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शुक्रवार, 24 अक्तूबर 2014

हिंंदी नवगीत का उद्भव विकास

                                                           हिंंदी नवगीत का उद्भव विकास  
हिंदी गीत-नवगीत : उद्भव और विकास 

वैदिक साहित्य में ऋग्वेद एवं सामवेद की ऋचाएँ जो गीत का आदि रूप हैं गीत की दो अनिवार्य शर्तें विशिष्ट सांगीतिक लय तथा आरोह-अवरोह अथवा गायन शैली हैं। कालांतर में 'लय' के निर्वहन हेतु छंद विधान और अंत्यानुप्रास (तुकांत-पदांत) का अनुपालन संस्कृत  काव्य की वार्णिक छंद परंपरा तक किया जाता रहा। 

संस्कृत काव्य के समान्तर प्राकृत, अपभ्रंश आदि में भी 'लय' का महत्व यथावत रहा. सधुक्कड़ी में शब्दों के सामान्य रूप का विरूपण सहज स्वीकार्य हुआ किन्तु 'लय' का नहीं। शब्दों के रूप विरूपण और प्रचलित से हटकट भिन्नार्थ में प्रयोग करने पर कबीर को आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने 'भाषा का डिक्टेटर' कहा। 

विदेशी आक्रमणों के समय में स्थानीय गीत और दोहा तथा विदेशी ग़ज़ल और शेर तथा अन्य काव्य रूपों के गले मिलने से  आरोह-अवरोह और तुकांत-पदांत में नव प्रयोग तथा परिवर्तन स्वाभाविक रूप से हुए किन्तु 'लय' को तब भी यथाशक्ति साधने के प्रयास हुए। भाषिक सम्मिलन ने साहित्य सृजन की गंगो-जमुनी धारा से समन्वय सलिला को पुष्ट किया

अंग्रेजों और अंगरेजी के आगमन और प्रभुत्व-स्थापन की प्रतिक्रिया स्वरूप सामान्य जन अंग्रेजी साहित्य से जुड़ नहीं सका और स्थानीय देशज साहित्य की सृजन धारा क्रमशः खड़ी हिंदी का बाना धारण करती गयी जिसकी शैलियाँ उससे अधिक पुरानी होते हुए भी उससे जुड़ती गयीं। छंद, तुकांत और लय आधृत काव्य रचनाएँ और महाकाव्य लोक में प्रतिष्ठित और लोकप्रिय हुए। आल्हा, रासो, राई, कजरी, होरी, कबीर, आदि गीत रूपों में तुकांत-पदांत के समान्तर लय भी सध्या रही. यह अवश्य हुआ की सीमित शिक्षा तथा शब्द-भण्डार के कारण शब्दों के संकुचन या दीर्घता से लय बनाये रखा गया या शब्दों के देशज भदेसी रूप का व्यवहार किया गया। विविध छंद प्रकारों यथा छप्पय, घनाक्षरी, सवैया आदि में यह समन्वय सहज दृष्टव्य है

खड़ी हिंदी जैसे-जैसे वर्तमान रूप में आती गयी शिक्षा के प्रचार-प्रसार के साथ कवियों में छंद की शुद्धता या विरोध की प्रवृत्ति बढ़ी जो पारम्परिक और प्रगतिवादी दो खेमों में बँट गयी। महाकवि सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला' ने संस्कृत - बांगला साहित्य लोक संगीत तथा रवीन्द्र संगीत पर अपने असाधारण अधिकार और अद्वितीय प्रतिभा के बल पर गीत को पारम्परिक छंद विधान के पाश से मुक्त कर मुक्त छंद की दिशा दिखाई। निराला के बाद प्रगतिवादी धारा के कवि  छंद को कथ्य की सटीक अभिव्यक्ति में बाधक मानते हुए छंदहीनता के पक्षधर हो गए। इनमें से कुछ समर्थ कवि छंद के पारम्परिक ढाँचे को परिवर्तित कर या छोड़कर 'लय' तथा 'रस' आधारित रचनाओं से सार्थक रचना कर्मकार सके किन्तु अधिकांश कविगण नीरस-क्लिष्ट प्रयोगवादी कवितायेँ रचकर जनमानस में काव्य के प्रति वितृष्णा उत्पन्न करने का कारण बने। 

दूसरी ओर पारम्परिक काव्यधारा के पक्षधर रचनाकार छंदविधान की पूर्ण जानकारी और उस पर अधिकार न होने के कारण उर्दू काव्यरूपों के प्रति आकृष्ट हुए अथवा मात्रिक-वार्णिक छंद के रूढ़ रूपों को साधने के प्रयास में लालित्य, चारुत्व आदि काव्य गुणों को नहीं साध सके। इस खींच-तान और ऊहापोह के वातावरण में हिंदी काव्य विशेषकर गीत 'रस' तथा 'लय' से दूर होकर जिन्दा तो रहा किन्तु जीवनशक्ति गँवा बैठा। किताबी विद्वानों की अमरता की चाह ने अगीत, प्रगीत, गद्यगीत, अनुगीत, प्रलब गीत जैसे न जाने कितने प्रयोग किये पर बात नहीं बनी। प्रारंभिक आकर्षण के बाद नई कविता अपनी नीरसता और जटिलता के कारण जन-मन से दूर होती  गयी, गीत के मरने की घोषणा करनेवाले स्वयं काल के गाल में समां गए पर गीत लोक मानस में जीवित रहा

साहित्य में गीत लेखन परंपरा को पुष्ट करने के सत्प्रयास सतत होते रहे। इस मध्य गीत को 'नवगीत' का नाम मिला और उसके कथ्य शिल्प को पूर्वापेक्षा अधिक ग्राह्य, स्पष्ट और सहज बनाने का सत्प्रयास हुआ निराला, महादेवी, बच्चन, नेपाली, नवीन, दद्दा, दिनकर, सुमन, भारती, नीरज, गिरिजा कुमार माथुर, भारत भूषण, सोम ठाकुर, देवेन्द्र शर्मा 'इंद्र', कुमार रविन्द्र, नचिकेता, सत्य नारायण, अश्वघोष, पूर्णिमा बर्मन, गुलाब सिंह, मयंक श्रीवास्तव, ओम धीरज, विद्यानन्दन राजीव, बुद्धिनाथ मिश्र, नईम, कुंवर 'बेचैन', उमाकांत मालवीय, विनोद निगम, महेंद्र भटनागर, जगदीश व्योम, रविन्द्र 'भ्रमर', कुमार रविन्द्र, शम्भुनाथ सिंह, राजेंद्र गौतम, अवधबिहारी श्रीवास्तव, मधुकर अष्ठाना, निर्मल शुक्ल, राजकुमार सिंह, शांति सुमन, विनोद निगम, शांति सुमन, यश मालवीय, विष्णु सक्सेना, देवेन्द्र कुमार, माहेश्वर तिवारी, भारतेंदु मिश्र, शिव बहादुर सिंह भदौरिया, राधेश्याम बंधु, ओम प्रभाकर,  अवनीश सिंह चौहान, दिनेश सिंह,  ओमप्रकाश सिंह, रमाकांत, शीलेन्द्र चौहान, नीलम सिंह, चन्द्रदेव सिंह, देवेन्द्र कुमार, महेश अनघ, राम सेंगर, संजीव वर्मा 'सलिल', जगदीश प्रसाद जेंद, रामनारायण रमण, ब्रजेश श्रीवास्तव, शैलेन्द्र शर्मा, जगदीश पंकज, विनोद श्रीवास्तव, अवधेश नारायण श्रीवास्तव,  वीरेंद्र आस्तिक, सौरभ पाण्डेय, सुवर्ण दीक्षित, पवन प्रताप सिंह, विजेंद्र विज, अमित कल्ला, प्रदीप शुक्ल, सीमा हरी शर्मा, हरिवल्लभ शर्मा, शिव जी श्रीवास्तव, रोहिर रुसिआ, ओमप्रकाश तिवारी, पंकज परिमल, ओम धीरज,चन्द्र प्रकाश पाण्डेय, बृजभूषण सिंह गौतम, मनोज जैन, बृजेश द्विवेदी,  रंजना गुप्ता, गोपालकृष्ण भट्ट, सुभाष चन्द्र मेहता आदि अनेक सृजनधर्मी  हिंदी की नवगीत सलिला में अवगाहन कर धन्य हुए हैं। नवगीत की औपचारिक सृजन यात्रा का श्री गणेश नयी कविता के समकालिक और समान्तर है। 

गीत और नवगीत : 

गीत और नवगीत दोनों ही हिंदी गीतिकाव्य के अंग हैं। अन्य अनेक उपविधाओं की तरह यह दोनों भी कुछ समानता और कुछ असमानता रखते हैं। नवगीत नामकरण के पहले भी नवगीत रचे गए किन्तु तब गीतों में समाहित माँने गये आज भी गीत रचे जा रहे हैं। अनेक रचनाएँ ऐसी भी हैं जिनमें गीत और नवगीत दोनों के तत्व देखे जा सकते हैं। 

गीत काव्य रचना की एक विधा है जिसमें स्थाई (मुखड़ा) और कुछ अंतरे होते हैं। हर  अंतरे के बाद स्थाई दुहराया जाता है। सामान्यतः स्थाई और अँतरे का छंद विधान, पदभार और गति-यति समान होती है गीत के कथ्य के अनुसार रास, प्रतीक और बिम्ब चुने जाते हैं

नवगीत ऐसी पद्य रचना है जिसमें पारिस्थितिक शब्द चित्रण (विशेषकर वैषम्य और विडम्बना) मय कथ्य को  प्रस्तुत किया जाता है। नवगीत में भी स्थाई तथा अन्तरा होता है किन्तु प्रायः उनका छंद विधान या गति-यति भिन्नता लिये होते हैं। नवगीत का कथ्य काल्पनिक रूमानियत और लिजलिजेपन से प्रायः परहेज करता है। वह यथार्थ की धरती पर 'है' और 'होना चाहिए' के ताने-बाने इस तरह बुनता है की विषमता के बेल-बूटे स्पष्ट रूप से सामने आ सकें। गीत के प्रासाद में छंद विधान और अंतरे का आकार व संख्या उसका विस्तार करते हैं। नवगीत के भवन में स्थाई और अंतरों की सीमित संख्या और अपेक्षाकृत लघ्वाकार व्यवस्थित कक्षों का सा आभास कराते हैं गीत में शिल्प को वरीयता प्राप्त होती है जबकि नवगीत में कथ्य प्रधान होता है

गीत में कथ्य वर्णन के लिए प्रचुर मात्र में बिम्बों, प्रतीकों और उपमाओं के उपयोग का अवकाश होता है जबकि नवगीत में गागर में सागर, बिंदु में सिंधु की तरह इंगितों में बात कही जाती है। 'कम बोले से अधिक समझना' की उक्ति नवगीत पर पूरी तरह लागू होती है। नवगीत की विषय वस्तु सामायिक और प्रासंगिक होती है। तात्कालिकता नवगीत का प्रमुख लक्षण है जबकि सनातनता, निरंतरता गीत का। गीत रचना का उद्देश्य सत्य-शिव-सुंदर की प्रतीति तथा सत-चित-आनंद की प्राप्ति कही जा सकती है जबकि नवगीत रचना का उद्देश्य इसमें बाधक कारकों और स्थितियों का इंगित कर उन्हें परिवर्तित करना कहा जा सकता है। गीत महाकाल का विस्तार है तो नवगीत काल की सापेक्षता। गीत का कथ्य व्यक्ति को समष्टि से जोड़कर उदात्तता के पथ पर बढ़ाता है तो नवगीत कथ्य समष्टि की विरूपता पर व्यक्ति को केंद्रित कर परिष्कार की राह सुझाता है

भाषा के स्तर पर गीत में संकेतन का महत्वपूर्ण स्थान होता है जबकि नवगीत में स्पष्टता आवश्यक है। गीत पारम्परिकता का पोषक होता है तो नवगीत नव्यता को महत्व देता है गीत में छंद योजना को वरीयता है तो नवगीत में गेयता को महत्व मिलता है 

गीत में अंतरों की संख्या विषय और कथ्य के अनुरूप हो सकती है। अँतरे में पंक्ति संख्या तथा पंक्ति में शब्द संख्या भी आवश्यकतानुसार घटाई - बढ़ाई जा सकती है। नवगीत में सामान्यतः २-३ अँतरे तथा अंतरों में ४-६ पंक्ति होती हैं गीत तथा नवगीत दोनों में एक समानता मुखड़े की पंक्ति और अँतरे की अंतिम पंक्ति में पदांत और / या तुकांत का समभारीय होना है ताकि अँतरे के पश्चात मुखड़े को दुहराया जा सके  गीत में पारम्परिक छंद चयन के कारण छंद विधान पूर्वनिर्धारित गति-यति को नियंत्रित करता है  नवगीत में छान्दस स्वतंत्रता होती है अर्थात मात्रा सन्तुलनजनित गेयता और लयबद्धता पर्याप्त है 

नवगीत लिखते समय इन बातों का ध्यान रखें-१. संस्कृति व लोकतत्त्व का समावेश हो। २. तुकान्त की जगह लयात्मकता को प्रमुखता दें। ३. नए प्रतीक व नए बिम्बों का प्रयोग करें। ४. दृष्टिकोण वैज्ञानिकता लिए हो। ५. सकारात्मक सोच हो। ६. बात कहने का ढंग कुछ नया हो और जो कुछ कहें उसे प्रभावशाली ढंग से कहें। ७. शब्द-भंडार जितना अधिक होगा नवगीत उतना अच्छा लिख सकेंगे। ८. नवगीत को छन्द के बंधन से मुक्त रखा गया है परंतु लयात्मकता की पायल उसका शृंगार है, इसलिए लय को अवश्य ध्यान में रखकर लिखे और उस लय का पूरे नवगीत में निर्वाह करें। ९. नवगीत लिखने के लिए यह बहुत आवश्यक है कि प्रकृति का सूक्ष्मता के साथ निरीक्षण करें और जब स्वयं को प्रकृति का एक अंग मान लेगें तो लिखना सहज हो जाएगा।

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