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सोमवार, 10 फ़रवरी 2020

समीक्षा- धूनी

उपन्यास समीक्षा : धूनी : मुक्ति की प्रत्याशा में आत्मा की छटपटाहट
संजय यादव
[धूनी, उपन्यास, प्रथम संस्करण २००६, आकार २२ से.मी. x १४ से.मी., आवरण बहुरंगी सजिल्द, जैकेट सहित, पृष्ठ १६०/-, मूल्य १६०/-, पाथेय प्रकाशन जबलपुर]
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आत्मा की छटपटाहट वस्तुत: मुक्ति की प्रत्याशा है। मनुष्य की आत्मा सांसारिक बंधनों, विषय वासनाओं और छल, कपट, काम, क्रोध, मद, लोभ व मत्सर आदि आसुरी प्रवृत्तियों से खुद को मुक्त कर लेती है तो महाशक्ति से मिलन के अलावा आत्मा को कोई और प्यास शेष नहीं रह जाती। कई जन्मों तक मोहपाश काटने के बाद मनुष्य की आत्मा को ऐसा सुअवसर मिलता है। डॉ. राजलक्ष्मी शिवहरे प्रणीत उपन्यास धूनी केवल दो पात्रों रैना उर्फ़ धूनी व औघड़ बाबा पर केंद्रित विलक्षण औपन्यासिक कृति है जिसमें अनपढ़ सुंदरी बंजारन रैना (धूनी) को सांसारिकता के प्रति वितृष्णा हो जाती है जबकि उसके मता=पिता उसे एक रात के लिए थानेदार को सौंपना चाहते हैं ताकि उनका कबीला थानेदार के कोप से बच सके। रैना का प्रेमी गबरू जवान सुद्धू जो खेल दिखाने में उसका साथी था भी जब यही सलाह देता है तो उसकी नामर्दी देखकर रैना को सबसे नफरत हो जाती है। वह अपने रक्षक भोलू नामक कोबरा नाग के साथ थानेदार के पास जाती है और उसे डराकर सुरक्षित बहार आकर कबीला छोड़कर जंगल में अनजाने रास्ते पर चल पड़ती है। वहाँ उसकी मुलाकात औघड़ बाबा से होती है जो महाशक्ति का साधक तथा सिद्ध है। समीपस्थ गाँव के लोग उसके लिए दूध, फलादि की व्यवस्था करते हैं किन्तु बाबा की इस सबमें रूचि नहीं है। वह साधना और समाधि में लीन रहता है। बाबा से ठनने पर धूनी उन पर कोबरा छोड़ देती है किंतु बाबा पर उसके विष का कोई असर नहीं होता अपितु कोबरा के प्राण संकट में पद जाते हैं। धूनी के अनुरोध पर बाबा कोबरा को प्राणदान करते हैं। धूनी टोकना , सूपा आदि बना-बेचकर अपना पेट पालती है। जमींदार उस पर बुरी नित्य रखता है पर सफल नहीं हो पाता। जमींदार की अलप वय बेटी का विधवा होना, रानी माँ की सदाशयता, धूनी को बरसों से साधना कर रहे बाबा से पहले माँ की कृपा प्राप्त होना, बाबा के साथ ब्रह्म विद्या पर चर्चा तथा नचिकेता प्रसंग में देहांत के पश्चात् आत्मा की गति संबंधी प्रश्न का उत्तर मननीय है - "जिन्होंने मनुष्य शरीर पाकर भी ब्रह्मज्ञान प्राप्त नहीं किया वह पुनः मनुष्य शरीर में अथवा अपने कर्म के अनुसार पशु-पक्षी योनि में जाते हैं जबकि ब्रह्म विद्या प्राप्त करनेवाला मोक्ष प्राप्त कर महाप्रकाश का अंश बन जाता है।

बाबा से दीक्षा पाकर बंजारन धूनी में विलक्षण परिवर्तन आता है, वह देवी माँ के साहचर्य में अधिकाधिक रहने लगती है। बाबा कहते हैं कि ब्रह्मानुभूति गूंगे के गुड़ समान है, ब्रह्म विद्या तभी सार्थक है जब वह मिल जाए। बाबा स्वीकारते हैं की वे माँ के चरणों में ध्यान लगाने तक ही सीमित हैं। इस सत्य को स्वीकारते ही बाबा समाधि में गहरे उतरकरपरमानंद की अनुभूति करते हैं जिसे धूनी पहले ही पा चुकी है। सार यह की मनुष्य अपनी सांसारिक मनोकामनाएँ परम सत्ता को सौंपकर जितना अधिक निर्लिप्त होता जाता है उतना ही दैवीय सत्ता के समीप पहुँचता है। औपन्यासिक शिल्प के निकष पर धूनी खरा नहीं उतरता। अनपढ़ बंजारन धूनी के मुंह से संस्कृत श्लोक अविश्वसनीय प्रतीत होते हैं। पथ्य अशुद्धियाँ रंग में भंग करती हैं। आध्यात्मिक भावभूमि पर प्रथम उपन्यास लिखकर लिखिका ने खतरा मोल लिया है।
- संपर्क बोरी, राजनांदगाँव, छत्तीसगढ़
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