भक्ति गीत:
संजीव
*
हे प्रभु दीनानाथ दयानिधि
कृपा करो, हर विघ्न हमारे.
जब-जब पथ में छायें अँधेरे
तब-तब आशा दीप जला रे….
*
हममें तुम हो, तुममें हम हों
अधर हँसें, नैन ना नम हों.
पीर अधीर करे जब देवा!
धीरज-संबल कहबी न कम हों.
आपद-विपदा, संकट में प्रभु!
दे विवेक जो हमें उबारे….
*
अहंकार तज सकें ज्ञान का
हो निशांत, उद्गम विहान का.
हम बेपर पर दिए तुम्हीं ने
साहस दो हरि! नव उड़ान का.
सत-शिव-सुंदर राह दिखाकर
सत-चित-आनंद दर्श दिखा रे ….
*
शब्द ब्रम्ह आराध्य हमारा
अक्षर, क्षर का बना सहारा.
चित्र गुप्त है जो अविनाशी
उसने हो साकार निहारा.
गुप्त चित्र तव अगम, गम्य हो
हो प्रतीत जो जन्म सँवारे ….
*
संजीव
*
हे प्रभु दीनानाथ दयानिधि
कृपा करो, हर विघ्न हमारे.
जब-जब पथ में छायें अँधेरे
तब-तब आशा दीप जला रे….
*
हममें तुम हो, तुममें हम हों
अधर हँसें, नैन ना नम हों.
पीर अधीर करे जब देवा!
धीरज-संबल कहबी न कम हों.
आपद-विपदा, संकट में प्रभु!
दे विवेक जो हमें उबारे….
*
अहंकार तज सकें ज्ञान का
हो निशांत, उद्गम विहान का.
हम बेपर पर दिए तुम्हीं ने
साहस दो हरि! नव उड़ान का.
सत-शिव-सुंदर राह दिखाकर
सत-चित-आनंद दर्श दिखा रे ….
*
शब्द ब्रम्ह आराध्य हमारा
अक्षर, क्षर का बना सहारा.
चित्र गुप्त है जो अविनाशी
उसने हो साकार निहारा.
गुप्त चित्र तव अगम, गम्य हो
हो प्रतीत जो जन्म सँवारे ….
*
6 टिप्पणियां:
wah sir ji kay rachna likhi hai aapne. bahut hi achchhi evam ati sunder hai.
pranavabharti@gmail.com द्वारा yahoogroups.com
आ. सलिल जी !
भक्ति-गीत के लिए अनन्य साधुवाद!
कुछ बोल स्मृति-पटल से झांक रहे हैं -----
'दीनानाथ-दीनानाथ ,तुम अनाथों के हो नाथ !'
शीघ्र-लाभ हेतु ईश्वर से प्रार्थना
सादर
प्रणव
sn Sharma ahutee@gmail.com द्वारा yahoogroups.com
आ० आचार्य जी ,
इस भक्ति गीत के लिए नमन स्वीकारें ।
विपत्ति में प्रभु का सहारा ही एकमात्र विकल्प है ।
कमल
Ram Gautam
आ. आचार्य संजीव 'सलिल' जी,
आप अपनी इस अस्वस्थ अवस्था में भी समय निकाल कर लिख रहे हैं,
आपका ये भक्ति- गीत अच्छा लगा | आपके शीघ्र स्वस्थ होने की
कामनाओं के साथ-
सादर- गौतम
- manjumahimab8@gmail.com
परम पूज्य चित्र गुप्त जी को समर्पित यह भक्ति गीत बहुत ही भावपूर्ण है। अभिननंदन स्वीकार करें।
मंजु महिमा
मंजु जी
सकल दैवी शक्तियां अमूर्त, आकारहीन अर्थात निराकारी हैं. आकार से ही चित्र बनता है. निराकार का चित्र नहीं है अर्थात गुप्त है. कायस्थ मूलतः निर्गुण-निराकार परात्परब्रम्ह के उपासक हैं जो विविध देश-काल-परिस्थितियों में नाना रूप धारणकर अवतार लेते हैं. इसलिए कायस्थ हर देवी-देवता को परात्पर परब्रम्ह से उद्भूत मानकर उनका उपासक होता है. उसे किसी से परहेज नहीं। यहाँ तक कि मुस्लिम और ईसाई भी उसे अपने लगते हैं. इसी कारण उसे आधा मुसलमान कहा गया. लोकोक्ति बनी 'कायथ घर भोजन करे बची न एकहु जात'. जिस तरह गंगा में स्नान के बाद क्सिस नदी में स्नान कि आवश्यकता नहीं उसी प्रकार कायस्थ के घर में भोजन किया तो और कहीं करना शेष न रहा. कायस्थ स्वयं अपनी उदात्त विरासत भूल गए. मैं इसी रूप का उपासक हूँ. कंकर कंकर में शंकर की लोकोक्ति तभी सत्य हो सकती है जब शंकर निराकार अर्थात चित्र गुप्त , उनका कोई एक आकार न हो और हर आकार उन्हीं का हो. सादर
Sanjiv verma 'Salil'
salil.sanjiv@gmail.com
http://divyanarmada.blogspot.in
facebook: sahiyta salila / sanjiv verma 'salil'
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