शक्ति वंदना:
१.
माँ अम्बिके जगदंबिके करिए कृपा दुःख-दर्द हर
ज्योतित रहे मन-प्राण मैया! दीजिए सुख-शांति भर
दीपक जला वैराग्य का, तम दूर मन से कीजिए
संतान हम आये शरण में, शांति-सुख दे दीजिए
आगार हो मन-बुद्धि का, अनुरक्ति का, सदयुक्ति का
सत्पथ दिखा संसार सागर से तरण, भव-मुक्ति का
अन्याय अत्याचार से, हम लड़ सकें संघर्ष कर
आपद-विपद को जीत आगे बढ़ सकें उत्कर्ष कर
संकट-घिरा है देश, भाषा चाहती उद्धार हो
दम तोड़ता विश्वास जन का, कर कृपा माँ तार दो
भोगी असुर-सुर बैठ सत्ता पर, करें अन्याय शत
रिश्वत घुटाले रोज अनगिन, करो इनको माफ़ मत
सरहद सुरक्षित है नहीं, आतंकवादी सर चढ़े
बैठ संसद में उचक्के, स्वार्थ साधें नकचढ़े
बाँध पट्टी आँख पर, मंडी लगाये न्याय की
चिंता वकीलों को नहीं है, हो रहे अन्याय की
वनराजवाहिनी! मार डाले शेर हमने कर क्षमा
वन काट फेंके महानगरों में हमारा मन रमा
कांक्रीट के जंगल उगाकर, कैद उनमें हो गये
परिवार का सुख नष्टकर, दुःख-बीज हमने बो दिये
अश्लीलता प्रिय, नग्नता ही, हो रही आराध्य है
शुचिता नहीं, सम्पन्नता ही हाय! होता साध्य है
बाजार दुनिया का बड़ा बन, बेचते निज अस्मिता
आदर्श की हम जलाते हैं, रोज ही हँसकर चिता
उपदेश देने में निपुण, पर आचरण से हीन हैं
संपन्न होता देश लेकिन देशवासी दीन हैं
पुनि जागकर माँ! हमें दो, कुछ दंड बेहद प्यार दो
सत्पथ दिखाकर माँ हमें, संत्रास हरकर तार दो
जय भारती की हो सकल जग में सपन साकार हो
भारत बने सिरमौर गौरव का न पारावार हो
रिपुमर्दिनी! संबल हमें दो, रच सकें इतिहास नव
हो साधना सच की सफल, संजीव हों कर पार भव
(छंद हरिगीतिका: ११२१२)
*
१.
माँ अम्बिके जगदंबिके करिए कृपा दुःख-दर्द हर
ज्योतित रहे मन-प्राण मैया! दीजिए सुख-शांति भर
दीपक जला वैराग्य का, तम दूर मन से कीजिए
संतान हम आये शरण में, शांति-सुख दे दीजिए
आगार हो मन-बुद्धि का, अनुरक्ति का, सदयुक्ति का
सत्पथ दिखा संसार सागर से तरण, भव-मुक्ति का
अन्याय अत्याचार से, हम लड़ सकें संघर्ष कर
आपद-विपद को जीत आगे बढ़ सकें उत्कर्ष कर
संकट-घिरा है देश, भाषा चाहती उद्धार हो
दम तोड़ता विश्वास जन का, कर कृपा माँ तार दो
भोगी असुर-सुर बैठ सत्ता पर, करें अन्याय शत
रिश्वत घुटाले रोज अनगिन, करो इनको माफ़ मत
सरहद सुरक्षित है नहीं, आतंकवादी सर चढ़े
बैठ संसद में उचक्के, स्वार्थ साधें नकचढ़े
बाँध पट्टी आँख पर, मंडी लगाये न्याय की
चिंता वकीलों को नहीं है, हो रहे अन्याय की
वनराजवाहिनी! मार डाले शेर हमने कर क्षमा
वन काट फेंके महानगरों में हमारा मन रमा
कांक्रीट के जंगल उगाकर, कैद उनमें हो गये
परिवार का सुख नष्टकर, दुःख-बीज हमने बो दिये
अश्लीलता प्रिय, नग्नता ही, हो रही आराध्य है
शुचिता नहीं, सम्पन्नता ही हाय! होता साध्य है
बाजार दुनिया का बड़ा बन, बेचते निज अस्मिता
आदर्श की हम जलाते हैं, रोज ही हँसकर चिता
उपदेश देने में निपुण, पर आचरण से हीन हैं
संपन्न होता देश लेकिन देशवासी दीन हैं
पुनि जागकर माँ! हमें दो, कुछ दंड बेहद प्यार दो
सत्पथ दिखाकर माँ हमें, संत्रास हरकर तार दो
जय भारती की हो सकल जग में सपन साकार हो
भारत बने सिरमौर गौरव का न पारावार हो
रिपुमर्दिनी! संबल हमें दो, रच सकें इतिहास नव
हो साधना सच की सफल, संजीव हों कर पार भव
(छंद हरिगीतिका: ११२१२)
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