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शनिवार, 12 सितंबर 2020

विमर्श - विसर्जन

 एक विमर्श

विसर्जन क्यों और कैसे?
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अनंत चतुर्दशी गणेश विसर्जन और पुनरागमन प्रार्थना का पर्व।
चतुर्थी पर स्थापना, दस दिन पूजन और फिर विसर्जन के नाम पर प्रतिभाओं की दुर्दशा और अकल्पनीय प्रदूषण।
यह त्रासदी नव दुर्गा महोत्सव पर दोहराई जाएगी।
शोचनीय है कि जिन्हें विघ्नेश कहकर उनसे विघ्न निवारण हेतु प्रार्थना की, उन्हीं को विघ्नेश में डाल दिया। मूर्तियों की दुर्दशा करने से बेहतर है परंपरा का पालन करते हुए हल्दी और सुपारी में दैवीय शक्तियों का आव्हान-पूजन कर विसर्जन हो। इससे न तो प्रदूषण फैलेगा, न मूर्तियों की दुर्दशा होगी।
पुष्प तथा अन्य पूजन सामग्री महानगरों में नगर निगम वालों को दें तथा गाँवों में एक गड्ढा खोदकर उसमें दबा दें।
प्लास्टिक, रसायनों, एस्बेस्टस, प्लास्टर अॉफ पेरिस आदि का प्रयोग कतई न करें।
मूर्ति पूजन में श्रद्धा हो तो धातु (सोना, चाँदी, ताँबा, पीतल, अष्टधातु, पत्थर या एल्यूमीनियम) की मूर्ति का पूजन करें। इसे पूरे वर्ष भी पूज सकते हैं और विसर्जन के बाद अगले वर्ष के लिए सुरक्षित भी रखते सकते हैं। इससे घर वर्ष मूर्ति पर और उसे लाने-ले जाने में होने वाला खर्च भी बचेगी जो मँहगाई का मार कुछ कम करेगा।
अन्य उपाय मिट्टी की ६ इंच तक की मूर्ति को विसर्जन पश्चात घर में ही स्वच्छ जल में विसर्जित कर उसे पेड़-पौधों का जड़ में डाल देना है।
चित्र का पूजन भी समान फल देता है। इसे विसर्जित न करें।
सनातन धर्म की मूल परंपरा प्रतीक पूजन है। वैष्णव देवी जैसे पुरातन स्थलों पर अनगढ़ पाषाण पिंड ही पूजे जाते हैं। यह सर्वमान्य है कि ईश्वर निराकार हैं। 'जाकी रही भावना जैसी प्रभु मूरत देखी तिन तैसी' के अनुसार भक्त अपने इष्ट को रूपाकार देकर पूजते हैं। कई बार माताएँ पुत्र को पुत्री के रूप में अथवा पुत्री को पुत्री के रूप में सज्जित कर अपनी मनस्तुष्टि करती हैं । यही भाव भक्त से प्रतिमा बनाता है। इसीलिए कहा जाता है 'भगत के बस में हैं भगवान। भगवान सौजन्यता वश भक्त के 'बस' में होने पर भी 'बेबस' नहीं है। भक्त अपने इष्ट की प्रतिमा की दुर्दशा का निमित्त बनकर अपने ही कष्ट को आमंत्रित करता है।
आवश्यक है कि हम दैवीय शक्तियों का आह्वान अपने अंतर्मन में करें। प्रतिमा पूजन कम और लघ्वाकारी विग्रहों का हो। शिवलिंग पूजन प्रतीक पूजन का कालजयी उदाहरण है।
सनातन धर्म की परंपरानुसार बुद्ध ने भी मूर्ति का निषेध किया, भक्तों ने सबसे अधिक मूर्तियाँ बुद्ध की बनाकर समझा कि महान कार्य किया पर काल साक्षी है कि वे मूर्तियाँ तोड़ा गईं, बौद्ध धर्म का पराभव हुआ। पुरातात्त्विक अवशेषों में बड़ी संख्या में मूर्तियों के ध्वंसावशेषों को देखकर भी हम उनकी निस्सारता न समझें तो हमारी समझ का ही दोष है।
मूर्तियों के निर्माण में लगने वाला श्रम और सामग्री किसी जीवनोपयोगी निर्माण में लगे तो सबका भला होगा। 'मंदिर मंदिर मूरत तेरी, कहुँ न देखी सूरत तेरी' का अर्थ समझ मम मंदिर में देव स्थापना कर सकें तो विसर्जन करने का मन ही न होगा।
क्या हम प्रतिमा के स्थान पर देव और दिव्यता को पूजकर दैवीय गुणों से युक्त हो सकेंगे?
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संजीव

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