मुक्तक-
पंचतत्व तन माटी उपजा, माटी में मिल जाना है
रूप और छवि मन को बहलाने का हसीं बहाना है 
रुचा आपको धन्य हुआ, पाकर आशीष मिला संबल  
है सौभाग्य आपके दिल में पाया अगर ठिकाना है 
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सलिल-लहर से रश्मि मिले तो, झिलमिल हो जीवन नदिया
रश्मि न हो तम छाये दस-दिश, बंजर हो जग की बगिया 
रश्मि सूर्य को पूज्य बनाती, शशि को देती रूप छटा- 
रश्मि ज्ञान की मिल जाए तो जीवात्मा होती अभया 
*
षट्पदी 
आभा-प्रभा-ज्योति रश्मि की, सलिल-धार में छाया सी
करें कल्पना रवि बिम्बित, है प्रतुल अर्चना माया की 
अनुश्री सुमन बिखेरे, दर्शन कर बृजनाथ हुए चंचल
शरद पवन प्रभु राम-शत्रुघन, शिव अशोक लाये शतदल 
हैं राजेंद्र-सुरेंद्र बंधु रणवीर संग कमलेश विभोर 
रच आदर्श सृष्टि प्रमुदित-संजीव परमप्रभु थामे डोर 
***  
कुंडलिया-
राधे मेरी स्वामिनी!, कृष्ण विकल कर जोर 
मना रहे हैं मानिनी, विमुख हुईं चित चोर 
विमुख हुईं चित चोर, हँसें लख प्रिय को कातर 
नटवर नट, वर रहा वेणु को, धर अधराधर 
कहे 'सलिल' प्रभु चपल मनाते 'करो न देरी 
नयन नयन से विहँस मिलाओ, राधे मेरी'
***
 
 
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