एक रचना
महिला दिवस
*
एक दिवस क्या
माँ ने हर पल, हर दिन
महिला दिवस मनाया।
*
अलस सवेरे उठी पिता सँग
स्नान-ध्यान कर भोग लगाया।
खुश लड्डू गोपाल हुए तो
चाय बनाकर, हमें उठाया।
चूड़ी खनकी, पायल बाजी
गरमागरम रोटियाँ फूली
खिला, आप खा, कंडे थापे
पड़ोसिनों में रंग जमाया।
विद्यालय से हम,
कार्यालय से
जब वापिस हुए पिताजी
माँ ने भोजन गरम कराया।
*
ज्वार-बाजरा-बिर्रा, मक्का
चाहे जो रोटी बनवा लो।
पापड़, बड़ी, अचार, मुरब्बा
माँ से जो चाहे डलवा लो।
कपड़े सिल दे, करे कढ़ाई,
बाटी-भर्ता, गुझिया, लड्डू
माँ के हाथों में अमृत था
पचता सब, जितना जी खा लो।
माथे पर
नित सूर्य सजाकर
अधरों पर
मृदु हास रचाया।
*
क्रोध पिता का, जिद बच्चों की
गटक हलाहल, देती अमृत।
विपदाओं में राहत होती
बीमारी में माँ थी राहत।
अन्नपूर्णा कम साधन में
ज्यादा काम साध लेती थी
चाहे जितने अतिथि पधारें
सबका स्वागत करती झटपट।
नर क्या,
ईश्वर को भी
माँ ने
सोंठ-हरीरा भोग लगाया।
*
आँचल-पल्लू कभी न ढलका
मेंहदी और महावर के सँग।
माँ के अधरों पर फबता था
बंगला पानों का कत्था रँग।
गली-मोहल्ले के हर घर में
बहुओं को मिलती थी शिक्षा
मैंनपुरी वाली से सीखो
तनक गिरस्थी के कुछ रँग-ढंग।
कर्तव्यों की
चिता जलाकर
अधिकारों को
नहीं भुनाया।
***
दिव्य नर्मदा : हिंदी तथा अन्य भाषाओँ के मध्य साहित्यिक-सांस्कृतिक-सामाजिक संपर्क हेतु रचना सेतु A plateform for literal, social, cultural and spiritual creative works. Bridges gap between HINDI and other languages, literature and other forms of expression.
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सोमवार, 8 मार्च 2021
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