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मंगलवार, 6 अगस्त 2019

पुरोवाक - हौसलों ने दिए पंख गीतिका संग्रह आकुल

ॐ 
पुरोवाक 
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
विश्ववाणी हिंदी का साहित्य सृजन विशेषकर छांदस साहित्य इस समय संक्रमण काल से गुजर रहा है। किसी समय कहा गया था -  

सूर सूर तुलसी ससी, उडुगन केसवदास 
अब के कवि खद्योत सम जहँ-तहँ करात प्रकास 

जिन्हें 'उडुगन' अर्थात जुगनू कहा गया उन्हें आदर्श मान कर आज का कवि अपनी सृजन यात्रा आरम्भ करता है।  वे जुगनू जो रच साहित्य रच गए हैं उसकी थाह पाना आज के महारथियों के लिए भी मुमकिन है। कबीर, रहीम, रसखान, वृन्द, भूषण, घनानंद, देव, जायसी, प्रसाद, निराला, दद्दा, महीयसी, पंत, नेपाली, बच्चन, भारती, सुमन आदि-आदि यदि 'जुगनू' हैं तो आज के कवियों को क्या कहा जाए? 

स्वातन्त्र्योत्तर काल में किताबी पढ़ाई को शिक्षा और भौतिक सुविधाओं को विकास मानने की जिस मरीचिका का विस्तार हुआ उसने 'सादा जीवन उच्च विचार' की जीवन शैली को कहीं का नहीं छोड़ा। साहित्यकार भी समाज का ही अंग होता है। कुँए में ही भाँग घुली हो तो होश में कौन मिलेगा? राजनैतिक समीकरणों को साधकर सत्ता पाने को ही लक्ष्य मान लेने का दुष्परिणाम जटिल भाषा समस्या के रूप में आज तक सामने है। हिंदी को राजभाषा बनाने के बाद भी एक भी दिन हिंदी में राज ने काम नहीं किया। भारत विश्व का एकमात्र देश है जहाँ  की न्यायपालिका राजभाषा को 'अस्पृश्य' मानती है। पूर्व स्वामियों की भाषा बोलकर खुद को श्रेष्ठ समझने की मानसिकता ने ऐसी कॉंवेंटी पीढ़ियाँ खड़ी कर दीं जिन्हें हिंदी बोलने में 'शर्म' ही नहीं आती, हिंदी बोलनेवालों से 'घिन' की प्रतीति भी होती है। 

हर पारम्परिक विरासत को दकियानूसी कहकर ठुकराने और नकारने की मानसिकता ने समाज को वृद्धाश्रमों के दरवाजे पर खड़ा कर दिया है तो साहित्य को 'अहं'-पोषण का माध्यम मात्र बना दिया है। पंडों-झंडों और डंडों की दलबंदी राजनीति ही नहीं, साहित्य में भी दिन दूनी रात चौगुनी गति से बढ़ रही है। एक समूह छंद-मुक्ति की दुहाई देते हुए छंद-हीनता तक जा पहुँचा और गीत के मरने की घोषणा करने के बाद भी जनगण द्वारा ठुकरा दिया गया। साम्यवादी दुष्प्रभाव के कारण व्यंग्य लेख, लघुकथा और नवगीत को विसंगति, वैषम्य, टकराव, बिखराव, शोषण और अरण्यरोदन का पर्याय कहकर परिभाषित किया गया। जिस साहित्य को 'सर्व जन हिताय और सर्व जन सुखाय' का लक्ष्य लेकर 'सत-शिव-सुंदर' और 'सत-चित-आनन्द' हेतु रचा जाना था, उसे 'स्यापा' और  'रुदाली' बनाने का दुष्प्रयास किया जाने लगा। 

उत्सवधर्मी भारतीय जन मानस के प्राण 'रस' में बसते हैं। 'नीरसता' को साध्य मानते साहित्य शिक्षा के प्रसार तथा नवपूँजीपतियों की यशैषणा ने साहित्य में रचनाकारों की बारह ला दी। लंबे समय तक अपनी दुरूहता और पिंगल ग्रंथों की अलभ्यता के कारण छंद प्रदूषण, लूट-खसोटी और छीना-झपटी से बचा रहा। मुद्रण के साधन सहज होते ही असंख्य रचनाकारों ने प्रतिदिन हजारों पुस्तकें और पत्र-पत्रिकाओं से जन-मन को आक्रांत कर दिया। अब पैसा-पैसा जोड़कर के किताब खरीदना और उसे बार-बार पढ़ना और पढ़वाना, घर में 'पुस्तक' को सजाना, विवाह में दहेज़ के सामान के साथ 'किताब' देना बंद हो गया और स्थिति यह है कि पुस्तक विमोचन के पश्चात् महामहिम जन उन्हें मंच या अपने कक्ष में ही फेंक जाते हैं। इससे पुस्तकों में प्रकाशित सामग्री के स्तर और उपयोगिता का अनुमान सहज ही किया जा सकता है। इस पृष्ठभूमि में हिंदी गीति साहित्य में छंद विधाओं के विकास और मान्यता को देखना चाहिए।    
  
हिंदी पिंगल की सर्वमान्य कृति जगन्नाथ प्रसाद 'भानु' रचित 'छंद प्रभाकर' वर्ष १८९४ में प्रकाशित हुई थी। इसमें शास्त्रार्थ परंपरानुसार पांडित्य प्रदर्शन के साथ लगभग ७१५ छंदों का सोदाहरण प्रकाशन हुआ। तत्पश्चात लगभग हर दशक में एक-दो पुस्तकें प्रकाशित होती रहीं। अधिकांश छंदाचार्यों ने कुछ छंदों पर कार्य कर तथा कुछ ने भानु जी द्वारा दिए छंदों के उदाहरण बदलकर संतोष कर लिया। छंद की वाचिक परंपरा गाँवों में शहरों के अतिक्रमण ने समाप्त कर दी। छन्दाधारित चित्रपटीय गीतों के स्थान पर पाश्चात्य मिश्रित धुनों ने नव पीढ़ी तो छंदों से दूर कर दिया। हिंदी के प्राध्यापकों का छंद से कोई वास्ता ही नहीं रहा। स्थापित छंदों पर अपनी मान्यताएँ थोपने, महाकवियों के सृजन को दोषपूर्ण बताने और पूर्व छंदों के अंश की २-३ आवृत्ति (जनक) बताने, चित्र अलंकार की एक आकृति (पिरामिड) को नया छंद बताने का कौतुक आत्म तुष्टि के लिए किया जाने लगा। संस्कृत छंदों और शब्दों के फारसी में जाने पर उनका फ़ारसी रूपांतरण 'बह्र' नाम से किया गया। भारतीय शब्दों के स्थान पर फ़ारसी शब्द प्रयोग किये गए। कालांतर में विदेशी आक्रान्ताओं के साथ फ़ारसी के शब्द और काव्य सीमावर्ती भारतीय भाषाओँ के साथ घुल-मिलकर उर्दू नाम ग्रहणकर भारतीय छंदों पर श्रेष्ठता जताने लगे। फ़ारसी ग़ज़ल के चुलबुलेपन और सरल रचना प्रक्रिया ने रचनाकारों को आकृष्ट किया। ग़ज़ल को फ़ारसीपण से मुक्त कर भारतीय परिवेश से जोड़ने की कोशिश ने हिंदी ग़ज़ल की  राह अलग बना दी। जीवन हुए जमीन से जुड़कर हिंदी ग़ज़ल को उर्दू ग़ज़ल ने स्वीकार नहीं किया। इस कशमकश ने हिंदी ग़ज़ल की स्वतंत्र पहचान बनाने हुए उर्दू उस्तादों द्वारा खारिज किये जाने से बचाने के लिए गीतिका, मुक्तिका, अनुगीत, अणु गीत आदि नाम दिला दिए। गीत का लघु रूप गीतिका और मुक्तक का विस्तार मुक्तिका।गीतिका नाम से हिंदी पिंगल में वर्णिक और  मात्रिक दो छंद भी हैं। हिंदी ग़ज़ल के रचनाकार दो हिस्सों में बँट गए कुछ ग़ज़ल को ग़ज़ल कहते हुए उर्दू खेमे में हैं। यह स्थिति आदर्श नहीं है पर इसका समाधान समय ही देगा।

रचनाकारों  का धर्म रचना करना है। पिंगल शास्त्री छंद के विकास और नामांतरण को सुलझाते रहेंगे। इस सोच को लेकर वीर भूमि राजस्थान की परमाणु नगरी कोटा के ख्यात रचनाकार डॉ. गोपाल कृष्ण भट्ट 'आकुल' सतत सृजन रत हैं। गीतिका को लेकर श्री ॐ नीरव और श्री विशम्भर शुक्ल सृजन रत हैं।

नीरव जी के अनुसार 'गीतिका एक ऐसी ग़ज़ल है जिसमें हिंदी भाषा की प्रधानता  हो, हिंदी व्याकरण की अनिवार्यता हो और पारम्परिक मापनियों के साथ छंदों का समादर हो। १ नीरव जी के अनुसार मात्रा भार, तुकांत विधान, मापनी, आधार छंद आदि गीतिका के तत्व हैं।

शुक्ल जी  के अनुसार "गीतिका ग़ज़ल ,जैसी है, ग़ज़ल नहीं है.... हर ग़ज़ल गीतिका गीतिका है पर हर गीतिका ग़ज़ल नहीं है।' २ वे गीतिका के दो रूप छंद-मापनी युक्त तथा छंद-मापनीमुक्त मानते हैं।

आकुल जी गीतिका को 'छोटा गीत' मानते हुए पद्यात्मकता तथा न्यूनतम पद-युग्म दो लक्षण बताते हैं। ३ आकुल जी के अनुसार गीतिका के पहले दो युग्म मुक्तक का निर्माण करते हैं और मुक्तक को अन्य युग्मों के साथ बनाई गयी रचना गीतिका है।

सामान्यत: पश्चातवर्ती का परिचय पूर्वव्रती के संदर्भ से दिया जाता है। अमुक फलाने का पोता है। पूर्ववर्ती के नाम से पश्चात्वर्ती का परिचय नहीं दिया जा सकता। रचना पहले मुक्तक ही रचा जाता है। मुक्तक की अंतिम दो पंक्तियों के  पंक्तियाँ जोड़ते जाने पर बनी रचना को मुक्तिका कहने का तो आधार है, गीतिका कहने का नहीं है। गीत के अंग मुखड़ा और अंतरा हैं। अंतरे के अंत में मुखड़े समान पंक्ति रखकर मुखड़े आवृत्ति की जाती है।
ऐसा गीतिका में नहीं होता। अस्तु, नामकरण समय के हवाले कर रचनामृत का पान करना श्रेयस्कर है।

आकुल जी ने ३४ मापनियों पर आधारित सौ तथा मापनी मुक्त सौ कुल दो सौ रचनाओं को इस संग्रह में स्थान दिया है। कृति का वैशिष्ट्य 'छंद आधारित प्रख्यात रचनाएँ' आलेख है जिसमें कुछ प्रसिद्ध चित्रपटीय गीतों  का उल्लेख है। इससे नव रचनाकारों को उस मापनी के छंद को लयबद्ध कर गेयतायुक्त करने में सहजता हो सकती है। उल्लेखनीय है कि एक ही मापनी पर आधारित गीति रचनाओं की लय में भिन्नता सहज दृष्टव्य है। इसका कारण यति संख्या, यति स्थान, कभी-कभी आलाप, शब्द-युति, तथा कल विभाजन है। इन रचनाओं को गुनगुनाने  होता है कि आकुल जी ने इन्हें 'लिखा' नहीं, तन्मय होकर 'रचा' है। इसीलिए इनकी मात्रा गणना किताबी नहीं वाचिक परंपरा का पालन करती है। पहली रचना ही इस तथ्य को स्पष्ट कर देती है। 
छंद- अनंगशेखर
मापनी- 12122 12122 12122 12122
पदांत- है बारिशों की
समांत- आयें
चमक रही है गगन में’ बिजली, घिरी घटायें हैं' बारिशों की.
लुभा रही है, चमन में’ ठंडी, चली हवायें,हैं’ बारिशों की  

गुरु उच्चार को  ' द्वारा इंगित करना दर्शाता है कि आकुल जी रचना कर्म की शुद्धता के प्रति कितने सजग हैं।
आकुल जी जमीन से जुड़े साहित्यकार हैं। वे किताबी भाषिक शुद्धता के पक्षधर नहीं हैं। लोकोक्ति है 'ताले चोरों नहीं शरीफों के लिए होते हैं।' इसी बात को आकुल जी अपने अंदाज़ में कहते हैं - 
चौकसी, ताले​ हैं फिर भी ​चोरियाँ
चोर को ताले नहीं प्रहरी नहीं 

अंग्रेजी की कहावत 'ऑल इस फेयर इन लव एन्ड वार' का उपयोग करते हुए आकुल कहते हैं- 
युद्ध में अरु प्रेम में जायज है' सब,
है जुनूं तो है झुका संसार भी.

भाषिक समन्वय - 

आकुल जी भाषिक समन्वय के समर्थक हैं। उनके दादुर और पखेरू अदावतों समुंदरों और दुआओं से परहेज नहीं करते। - पृष्ठ २० 

जीवन सुख-दुःख, जीत-हार और धूप-छाँव का संगम है। आकुल जी इस जीवन दर्शन को जानते और  जीत में मिलती रही है हार भी तथा संग फूलों के मिलेंगे ख़ार भी जैसी पंक्तियों से व्यक्त करते हैं। 

दौरे दुनिया एक दूसरे को अधिक से अधिक चोट पहुँचाने का है। आकुल इस रहे-रस्म के कायल नहीं हैं- 
लेखनी से तू कभी ना, दद4 दे,
जो न कर पाये भलाई, ग़म न कर

नीतिपरकता -
हिंदी साहित्य में नीति के दोहे कहने का चलन है। संस्कृत में सुभाषित और अंगरेजी में कोट्स की परंपरा है। आकुल जी नीति की बात भी इस तरह कहते हैं की वह ुपदेश न लगे- 
तू उड़ान बाज सी भरना सदा.
हौसला फौलाद सा रखना सदा.
बात हो तलवार क तो ढाल से,
वार हो तो घात से बचना सदा.
जोश म बरसात सा आवेश हो,
शांत िनझ4र सा नह' बहना सदा.
T यान म बक कोिशश हो काक सी,
च' टय सा कम4रत रहना सदा.
*
कर सको तो Wोध पर काबू करो,
मौन को आदत बनाना चािहए
*
लोकगायन, नृS य, झूले,
उS स घर घर म मनाना.
है यही सं%कृित हमारी,
गीत %वागत म सुनाना

जीवन दर्शन 

ज़िंदगी के फ़लसफ़ों को काव्य पंक्तियों में ढालने आकुल सानी नहीं है -
<ार_ ध म है उतना िमलेगा, कोई भरेगा नह' Bजदगी म ,
V यादा न आशा करना कभी भी, ये Bजदगी म छलती रहेगी.

मुहावरों का सटीक प्रयोग 
कहावतों, लोकोक्तियों और मुहावरों से भाषा में जान पड़ जाती है। आकुल जी यह भली-भांति जानते हैं। 'कहावत मन चंगा तो कठौती में गंगा' का गीतिकाकरण देखिए। 
न जा सक जो ह रdार गंगा,
भर क चंगा मन हो कठौती. 
*
जैसे ही’ चार होत' आख लग' िमलाने,
किलयाँ कई दवानी भँवरे लग' रझाने
*
साँच को भी आँच ना हो
सS य क भी जाँच ना हो.

सार नहीं श्रृंगार बिन 
जीवन में श्रृंगार रास का अपना महत्व है। यह सत्य 'गोपाल कृष्ण' से बेहतर कौन जान सकता है। उन्हें इसीलिये लीला बिहारी कहा जाता है की वे रास में प्रवीण हैं और रस रंग के पर्याय हैं- 
मान रख आना पड़ा मुझको ते’री मनुहार पर.
ह सम\पत गीितका मेरी ते’रे शृंगार पर.
शोभते मिणबंध, कंकण, उर कनक हारावली,
कंचुक का भेद िलखती व\णका अिभसार पर.
(प यौवन को िलखूँ, गजगािमनी हो नाियका,
पंिiका कैसे िलखूँ म ^ककणी यलगार पर.
रेशमी पM लव X यिथत ह , हाथ म थामे $ए
कण4फूल से सजी अलकाव ली ह dार पर.
अंगराग से $ई सुरिभत ते’री मह फल ि<ये,
धj य म जो िलख सका इक गीितका गुलनार पर.
*
<ेम का संदेश प$ँचाय िeितज ​​तक लो चलो,
पा सको तो जीत लो मन उड़ सकोगे D यार सँग.
कM पना के लोक क , प रकM पना है <ेम ही,
िलख सको िलख आना’ इक पैगाम तुम भी D यार सँग.

रंगों की रंगीनियां 
उत्सवधर्मी भारतीय मानस प्रकृति में बिखरे रंगों को भावनाओं, कामनाओं और मानवीय प्रवृत्तियों से जोड़ता है। लाल-पीला होना, रतनारी आँखें, मन हरियाना, पीला पड़ना आदि में रंग ही परिस्थिति बता देते हैं। इस मनोविज्ञान से आकुल जी अपरिचित नहीं हैं- 
रंग हो सूखा गुलाबी लाल पीला केसरी,
ह सभी बस रंग काला पोतने का डर न हो.

शब्दवृत्ति 
शब्द सौंदर्य से भाव और लय दोनों का चारुत्व बढ़ता है। रचना में गीतिमयता की वृद्धि उसे श्रवणीयता संपन्न करते है। शब्दावृत्ति से भाषिक सौंदर्य उत्पन्न करने का उदाहरण देखिए- 
चलना सँभल-सँभल के, यह Bजदगी समर है.
फूल का मत समझना, काँट भरा सफर है.
*
है वो सुखी यहाँ पर, चलता रहे समय सँग,
रखता कदम-कदम को, जो फूँक-फूँक कर है.

 शब्द युग्म - 
शब्द युग्म से आशय दो या अधिक शब्दों का प्रयोग है जो एक साथ प्रयोग किये जाते हैं। ये कई प्रकार के होते हैं। कभी दोनों शब्द समानार्थी होते हैं, कभी भिन्नार्थी, कभी पूरक, कभी विपरीत, कभी निरर्थक भी - 
कर गुजर भूल जा िगले-िशकवे,
एक दन तो बरफ िपघलती है
*
yंथ कहते िपता <जापित है.
माँ-िपता के िबना नह' गित है.
_
छw-छाया रहे सदा इनक ,
सृिO क दी अमूM य सL पित है.
*
धम4 एवं सSय क हो जीत यह,
सu यता-सं% कृित हमारी हो सदा.
*
बुिIमS ता, शौय4 अ7 धन-धाj य हो,
िमwता उससे भी’ भारी हो सदा

कर्म योग 
गीता का कर्म योग सिद्धांत 'कर्मण्ये वाधिकारस्ते माँ फलेषु कदाचन' आकुल जी को प्रिय -है 
कर िमलेगा Qम सदा, <ितफल तुझे,
तीथ4 जाके पाप तू, धोना नह'
*
धरे हाथ पर हाथ बैठे रहोगे.
अगर दो कदम भी न आगे बढ़ोगे.
िमलेगी नह' मंिजल जान लो तुम,
हमेशा सफर म अकेले चलोगे.

सामाजिक सद्भाव 
वर्तमान में समाज में घटता सद्भाव, एक दूसरे के प्रति द्वेष भाव आकुल जी को चिंतित करता है- 
गरीब भी रह दुखी,
अमीर के <भाव से
नह' सुखी अमीर भी
दुखी रह तनाव से

वे परिस्थिति को सुधरने की राह भी ेदीखते हैं 
न सीख ल न सीख द
खुशी व खूब चाव से
अमोल Bजदगी िमली
रह िजय िनभाव से

इस भौतिकताप्रधान समय में भोगवासना में फंसकर मनुष्य भक्ति भाव भूल रहा है। आकुल जी जानते हैं कि भक्ति ही सही राह है- 
आओ सभी दरबार म आओ,
माँ को चुन रया तो चढ़ानी है.
िनत ड|िडयाँ गरबा कर सारे,
माँ को रझाएँ मातरानी है.
समृिI सुख वरदाियनी देवी,
दुगा4 जया गौरी भवानी है
हे शारदे पथ*k ट होऊँ ना,
तुझसे सदा स}बुिI पानी है.

कर्तव्य भाव 
हम सब अधिकारों के प्रति सचेष्ट हैं कइँती कर्तव्य की अनदेखे करते रहते हैं. बहुत सी समस्याओं का कारण यही है। आकुल जी इस स्थिति पर चिंतित हैं और राह भी सुझाते हैं -
जंगली सा,
6 य बना है.
नाग रक हो,
सोचना है.
िसI करनी
कM पना है.
% वग4 को य द
खोजना है.
अितWमण को,
रोकना है.

राष्ट्रीयता 
कोई भी देश अपने नागरिकों में राष्ट्रीयता के बिना सशक्त नहीं हो सकता।  आकुल जी यह जानते हैं, इसलिए लिखते हियँ- 
गूँज गी अब चार दशा, झूम गे’ अब धरती गगन,
समवेत % वर म राk गा(न) गाय गे’ जब सब मान से
हमको रहेगा गव4 जीवन भर शहीद का करम,
उनसे ही’ तो ह जी रहे हम आज इतमीनान से.
ह कम दल म दू रयाँ, अब हौसले कम ह नह', ,
अब देश ही सवŽE च हो, D यारा हो’ अपनी जान से.
हो खS म अब आतंक, *k ट आचारण, दुk कम4 सब,
ह बढ़ रहे खतरे समझ ना पा रहे 6 य T यान से

नारी विमर्श 
आजकल नारी अपराधों का शिकार हो रही हैआकुल जी इस परिस्थिति से चिंतित हैं- 
नारी िबना दो कदम भी बढ़ोगे नह'.
सफलता क सी ढ़ याँ भी चढ़ोगे नह'.
अब नह' ह ना रयाँ िनब4ल ये’ जान ले,
इितहास कभी कोई, गढ़ सकोगे नह'.
अपसं% कृित, असu यता, बढ़ेगी रात दन,
नारी के आदश4 को जो मढ़ोगे नह'.
जान पाओगे नह', जो शिi नारी’ क ,
युग के इितहास को जो पढ़ोगे नह'.
*
 कसी मोरचे पर नारी को, कभी न कम आँके मानव,
अब तो दुिनया को मुी म , करने को तS पर नारी.
कोई भी हो कम4 eेw म , % वयंिसI करती है वह,
छोटा हो या बड़ा गँवाती, नह' कह' अवसर नारी.
*
कहाँ नह' वच4% व नारी’ का, अब यह भी जग जाना है.
अंत रe म गई, चाँद पर, अब परचम फहराना है.
राजनीित हो, या तकनीक , सेना हो या िव…ालय,
आज िच कS सा, j याय X यव% थ ा म भी उसको माना ह्.ै
घर के उS तरदाियS व म , कभी नह' वह पीछे थी,
कत4X य , अिधकार म भी, अिyम हो, यह ठाना है.

भाषा समस्या 
राजनीति ने भारत में भाषा को भी समस्या बना दिया है। राजभाषा हिंदी के प्रति यत्र-तत्र विरोध और द्वेष भाव से चिंतित आकुल जी कहते हैं- 
Bहदी आभूषण है इसको, अब शोिभत कर
Bहदी वण4माल से कृितयाँ, अब पोिषत कर .
हम कृताथ4 ह जाएँ य द, िसर पर हाथ हो
मधुर राk वाणी से सब को, संबोिधत कर .
बस मन-वचन-कम4 से इसको, अपनाय सभी,
अिभX यिi क है % वतंwता, न ितरोिहत कर .

जमीन से जुड़ाव 
आकुल जी की सृजन भूमि राजस्थान है। वे जमीन से जुड़े रचनाकार हैं। देशज भषा भी उन्हें उतने ेहे प्रिय है जितनी आधुनिक हिंदी 
जात-पाँत, रीत-भाँत, मन नैकूँ हो न शांत,
सूखे ह जो पेट आँत, सपन न आत ह .
भीख ले के हो <सj न, पशु के समe अj न
फ कवे स„ नायँ नैकूँ, होनो जानो कछू भी.

नगरीकरण 
तथाकथित विकास की अंधे ेमें गाँवों से शहरों की ओर पलायन का दुष्चक्र आकुल जी को चिंता करता है -
चौपाल , पनघट सूने, ह कुँए बावड़ी सूनी ह ,
वृe काट खुश है मानव उसक भी पाली आएगी.
ना ही फूट गे टेसू, कचनार, हारBसगार यहाँ,
छायेगा न बसंत व होली भी न गुलाली आएगी.
‘आकुल’ बढ़ कर रोक कटते पेड़ को द संरeण,
लहराय गे वृe देखना देव दवाली आएगी.

वैकल्पिक ऊर्जा 
मनुष्य ने प्राकृतिक उपादानों को इतनी तेजी और निर्दयता से नष्ट किया है की भविष्य में इनका आभाव झेलना पड़ेगा। इससे बचने के लिए वैकल्पिक ऊर्जा स्रोत अपनाना ही कमात्र उपाय है- 
अतुिलत ऊजा4 ले <ाची से, जब सूयŽदय होता है.
जन जीवन का ऊजा4 से ही, तब अu युदय होता है.
इस ऊजा4 से चाँद िसतारे, <कृित धरा भी है रोशन,
अंितम X यिi बने ऊज4% वी, वह अंS योदय होता है.
युग युग से धरती घूमे, बाँट रही घर घर ऊजा4,
जब लेते सापेिeक ऊजा4, तब भा) योदय होता है.
ऊजा4 का <ाकृितक zोत यह, राk ोj नित का मूल बने,
इस ऊजा4 से सव4तोभZ, वह सवŽदय होता है.
<कृित ने दये इस ऊजा4 से, शोक अशोक % वभाव कई,
कभी कभी तो सूय4 % वयं भी, तो y%तोदय होता है.

प्रशासनिक विसंगति 
स्वतंत्रता के समय जनगण की शासन-प्रशासन से जो अपेक्षा थी, वह पूरी नहीं हुई। विदेशी अंग्रेज गए तो दषी अंग्रेज सत्तासीन हो गए। नेताओं ने बभी देश को लौटने में कोइ कसर नहीं छोड़ी  
इक थैली के च‰े-ब‰े, साठ-गाँठ मािहर नेता,
साम-दाम अ7 दंड-भेद म , आफत के परकाले ह .
मूक देखते j यायालय भी, दंडिवधान,<शासन भी,
को िविध िनकले राह तीसरी, कूटनीित म ढाले ह .
चोर चोर मौसेरे भाई, करते घोटाले ढेर ,
साथ रख कल-पुज–-कुंदे, महँगी कार वाले ह .
कहते ह चाण6 य-िवदुर भी, छल-बल िबना न राज चले,
इसीिलए शतरंज म आधे, होते खाने काले ह

'हौसलों ने दिए पंख' शीर्षक यह काव्य कृति सम-सामयिक परिस्थियों का दस्तावेज है। आकुल जी सजग चिंतक और कुशल कवि हैं। वे कल्पना विलास में विश्वास नहीं करते। चतुर्दिक घाट रही घटनाओं के परिप्रेक्ष्य में वे साहित्य सृजन को यज्ञ  संपन्न करते हैं।  पूर्वाग्रहों और दुराग्रहों से दूर रहकर विषय वस्तु और कथ्य पर तार्किक चिंतन कर, समाधान सुझाते हुए विसंगतियों को इंगित  काव्य को पठनीयता ही नहीं मननीयता से भी युक्त करता है। आज आवश्यकता इस बात के है की शिल्प के किसी एक पहलू पर सारा विमर्श केंद्रित कर किये जा रहे विवादों को भूलकर साहित्य की कसौटी उद्देश्यपरकता हो। आकुल जी इस निकष पर सौ टके खरे साहित्यकार है और उनका साहित्य समय का दस्तावेज है। 
संदर्भ : १. गीतिकालोक -ॐ नीरव, २. दृगों में इक समंदर है -विशंभर शुक्ल, ३. चलो प्रेम का दूर क्षितिज तक पहुँचाएँ संदेश -आकुल
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संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन जबलपुर, चलभाष: ७९९९५५९६१८ / ९४२५१८३२४४, ईमेल salil.sanjiv@gmail.com  
ध्यान दें -
पृष्ठ २१. कोयला सुलगता है, दीपक जलता है। 
पृष्ठ २४ म तिनक थोड़ा झुका होता वह' तनिक और थोड़ा समानार्थी हैं. दुहराव दोष है। 
 क्र, १३ और १८ पर एक ही रचना है। 
पृष्ठ ५२ भावना कMयाणकारी हो सदा.
कम4णा भी सदाचारी हो सदा.​ कर्मणा नहीं कामना ​

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