काव्य सलिला
नहीं बेचूँगा
बालकवि बैरागी
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चाहे सभी सुमन बिक जाएँ
चाहे ये उपवन बिक जाएँ
चाहे सौ फागुन बिक जाएँ
पर मैं गंध नहीं बेचूंगा-अपनी गंध नहीं बेचूँगा...
लक्ष्मण जैसी चौकी देकर जिन काँटों ने जान बचाई
जिस डाली ने गोद खिलाया जिस कोंपल ने दी अरुणाई
इनको पहिला हक आता है चाहे मुझको नोचें तोड़ें
चाहे जिस मालिन से मेरी पाँखुरियों के रिश्ते जोड़ें
ओ मुझ पर मँडराने वालों
मेरा मोल लगाने वालों
जो मेरा संस्कार बन गई वो सौगंध नहीं बेचूँगा
कोमल भँवरों के सुर-सरगम पतझरों का रोना-धोना
मौसम से क्या लेना मुझको ये तो आएगा-जाएगा
दाता होगा तो दे देगा खाता होगा तो खाएगा
मुझ पर क्या अंतर लाएगा पिचकारी का जादू-टोना
ओ नीलम लगानेवालों
पल-पल दाम बढ़ानेवालों
मैंने जो कर लिया स्वयं से वो अनुबंध नहीं बेचूँगा
अपनी गंध नहीं बेचूँगा चाहे सभी सुमन बिक जाएँ।
भूल-चूक की माफी लेगी सबसे मेरी गंध कुमारी
मुझको मेरा अंत पता है पँखुरी-पँखुरी झर जाऊँगा
लेकिन पहिले पवन-परी संग एक-एक के घर जाऊँगा
भूल-चूक की माफी लेगी सबसे मेरी गंध कुमारी
उस दिन ये मंडी समझेगी किसको कहते हैं खुद्दारी
बिकने से बेहतर मर जाऊँ अपनी माटी में झर जाऊँ
मन ने तन पर लगा दिया जो वो प्रतिबंध नहीं बेचूँगा
सूरज जिसका सर सहलाए उसके सर को नीचा कर दूँ?
मुझसे ज्यादा अहं भरी है ये मेरी सौरभ अलबेली
नहीं छूटती इस पगली से नीलगगन की खुली हवेली
ओ प्रबंध के विक्रेताओं
महाकाव्य के ओ क्रेताओं
ये व्यापार तुम्हीं को शुभ हो मुक्तक छंद नहीं बेचूँगा
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