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शुक्रवार, 25 सितंबर 2020

मुक्तिका: बिटिया

मुक्तिका:

बिटिया

संजीव 'सलिल' 

* *

चाह रहा था जग बेटा पर अनचाहे ही पाई बिटिया.

अपनों को अपनापन देकर, बनती रही पराई बिटिया..

 

कदम-कदम पर प्रतिबंधों के अनुबंधों से संबंधों में

भैया जैसा लाड़-प्यार, पाने मन में अकुलाई बिटिया..

 

झिड़की ब्यारी, डांट कलेवा, घुड़की भोजन था नसीब में.

चौराहों पर आँख घूरती,  तानों से घबराई बिटिया..

 

नत नैना, मीठे बैना का, अमिय पिला घर स्वर्ग बनाया.

हाय! बऊ, दद्दा, बीरन को, बोझा पड़ी दिखाई बिटिया..

 

खान गुणों की रही अदेखी, रंग-रकम की माँग बड़ी थी.

बीसों बार गयी देखी, हर बार गयी ठुकराई बिटिया..

 

करी नौकरी घर को पाला, फिर भी शंका-बाण बेधते.

तनिक बोल ली पल भर हँसकर, तो हरजाई कहाई बिटिया..

 

राखी बाँधी लेकिन रक्षा करने भाई न कोई पाया.

मीत मिले जो वे भी निकले, सपनों के सौदाई बिटिया..

 

जैसे-तैसे ब्याह हुआ तो अपने तज अपनों को पाया.

पहरेदार ननदिया कर्कश, कैद भई भौजाई बिटिया..

 

पी से जी भर मिलन न पाई, सास साँस की बैरन हो गयी.

चूल्हा, स्टोव, दियासलाई, आग गयी झुलसाई बिटिया..

 

फेरे डाले सात जनम को, चंद बरस में धरम बदलकर

लाया सौत सनम, पाये अब राह कहाँ?, बौराई बिटिया..

 

दंभ जिन्हें हो गए आधुनिक, वे भी तो सौदागर निकले.

अधनंगी पोशाक, सुरा, गैरों के साथ नचाई बिटिया..

 

मन का मैल 'सलिल' धो पाये, सतत साधना स्नेह लुटाये.

अपनी माँ, बहिना, बिटिया सम, देखे सदा परायी बिटिया..

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२५-९-२०१० 

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