धरोहर :
नागपंचमी
सुधीर त्यागी
*
सूरज के आते भोर हुआ
लाठी लेझिम का शोर हुआ
यह नागपंचमी झम्मक-झम
यह ढोल-ढमाका ढम्मक-ढम
मल्लों की जब टोली निकली
यह चर्चा फैली गली-गली
दंगल हो रहा अखाड़े में
चंदन चाचा के बाड़े में।।
सुन समाचार दुनिया धाई,
थी रेलपेल आवाजाई।
यह पहलवान अम्बाले का,
यह पहलवान पटियाले का।
ये दोनों दूर विदेशों में,
लड़ आए हैं परदेशों में।
देखो ये ठठ के ठठ धाए
अटपट चलते उद्भट आए
थी भारी भीड़ अखाड़े में
चंदन चाचा के बाड़े में
वे गौर सलोने रंग लिये,
अरमान विजय का संग लिये।
कुछ हंसते से मुसकाते से,
मूछों पर ताव जमाते से।
जब मांसपेशियां बल खातीं,
तन पर मछलियां उछल आतीं।
थी भारी भीड़ अखाड़े में,
चंदन चाचा के बाड़े में॥
यह कुश्ती एक अजब रंग की,
यह कुश्ती एक गजब ढंग की।
देखो देखो ये मचा शोर,
ये उठा पटक ये लगा जोर।
यह दांव लगाया जब डट कर,
वह साफ बचा तिरछा कट कर।
जब यहां लगी टंगड़ी अंटी,
बज गई वहां घन-घन घंटी।
भगदड़ सी मची अखाड़े में,
चंदन चाचा के बाड़े में॥
वे भरी भुजाएं, भरे वक्ष
वे दांव-पेंच में कुशल-दक्ष
जब मांसपेशियां बल खातीं
तन पर मछलियां उछल जातीं
कुछ हंसते-से मुसकाते-से
मस्ती का मान घटाते-से
मूंछों पर ताव जमाते-से
अलबेले भाव जगाते-से
वे गौर, सलोने रंग लिये
अरमान विजय का संग लिये
दो उतरे मल्ल अखाड़े में
चंदन चाचा के बाड़े में
तालें ठोकीं, हुंकार उठी
अजगर जैसी फुंकार उठी
लिपटे भुज से भुज अचल-अटल
दो बबर शेर जुट गए सबल
बजता ज्यों ढोल-ढमाका था
भिड़ता बांके से बांका था
यों बल से बल था टकराता
था लगता दांव, उखड़ जाता
जब मारा कलाजंघ कस कर
सब दंग कि वह निकला बच कर
बगली उसने मारी डट कर
वह साफ बचा तिरछा कट कर
दंगल हो रहा अखाड़े में
चंदन चाचा के बाड़े में.....
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नागपंचमी
सुधीर त्यागी
*
सूरज के आते भोर हुआ
लाठी लेझिम का शोर हुआ
यह नागपंचमी झम्मक-झम
यह ढोल-ढमाका ढम्मक-ढम
मल्लों की जब टोली निकली
यह चर्चा फैली गली-गली
दंगल हो रहा अखाड़े में
चंदन चाचा के बाड़े में।।
सुन समाचार दुनिया धाई,
थी रेलपेल आवाजाई।
यह पहलवान अम्बाले का,
यह पहलवान पटियाले का।
ये दोनों दूर विदेशों में,
लड़ आए हैं परदेशों में।
देखो ये ठठ के ठठ धाए
अटपट चलते उद्भट आए
थी भारी भीड़ अखाड़े में
चंदन चाचा के बाड़े में
वे गौर सलोने रंग लिये,
अरमान विजय का संग लिये।
कुछ हंसते से मुसकाते से,
मूछों पर ताव जमाते से।
जब मांसपेशियां बल खातीं,
तन पर मछलियां उछल आतीं।
थी भारी भीड़ अखाड़े में,
चंदन चाचा के बाड़े में॥
यह कुश्ती एक अजब रंग की,
यह कुश्ती एक गजब ढंग की।
देखो देखो ये मचा शोर,
ये उठा पटक ये लगा जोर।
यह दांव लगाया जब डट कर,
वह साफ बचा तिरछा कट कर।
जब यहां लगी टंगड़ी अंटी,
बज गई वहां घन-घन घंटी।
भगदड़ सी मची अखाड़े में,
चंदन चाचा के बाड़े में॥
वे भरी भुजाएं, भरे वक्ष
वे दांव-पेंच में कुशल-दक्ष
जब मांसपेशियां बल खातीं
तन पर मछलियां उछल जातीं
कुछ हंसते-से मुसकाते-से
मस्ती का मान घटाते-से
मूंछों पर ताव जमाते-से
अलबेले भाव जगाते-से
वे गौर, सलोने रंग लिये
अरमान विजय का संग लिये
दो उतरे मल्ल अखाड़े में
चंदन चाचा के बाड़े में
तालें ठोकीं, हुंकार उठी
अजगर जैसी फुंकार उठी
लिपटे भुज से भुज अचल-अटल
दो बबर शेर जुट गए सबल
बजता ज्यों ढोल-ढमाका था
भिड़ता बांके से बांका था
यों बल से बल था टकराता
था लगता दांव, उखड़ जाता
जब मारा कलाजंघ कस कर
सब दंग कि वह निकला बच कर
बगली उसने मारी डट कर
वह साफ बचा तिरछा कट कर
दंगल हो रहा अखाड़े में
चंदन चाचा के बाड़े में.....
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10 टिप्पणियां:
आचार्य जी,
बहुत बहुत धन्यवाद!
बहुत दिनों से मैं भी इस रचना को ढूंढ रहा था। मध्यप्रदेश की कक्षा 4 की हिंदी की पुस्तक संभवतः बालभारती में पढ़ा था इसे 1967-68 में। यदि उस समय का कोई संस्करण मिल जाय तो कवि का नाम पता चल सकता है।
स्मृति में दो ही पंक्तियाँ रह गयी थीं
दंगल हो रहा अखाड़े में
चन्दन चाचा के बाड़े में
आज आपने पूरी रचना भेज दी, एतदर्थ पुनः आभार
सादर
अमित
अमिताभ जी मैं भी वर्षों से तलाश रहा था. रचनाकार हैं श्री सुधीर त्यागी.
ksantosh_45@yahoo.co.in
सलिल जी वास्तव मे कविता जानदार,शानदार और
दमदार है. यह धरोहर ही है.
सन्तोष कुमार सिंह
संतोष जी धन्यवाद
Ram Gautam gautamrb03@yahoo.com [ekavita]
9:47 pm (14 घंटे पहले)
ekavita
आ. आचार्य 'सलिल' जी,
प्रणाम:
इस कविता का परिचय शायद आपने पहले भेजा था आज़ पूरी रचना को पढ़ा
और आनंद आया | आ . सुधीर पाठक जी की अब्भिव्यक्ति लोक- साहित्य
और साहित्यिक स्तर सारगर्भित रचना सभी को आकर्षित करती है | हवा-
महल के रमई काका जी की तर्ज़ पर बहुत प्रभावशाली है | अतः
आपको और सुधीर जी का बहुत- बहुत शुभकामनाएं |
सादर- आरजी
आत्मीय!
आपकी गुणग्राहकता को नमन. इस कविता के रचयिता सुधीर त्यागी हैं. उनकी कोई दूसरी रचना मेरे संज्ञान में नहीं है. उनका परिचय, चित्र व अन्य रचनाएँ कोई उपलब्ध करा सके तो उपकार होगा। यह रचना ६० के दशक में ४ थी की बाल भारती में थी जिसका संपादन स्व. भवानीप्रसाद तिवारी (गीतांजलि के काव्यानुवादक, सुकवि,महापौर) ने किया था. उसकी प्रति तिवारी जी की विदुषी पुत्री डॉ. आभा दुबे के रास सुरक्षित है, वहीं से अविकल पथ और रचनाकार का नाम प्राप्त हुआ. मैं आभा जी का आभारी हूँ.
रचनाकार पर भ्रम है
नर्मदाप्रसाद खरे हैं संभवतः
जी हां ,जहां तक मेरी जानकारी है रचनाकार स्व नर्मदा प्रसाद खरे जी ही हैं ।
सही कहा आप लोगों ने इसके रचयिता जबलपुर के सुप्रसिद्ध रचनाकार नर्मदा प्रसाद खरे ही हैं।
बाल भारती कक्षा 4 के सम्भवतः अध्याय 18 में नागपंचमी शीर्षक से इसका प्रकाशन हुआ था।
ये कविता मुझे भी याद है, हर साल नागपंचमी के दिन मैं इसे ज़रूर याद कर लेता हूँ। इसे लिखने वाले कवि का मैं दिल से आभार व्यक्त करता हूँ।
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