विद्वज्जन घंटों व्याख्यान या प्रवचन करते हैं। दोहा गागर में सागर, बिंदु में सिन्धु या कंकर में शंकर की तरह कम से कम शब्दों में गहरी से गहरी बात कहता है। 'देखन में छोटे लगें, घाव करें गंभीर' तथा प्रभुता से लघुता भली' में दोहा के लक्षण वर्णित है।

दोहा के कथ्य के ३ गुण १. लाक्षणिकता, २. संक्षिप्तता तथा ३. बेधकता या मार्मिकता हैं।

१. लाक्षणिकता: दोहा विस्तार में नहीं जाता इंगित से संकेत कर अपनी बात कहता है। 'नैनन ही सौं बात' अर्थात बिना कुछ बोले आँखों के संकेत से बोलने का लक्षण ही दोहे की लाक्षणिकता है। जो कहना है उसके लक्षण का संकेत ही पर्याप्त होता है।

२. संक्षिप्तता: दोहा में गीत या गजल की तरह अनेक पंक्तियों का भंडार नहीं होता किन्तु वह व्रहदाकारिक रचनाओं का सार दो पंक्तियों में ही अभिव्यक्त कर पाता है। अतीत में जब पत्र लिखे जाते थे तो समयाभाव तथा अभिव्यक्ति में संकोच के कारण प्रायः ग्राम्य वधुएँ कुछ वाक्य लिखकर 'कम लिखे से अधिक समझना' लिखकर अपनी विरह-व्यथा का संकेत कर देती थीं. दोहा संक्षिप्तता की इसी परंपरा का वाहक है।

३. बेधकता या मार्मिकता: दोहा बात को इस तरह कहता है कि वह दिल को छू जाए। मर्म की बात कहना दोहा का वैशिष्ट्य है।

दोहा दुनिया में अपना संकलन लेकर पधार रहे श्री हरि प्रकाश श्रीवास्तव 'हरि' फ़ैज़ाबादी रचित प्रस्तुत दोहा संकलन तरलता, सरलता, सहजता तथा बोधगम्यता के चार स्तंभों पर आधृत है। पारंपरिक आस्था-विश्वास की विरासत पर अभिव्यक्ति का प्रासाद निर्मित करते दोहाकार सम-सामयिक परिवर्तनों और परिस्थितियों के प्रति भी सजग रह सके हैं।

देखो तुम इतिहास में, चाहे धर्म अनेक।
चारों युग हर काल में, सत्य मिलेगा एक।।
*
लन्दन पेरिस टोकियो, दिल्ली या बगदाद।
खतरा है सबके लिए, आतंकी उन्माद।।

राम-श्याम की जन्मभूमि होने का गौरव प्राप्त अवध-ब्रज अंचल की भाषा हरि जी के मन-प्राण में समायी है। वे संस्कृतनिष्ठ, हिंदी, देशज, उर्दू तथा आंग्ल शब्द पूर्ण सहजता के साथ प्रयोग में लाते हैं। ज्योतिर्मय, जगजननी, बुद्धि विनायक, कृपानिधान, वृद्धाश्रम, चमत्कार, नश्वर, वृक्ष, व्योम, आकर्षण, पाषाण, ख्याति, जीवन, लज्जा, अनायास, बचपना, बुढ़ापा, सुवन, धनुही, दिनी, बेहद, रूहानी, अंदाज़, आवाज़, रफ्तार, ख़िलाफ़, ज़बान, लब, तक़दीर, पिज़्ज़ा, बर्जर, पेस्ट्री, हॉट, डॉग, पैटीज़, सी सी टी व्ही, कैमरा आदि शब्द पंक्ति-पंक्ति में गलबहियाँ डाले हुए, भाषिक समन्वय की साक्ष्य दे रहे हैं।

शब्द-युग्म का सटीक प्रयोग इस संग्रह का वैशिष्ट्य है। ये शब्द युग्म ८ प्रकार के हैं। प्रथम जिनमें एक ही शब्द की पुनरावृत्ति अपने मूल अर्थ में है, जैसे युगों-युगों, कण-कण, वक़्त-वक़्त, राधे-राधे आदि। द्वितीय जिनमें दो भिन्नार्थी शब्द संयुक्त होकर अपने-अपने अर्थ में प्रयुक्त होते हैं यथा अजर-अमर, सुख-दुःख, सीता-राम, माँ-बाप, मन्दिर-मस्ज़िद, दिल-दिमाग, भूत-प्रेत, तीर-कमान, प्रसिद्धि-सम्मान, धन-प्रसिद्धि, ऐश-आराम, सुख-सुविधा आदि। तृतीय जिनमें दो शब्द संयुक्त होकर भिन्नार्थ की प्रतीति कराते हैं उदाहरण राम-रसायन, पवन पुत्र, खून-पसीने, सुबहो-शाम, आदि। चतुर्थ सवाल-जवाब, रीति -रिवाज़, हरा-भरा आदि जिनमें दोनों शब्द मूलार्थ में संयुक्त मात्र होते हैं। पंचम जिनमें दो समानार्थी शब्द संयुक्त हैं जैसे शादी-ब्याह आदि। षष्ठम जिनमें प्रयुक्त दो शब्दों में से एक निरर्थक है यथा देर-सवेर में सवेर। सप्तम एक शब्द का दो बार प्रयोग कर तीसरे अर्थ का आशय जैसे जन-जन का अर्थ हर एक जन होना, रोम-रोम का अर्थ समस्त रोम होना, हम-तुम आशय समस्त सामान्य जान होना आदि। अष्टम जिनमें तीन शब्दों का युग्म प्रयुक्त है देखें ब्रम्हा-विष्णु-महेश, राम चरित मानस, कर्म-वचन-मन, पिज़्ज़ा-बर्जर-पेस्ट्री, लन्दन-पेरिस-टोकियो आदि। शब्द-युग्मों का प्रयोग दोहों की रोचकता में वृद्धि करता है।

समासों का यथावसर उपयोग दोहों की पठनीयता और अर्थवत्ता में वृद्धि करता है। कायस्थ, चित्रगुप्त, बुद्धि विनायक, जगजननी, कृपानिधान, दीनानाथ, अवधनरेश, द्वारिकाधीश, पवनपुत्र, राजनीति, रामभक्त जैसे सामासिक शब्दों का सम्यक प्रयोग दोहों को अर्थवत्ता देता है।

हरि जी मुहावरोंऔर लोकोक्तियों का प्रयोग करने से भी नहीं चूके हैं। उदाहरण-

राजनीति भी हो गयी, अब बच्चों का खेल।
पलकें झगड़ा-दुश्मनी, पल में यारी-मेल।।

कल दिन तेरे साथ था, आज हमारी रात।
किसी ने है यही, वक़्त-वक़्त की बात।।

नीति के दोहे रचकर वृन्द, रहीम, कबीर आदि कालजयी हैं, इनसे प्रेरित हरि जी ने भी अपने नीति के दोहे संग्रह में सम्मिलित किये हैं। दोहों में निहित कुछ विशेषताएं इंगित करना पर्याप्त होगा-

प्रेम वफ़ा इज्जत दगा, जो भी देंगे आप।
लौटेगा बनकर वही, वर या फिर अभिशाप।। -जीवन मूल्य

कण-कण में श्री राम हैं, रोम-रोम में राम।
घट-घट उनका वास है, मन-मन में है धाम।। -प्रभु महिमा, अनुप्रास अलंकार, पुनरावृत्ति अलंकार

चित्रगुप्त भवन को, शत-शत बार प्रणाम।
उनसे ही जग में हुआ, कायस्थों का नाम।। -ईश स्मरण, पुनरावृत्ति अलंकार

इच्छा फिर से हो रही, होने की नादान।
काश मिले बचपन हमें, फिर वो मस्त जहान।। -मनोकामना

जितना बढ़ता जा रहा, जनसंख्या का रोग।
तनहा होते जा रहे, उतने ही अब लोग।। - सामयिक सत्य, विरोधाभास अलंकार

भाता है दिल को तभी, आल्हा सोहर फाग।
घर में जब चूल्हा जले, बुझे पेट की आग ।। - सनातन सत्य, मुहावरा

कहाँ लिखा है चीखिये, करिये शोर फ़िज़ूल।
गूँगों की करता नहीं, क्या वो दुआ क़ुबूल।। - पाखंड विरोध

पैरों की जूती रही, बहुत सहा अपमान।
पर औरत अब चाहती, अब आदर-सम्मान।। -स्त्री विमर्श, मुहावरा

सारत:, हरि जी के इन दोहों में शब्द-चमत्कार पर जीवन सत्यों को, शिल्प पर अर्थ को, श्रृंगारिकता पर सरलता को वरीयता दी गयी है। किताबी विद्वानों को भले ही इनमें आकर्षणक आभाव प्रतीत हो किन्तु जीवन मूल्यों को अपरोहरी माननेवालों के मन को ये दोहे भायेंगे। पूर्व में एक ग़ज़ल संग्रह रच चुके हरि जी से भविष्य में अन्य विधाओं में भी कृतियाँ प्राप्त हों।
***
बुधिया लेता टोह : चीख लगे विद्रोह
*
स्वातंत्र्योत्तर भारतीय साहित्य छायावादी रूमानियत (पंत, प्रसाद, महादेवी, बच्चन), राष्ट्रवादी शौर्य (मैथिली शरण गुप्त, माखन लाल चतुर्वेदी, दिनकर, सोहनलाल द्विवेदी) और प्रगतिवादी यथार्थ (निराला, नागार्जुन, त्रिलोचन, मुक्तिबोध) के संगुफन का परिणाम है। गीत के संदर्भ में परंपरा और नवता के खेमों में बँटे मठाधीश अपनी सुविधा और दंभ के चलते कुछ भी कहें और करें, यह सौभाग्य है कि हिंदी का बहुसंख्यक नव रचनाकार उन पर ध्यान नहीं देता, अनुकरण करना तो दूर की बात है। अपनी आत्म चेतना को साहित्य सृजन का मूलाधार मानकर, वरिष्ठों के विमर्श को अपने बौद्धिक तर्क के धरातल पर परख कर स्वीकार या अस्वीकार करने वाले बसन्त कुमार शर्मा ऐसे ही नव-गीतकार हैं जो नव-गीत और नवगीत को भारत पकिस्तान नहीं मानते और वह रचते हैं जो कथ्य की आवश्यकता है। नर्मदा तीर पर चिरकाल से स्वतंत्र चिंतन-मनन-सृजन की परंपरा रही है। रीवा नरेश रघुराज सिंह से लेकर गुजराती कवि नर्मद तक की यह परंपरा वर्तमान में भी निरंतर गतिमान है। बसन्त कुमार शर्मा राजस्थान की मरुभूमि से आकर इस सनातन प्रवाह की लघुतम बूँद बनने हेतु यात्रारंभ कर रहे हैं।

गीत-प्रसंग में तथाकथित प्रगतिवादी काव्य समीक्षकों द्वारा गीत को नकारने ही नहीं गीत के मरने की घोषणा करने और नवान्वेषण के पक्षधरों द्वारा गीत-तत्वों के पुनरावलोकन और पुनर्मूल्यांकन के स्थान पर निजी मान्यताओं को आरोपित करने ने नव रचनाकारों के समक्ष दुविधा उपस्थित कर दी है। 'मैं इधर जाऊँ कि उधर जाऊँ?' की मन:स्थिति से मुक्त होकर बसन्त ने शीत-ग्रीष्म के संक्रांति काल में वैभव बिखेरने का निर्णय किया तो यह सर्वथा उचित ही है। पारंपरिक गीत-तनय के रूप में नवगीत के सतत बदलते रूप को स्वीकारते हुए भी उसे सर्वथा भिन्न न मानने की समन्वयवादी चिंतन धारा को स्वीकार कर बसन्त ने अपनी गीति रचनाओं को प्रस्तुत किया है। नवगीत के संबंध में महेंद्र भटनागर के नवगीत: दृष्टि और सृष्टि की भूमिका में श्रद्धेय देवेंद्र शर्मा ने ठीक ही लिखा है "वह रचना जो बहिरंग स्ट्रक्चर के स्तर पर भले ही गीत न हो किन्तु वस्तुगत भूमि पर नवोन्मेषमयी हो उसे नवगीतात्मक ही कहना संगत होगा.... गीत के लिए जितना छंद आवश्यक है, उतनी लय। लय यदि आत्मा है तो छंद उसको धारण करने वाला कलेवर है। प्रकारांतर से लय यदि जनक है तो छंद उसको धारण करने वाला कलेवर है। कविकर्म के संदर्भ में कहा गया है- "छंदोभंग न कारयेत" और छंदोभंग की स्थिति जब रचनाकार का 'लय' पर अभीष्ट अधिकार न हो।... नवगीत विद्वेषी पारम्परिक (मंचीय) गीतकारों और नयी कविता के पक्षपाती इधर एक भ्रामक प्रचार करते नहीं थक रहे कि नवगीत में जिस बोध-पक्ष और चेतना-पक्ष का उन्मेष हुआ वह प्रयोगवाद और नयी कविता का ही 'उच्छिष्ट' है। ऐसी सोच पर हँसा या रोया ही जा सकता है।...'नवगीत' नयी 'कविता' का 'सहगामी' तो है, 'अनुगामी' कतई नहीं है।"

कवि बसन्त ने परंपरानुपालन करते हुए शारद-स्तवनोपरांत उन्हें समर्पित इन रचनाओं में 'लय' के साथ न्याय करते हुए 'निजता', 'तथ्यपरकता', 'सोद्देश्यता' तथा 'संप्रेषणीयता' के पंच पुष्पों से सारस्वत पूजन किया है। इनमें 'गीत' और 'नवगीत' गलबहियाँ कर 'कथ्य' को अभिव्यक्त करते हैं। नर्मदांचल में गीत-नवगीत को भारत-पाकिस्तान की तरह भिन्न और विरोधी नहीं नीर-क्षीर की तरह अभिन्न और पूरक मानने की परंपरा है। जवाहर लाल चौरसिया तरुण, यतीन्द्र नाथ राही, संजीव वर्मा 'सलिल', राजा अवस्थी, विजय बागरी की श्रृंखला में बसन्त कुमार शर्मा और अविनाश ब्योहार अपनी निजता और वैशिष्ट्य के साथ जुड़े हैं। बसन्त की रचनाओं में लोकगीत की सुबोधता, जनगीत का जुड़ाव, पारम्परिक गीत का लावण्य और नागर गीत की बदलाव की चाहत वैयक्तिक अभिव्यक्ति के साथ संश्लिष्ट है। वे अंतर्मन की उदात्त भावनाओं को काल्पनीयक बिम्ब-प्रतीकों के माध्यम से व्यक्त करते हुए देते हैं । यथार्थ और कल्पना का सम्यक सम्मिश्रण इन गीतों-नवगीतों को सहज ग्राह्य बना देते हैं।

धौलपुर राजस्थान में जन्मे बसन्त जी भारतीय रेल सेवा में चयनित होकर परिचालन प्रबंधन के सिलसिले में देश के विभिन्न भागों से जुड़े रहे हैं। उनके गीतों में ग्रामीण उत्सवधर्मिता और नागर विसंगतियाँ, प्रकृति चित्रण और प्रशासनिक विडम्बनाएँ, विशिष्ट और आम जनों का मत-वैभिन्न्य रसमयता के साथ अभिव्यक्त होता है। गौतम बुद्ध कहते हैं 'दुःख ही सत्य है।' आंग्ल उपन्यासकार थॉमस हार्डी के अनुसार 'हैप्पीनेस इज ओनली एन इण्टरल्यूड इन द जनरल ड्रामा ऑफ़ पेन.' अर्थात दुःखपूर्ण जीवन नाटक में सुख केवल क्षणिक पट परिवर्तन है। इसीलिये शैलेन्द्र लिखते हैं 'दुनिया बनाने वाले काहे को दुनिया बनाई?' बसन्त इनसे पूरी तरह सहमत नहीं हैं। उनका हीरो 'बुधिया' बादलों की टोह लेते हुए साहब को विद्रोह लगने पर भी चीख-पुकार करता है क्योंकि उसे अपने पुरूषार्थ पर भरोसा है-

आये बादल, कहाँ गए फिर,
बुधिया लेता टोह ...
... आढ़तियों ने मिल फसलों की
सारी कीमत खाई
सूख गयी तुलसी आँगन की
झुलस गयी अमराई
चीख पुकार कृषक की ल
साहब को विद्रोह

परम्परा से कृषि प्रधान देश भारत को बदल कर चंद उद्योगपतियों के हित साधन हेतु किसानी को हानि का व्यवसाय बनाने की नीति ने किसानों को कर्जे के पाश में जकड़कर पलायन के लिए विवश कर दिया है-

बैला खेत झौंपडी गिरवी
पर खाली पॉकेट
छोड़ा गाँव आज बुधिया ने
बिस्तर लिया लपेट ....
... रौंद रहीं खेतों को सड़कें
उजड़ रहे हैं जंगल
सूख गया पानी झरनों का
कैसे होगा मंगल?
आदम ने कर डाला नालों-
नदियों का आखेट

प्रकृति और पर्यावरण की चिंता 'बुधिया' को चैन नहीं लेने देती। खाट को प्रतीक बनाकर कवि सफलतापूर्वक गीत नायक की विपन्नता 'कम कहे से ज्यादा समझना' की तर्ज पर उद्घाटित करता है-

जैसे-तैसे ढाँक रही तन,
घर में टूटी खाट
बैठा उकड़ू तर बारिश में
बुधिया जोहे बाट

गाँव से पलायन कर सुख की आस में शहर आनेवाला यह कहाँ जानता है कि शहर की आत्मा पर भी गाँव की तरह अनगिन घाव हैं। अपनी जड़ छोड़कर भागने वाले पूर्व की जड़ पश्चिम के मूल्यों को अपनाकर भी जम नहीं पातीं-

पछुआ हवा शहर से चलकर,
गाँवों तक आई
देख सड़क को पगडंडी ने
ली है अँगड़ाई
बग्घी घोड़ी कार छोड़कर
मटक रहा दूल्हा
नई बहुरिया भागे होटल
छोड़ गैस-चूल्हा
जींस पहनकर नाच रही हैं
सासू - भौजाई

ठौर-ठिकाना ढूँढते गाँव झाड़-पेड़-परिंदों के बिना निष्प्राण हैं। कोढ़ में खाज है- "संबंधों के मुख्य द्वार पर / शक कठोर प्रहरी।" सरकारी लाल-फीताशाही की असलियत कवि से छिप नहीं पाती-

"बजता लेकिन कौन उठाये
सच का टेलीफून?"
पैसे लिए बिना कोई भी
कब थाने में हिलता
बिना दक्षिणा के पटवारी
कब किसान से मिलता
लगे वकीलों के चक्कर तो
उतर गई पतलून

जीवन केवल दर्द-दुःख का दस्तावेज नहीं है, सुख के शब्द भी इन पर अंकित-टंकित हैं। इन गीतों का वैशिष्टय दुःख के साथ सुख को भी समेटना है। इनमें फागुन मोहब्बतों की फसल उगाने आज भी आता है

गीत-प्रीत के हमें सुनाने
आया है फागुन
मोहब्बतों की फसल उगाने
आया है फागुन
सरसों के सँग गेहूं खेले,
बथुआ मस्त उगे
गौरैया के साथ खेत में
दाने काग चुने
हिल-मिलकर रहना सिखलाने
आया है फागुन

'कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन' की विरासत वाले देश को श्रम की महत्ता बतानी पड़े इससे बड़ी विडंबना और क्या हो सकती है-

रिद्धि-सिद्धि तो वहीं दौड़तीं,
श्रम हो जहाँ अकूत

बसन्त जी समय के साथ कदमताल करते हुए तकनीक को इस्तेमाल ही नहीं करते, उसे अपनी नवगीत का विषय भी बनाते हैं-

वाट्स ऐप हो या मुखपोथी
सबके अपने-अपने मठ हैं
रहते हैं छत्तीस अधिककतर
पड़े जरूरत तो तिरसठ हैं
रंग निराले, ढंग अनोखे
ओढ़े हुए मुखौटे अनगिन
लाइक और कमेंट खटाखट
चलते ही रहते हैं निश-दिन
छंद हुए स्वच्छंद युवा से
गीत-ग़ज़ल के भी नव हठ हैं

कृति नायक 'बुधिया' उसी तरह बार-बार विविध बिम्बों-प्रतीकों के साथ भिन्न-भिन्न भावनाओं को शब्दित करता है जैसे मेरे नवगीत संग्रहों "काल है संक्रांति का" में 'सूर्य' तथा "सड़क पर" में 'सड़क' में गया है। हो सकता है शब्द-युग्म प्रयोगों की तरह यह चलन भी नए नवगीतकारों में प्रचलित हो। आइये, बुधिया की अर्जी पर गौर करें-

अर्जी लिए खड़ा है बुधिया
दरवाजे पर खाली पेट
राजाजी कुर्सी पर बैठे
घुमा रहे हैं पेपरवेट
कहने को तो 'लोकतंत्र' है,
मगर 'लोक' को जगह कहाँ है?
मंतर सारे पास 'तंत्र' के
लोक भटकता यहाँ-वहाँ
रोज दक्षिणा के बढ़ते हैं
सुरसा के मुँह जैसे रेट

राजाजी प्रजा को अगड़ी-पिछड़ी में बाँट कर ही संतुष्ट नहीं होते, एक-एक कर सबका शिकार करना अपन अधिकार मानते हैं। प्यासी गौरैया और नालों पर लगी लंबी लाइन उन्हें नहीं दिखती लेकिन बुढ़िया मिट्टी के घड़े को चौराहे पर तपते और आर ओ वाटर को फ्रिज में खिलवाड़ करते देखता है-

घट बिन सूनी पड़ी घरौंची
बुधिया भरता रोज उसासी

इन रचनाओं में देश-काल समाज की पड़ताल कर विविध प्रवृत्तियों को इंगित सम्प्रेषित किया गया है। कुछ उदाहरण देखें-

लालफीताशाही-

फाइलों में सज रही हैं / दर्द दुःख की अर्जियाँ/ चीख-पुकार कृषक की लगती / साहब को विद्रोह।

भ्रष्टाचार-

दाम है मुश्किल चुकाना / ऑफिसों में टीप का, पैसे लिए बिना कोई भी / कब थाने में हिलता, बिना दक्षिणा के पटवारी / कब किसान से मिलता।

न्यायालय-

लगे वकीलों के चक्कर तो / उतर गई पतलून।

कुंठा-

सबकी चाह टाँग खूँटी पर / कील एक ठोंके।

गरीबी-

जैसे-तैसे ढाँक रही तन / घर में टूटी खाट / बैठा उकड़ूँ तर बारिश में / बुधिया जोहे बाट, बैला खेत झोपड़ी गिरवी / पर खाली पॉकेट, बिना फीस के, विद्यालय में / मिला न उसे प्रवेश।

राजनैतिक-

जुमले लेकर वोट माँगने / आते सज-धज नेता।
जन असंतोष- कहीं सड़क पर, कहीं रेल पर / चल रास्ता रोकें रोकें।

पर्यावरण-

कूप तड़ाग बावली नदियाँ / सूखीं, सूने घाट, खड़ा गाँव से दूर सूखता / बेबस नीम अकेला, चहक नहीं अब गौरैया की / क्रंदन पड़े सुनाई।

किसान समस्या- पानी सँग सिर पर सवार था / बीज खाद का चक्कर, रौंद रहीं खेतों को सड़कें / उजड़ रहे हैं जंगल, आढ़तियों ने मिल फसलों की / सारी कीमत खाई।

सामाजिक-

उड़े हुए हैं त्योहारों से / अपनेपन के रंग, हुई कमी परछी-आँगन की / रिश्तों का दीवाला, सूख गई तुलसी आँगन की / झुलस गई अमराई अमराई, जींस पहनकर नाच रही हैं / बड़की भौजाई, संबंधों के मुख्य द्वार पर / शक कठोर प्रहरी।

जनगण की व्यथा-कथा किन्ही खास शब्दों की मोहताज नहीं होती। नीरज भले ही 'मौन ही तो भावना की भाषा है' कहें पर आज जब चीत्कार भी अनसुना किया जा रहा है, नवगीत को पूरी शिद्दत के साथ वह सब कहना ही होगा जो वह कहना चाहता है। बसन्त जी नवगीतों में शब्दों को वैसे ही पिरोते हैं जैसे माला में मोती पिरोये जाते हैं। इन नवगीतों में नोन, रस्ता, बैला, टोह, दुबारा, बहुरिया, अँगनाई, पँखुरियाँ, फिकर, उजियारे, पसरी, बिजूका, भभूका, परजा, लकुटी, घिरौंची, उससे, बतियाँ रतियाँ, निहारत जैसे शब्दों के साथ वृषभ, आरोह, अवरोह, तृषित, स्वप्न, अट्टालिकाएँ, विपदा, तिमिर, तृष्णा, संगृहीत, ह्रदय, गगन, सद्भावनाएँ, आराधनाएँ, वर्जनाएँ, कलुष, ग्रास जैसे संस्कृतनिष्ठ शब्दों को पूरी स्वाभाविकता के साथ प्रयोग करते हैं। इन गीतों में जितनी स्वाभाविकता के साथ साहब, फाइलों, ऑफिसों, पॉकेट, लैपटॉप, रॉकेट, जींस, बार्बी डॉल, मोबाईल, रेस, चैटिंग, सैटिंग, चेन, स्विमिंग पूल, डस्टबिन, बुलडोजर, गफूगल, रेट, जैकेट, वेट, वाट्स ऐप, लाइक, कमेंट, फ्रिज, आर ओ वाटर, बोतल, इंजीनियरिंग, होमवर्क आदि अंगरेजी शब्द प्रयोग में लाए गए हैं, उतने ही अपनेपन के साथ उम्र, अर्जियां, लबों, रिश्तों, हर्जाने, कर्जा, मूरत, कश्मकश, ज़िंदगी, दफ्तर, कोशिश, चिट्ठी, मंज़िल, साजिश, सरहद, इमदाद, रियायत समंदर, अहसान जैसे अरबी-फ़ारसी-तुर्की व् अन्य भाषाओँ के प्रचलित शब्द भी बेहिचक-बखूबी प्रयोग किये गए हैं।

नवगीतों में पिछले कुछ वर्षों से निरंतर बढ़ रही शब्द-युग्मों को प्रयोग करने की प्रवृत्ति बसन्त जी के नवगीतों में भी हैं। नव युग्मों के विविध प्रकार इन गीतों में देखे जा सकते हैं यथा- दो सार्थक शब्दों का युग्म, पहला सार्थक दूसरा निरर्थक शब्द, पहला निरर्थक दूसरा सार्थक शब्द, दोनों निरर्थक शब्द, पारिस्थितिक शब्द युग्म, संबंध आधारित शब्द युग्म, मौलिक शब्द युग्म, एक दूसरे के पूरक, एक दूसरे से असम्बद्ध, तीन शब्दों का युग्म आदि। रोटी-नोन, जैसे-तैसे, चीख-पुकार, हरा-भरा, ठौर-ठिकाना, मुन्ना-मुन्नी, भाभी-भैया, काका-काकी, चाचा-ताऊ, जीजा-साले, दादी-दादा, अफसर-नेता, पशु-पक्षी, नाली-नाला, मंदिर-मस्जिद, सज-धज, गम-शूम, झूठ-मूठ, चाल-ढाल, खाता-पीता, छुआ-छूत, रोक-थाम, रात-दिन, पाले-पोज़, आँधी-तूफ़ान, आरोह-अवरोह, गिल्ली-डंडा, सर-फिरी, घर-बाहर, तन-मन, जाती-धर्म, हाल-चाल, साँझ-सकारे, भीड़-भड़क्का, कौरव-पांडव, आस-पास, रंग-बिरंगे, नाचे-झूमे, टैग-तपस्या, बग्घी-घोडा, खेत-मढ़ैया, निश-दिन, नाचो-गाओ, पोखर-कूप-बावड़ी, ढोल-मँजीरा, इसकी-उसकी-सबकी, रिद्धि-सिद्धि, तहस-नहस, फूल-शूल, आदि।

बसन्त जी शब्दावृत्तियों के प्रयोग में भी पीछे नहीं हैं। हर-हर, हँसते-हँसते, मचा-मचा, दाना-दाना, खो-खो, साथ-साथ, संग-संग, बिछा-बिछा, टुकुर-टुकुर, कटे-कटे, हँस-हँस, गली-गली, मारा-मारा, बारी-बारी आदि अनेक शब्दावृत्तियाँ विविध प्रसंगों में प्रयोग कर भाषा को मुहावरेदार बनाने का सार्थक प्रयास किया गया है।

अलंकार

अन्त्यानुप्रास सर्वत्र दृष्टव्य है। यमक, उपमा व श्लेष का भी प्रयोग है। विरोधाभास- जितने बड़े फ़्लैट-कारें / मन उतना ज्यादा छोटा। व्यंजना- बहुतई अधिक विकास हो रहा।

मुहावरे

कहीं-कहीं मुहावरों के प्रयोग ने रसात्मकता की वृद्धि की है- दिल ये जल जाए, मेरी मुर्गी तीन टाँग की आदि।

आव्हान

इस कृति का वैशिष्ट्य विसंगतियों के गहन अन्धकार में आशा का दीप जलाए रखना है। संकीर्ण मानसिकता के पक्षधर भले ही इस आधार पर नवता में संदेह करें पर गत कुछ दशकों से नवगीत का पर्याय अँधेरा और पीड़ा बना दिए जाने के काल में नवता उजाले हुए हर्ष का आव्हान करना ही है। ''आइये, मिलकर बनायें / एक भारत, श्रेष्ठ भारत'' के आव्हान के साथ गीतों-नवगीतों की इस कृति का समापन होना अपने आप में एक नवत्व है। छंद और लय पर बसन्त जी की पकड़ है। व्यंजनात्मकता और लाक्षणिकता का प्रभाव आगामी कृतियों में और अधिक होगा। बसन्त जी की प्रथम कृति उनके उज्जवल भविष्य का संकेत करती है। पाठक निश्चय ही इन गीतों में अपने मन की बात पाएँगे हुए कहेंगे- ''अल्लाह करे जोरे-कलम और जियादा।''
***

कोई टिप्पणी नहीं: