एक गीत-
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मिलन के पावन क्षणों में ...
आनंद पाठक
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चार दिन की ज़िन्दगी से चार पल हमने चुराये
मिलन के पावन क्षणों में ,दूर क्यों गुमसुम खड़ी हो ?
जानता हूँ इस डगर पर हैं लगे प्रतिबन्ध सारे
और मर्यादा खड़ी ले सामने अनुबन्ध सारे
मन की जब अन्तर्व्यथा नयनों से बहने लग गईं
तो समझ लो टूटने को हैं विकल सौगन्द सारे
हो नहीं पाया अभी तक प्रेम का मंगलाचरण तो
इस जनम के बाद भी अगले जनम की तुम कड़ी हो
मिलन के पावन क्षणों में...
आ गई तुम देहरी पर कौन सा विश्वास लेकर ?
कल्पनाओं में सजा किस रूप का आभास लेकर ?
प्रेम शाश्वत सत्य है ,मिथ्या नहीं ,शापित नहीं है
गहन चिन्तन मनन करते आ गई चिर प्यास लेकर
केश बिखरे, नैन बोझिल कह रहीं अपनी ज़ुबानी
प्रेम के इस द्वन्द में तुम स्वयं से कितनी लड़ी हो
मिलन के पावन क्षणॊं में...
हर ज़माने में लिखी जाती रहीं कितनी कथायें
कुछ प्रणय के पृष्ट थे तो कुछ में लिक्खी थीं व्यथायें
कौन लौटा राह से, इस राह पर जो चल चुका है
जब तलक है शेष आशा ,मिलन की संभावनायें
यह कभी संभव नहीं कि चाँद रूठे चाँदनी से
तुम हृदय की मुद्रिका में एक हीरे सी जड़ी हो
मिलन के पावन क्षणों में ...
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