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रविवार, 15 सितंबर 2013

article: HINDI - pushp lata chaswal

विशेष आअलेख:
हिन्दी भाषा की मानकता पर सांस्कृतिक प्रभाव  
पुष्प लता चसवाल 
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भाषा भावों और विचारों की वाहक होती है जिसके माध्यम से मनुष्य परस्पर व्यवहार करने में सक्षम होते हैं। मानव द्वारा संचालित सृष्टि के सभी कार्यों में भाषा की भूमिका सर्वोत्तम मानी गई है और यह एक आधारभूत सच्चाई है कि जिस भी भाषा को मनुष्य अपने परिवेश से सहज रूप में अपना लेता है वह कोई जन्मजात प्रवृति नहीं होती और न ही उसके या उसके तत्कालीन जनसमुदाय द्वारा रची गई भाषा होती है, वह भाषा तो युग-युगान्तरों से जन समूहों के सांस्कृतिक व सभ्याचारिक सन्दर्भों से निर्मित होती है और उस समाज के विकास के साथ-साथ ही विकसित होती जाती है। यही कारण है कि जो समाज जितना अधिक विकसित होता है उस समाज की भाषा उतनी ही उन्नत होती है अथवा यह भी कहा जा सकता है कि किसी समाज के विकास की पहचान उसकी भाषा से की जा सकती है।

वस्तुतः संस्कृति भाषा के विकास का मूलाधार होती है और फिर यही भाषा संस्कृति का संरक्षण एवं संवर्धन करती है। इसलिए भाषा और संस्कृति का परस्पर गहरा सम्बन्ध माना जाता है। भारतीय सभ्यता और संस्कृति बहुत प्राचीन एवं सनातन है और संस्कृत भाषा इसकी मूलभाषा है। देवनागरी लिपि में रचित इस भाषा का विधान वैज्ञानिक पद्धति युक्त व्यवस्था पर आधारित है। भाषा का भौतिक आधार ध्वनि होता है। हिंदी भाषा की ध्वनियों का प्राचीनतम रूप वैदिक ध्वनि समूह है, जिन्हें वर्ण या अक्षर कहते हैं। संस्कृत के व्याकरणकार पाणिनी ने वैदिक ध्वनियों की संख्या ६३ या ६४ बताई है जिनमें से ५९ स्वर एवं व्यंजन ध्वनियाँ हिन्दी में भी आती हैं - इन में पर्याप्त ध्वनियाँ वैदिक हैं। हिन्दी भाषा का विकास संस्कृत से हुआ है और इसकी पुरातन विकास धारा वैदिक संस्कृत से लौकिक संस्कृत, लौकिक संस्कृत से पाली, पाली से प्राकृत, प्राकृत से अपभ्रंश और शौरसेनी अपभ्रंश से हिन्दी भाषा के विकास की मानी जाती है।

हिन्दी भाषा की लिपि देवनागरी है जो ध्वनि प्रधान हैं। इसे विश्व की सर्वाधिक वैज्ञानिक, सरल एवं सुबोध भाषा माना गया है क्योंकि इसमें सूक्ष्म-सी ध्वनि भेद होने पर नए ध्वनि चिह्न का प्रावधान किया जाता है, यथा- स, श, ष चाहे समान ध्वनि वर्ण हैं किन्तु थोड़ी-थोड़ी ध्वनि में भिन्नता आने पर ही इनके वर्णों के आकार में अन्तर आ जाता है।

हिन्दी की विकास यात्रा में कई स्थानीय समृद्ध बोलियों का योगदान रहा है, जिन्हें वर्तमान हिंदी की सहयोगी भाषाओं के रूप में भी जाना जाता है।

वस्तुतः हिंदी भाषा के संवर्धन में गंगा-जमुनी सभ्यता की झलक विविध रूपों में दिखाई पड़ती है। इसका उत्कृष्ट साहित्य इसी गंगा-जमुनी संस्कृति की देन है। इसके प्राचीन ग्रंथ रामचरितमानस, पद्मावत, सूरसागर कबीर दोहावली जैसे भक्तिकालीन काव्य की उपादेयता एवं प्रसिद्धी आज भी जन-जन के हृदय पटल पर अंकित है, बिहारी, केशव, तथा अष्टछाप या अन्य कवियों की रचनाएं चाहे अवधी, ब्रज, मैथिली, भोजपुरी या खड़ी बोली में ही क्यों न रची गई हों इन सभी में गंगा-जमुनी सभ्यता की विविध छाप-छवियाँ अंकित हैं। यही कारण हैं कि आज की हिन्दी की प्रारम्भिक अवस्था खड़ी बोली को विद्वानों ने हिन्दुस्तानी, सरहिन्दी, वर्नाक्युलर आदि नामों से अभिहित किया। देखा जाए तो ‘खड़ी बोली’ का विकास जन-जीवन के सरोकारों को साहित्य में विषय-वस्तु के रूप में व्यक्त करने के साथ हुआ जो आगे चल कर आधुनिक हिन्दी के रूप में विकसित हुआ। ‘खड़ी बोली’ को विद्वानों ने अनेक रूपों में अभिहित किया है - हिन्दी भाषा-शास्त्री सुनीति कुमार चटर्जी इसे ऐसी भाषा मानते हैं जो आवश्यकतानुसार स्थिति से खड़ी हुई थी। कामता प्रसाद गुरु 'खड़ी' का अर्थ कर्कश भाषा के रूप में और किशोरी दास वाजपेयी 'खड़ी पाई' होने के कारण खड़ी बोली मानते हैं। गिल्क्राईस्ट ने इसकी 'खड़ी' की अपेक्षा 'खरी' नाम से पहचान करवाई जिसका अर्थ उन्होंने 'परिनिष्ठित' अथवा 'मानक' भाषा के रूप में लिया। कुछ अन्य विद्वान 'खड़ी बोली,' को 'खरी बोली' कहते हैं जिसका अभिप्रायः 'शुद्ध बोली' से है तो कुछ इसे 'खड़ी हुई' बोली मानते हैं यानी 'स्टैंडिंग' -'स्टैण्डर्ड' अथवा 'मानक' भाषा, जबकि भोलानाथ तिवारी ने 'खड़ी बोली' को दो अर्थों में व्यक्त किया है- एक तो साहित्यिक हिन्दी जिस में आज का सारा साहित्यिक रूप आ जाता है और दूसरी दिल्ली, मेरठ के आस-पास की भाषा।(भोला नाथ तिवारी, मानक हिन्दी का स्वरूप, प्रभात प्रकाशन, दिल्ली)  

ऐसे में जब हिन्दी के उद्भव और विकास की यात्रा पर विचार करते हैं तो इसके विकास में भारतवर्ष के अधिकांश क्षेत्रों की स्थानीय भाषाओं का योगदान दिखाई पड़ता है, जिसे सर्वप्रथम डा. ग्रियर्सन ने हिन्दी भाषा की तीन शाखाओं के रूप में वर्गीकृत किया है - पहली: बहिरंग शाखा जिसमें पश्चिमी समुदाय की भाषाएं सिन्धी-लहंदा, पूर्वी समुदाय की उड़िया, बिहारी, बंगला, असमिया और दक्षिणी समुदाय की मैथिली भाषाएँ आती हैं। दूसरी: मध्य देशीय शाखा में मध्यवर्ती समुदाय की पूर्वी हिन्दी। और, तीसरी: अन्तरंग शाखा के केन्द्रीय समुदाय की पश्चिमी हिन्दी समुदाय में, पंजाबी, गुजराती, भीली, राजस्थानी, खानदेशी तथा पहाड़ी समुदाय में पूर्वी पहाड़ी या नेपाली, मध्य पहाड़ी, पश्चिमी पहाड़ी भाषाएँ सम्मिलित हैं। ये सभी भाषाएँ हिन्दी की सहयोगी व सहोदर भाषाएँ हैं जिनका प्रभाव हिन्दी की ध्वनियों पर प्रचुर मात्रा में पड़ता रहा है। हिन्दी भाषा-शास्त्री सुनीति कुमार चटर्जी ने भी इसे उदीच्य (उत्तरी) भाषाएँ, प्रतीच्य (पश्चिमी) भाषाएँ, मध्य देशीय भाषाएँ, प्राच्य (पूर्वी) भाषाएँ, दक्षिणात्य भाषाओं में वर्गीकृत किया जो तात्विक दृष्टि से डा. ग्रियर्सन के वर्गीकरण के समान ही प्रतीत होता है।

आचार्य राम चन्द्र शुक्ल ने हिन्दी का प्रारम्भ १८८३ ई. के आस पास 'अमीर खुसरो' के साहित्य से माना है जिसमें सरल भाषा में तत्कालीन जन-जीवन का प्रतिपादन काव्य द्वारा किया गया है। जबकि डा. राम कुमार वर्मा हिन्दी के विकास काल का आरम्भ गोरख नाथ की काव्य रचनाओं के साथ मानते हैं। उनका मानना है कि खड़ीबोली जनपदीय भाषा का परिष्कृत रूप होने के कारण इसका विकास काल आर्य भाषा काल से ही माना जाता है जब नाथ पंथियों की भाषा में नागर अपभ्रंश तथा ब्रज भाषा का समावेश मिलाता है। (डा. राम कुमार वर्मा, हिन्दी साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास,२८) यथा -
         “नौ लाख पात्री आगे नाचै पीछे सहज अखाड़ा।
          ऐसे मन ले जोगी खेलै, तब अन्तर बसे भंडारा।।” (गोरख नाथ)
इसी प्रकार की भाषा का प्रयोग सरहपाद की साधुकड़ी भाषा में भी दृष्टव्य है जहाँ खड़ी बोली के शब्दों व ध्वनियों का प्रयोग स्पष्ट झलकता है,
         “जह मन पवन न संचरइ, रवि शशि नाह पवेश।
          तहि वड चित्त विसाम करू, सरहे कहीअ उवेश॥”(डा. राम कुमार वर्मा, हिन्दी साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास,४३)

खड़ी बोली तत्कालीन राजनैतिक शोषण के विरूद्ध भी खड़ी हुई जान पड़ती है इसकी पुष्टि नाथ काव्य में दिखाई पड़ती है (शिव कुमार शर्मा; हिंदी साहित्य: युग और प्रवृत्तियां;२४), यथा-
      "हिन्दू मुसलमान खुदाई के बन्दे
      हम जोगी न कोई किसी के छन्दे।"
नाथ जोगियों की ऐसी भाषा उनके सबदियों और पदों में व्यक्त हुई है। खड़ीबोली अपने प्रारम्भिक रूप में आदान प्रदान करने वाली सशक्त भाषा बन कर उभरी जिसे जहाँ अरबी-फ़ारसी के विद्वानों ने अपनी बात आम जनता को समझाने के लिए प्रयुक्त किया तो वहीँ साधू-संतों ने जन-सामान्य को जागृत करने के लिए इसे अपनाया। इसके प्रमुख कवियों में नरपति नाल्ह, अमीर खुसरो, गोरख नाथ, विद्यापति और कबीर हैं जिनकी रचनाओं में जन-जीवन की झाँकियाँ झलकती हैं। इन सभी में 'अमीर खुसरो' की भाषा में अधिक शुद्ध खड़ीबोली का रूप दिखाई पड़ता है।      

खड़ी बोली ऐसी भाषा है जो जन-जन में समझी जाती रही और जन-जन की आपेक्षाओं के अनुरूप उनके पक्षधर के रूप में साहित्य में आई एवं सभी को मान्य थी। देखने में आता है कि 'मानक भाषा’ का मूल आधार चाहे क्षेत्रीय होता है किन्तु कालान्तर में शनैः-शनैः वही भाषा सर्व क्षेत्रीय बन जाती है। हिन्दी के विकास में जहाँ भिन्न-भिन्न भाषाओं और बोलियों का योगदान रहा है तो इस के एक मानक स्वरूप को निर्धारित करने का प्रश्न उठना स्वाभाविक ही है। तब 'मानक भाषा’ का अर्थ जानना आवश्यक हो जाता है।
भोला नाथ तिवारी के मतानुसार-
'मानक भाषा किसी भाषा के उस रूप को कहते हैं जो उस भाषा के पूरे क्षेत्र में शुद्ध माना जाता है तथा जिसे उस प्रदेश का शिक्षित वर्ग और शिष्ट समाज अपनी भाषा का आदर्श रूप मानता है और प्रायः सभी औपचारिक परिस्थितियों में, लेखन में, प्रशासन में, और शिक्षा के माध्यम के रूप में यथा साध्य उसी का प्रयोग करने का प्रयत्न करता है।'

किसी भी भाषा को एक मानक रूप प्रदान करना उस भाषा का मानकीकरण कहलाता है। ऐसा रूप जिसमें उस भाषा के प्राप्त सभी विकल्पों में से किसी एक रूप को मानक मान लिया जाए और उस भाषा रूप को उस भाषा के सभी भाषा-भाषी सहज ही मान्यता प्रदान करें।

हिन्दी भाषा को भारत की राजभाषा का दर्जा मिलने के बाद इसके मानकीकरण का मुद्दा बहुत संजीदगी से उठा तथा इस सन्दर्भ में ‘नागरी लिपि’ तथा हिन्दी का मानकीकरण केन्द्रीय सरकार की संस्था 'हिन्दी निदेशालय' ने भारत के चुने हुए भाषा विज्ञान के मनीषियों की सहायता से किया है।

हिन्दी भाषा के मानक रूप को जानने से पहले भाषा की मानकता के विषय में जानकारी प्राप्त करना अनिवार्य हो जाता है। ‘मानक’ शब्द को ‘मान’ से निर्मित किया गया है जिसका अर्थ ‘मापदण्ड’, ‘मानदण्ड’ या ‘पैमाना’ है। राम चन्द्र वर्मा कृत 'प्रामाणिक हिन्दी' में सर्वप्रथम मानक शब्द की अर्थ-व्याख्या की गई, जिसे सर्वमान्य माना जाता है।

'मान' का अभिप्राय है 'माप' ऐसा माप जिससे किसी की योग्यता, श्रेष्ठता व गुण आदि का अनुमान या कल्पना की जाए यानी ‘मानक भाषा’ का अर्थ हुआ साधुभाषा, टकसालीभाषा, शुद्ध भाषा, आदर्श भाषा, परिनिष्ठित भाषा। (भोला नाथ तिवारी, मानक हिन्दी का स्वरूप, प्रभात प्रकाशन, दिल्ली) मोटे तौर पर यह माना जाता है कि भाषा उच्चारण अवयवों से उच्चरित ध्वनि प्रतीकों की वह व्यवस्था है जिसके द्वारा एक समुदाय के लोग आपस में भावों और विचारों का आदान-प्रदान करते हैं। ये उच्चारित ध्वनियाँ व्यक्ति के भावों एवं विचारों को प्रतीक रूप में व्यक्त करती हैं। हिन्दी भाषा के रूप-संरचना विज्ञान में शब्दों की प्रतीकता को परिभाषित करते हुए कहा गया है कि- व्यक्ति के विचारों के प्रतीक रूप में उच्चारित की जाने वाली ध्वनियों के समूह या संकेतों को 'शब्द' कहते हैं। शब्दों के माध्यम से ही व्यक्ति अपने भावों व विचारों युक्त सार्थक भाषा का सम्प्रेषण कर पाता है। ऐसे ही महाभारत के ‘शान्ति पर्व’ में श्वेतकेतु ने शब्द के विषय में लिखा है - 'क्ल्पयेन च परिवादकृतो हि यः। स शब्द इति विज्ञेयः।' (भाई योगेन्द्र जीत, हिन्दी भाषा शिक्षण,२३)

उच्चारण का हिंदी भाषा की मानकता पर गहरा प्रभाव पड़ता है इसके सम्बन्ध में डा. भोला नाथ तिवारी का मानना है कि ऐसे उच्चारण और प्रयोग आदि ही मानक माने जाए जो परम्परा समर्थित हों ही, सुशिक्षित मातृभाषियों को मान्य भी हों।"

किन्तु भाषा की एक सहज प्रवृत्ति यह भी है कि वह परिवर्तनशील होती है, यह परिवर्तन ध्वनि तथा रूप दोनों स्तरों पर दृष्टव्य होता है यही कारण है कि हिन्दी के वर्ण जिनके दो-दो रूप मिलते थे (अ, ल, ण ) उनका अब केवल एक रूप ही मानक माना जाता है। इसके साथ ही हिन्दी भाषा की एक और सहज प्रवृत्ति है कि यह अन्य भाषा के शब्दों और उन की उपयुक्त ध्वनियों को सहज रूप से आत्मसात कर लेती है।

ज्यों-ज्यों भारतीय संस्कृति विकसित हो कर अपने अन्दर अन्य संस्कृतियों के उत्कृष्ट तथ्यों का समावेश करती गई त्यों-त्यों हिंदी भाषा भी अन्य संस्कृतियों के शब्दों, ध्वनियों को सहज रूप से आत्मसात करती रही है। यहाँ तक कि जिन विदेशी, तत्सम, तद्भव अथवा स्थानीय शब्दों को हिन्दी भाषा ने आत्मसात किया है उनकी भिन्न ध्वनियों के लिए भी नए ध्वनि चिह्नों का प्रावधान किया गया है, जैसे - ग़ज़ल, कॉलेज, इसके साथ ही जो ध्वनि चिह्न शब्द में जिस स्थान पर आता है वह उसी क्रम में बोली जाता है। (कुछ एक अपवादों को छोड़ कर जैसे ' ि ' की मात्रा वर्ण से पहले लगती है किन्तु उसका उच्चारण बाद में होता है) कोई भी ध्वनि चिह्न मौन नहीं होता। हिन्दी भाषा के सरल ग्राह्य स्वभाव के विषय में स्पष्ट किया गया है -
“इसकी देवनागरी लिपि में उच्चारण के लिए निर्धारित चिह्न 'वर्ण' प्रत्येक स्थिति में निश्चित ध्वनियों की अभिव्यक्ति करते हैं जिनमें किन्हीं परिस्थितियों या वर्ण-संयोजन के कारण किसी प्रकार का ध्वनि परिवर्तन नहीं होता, जबकि पाश्चात्य भाषाओं में वर्ण अन्य वर्णों के सान्निध्य या वर्तनी के कारण अलग-अलग ध्वनियों की अभिव्यक्ति करते हैं, उदाहरणार्थ -अंग्रेज़ी का वर्ण (c) अलग-अलग स्थितियों में अलग-अलग ध्वनियों को संप्रेषित करता है। देवनागरी लिपि में प्रत्येक ध्वनि के लिए वागेंद्रियों से उत्पत्ति स्थल का निर्धारण, मात्रा चिह्न, संयुक्त वर्ण या सामान ध्वनियों में सूक्ष्म अन्तर वाले वर्ण-चिह्न बड़े वैज्ञानिक ढंग से निर्धारित किये गए हैं। सरल, वैज्ञानिक और ध्वनि-प्रधान इस भाषा को सीखना भी सरल है।" (डॉ. प्रेम लता; हिन्दी भाषा शिक्षण ;६५)

पूरा विश्व जब 'वैश्विक-ग्राम' बन कर 'साइबर-कैफे, 'आई-पैड', या आप के 'कम्प्यूटर स्क्रीन' पर चौपाल की पहचान बनता जा रहा है और हिंदी भाषा मात्र भारत की भाषा न रह कर अपनी विश्व स्तरीय पहचान अंकित करने में तत्पर होती दिखाई पड़ रही है, तब हिन्दी की मानकता का प्रश्न और भी समसामयिक हो जाता है। हिन्दी अब अपनी सार्वभौमिक सत्ता को अर्जित करने के लिए निरंतर अग्रसर हो रही है। यह हमारी राष्ट्रभाषा है और किसी भी देश की राष्ट्रभाषा उस देश का गौरव मानी जाती है साथ ही यह राष्ट्रीय तथा अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर व्यवहार करने, सामाजिक व मानवीय संबंधों को सुदृढ़ करने का प्रमुख साधन है। भारतीय संस्कृति में 'वसुधैव कुटुम्बकं' की उक्ति को चरितार्थ करने के लिए हिन्दी जहाँ विभिन्न संस्कृतियों के उच्च संस्कारों तथा व्यावहारिक शब्दों को सहजता से अपनाती जा रही है वहीँ यह अपने भाषायी स्वरूप को भी परिष्कृत करने में संलग्न है। ऐसे में जब अपने ही देश में हिन्दी के प्रति असम्पृक्तता के भाव देखने को मिलते हैं या फिर भाषा की परिवर्तनशीलता के नाम से वर्तनी के स्तर पर विशेष ध्वनि चिह्नों पर ध्यान न दे कर हिन्दी के मानक स्वरूप को बिगाड़ने के प्रयास किये जाते हैं तो विद्वत-जनों में क्षोभ पैदा होना स्वाभाविक हो जाता है।    

हिन्दी भाषा के पाठ्यक्रम के लिए निर्धारित पुस्तकों में कई बार जब वर्तनी की अशुद्धियों पर अधिक ध्यान न देकर इसे टंकन के माथे मढ़ दिया जाता है तो बहुत खेद होता है। किन्हीं राज्य स्तरीय शिक्षा बोर्ड की पुस्तकों में संयुक्त वर्णों को हिंदी के मानक संयुक्त रूप में न लिख कर अलग-अलग लिखने का प्रचलन प्रायः देखने में आता है, जैसे -
'द् वारा,  'प् र सिद् ध'  क्रमशः ‘द्वारा’ और ‘प्रसिद्ध’ के लिए लिखे जाते हैं।
सबसे ज़्यादा दुःख तो तब होता है जब हिन्दी भाषा की परिवर्तनशीलाता के नाम पर, भाषा मनीषियों के कड़े अनुसंधान के फलस्वरूप विदेशी, तत्सम व स्थानीय शब्दों की सही ध्वनियों के उच्चारण हेतु गढ़े गए मानक ध्वनि चिह्नों को यह कह कर नकार दिया जाता है कि हिन्दी में बिंदी का प्रचलन अब कम होता जा रहा है, बिन्दी की अशुद्धि को ग़लती न माना जाए। ऐसे में मानकता का प्रश्न यूँ ही निरर्थक-सा हो जाता है। पुस्तकें, समाचारपत्र या पत्रिकाएँ भाषा के स्वरूप की सही पहचान करवाती हैं, लेकिन आजकल इनमें भी भाषा अभिव्यक्ति उतनी विश्वसनीय नहीं कही जा सकती। हस्त लिखित अभिव्यक्ति का तो कहना ही क्या!

जीवन की भागम-दौड़ की स्पष्ट झलक हिन्दी के हस्त लेखन पर है। किसी भी हिन्दी भाषी प्रदेश के विद्यालय या विश्व विद्यालय के पर्चे उठा कर देख लीजिए, प्रायः उनमें ९०% हस्त लेखन ऐसा होगा जिसमें शब्दों पर शिरोरेखा डालने की ज़हमत ही नहीं उठाई जाती। उसे पर्चे लम्बे होने की दुहाई दे कर नज़रअंदाज़ कर देना इस प्रवृत्ति को निरंतर बढ़ावा दे रहा है।
यह हिन्दी की मानकता के साथ कैसा खिलवाड़ है या कोई भाषा के स्तर पर सांस्कृतिक साज़िश? भाषा को संस्कृति की वाहक माना जाता है। हिन्दी की देवनागरी लिपि एक संयुक्त लिपि है जो अक्षरों को एक शिरोरेखा से जोड़ कर सार्थक शब्दों में ढालती है, ठीक वैसे ही जैसे एक परिवार के सदस्य एक दूसरे से जुड़ कर अधिक सार्थक भूमिका निभा सकते हैं। फिर संयुक्त वर्णों को अलग-अलग दर्शाने में क्या प्रयोजन हो सकता है? या फिर विदेशी आगम शब्दों की सही पहचान को बरक़रार न रखने में कौन-सा हेतु सिद्ध हो जाता है?!
हिन्दी की सहजता और लचीलेपन की प्रवृत्ति इसकी विशेष पहचान है, जिसके द्वारा यह विदेशी आगम शब्दों को इतने स्वाभाविक रूप से आत्मसात कर लेती है कि मानो वे शब्द उसके अपने ही हों, चाहे उसके लिए चाहे नए ध्वनि चिह्न ही क्यों न खोजने पड़ें, इसे शब्द ध्वनियों के रूप बिगाड़ने के लचीलेपन से किसी प्रकार न्यायोचित नहीं ठहराया जा सकता। यदि हमें हिन्दी का विस्तार विश्वपटल पर रेखांकित करना है तो इसकी भाषाई व सांस्कृतिक उत्कृष्टता को आत्मसात करने की प्रवृत्ति को भी विश्व पटल तक विस्तृत करने के प्रयास इसकी मानकता को सुनिश्चित करते हुए करने होंगे।

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