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रविवार, 2 फ़रवरी 2020

इसाक अश्क़ के गीत




इसाक अश्क़ 




जन्म- १ जनवरी १९४५ को तराना, उज्जैन, म.प्र., भारत में।
प्रकाशित कृतियाँ-
गीत संग्रह- सूने पड़े सिवान, फिर गुलाब चटके, काश हम भी पेड़ होते, लहरों के सर्पदंश।
संपादन- समांतर पत्रिका
पुरस्कार-सम्मान-
गीत संग्रह 'सूने पड़े सिवान' पर मध्यप्रदेश शासन का पुरस्कार प्राप्त हो चुका है। विगत २५ वर्षों से उनके द्वारा संपादित पत्रिका 'समांतर' को छत्तीसगढ़ राज्य की महत्वपूर्ण साहित्यिक संस्था 'सृजन-सम्मान' द्वारा अखिल भारतीय साहित्य महोत्सव में राज्य के गवर्नर महामहिम के एम. सेठ द्वारा वर्ष २००४-०५ का पद्मश्री मुकुटधर पांडेय सम्मान।
अभिमत बदलते हैं ।
*
रंग
गिरगिट की तरह
अभिमत बदलते हैं ।

रोज़
करते हैं तरफ़दारी
अंधेरों की
रोशनी को
लूटने वाले
लुटेरों की

इसमें
नहीं होते सफल तो
हाथ मलते हैं ।

अवसरों की
हुण्डियाँ बढ़कर
भुनाने की
जानते हैं हम
कला झुकने
झुकाने की

यश
मिले इसके लिए हर
चाल चलते हैं ।

*
प्यार की नदी 

सूखी
गुलदस्ते सी
प्यार की नदी

व्यक्ति
संवेग सब
मशीन हो गए
जीवन के
सूत्र
सरेआम खो गए
और कुछ न कर पाई
यह नई सदी

वर्तमान ने
बदले
ऐसे कुछ पैंतरे
आशा
विश्वास
सभी पात सो झरे
सपनों की
सर्द लाश
पीठ पर लदी।

*
झूठ क्या, बहाना क्या?


हम जैसे लोगों का
ठौर क्या ?
ठिकाना क्या ?

भूख प्यास
पीड़ाओं ने
झिड़की दे-देकर पाला
हमसे है दूर
सुखद भोर का उजाला

यह कहने लिखने में
लाज क्या ?
लजाना क्या ?

पाँव मिले
भीलों जैसे अरूप
सौ भटकन वाले
इसी वज़ह
राजभवन से अक्सर
हम गए निकाले

यह सच है इसमें अब
झूठ क्या ?
बहाना क्या ?

*
घटा 

दो शब्द चित्र

(एक)

बारिशों के पल
नया
जादू जगाते हैं।
   
तितलियाँ
लेकर उड़ीं-
संयम हवाओं में,
   
खिंच गए
सौ-सौ धनुष-
दृष्टि, दिशाओं में,
   
जुगनुओं से
याद के
खण्डहर सजाते हैं।
   
गंध बनकर
डोलती-
काया गुलाबों की,
पंक्तियाँ
जीवित हुई-
जैसे किताबों की,
   
गाछ-भी
यह देखकर
ताली बजाते हैं।
   
(दो)

रंग
खुशबू-घटा
क्या नहीं आजकल।
रैलियाँ
जुगनुओं की-
निकलने लगीं,
हर दिशा
वस्त्र अपने-
बदलने लगीं,
   
सूर
उलझी जटा
क्या नहीं आजकल।
   
द्वार तक हिम-हवा-
थरथराते हुए,
आ-गयी
गीत-गोविन्द-
गाते हुए,
   
छंद
धनुयी छटा
क्या नहीं आजकल।

*
बिना टिकिट के 

बिना टिकिट के
गंध लिफाफा
घर-भीतर तक डाल गया मौसम।

रंगों
डूबी-
दसों दिशाएँ
विजन
डुलाने-
लगी हवाएँ
दुनिया से
बेखौफ हवा में
चुम्बन कई उछाल गया मौसम।

दिन
सोने की
सुघर बाँसुरी
लगी
फूँकने-
फूल-पाँखुरी,
प्यासे
अधरों पर खुद झुककर
भरी सुराही ढाल गया मौसम।

*
देखिए तो 

देखिये-तो
किस कदर फिर
आम-अमियों बौर आए।

धूप
पीली चिट्ठियाँ
घर आँगनों में,
डाल
हँसती-गुनगुनाती है-
वनों में,
पास कलियों
फूल-गंधों के
सिमट सब छोर आए।

बंदिशें
टूटीं प्रणय के-
रंग बदले,
उम्र चढती
जन्दगी के-
ढंग बदले,
ठेठ घर में
घुस हृदय के
रूप-रस के चोर आए।

*
दूर क्षितिज तक 

दूर क्षितिज तक
टेसू वन में बिना धुएँ की
आग लगाए हैं।

हवा
हवा में पंख तौल-
इतराती है,
रात
रात भर जाने क्या-क्या
गाती है,

रस की
प्रलय-बाढ में जैसे
सब डूबे-उतराए हैं।

पत्ते
नृत्य-कथा का
मंचन करते हैं,

धूल
शशि पर फूल
बाँह में भरते हैं,

मौसम ही
यह नहीं दृष्टि भर
पाहन तक मदिराए हैं।

*
पद रज हुई 

पद-रज हुई
गुलाल
लगा फिर ऋतु फगुनाई है।

मादल की
थापें हों या हों-
वंशी की तानें
ऐसे में
क्या होगा यह तो
ईश्वर ही जानें
खिले आग के
फूल फूँकती
स्वर-शहनाई है।

गंध-पवन के
बेलगाम
शक्तिशाली झोंके
कौन भला
इनको जो बढकर
हाथों से रोके
रक्तिम
हुए कपोल
दिशा कुछ-यों शरमाई है।

*
दूर क्षितिज तक 

दूर क्षितिज तक
टेसू वन में बिना धुएँ की
आग लगाए हैं।
हवा
हवा में पंख तौल-
इतराती है,
रात
रात भर जाने क्या-क्या
गाती है,
रस की
प्रलय-बाढ में जैसे
सब डूबे-उतराए हैं।
पत्ते
नृत्य-कथा का
मंचन करते हैं,
धूल
शशि पर फूल
बाँह में भरते हैं,
मौसम ही
यह नहीं दृष्टि भर
पाहन तक मदिराए हैं।
*
ओस के परिंदे 
अलस्सुबह
तारों पर आ बैठे
ओस के परिंदे
फूलों ने
गंध भरे संबोधन-
दूर तक गुंजाए
दोहराती हैं
जिनको रह रह कर-
घाटियाँ हवाएँ
ऐसे में
नाव नदी पत्थर तक
दिखते हैं ज़िंदे
अलस्सुबह
तारों पर आ बैठे
ओस के परिंदे
गीतों ने
बदसूरत चुप्पी के-
जंग लगे ताले
खोल किए
साफ धुंध कोहरे के-
दृष्टिहीन जाले
धूप रही
डाल गर्म स्वेटर में
नए नए फंदे
अलस्सुबह
तारों पर आ बैठे
ओस के परिंदे
*
कंठ का कोहनूर

फाग के
हस्ताक्षर
पढ़ती हवाएँ
दिन सुमेरु स्वर्ण टुकड़े-सा तपाया
कंठ का कोहनूर वन में सुगबुगाया
रूप रति-सा
चौतरफ़
गढ़ती हवाएँ
इंगुरी आलोक में डूबे सिवाने
पथ लगे अलकापुरी से महमहाने
विंध्य शिखरों
पर लहक
चढ़ती हवाएँ
*
चुनावी शोर

यह चुनावी शोर
तो बस
एक नारा झुनझुना है
जो ग़रीबों को
थमाया जाएगा
भीड़ पर
फिर
आज़माया जाएगा
जाल यह फंदा
चतुर कुछ
ख़ास हाथों ने बुना है
यह चुनावी शोर
तो बस
एक नारा झुनझुना है
बैनरों कट आउटों में
सज रहा है
हर जगह
जो टेप बनकर बज रहा है,
ध्यान से
सुनना जिसे
बेस्वाद बेलज़्ज़त गुना है
यह चुनावी शोर
तो बस
एक नारा झुनझुना है
*
दिन सुगंधों के

आ गए
घर आँगन तक
दिन सुगंधों के
आम्र कुंजों में
प्रणय प्रेरित कथाएँ
गूँजती हैं हर समय
रसमय ऋचाएँ
वारुणी
डूबे नहाए
बौर छंदों के
ताल झीलों की सतह पर
स्वप्न बोने
घाट पत्थर के लगे फिर
मोम होने
खेत
खलिहानों
खनकते बाजूबंदों के
*
फाल्गुन गाती हुई

आ गई
पिक नंदिनी
पंचम स्वरों में फाल्गुन गाती हुई।
बौर गुच्छों से
सजी अमराइयाँ
इंदिवर होने लगी परछाइयाँ
घाटियों की
ठोस चुप्पी को
तरल गुंजार पहनाती हुई।
डहडहाते टेसुओं की
आग से
भर उठा मन आक्षितिज अनुराग से
फूल-कलशों से
मदिर
रस-रूप छलकाती हुई।
*
धूप दिन

फिर
हृदय को धूप दिन
भाने लगे
धुंध
शिखरों से लिपट-
आलाप भरती है
घाटियों में
शाम भजनों-सी
उतरती है
गाँव
गलियों के अधर
गाने लगे
फिर
हृदय को धूप दिन
भाने लगे
मौन
किस्सों से भरे-
भुतहा महल, जर्जर किले
दूर जाती
दृष्टियों
पगडंडियों के सिलसिले
दृश्य
जल में डूब
उतराने लगे
फिर
हृदय को धूप दिन
भाने लगे
*

सपनों के घोड़े

हम दौड़ाते रहे नींद में
सपनों के घोड़े
कैसे-कैसे किए इरादे
मंसूबे बाँधे
दुनिया भर का बोझ उठा लेंगे
अपने कांधे
खुली आँख तो व्यर्थ गए
सब चाबुक
सब कोड़े।
हम दौड़ाते रहे नींद में
सपनों के घोड़े
हम से ज़्यादा चतुर न कोई
इस मूरख जग में
हमें छोड़ पारा बहता है
किसकी रग-रग में
युग यथार्थ में ऐसे कितने
दर्प वहम तोड़े
हम दौड़ाते रहे नींद में
सपनों के घोड़े
*
शुजालपुर मंडी, शाजापुर, 07369-236282, 98930-46427

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