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सोमवार, 10 फ़रवरी 2020

समीक्षा - उपन्यास गाथा

कृति सलिला
मानवीय रिश्ते परिभाषित करती ‘‘गाथा’’ - डाॅ. अनामिका तिवारी
[गाथा, उपन्यास, प्रथम संस्करण २०१४, आकार २२.५ से.मी. x १४.५ से.मी. आवरण सजिल्द बहुरंगी जैकेट सहित, पृष्ठ ७२, मूल्य २२५/-, पाथेय प्रकाशन जबलपुर]
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उपन्यास का नायक क्षितिज लेखक है। वैसा ही लेखक जो अपने सिद्धांतों से समझौता नहीं कर पाता है। उसके पिता नहीं है। माँ ने ही उसे पाला - पोसा है, पढ़ाया - लिखाया है, एम.ए. किया है पर नौकरी नहीं है। बेरोजगारी में हीे उसका विवाह पढ़ी-लिखी सुंदर, सरकारी नौकरी प्राप्त रूपम से हो जाता है। वह एक बेटा आकाश और एक बेटी गरिमा का पिता बनता है। बच्चों की शादी भी उनकी पसंद के अनुसार हो जाती है। देखा जाये तो एक प्रकार से इतनी घटनाऐं हो चुकने के बाद पात्रों की परिपक्व वय से उपन्यास का प्रारम्भ होता है। क्षितिज अपनी नौकरी न होने से आत्मग्लानि से भरा रहता है। पत्नि रूपम अपनी नौकरी में व्यस्त है। बेटी अपने घर और बेटा अपनी नौकरी पर दूसरे शहर में है। माँ नौकरीशुदा बहू की घर गृहस्थी सम्हालने में व्यस्थ है। इस प्रकार जीवन एक धुरी पर चल रहा होता है।

एकाएक मंत्री जी के घर आने से बहुत बड़ा परिवर्तन होता है। मंत्री जी की पत्नि निकिता क्षितिज के साथ पढ़ी है और काॅलेज के जमाने से ही उसको चाहती है। यहाँ उपन्यास मंत्री जी और मंत्री जी की पत्नि की प्रभुता को दर्शाता है। उनके आगमन से न केवल रूपम की पदोन्न्ति हो जाती है वरन क्षितिज की पुस्तक को ‘भारत-भारती-संस्था’ से इक्कीस हजार का पुरस्कार मिलता है। जैसा कि आजकल संस्थाओं द्वारा व्यक्तिगत रूप से साहित्यकारों के सम्मान का दौर चल रहा है, उपन्यास का लेखक क्षितिज भी इस अछूता नहीं है। किसी संस्था से उसे ‘तुलसी सम्मान’ और किसी से 'ज्ञानदीप सम्मान' मिलता है। कार्यक्रमों में उसे बतौर अध्यक्ष बुलाया जाने लगता है। मंत्री पत्नि निकिता काॅलेज के समय से ही उसके लेखन की भी प्रशंसिका रही है। वह कहती भी है कि आज की सांस्कृतिक फूहड़ता के बीच तुम जैसे लेखकों को छपना ही चाहिये। वो उसके पाँच उपन्यास छपवाती ही नहीं, रायल्टी भी दिलवाती है। हरिद्वार में उसका अपना आध्यात्म का आश्रम है जहाँ वो क्षितिज को बुलाती है।

निकिता के आश्रम में क्षितिज की मुलाकात अपने काॅलेज की सहपाठी और निकिता की सहेली आभा से होती है जिसको वो वास्तव में बहुत चाहता था लेकिन उसकी गरीबी के कारण आभा का पिता अपनी बेटी का विवाह एक अमीर घर में कर देता है। हरिद्वार में आभा, क्षितिज को अपनी सहेली नैनी से मिलवाती है। नैनी के रूप-रंग से वह बहुत प्रभावित होता है। निकिता के सहयोग से क्षितिज प्रसिद्ध लेखक हो गया और आर्थिक रूप से सुदृढ़ भी। वह निकिता के सौजन्य से अमेरिका, इंग्लैंड, दुबई की विदेश यात्राऐं करता है। उपन्यास में यहाँ यह बिडम्बना उजागर होती है कि मात्र अच्छा लेखक होना ही प्रसिद्ध और समृद्धि का कारण नहीं हो सकता जब तक कि किसी बड़ी हस्ती का वरद हस्त सर पर न हो। उपन्यास के नायक के पास बहुत कुछ है, अच्छी सुन्दर पढ़ी-लिखी सरकारी नौकरी प्राप्त पत्नि रूपम है,एक बेटा और बेटी का पिता है, उसके चारों और जितनी महिलाऐं हैं उसको मान देने वाली हैं जबकि उनकी स्वयं की गाथाऐं बड़ी करुण हैं। एक निकिता है जिसकी शादी जिन मंत्री जी से होती है वे पहले से ही तीन बच्चों के पिता हैं, बच्चों की देखभाल के लिये ही वे निकिता से शादी करते हैं। बच्चे सम्हल जाने पर वे उसके जीवन के लिये हरिद्वार में एक आश्रम बनवा देते हैं। जिस आभा से क्षितिज की शादी नहीं हो पाती, उसके संतान न होने से उसका पति उसको छोड़कर दूसरा विवाह कर लेता है। आभा एक काॅलेज में प्रोफेसरी कर अपना जीवन काट रही है। आभा की जिस सहेली नैनी के रूप पर वह मुग्ध हो जाता है वह कश्मीरी ब्राम्हण है उसके माता-पिता को आतंकवादियों ने मार डाला है।

उपन्यास के इन सभी स्त्री पात्रों के बीच क्षितिज की पत्नि रूपम का चरित्र श्रेष्ठतम ऊँचाइयों को छू रहा है। वो क्षितिज को उसकी बेरोजगारी का कोई उलाहना नहीं देती । उसकी रचना प्रकाशित होने पर बड़े गर्व से अपने मित्रों को, अपने साहित्कार पति के बारे में बताती है। उसकी टेबिल पर इतने रूपये रख देती है कि क्षितिज को उससे माँगने की आवश्यकता न पड़े। कई बार वह अपने दम-खम से क्षितिज की नौकरी लगवाती है लेकिन पत्नि के कार्यालय में, मातहती में नौकरी करने से वह साफ इंकार कर देता है। स्कूल में भी जब उसको छः पीरियड के बाद सातवाँ पीरिएड और पढ़ाने के लिये कहा जाता है तो उसको लगता है ये उसका शोषण है और वो नौकरी छोड़ देता है । अक्सर पुरूष को अपने स्वाभिमान के आगे अपना परिवार नहीं दिख पाता है लेकिन औरत को अपने घर-परिवार की आवश्यकता के आगे और सबसे बड़ी बात एक ‘माँ’ होने नाते अपना स्वाभिमान, अपना अपमान या शोषण नहीं दिखता। सातवाँ क्या आठवाँ पीरियड भी उसको पढ़ाने कहा जायेगा तो वो नौकरी बचाने नौवाँ पीरिएड पढ़ाने को भी तैयार हो जायेगी। कभी किसी सिद्धांत पर, ज्यादती पर, मैनेजमेन्ट से झगड़ा कर, बार - बार क्षितिज के नौकरी छोड़ने पर, रूपम सोच कर रह जाती है - ''ये लेखक अपने पात्रों को तो अपने नियंत्रण में रखते हैं पर स्वयं किसी के नियंत्रण में नही रह सकते। रूपम की नौकरी में भी भाग-दौड़ बहुत है। वह थक जाती है लेकिन नौकरी नहीं छोड़ सकती। वह नौकरी की अहमियत जानती है। घर, साहित्य से नहीं पैसे से चलता है । कहानी, कविता से रोटी नहीं खरीदी जा सकती, उसको ही सब सम्हलना है और घर का आर्थिक स्तर बढ़ाने के लिये वह सोचती है उसकी पदोन्नति हो जाये। इस उद्देश्य से वह मंत्री जी को घर पर खाने पर बुलाती है। इस पर पुरूष की मानसिकता क्षितिज के माध्यम से व्यक्त होती है - ‘‘मंत्री जी आज आ रहै हैं तभी रूपम चौके में काम करती दिखाई दे रही है।’’

वहीं रूपम, क्षितिज की महिला मित्रों के बुलाने पर स्वयं उसको उनके पास जाने के लिये कहती है। घर में उनके आने पर भली - भाँति उनका स्वागत सत्कार करती है, खाना बनाकर खिलाती है। यहाँ तक कि जब बदले की भावना से प्रेरित ‘नैनी’ कश्मीर में आतंकवादियों पर बम पटकने के आरोप में पकड़ी जाती है तो क्षितिज द्वारा उसकी जमानत लिये जाने के बाद रूपम उसको अपने घर में ही रखती है । यह जानकर भी कि सम्मान के अलावा और भी बहुत कुछ है उन दोनों के मन में रूपम सबसे ऊपर उठकर सब पर अपना स्नेह, अपना प्रेम लुटाती है । यह रूपम के चरित्र की अति दुर्लभ विशिष्टता है, नहीं तो पत्नियाँ लेखक पति लेतीं है। रूपम की बड़ी बेटी गरिमा भी नैनी की जमानत कराने में आदर्श उपस्थित करती है।

कुल मिलाकर उपन्यास के सभी पात्रों की अपनी-अपनी गाथाऐं हैं। एक - एक गाथा, एक - उपन्यास हो सकती थी लेकिन राजलक्ष्मी जी ने कुल ७२ पृष्ठों में सबकी गाथाओं को समेट लिया है क्योंकि उनके लिखने का उद्देश्य ही यही है जैसा कि उपन्यास के भेंट उन्होंने व्यक्त किया है विपरीत परिस्थियों से घबराकर भागें नहीं, जो है उसे सहेजें । सार यही है कि आधा गिलास खाली न देखें आधा गिलास भरा देखें। उनके पात्रों के जीवन में उतार - चढ़ाव तो है ही लेकिन फिर भी उनके पात्र एक दूसरे को सम्हालने में, सराहने में, आगे बढ़ाने में, खुश करने में, जिस अनाम रिश्ते के साथ एक दूसरे से जुड़े हैं, उसके लिये बस यही कहा जा सकता है- ‘‘ हाथ से छू के इन्हें रिश्तों का कोई नाम दो ’’। पुरूष की महिला मित्र होना या महिला का पुरूष मित्र होने का एक ही रिश्ता नहीं होता । विपरीत परिस्थितियों में मानवीयता दर्शाने और सम्हालने की ‘गाथा’ है राजलक्ष्मी जी का उपन्यास ‘गाथा’।
१३०४ , भवानी-भवन राइट टाउन जबलपुर
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