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रविवार, 4 अगस्त 2019

समीक्षा काल है संक्रांति का’तथा‘सड़क पर

समीक्षा-
आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ के गीत- नवगीत संग्रह
‘काल है संक्रांति का’तथा‘सड़क पर’ -ं
डाॅ. रमेश चंद्र खरे, दमोह
*
व्यक्ति की दबी प्रकृति और रुचि प्राप्त आजीविका में भी अंततः
अपना मार्ग खोज ही लेती है। सिविल इंजीनियर संजीव वर्मा भी ‘लोक
निर्माण’ के व्यस्त जीवन में दो-दो कला स्नातकोत्तर होकर ‘सलिल’ सम
साहित्य-सेवा में घुल-मिल गए। आपकी साहित्यिक अभियांत्रिक यात्रा अपनी
आजीविका से ताल-मेल बिठाते हुए, भूकंप में सुरक्षित भवन निर्माण
तकनीक की समुचित जानकारी के साथ ‘भूकंप में जीना सीखें’
लोकोपयोगी लघु कृति के साथ प्रारंभ हुई और १९७७ में ‘कलम
के देव’ के गुणानुवाद से भक्ति गीत के रूप में आगे बढ़ी।

‘समन्वय प्रकाशन अभियान’ जबलपुर के माध्यम से आपने लंबी यात्रा तय की
और सन् २००० में अखिल भारतीय स्तर पर ११ राज्यों के ७४ कवियों का
सचित्र परिचय सहित ३३२ पृष्ठों का वृहत काव्य संकलन- ‘तिनका तिनका नीड़’
संपादित कर प्रकाशित किया। २००१ मे ही व्यवस्था की खामियों को उजागर
करने का खतरा उठाते हुए (९ करोड़ की प्रस्तावित लागत पर ५२ करोड. के
म.प्र. विधान सभा भवन के उद्घाटन पर) स्वतंत्र संवेदनशील चिंतन
का काव्य संकलन ‘लोकतंत्र का मकबरा’ प्रकाशित हुआ।

२००३ में आया आपका मुक्त छंद के नवगीतों का ‘मेरे गीत’
संकलन। परिस्थिति की प्रतिकूलता में अनुकूलन को तत्पर कवि की जिजीविषा
की अपराजित स्वीकारोक्ति। वह मात्र स्वप्नजीवी नहीं, मानव मूल्यों का
आशावादी सजग प्रहरी है। प्रकाश दूत ‘दीपक’ और श्रमजीवी विपन्न वर्ग का
प्रतीक ‘नींव का पत्थर’ उनके आदर्श हैं। कवि कटाक्ष के व्यंग्य को
मारक हथियार बनाता है। विडंबना है आज उच्च शासन, प्रशासन, समाज, व्यापारी,
अधिकारी, न्यायालय सब इस मानसिकता में एक दूसरे के बाप हैं’। लोकतंत्र
की बदहाली पर वह विक्षुब्ध है - ‘राजनीति का सांप/लोकतंत्र के मेंढक
को/बेशर्मी से खा रहा है/ भोली-भाली जनता को/यही मन भा रहा है/जो समझदार
है/वह पछता रहा है/लेकिन कोई भी बदलाव/ नहीं ला पा रहा है।’ कवि की
जागरूकता समाज के संचेतन रूप में उसका श्याम प़क्ष उजागर कर, परिवर्तन
हेतु प्रेरित करने में भी है-

‘ईमानदार की जेब हमेशा खाली क्यों ? मतदाताओं की अनदेखी/नेताओं की
लूट’ और विस्मय! ‘जिन भ्रष्टों के ‘हाथों में जिसकी चाबी/वही हैं लोकतंत्र का संदूक’।
वह इसका निदान समाज की कर्तव्यशीलता में पाता हैं-ं ‘लहलहाती फसल/अधिकारों
की माँगते हैं/कर्तव्यों की खाद/तनिक नहीं डालते है।’

डाॅ. गार्गीशरण मिश्रं के अनुसार- ‘ सलिल का कवि हमें निरंतर पतित यथार्थ से,
उत्थित आदर्श की ओर ले जाने हेतु प्रयत्नशील ही नहीं, संकल्पवान भी है...
निष्पक्षता और निस्संगता उनकी कलम की नोंक पर विराजकर, उनके सृजन को
पठनीय ही नहीं, अनुकरणीय भी बना देती है।’ मैं तो कहूँगा
‘दोंनों स्थितियों में विचलन कठिन कठिनाई है/आदमी बनना,
अपने आप से लड़ाई है’

सघन भावात्मकता और तरल लयात्मकता का आंतरिक विस्फोट हीे गीत
है। आज गीत के कथ्य और शिल्प में समसामयिक परिवर्तन हो रहे हैं।
आधुनिक यांत्रिक जीवन और उसके मोहभंग पर आंचलिकता से भी
जुड़ा है वह, जिसे कुछ लोग ‘नवगीत’ की संज्ञा देते हैं। पर कहा गया
है- ‘ केवल शाब्दिक छोंक-बघार से कोई गीत, ‘नवगीत’ नहीं हो
जाता, चिंतन के तेवर भी होने चाहिए।’ कविवर सलिल जी का ६५
‘गीत-नवगीत’ के मिश्रण का नया संकलन २०१६ में ‘काल है संक्रांति का’
/(तुम मत थको सूरज!) के नाम से आया है। इसका कथ्य भी
पूर्व-पश्चिम, प्रचीन-नवीन, संस्कृति-सभ्यता के अंतर्द्वंद की
किंकर्तव्यविमूढ़ता व्यक्त करता है- ‘प्राच्य पर पाश्चात्य का चढ़ गया है
रंग/कौन किसको संभाले, पी रखी मद की भंग.....मनुज करनी देखकर
है, खुद नियति भी दंग/तिमिर को लड़़ जीतना /तुम मत चुको सूरज’।

याद आती है धर्मवीर भारती की पंक्तियाँ ‘अभी तो पड़ी है धरा
अधबनी/सृजन की थकन भूल जा देवता’। यह क्रांति नहीं, ‘संक्रांति
काल है’- क्रांति के पूर्व दो युगों के बीच का ‘ट्रांसिट पीरियड’
जो अपनी विसंगतियों,विद्रूपताओं में व्यंग्य का भरपूर अवसर देता
है- ‘प्रतिनिधि होकर जन से दूर/आँखें रहते भी हो सूर’ (
गवर्मेंट फार- एफओआर नहीं, एफएआर- द पीपुल) और ‘तज सिद्धांत, बना
सरकार/ कुसीै पा लो, ऐश रहे’। आगे भी ऐसी विडंबनाओं के कई
तेवर हैं- ‘खासों में खास’ - ‘सब दुनिया में कर अँधियारा/वह खरीद
लेता उजियारा’ और ‘बग्घी बैठा/बन सामंती समाजवादी’। कवि
प्रशासनिक भ्रष्टाचार और श्रेय लूट की भुक्तभोगी पीड़ा से भी
कराहता है- ‘अगले जनम/उपयंत्री न कीजो’। कथित ‘नवगीतों’- ‘अधर
पर’,‘मिली दहाड़ी’,‘अंध श्रद्धा’,‘राम बचाए’,‘लोकतंत्र का पंछी’,‘दिशा न
दर्शन’ आदि के बारे में कहा गया है कि अपने गुण-धर्म में नव होते
हुए भी गीत को कोई विषेशण जरूरी नहीं है। वे मूल ‘गीत’ में
ही श्रेष्ठ हैं। आज छंद की ओर लौटती कविता के कई प्रयोग हो रहे
हैं- मुक्त छंद, पर छंद मुक्त नहीं। सलिलजी ने ईसुरी की बुंदेली
चौकड़िया, आल्हा छंद, पंजाबी और सोहर लोक गीत भी रूपांतरित किए
हैं और हरिगीतिका, दोहा, सोरठा भी। छंदविधान में मात्रिक
करुणाकर छंद और वर्णिक सुप्रतिष्ठा जातीय नायक छंद जैसे कई प्रयोग
करने में वे व्यस्त हैं।‘ ‘नर्मदा’ सहित्यिक सांस्कृतिक पत्रिका
संपादन-प्रकाशन के बाद, आज कल इलेक्ट्रॉनिक ‘वाट्स एप’ पर ‘टू मीडिया
सलिल विशेषांक’ पत्रिका में चर्चित, वे पिंगल, ‘भाषा-व्याकरण’ के
विविध अंगों के निरूपण में शोधरत प्रयोगधर्मी हैं। बहरहाल भाव
और विचारों का सम्यक संगम, ‘सलिल- काव्य सरिता, संवेदनशीलता और
आक्रोश लिए कवि की वाग्विदग्धता का प्रमाण है।

अभी भी लगता है जैसे ‘संक्रांति काल’ समाप्त नहीं हुआ। पूर्व
संग्रह के अनुपूरक सा, नये गीत नवगीत- व्यस्त, त्रस्त जनजीवन के सार्वजनिक
प्रतीक के रूप में ‘सड़क पर’ सामने आया है। इस संग्रह की अंतिम नौ
कविताएँ इसी ‘सड़क पर’ संचालित सतत जिंदगी, अप्रिय ‘दुरंगी चालों वाली
छलती सियासत’ के ‘सड़क पर पसरे सियासी नजारे वाले गंदे हृदय सफेदपोश,
चारित्रिक दूषण और प्रदूषण, अतिक्रमण, जन्म-मरण उसके बहुरंगी दुख
दर्द, विसंगति पर उसका पछतावा, भीड़तंत्र की स्वच्छंद धींगा-मस्ती के
विवादित दंगे, असुरक्षा, बेइज्जती, अस्वच्छता, राजपुरुषों के
उत्थान-पतन सबकी साक्षी ‘सड़क’ का जैसे मानवीकरण एक धारावाहिक
यथार्थवादी फिल्म की तरह विद्रूप कच्चा चिट्ठा है, इसीलिय यह संग्रह
का शीर्षक भी है। धूमिल की ‘संसद से सड़़क तक’ भी लोकतंत्र की
अंतर्द्व्न्द गाथा है।


कवि प्रारंभ में कुछ प्रकृति और पर्यावरण के सुदर चित्र- मनभावन
सावन, मेघ बजे, ओढ़ कुहासे की चादर, पर्वत पछताया, कैसी होली
?, रंग हुआ बदरंग’, उल्लास में भी विषाद की छाया देखते हुए
चिंतित है- ‘मानव तो करता है निश-दिन मनमानी/प्रकृति से छेड़छाड़
घातक नादानी।’ और फिर वह अपने मूल कथ्य को व्यंग्य में उतार लाता
है। व्यंग्य, वास्तव में अन्योक्ति से व्यवस्था को कटघरे में खड़ा
करता है। उसका जन्म ही विडंबना से होता है- ‘ऐसा तो नहीं होना
चाहिए था, ऐसा क्यों हुआ’ ? इस पर संवेदनशील कवि (जन) मन
आक्रोशित होता है और तदनुरूप उसकी भाषा और मुहावरे कभी
कटूक्ति भी अपनाते हुए बदलते हैं । अपनी मातृभाषा से
परहेजी- ‘आंखें रहते भी हैं सूर/ फेंक अमिय नित विष घोलें।’

समाज असंस्कारों से दुर्भावग्रस्त हुआ है। पारिवारिक स्वार्थी
शहरीपन, सरल गाँवों में घुस आया है- ‘बढ़े सियासत के बबूल/सूखा
हैं चंपा सद्भावों का’ जहाँ-ं ‘बहू सो रही ए.सी. में/ खटती बऊ
दुपहरिया में’..विसंगति देखिए- शासन ने आदेश दिया है/मरुतल खातिर
नावों का’ और- ‘मेहनतकश के हाथ हमेशा रहते हैं क्यों खाली
खाली?/मोटी तोदों के महलों में/क्यों बसंत लाता खुशहाली?
ऊँची कुर्सी वाले पाते/अपने मुॅह में सदा बताशा’ ! जलाभाव, गरीबी,
भूख, जंगल कटने की समस्या-‘सर्प दर्प का झूल रहा है डर लगता हैं
पोल खोलते।’ वह स्वार्थी राजनीति के व्यवसाय पर व्यंग्य करता है-

जब तक कुर्सी तब तक ठाठ...सत्ताभोग करा बेगारी/सगा न कोई यहाँ किसी
का/ स्वार्थ साधने करते यारी/फूँको नैतिकता, ले काठ’। राजनीति
अब राज्यनीति नहीं, त्याज्य ‘नीति’ है, जो अवमूल्यित है। साधारण
विवाद- हल में भी षड्यंत्र की बू आती है- ‘आप राजनीति कर रहे
हैं’। अब वह सेवा साधना नहीं- ‘बेच खरीदो रोज देश को/साध्य
मान लो भोग ऐश को/वादों का क्या किया, भुलाया/लूट
दबाओ स्वर्ण कैश को/-झूठ आचरण सच का पाठ’। यही अनीति
भ्रष्टाचार, घोटालों की जड़ है। कटु यथार्थ- ख्ंडन मारक
है- ‘कौन कहता है कि मँहगाई अधिक है?/बहुत सस्ता बिक रहा इंसान
है/जहाँ जाओगे सहज ही देख लोगे/बिक रहा बेदाम ही इ्रंसान है
आज की अपसंस्कृति और विकृति को देखकर कवि को ध्वंसोन्मुख प्रकृति
ही नहीं,सहज मानव प्रकृति की विद्रूपता याद आती है- ‘कुटिलता वरेण्य
हुई/त्याज्य सहज बोली’। आज ‘अंधा युग’(धर्मवीर भारती) नहीं,
‘बहरा युग’ है- सब दिखाई देता है, पर ‘त्राहिमाम, त्राहिमाम’ की आर्त
ध्वनि भर सुनाई नहीं देती। एक भ्रम निवारण- द्वापर में कौेरव कुल
नष्ट नहीं हुआ- ‘वंष वृक्ष कट गया किंतु जड़़/शेष रह गई है अब
भी।’ कवि का रूपक सार्थक है- ‘आंखों पर पट्टी बाँधे न्याय’,
‘मंत्रालय, सचिवालय में शकुनि’, ‘दुःशासन खाकी वर्दी में’, द्रौपदी
अब भी लुटती ‘निर्भया’-सी, ‘प्रतिभा की नीलामी’ ‘स्वार्थों के
कैदी गुरु की तरह बेकाम शिक्षा’ और दूषित, भ्रष्ट धर्म- 'सभी
युगांतर में अर्थांतर है। प्रचलित शब्दार्थों का विचलन ही व्यंग्य
होता है। लोक और तंत्र में स्थाई द्वंद्व है।

कवि नकारात्मक ही नहीं, सकारात्मक दृष्टिकोण भी रखता है
- ‘खुद अपना मूल्याङ्कन कर लो’- ‘अँधेरे और उजाले को
जोड़़ने वाला कोई पुल आपने बनाया क्या ? श्रम सीकर और स्नेह सलिल
के अभाव में क्या कोई फूल आपका आभारी है ?- ‘स्नेह साधना करी
सलिल कब/दीन-हीन में दिखे कभी रब ?’ और सहज ही याद आती हैं कविवर
भवानी प्रसाद तिवारी के गीतांजलि के काव्यानुवाद की
पंक्तियां- ‘दिखता है प्रभु कहीं?/यहाँ नहीं/वहाँ
नहीं/फिर कहाँ ? अरे वहम जहाँ पर दीन/ जोतता कड़ी जमीन/वसन
हीन/तन मलीन.....।’ यही मन मंथन है। गीत संग्रह के कथ्य और
शिल्प के विषय में विद्वान समीक्षक श्री राजेन्द्र वर्मा (लखनऊ) ने अपनी
लंबी भूमिका में पर्याप्त प्रकाश डाला है। अब शेष क्या ? गीत और
नवगीत के बीच कोई विभाजक लक्षमण रेखा नहीं खींची गई है।
कई कवि तो गीत की पंक्ति को तोड़कर, चार की छोटी- बड़ी आठ
बनाकर, बगैर इसके व्याकरण को समझे, इस शिविर में शामिल हो जाते हैं।

अतः, किसी खेमेबाजी में न पड़कर ये सुंदर भाव-विचाारात्मक ६२ ‘नये
गीत’ ( वास्तव में ६०, ३० और ८१ तथा ६२ और ७५ में पुनरावृत्ति
है) अपने कहन में नयी जमीन तोड़ते हैं। बहुत से बुंदेलखंडी
देशज शब्दों- ‘खिझिया, जिमाए, गुजरिया, डुकरो, डुकरिया, बऊ-दद्दा,
हकाल, ठाँसेगा, सुस्ता, मुस्का, टपरिया, सौं, हेरते, पेरते, सुआ,
बाँचेगा, गत, कलपते, कुलिया, दुत्कार के प्रयोग से आंचलिकता ने इन
गीतों की लोकरंजना बढ़ाई है। प्रकारांतर से यह जागरण गीत मेँ- ‘बहुत
-झुकाया अब तक तूने/अब तो अपना भाल उठा’- लोक मंगल भी है। अ.
भा. स्तर पर फिर १५-१५ कवियों के १००-१०० दोहों के नये ३
संकलनों का सभूमिका संपादन-प्रकाशन भी आपकी विशिष्ट उपलब्धि
है। वैयाकरणिक भाई ‘सलिल’ इस दिशा में सैद्धांतिक और व्यावहारिक
काव्य साधना में बधाई के पात्र हैं।

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