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शुक्रवार, 30 अगस्त 2019

राजलक्ष्मी शिवहरे

डॉ.राजलक्ष्मी शिवहरे  (८-४-२०१९)
 पहली कविता सन् चौंसठ में छपी जब चीन का आक्रमण हुआ था।
   पहली कहानी "अभिनय"सरिता में प्रकाशित हुई थी। सत्तर का दशक था वो।
  पहला उपन्यास "समाधि"लक्ष्यवेधी में नागपुर से प्रकाशित हुआ था।
  कहानी लिखने के लिए मेरे पिताश्री स्व. शशिकुमार गुप्ता जी से मिली
कहानी का प्लाट चुनते समय मैं बेहद जागरुक रहती हूँ।हम समाज में रहते हैं। कुछ अच्छा भी देखते हैं कुछ बुरा भी। तुलसीदास जी के अनुसार मानवीय कमजोरी से हटकर आदर्श पर लिखना चाहिए।राम को अपनी लेखनी का आधार बनाया उन्होंने।समाज में लेखन बहुत दायित्व है।
वो एडव्होकेट थे।और छोटी छोटी घटनाओं को लिखने के लिए प्रेरित करते थे।मेरे बाबाजी स्व. मोहनलाल जी भी वकील थे।बाररुम के प्रसिडेंट भी थे।वो आर्यसमाजी थे इसलिए जाति,पाति या छोटे बडे का कोई भेदभाव घर में नहीं था।
   माँ स्व.चन्द्रकला गुप्ता धार्मिक महिला थीं। रामायण और गीता वे रोज जोर जोर से पढती थीं। उनका यह मानना था इससे आसपास का वातावरण शुद्ध होता है।
 घटना को लेकर मैं कथा बुनने में विश्वास रखती हूँ। मेरे पति डॉ. आर.एल. शिवहरे जी कालेज में पढाते थे। स्थानांतरित होते रहते थे। शहडोल के पास घना जंगल था। धूनी की पृष्ठभूमि वही है।
     यात्रा में लोग यह भी बताते हैं कि उनके साथ ऐसा हुआ। बस घटना को लेकर पात्रों का चरित्र चित्रण हो जाता है।पर घटना मुख्य होती है 
कहानी में कथन से ही कहानी को एकरूपता  मिलती है। पर लम्बे संवाद ऊबाने वाले होते हैं अत: कथोपकथन छोटे हों तो उत्तम।
   भाषा साहित्यिक होनी चाहिए।
आम बोलचाल की भाषा पाठक को आनन्द नहीं देती।
कहानी का उद्देश्य अंत में ही होना चाहिए।
उपन्यास, कहानी और लघुकथा को नवरचनाकार इस तरह समझें उपन्यास एक पूरा बगीचा है जिसमें अनेक तरह के फूल हैं। कहानी एक गुलदस्ता है दो या तीन घटनायें हो सकती है परंतु लघुकथा में एक ही फूल होगा।
उपन्यास के लिए मैं उदात्त चरित्र को ही लेती हूँ।परिवेश के सहारे घटनाक्रम जुडता चला जाता है।
जिस वर्तमान परिवेश की बात आप करते हैं, ये हमारा ही तो उत्पन्न किया हुआ ख़ालीपन है ।
हमने ही तो स्वयं को, अपनी जड़ों से काटकर, ये खटराग फैलाया है ।
मुझे गाँधी जी की एक बात याद आती है कि यदि मुझे अच्छी पुस्तकें मिलें तो मैं नर्क में भी उनका स्वागत करूँगा ।
इसका सीधा सा आशय ये हुआ कि साहित्य हमें विपरीत परिस्थितियों में सम्हालता है ।

यदि ईमानदारी से ढूँढें तो हमारे हर प्रश्न का उत्तर, सत्साहित्य दे सकता है ।
तो हमारे इस कृत्रिम ख़ालीपन को भरने का, साहित्य से बेहतर कोई उपाय नहीं है ।
जितना हम साहित्य के निकट होते जायेंगे उतने ही संवेदनशील होते चले जायेंगे ।
तो ये हमारी तमाम समस्याओं के निराकरण का एक सहज उपाय भी,
साहित्य से लगाव के चलते हो सकता है ।
साहित्य तो साहित्य है ।
मेरे हिसाब से इस तरह का वर्गीकरण कतई उचित नहीं । फ़र्ज़ करें आप उसे दलित या महिला साहित्य के रूप में वर्गीकृत कर, एक अतिरिक्त तवज्जो की मांग नहीं कर रहे??
या साहित्य के आधार पर एक अलग किस्म का पाठक वर्ग और खाँचा तैयार नहीं कर रहे?

दलित- दलित, महिला -महिला कोई भी अन्य ।
साहित्य सदैव तमाम वर्जनाओं और वर्गीकरण से परे, मात्र साहित्य ही रहे तो साहित्य और पाठकों का ज्यादा भला करेगा ।
[जबलपुर में विश्वविद्यालय में मुझपर या मेरे साहित्य पर अभी कुछ काम नहीं हुआ है। पर अहमदनगर में मेरे बालसाहित्य पर कुछ विद्यार्थियों ने अवश्य शोधप्रबंध में उल्लेख किया है।
नवरचनाकारों के लिए सिर्फ इतना ही लिखना शुरू करने से पहले पढ़ना ज्यादा करें ।
पठन हमारे सोच विचार के मार्ग खोलता है ।
साहित्य के तमाम नूतन आयाम एक अच्छे पाठक के सम्मुख, खुलते चले जाते हैं ।
विचारों की परिपक्वता आती है ।
और जिससे कथ्य ,भाव और शिल्प सधेंगे उसमें, पठन एक महती भूमिका निभाता है ।

तो खूब पढ़ें और अपने लिखे का,
बारम्बार परिमार्जन करें ।
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डॉ राजलक्ष्मी शिवहरे जी की रचनाओं को बतौर पाठक, अपने दिल के बेहद करीब पाता हूँ ।
अपनी औपन्यासिक  रचनाओं में वे जिस तिलिस्म को रचती हैं ।
पाठक सहज ही अभिभूत होता जाता है ।
बेहद सधे कथ्य के साथ सरल सी भाषा, सीधी ज़ेहन में उतरती जाती है ।
रचनाओं को समझने के लिए किसी अतिरिक्त मशक़्क़त की ज़रूरत नहीं होती ।ये उनकी बड़ी सफलता है ।
उपन्यास या बड़ी कहानियों में वे अपने फन की उस्ताद हैं ।
लघु कथाओं में रोजमर्रा की ज़िन्दगी से जो वो उठाती हैं, सहज और सपाट बयानी से कह देती हैं ।
कहानियों का अनिवार्य तत्त्व, जिस ट्विस्ट या औचकता  की ,पाठक मन चाह करता है,
वो अक्सर उपलब्ध रहता है ।
मगर उनकी कविताओं में बतौर पाठक, कवितापन विलुप्त सा ही है ।
क्षमा प्रार्थना के साथ ये कहना चाहता हूँ कि,
कथ्य की जिस गहनता की माँग, एक कविता करती है वो मुझे कम ही मिलती है ।
मेरी अपनी निजी राय है ।

ब्रजेश शर्मा विफल
 झाँसी

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